देश के बाजार में विदेशी मिठाईयों को बनाने वाली वालमार्ट, मैकडोनाल्ड, पिज्जा हट जैसे दैत्यों को तमाम सुविधाओं के साथ कारोबार करने की दावत और हमारी देसी मिठाईयों, समोसे पर लक्जरी टैक्स! वह भी उस राज्य में जहां के राजनेताओं के साथ नारों में समोसा शब्द दशकों से जुड़ा है. ठेठ गंवई अंदाज को अपनी राजनीतिक शैली बनाने वाले बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव की सत्ता में वापसी हुई है. तब भी और अब भी, उनके समर्थक नारे लगाते हैं- जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू. यह विडंबना ही है कि देशज व्यंजनों पर उन्हीं की कुदृष्टि पड़ी है. भारत निश्चित रूप से दो भाग में बंटा है और एक सबसे बड़ा हिस्सा ग्रामीण भारत का है जो बेहद अभाव, कष्टों के बावजूद अपने पारंपरिक व्यंजनों, आहार प्रणाली के सहारे खुश रहता है.
उसकी क्रय सीमा सीमित है लेकिन वैविध्य का भंडार है. इस ग्रामीण भारत की चिंता बिहार में ही सबसे ज्यादा की गई है और हाल में संपन्न हुए चुनाव में नई आॢथक नीति व उदारीकरण सहित कार्पोरेट जगत के पैरोकारों को मतदाताओं ने परास्त कर अपने जैसे दिखने वाले देसी मिजाज के लोगों को पुन: शासन चलाने का दायित्व सौंपा. देश में सभी दल भारतीय परंपराओं की वकालत करते हैं, एक दल तो कुछ ज्यादा ही तरजीह देता है, लेकिन दिल्ली के घंटाघर के पास सुप्रसिद्ध सौ साल पुरानी मिठाई की दुकान बंद हो जाती है. ग्रामीण भारत की बेहतरी और उनकी परंपराओं की दुहाई में जुबानी जमाखर्च करने वाले राजनीतिक दल क्या सत्ता में आने के बाद देश के करोड़ों छोटे हलवाईयों, मिठाई वालों को बचाने का उपक्रम नहीं कर सकती? उत्तर सीधा न मिलेगा. राजकोष को भरने की होड़ में नए-नए रास्ते ढूंढे जा रहे हैं. मिठाईयों, समोसे, निमकी, कचौड़ी, चनाचूर गरम, भुजिया, दालमोठ, तले हुए आलू के चिप्स, नमकीन मूंगफली को लक्जरी आयटम घोषित कर दिया गया और इन पर 13.5 प्रतिशत टैक्स लेने का निर्णय ले लिया गया है. मतलब साफ है- इन पारंपरिक मिठाईयों-नाश्तों को आम-आदमी की पहुंच से बाहर करना और छोटे कारीगरों को बेरोजगार करना. इसका फायदा मैक-डोनाल्ड, पिज्जा हट, केएफसी आदि को देना लगता है, जिन्हें मान-मनुहार कर देश में लाया गया है ताकि कारोबार कर मुनाफा कमा सकें. क्या अब बिहार में अगला निशाना लिट्टी-चोखा भी होगा? इनकी भी दुकानें जहां-तहां मिल जाती हैं और घरों में भी यह नियमित रूप से बनाई जाती हैं. भारत वैविध्यपूर्ण देश है और उतनी विविधता हमारे खानपान में है. हर मोड़ पर भुजिया, समोसा और मिठाई की दुकानों से लोगों का पेट भरता है और करोड़ों लोग अपना घर-बार चलाते हैं.
यह न सिर्फ परंपराओं, खान-पान की संस्कृति पर प्रहार है, बल्कि विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के मकसद से किया गया उपक्रम प्रतीत होता है. देसी और गंवई जनता का प्रतिनिधि बनकर ग्रामीण भारत पर अनावश्यक भार डालना किसी की दृष्टि उचित नहीं कहा जा सकता. भारतीय परम्पराओं को बचाने की कवायद में हमारे खान-पान की शैलियाँ भी शामिल हैं जिन्हें सुरक्षित रखना जरूरी है, लेकिन दुर्भाग्य से ठीक उल्टा काम किया जा रहा है.
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