हर साल की तरह रस्मी आयोजनों के साथ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस गुजर गया और तमाम सवाल जहां के तहां पड़े रह गए. मई दिवस की तरह संघर्ष की कोख से जन्मे इस दिवस को महिलाओं के साथ गैर-बराबरी और प्रताडऩा के खिलाफ जागरण और संघर्ष का हथियार बनाया गया था. अब यह दिवस बाजार के हवाले होता जा रहा है. गहनों-कपड़ों पर भारी छूट सहित सौन्दर्य उत्पादों पर शानदार ऑफर देकर बाजार अपना हिस्सा मांगता है. किन्हीं उपलब्धियों को लेकर कतिपय महिलाओं का सम्मान किया जाता है तो संसद से लेकर शहरों के सभागृहों तक मातृ-शक्ति का गुणगान किया जाता है.
इस साल भी बातें अलग नहीं थीं. 1908 में अमेरिका के कपड़ा कारखाने की हड़ताल से लेकर प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर रोटी और शांति की मांग को लेकर रूसी महिलाओं के जुलूस की एेतिहासिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर महिला दिवस स्त्रियों की अस्मिता की लड़ाई का प्रतीक है और मातृशक्ति से इंसानी वजूद हासिल करने का संघर्ष है. भारतीय संदर्भों में यह दिवस बहुत ही औपचारिक है. अभी भी संसद में महिला आरक्षण बिल लटका हुआ है और इस अध्यादेश में पेंच फंसाने वाले पुरूष प्रभुत्व समाज के प्रतिनिधि ही हैं जो स्त्री के दोयम दर्जे पर रखने के हामी हैं या उन पर बलात्कार जैसी भयावह प्रताडऩा के लिए दोषियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए लड़कियों को ही सुधर जाने की हिदायत देते हैं. कानून से लेकर समूची व्यवस्था इस कदर सड़ चुकी है कि उत्पीडऩ की शिकार महिला थक-हारकर जुल्म से लड़ते हुए खुद को मिटा डालने पर विवश हो जाती हैं.
मध्यकालीन मूल्यों से मस्तिष्क इस तरह जकड़ा हुआ है कि महिलाओं को पुष्ट-बलिष्ठ बनाने की जगह जीरो फिगर की ओर प्रेरित कर कुपोषित-कमजोर बनाए रखने की कोशिश की जाती है ताकि उस पर अधिकार कायम रहे. महिलाओं के उत्पीडऩ की स्थिति यह है कि यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 77 फीसदी किशोरियां यौन हिंसा का शिकार बन जाती हैं तो दूसरी ओर इसी उम्र समूह की आधी से ज्यादा लड़कियां अपने माता-पिता के हाथों शारीरिक प्रताडऩा झेलती हैं. भारत में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण को विदेश से भी आने वाली महिलाओं ने महसूस किया है, भारत को शानदार देश लेकिन महिलाओं के लिए बेहद असुरक्षित करार दिया है. महिला दिवस अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया है, लेकिन समूचे विश्व में लैंगिक समानता का प्रश्न ठिठका हुआ है.
भारत में महिलाओं के प्रति कितनी गंभीरता है इस बात का अंदाजा प्रधानमंत्री के भाषण से भी लगाया जा सकता है जो उनके सशक्तिकरण, नेतृत्व क्षमता सहित मल्टी टास्ंिकग प्रतिभा का जिक्र करते हैं, लेकिन संसद और विधानसभाओं में 33 फीसदी आरक्षण के मुद्दे पर मौन साध लेते हैं. महिला दिवस पर आज की सबसे भीषण समस्या यौन ङ्क्षहसा है. इसके खिलाफ पहलकदमी की जा सकती थी, लेकिन यह प्रमुख चर्चा का विषय भी नहीं बन सकी. महिलाओं को सम्मान, स्तुतिगान की जरूरत नहीं है बल्कि उन्हें असमानता और प्रताडऩा से मुक्ति की दिशा में ठोस समाधान चाहिये. आशावान होने की जरूरत है कि एक दिन यह लक्ष्य हासिल करने निर्णायक संघर्ष होगा और विवशताएं खत्म होंगी.
इस साल भी बातें अलग नहीं थीं. 1908 में अमेरिका के कपड़ा कारखाने की हड़ताल से लेकर प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर रोटी और शांति की मांग को लेकर रूसी महिलाओं के जुलूस की एेतिहासिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर महिला दिवस स्त्रियों की अस्मिता की लड़ाई का प्रतीक है और मातृशक्ति से इंसानी वजूद हासिल करने का संघर्ष है. भारतीय संदर्भों में यह दिवस बहुत ही औपचारिक है. अभी भी संसद में महिला आरक्षण बिल लटका हुआ है और इस अध्यादेश में पेंच फंसाने वाले पुरूष प्रभुत्व समाज के प्रतिनिधि ही हैं जो स्त्री के दोयम दर्जे पर रखने के हामी हैं या उन पर बलात्कार जैसी भयावह प्रताडऩा के लिए दोषियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए लड़कियों को ही सुधर जाने की हिदायत देते हैं. कानून से लेकर समूची व्यवस्था इस कदर सड़ चुकी है कि उत्पीडऩ की शिकार महिला थक-हारकर जुल्म से लड़ते हुए खुद को मिटा डालने पर विवश हो जाती हैं.
मध्यकालीन मूल्यों से मस्तिष्क इस तरह जकड़ा हुआ है कि महिलाओं को पुष्ट-बलिष्ठ बनाने की जगह जीरो फिगर की ओर प्रेरित कर कुपोषित-कमजोर बनाए रखने की कोशिश की जाती है ताकि उस पर अधिकार कायम रहे. महिलाओं के उत्पीडऩ की स्थिति यह है कि यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 77 फीसदी किशोरियां यौन हिंसा का शिकार बन जाती हैं तो दूसरी ओर इसी उम्र समूह की आधी से ज्यादा लड़कियां अपने माता-पिता के हाथों शारीरिक प्रताडऩा झेलती हैं. भारत में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण को विदेश से भी आने वाली महिलाओं ने महसूस किया है, भारत को शानदार देश लेकिन महिलाओं के लिए बेहद असुरक्षित करार दिया है. महिला दिवस अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया है, लेकिन समूचे विश्व में लैंगिक समानता का प्रश्न ठिठका हुआ है.
भारत में महिलाओं के प्रति कितनी गंभीरता है इस बात का अंदाजा प्रधानमंत्री के भाषण से भी लगाया जा सकता है जो उनके सशक्तिकरण, नेतृत्व क्षमता सहित मल्टी टास्ंिकग प्रतिभा का जिक्र करते हैं, लेकिन संसद और विधानसभाओं में 33 फीसदी आरक्षण के मुद्दे पर मौन साध लेते हैं. महिला दिवस पर आज की सबसे भीषण समस्या यौन ङ्क्षहसा है. इसके खिलाफ पहलकदमी की जा सकती थी, लेकिन यह प्रमुख चर्चा का विषय भी नहीं बन सकी. महिलाओं को सम्मान, स्तुतिगान की जरूरत नहीं है बल्कि उन्हें असमानता और प्रताडऩा से मुक्ति की दिशा में ठोस समाधान चाहिये. आशावान होने की जरूरत है कि एक दिन यह लक्ष्य हासिल करने निर्णायक संघर्ष होगा और विवशताएं खत्म होंगी.
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