बैकिंग का अर्थ धनराशि जुटाना और ऋण देना होता है. जब बैंक पूरी तरह से डूब जाने के लायक ऋण का जखीरा खड़ा कर लें तो हालात बेकाबू हो जाते हैं. सरकारी नियंत्रण वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों का यही हाल है. शेयर बाजार में निवेशक नाउम्मीद हो गए हंै. 1998-2002 के संकट के दौर में अलग से रकम डालने, कम ब्याज दरों की मदद से बैकों को उबारा गया था. अब स्थिति एेसी नहीं है. उस समय राष्ट्रीयकृत बैकों ने एक दूसरे को मदद की थी और निजी क्षेत्र के बैंक चुनौती भी नहीं थे. इसके अतिरिक्त लाख टके की बात यह भी है कि नई आॢथक नीति और मुक्त बाजार की व्यवस्था इस मुकाम पर है कि सार्वजनिक क्षेत्र को प्रोत्साहन देने की गुंजाइश ही नहीं बची है. सरकार का वास्तविक नियंत्रण अब बाजार की ताकतों के हाथ में है और सभी जरूरी-गैर जरूरी क्षेत्रों के विनिवेशीकरण और निजीकरण की प्रक्रिया निर्णायक मोड़ पर है. हाल में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन वित्त वर्षों के दौरान 29 राष्ट्रीयकृत बैंकों ने 1.14 लाख करोड़ रुपये के कर्ज को न वसूल हो सकने वाले डूबत खाते में डाल दिया. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 7.32 लाख करोड़ रुपये का ऋण आश्चर्यजनक रूप से सिर्फ दस कंपनियों को दिए गए थे. ये रिपोर्टें ऐसे वक्त में आ रही हैं, जब आर्थिक मंदी को देखते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली वित्तीय सख्ती बरतने की बात कर रहे हैं.
पिछले दो वर्षों के दौरान सरकार ने स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती की है. कुछ प्रमुख अर्थशास्त्री भी शोर मचाते रहे हैं कि ये सब्सिडियां अनावश्यक हैं. बार-बार यह बताया जाता है कि देश को विकसित बनाना हैं, तो एेसी सब्सिडी खत्म करनी होगी. जब गरीबों को वित्तीय मदद दी जाती है, तो इसे सब्सिडी कहा जाता है, जिसे खलनायक का दर्जा दे दिया गया है. पर जब अमीरों को बड़े पैमाने पर खैरात, कौडिय़ों के मोल जमीन, प्राकृतिक संपदा और करों में छूट जैसी सौगातें दी जाती हैं, तो इन्हें विकास के लिए दिया जाने वाला प्रोत्साहन कहा जाता है. देश में रोजगार सृजन निराशाजनक हालात में है, औद्योगिक विकास धीमा है, निर्माण क्षेत्र नकारात्मक स्थिति में है और निर्यात भी गति नहीं पकड़ रहा. अगर कॉरपोरेट जगत को दी जाने वाली इन रियायतों का फायदा नहीं हो रहा, तो उन्हें दिया गया पैसा आखिर कहां चला गया? बैंकों की वसूली के मापदंड भी अलग-अलग हैं.
अगर एक आम आदमी बैंक लोन का भुगतान नहीं कर पाता, तो उसे डिफॉल्टर कहा जाता है, जिसकी एवज में बैंक उसकी संपत्ति जब्त कर सकता है या फिर जबरन वसूली भी कर सकता है. जबकि, अमीर और कॉरपोरेट कंपनियां बैंकों को भुगतान नहीं करती, तो इसे नॉन परफॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) कहा जाता है. देश की अर्थव्यवस्था को लम्बे समय तक बचाने के लिए जरूरी है कि अभी तक जारी रवैये में बदलाव हो. रिजर्व बैंक के गवर्नर सहित प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री भी बैंकों की दुर्दशा पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं, लेकिन सवाल नीतियों, राहतों और सब्सिडियों को तर्कसंगत बनाने का है ताकि देश का हर आदमी लाभान्वित हो सके.
पिछले दो वर्षों के दौरान सरकार ने स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती की है. कुछ प्रमुख अर्थशास्त्री भी शोर मचाते रहे हैं कि ये सब्सिडियां अनावश्यक हैं. बार-बार यह बताया जाता है कि देश को विकसित बनाना हैं, तो एेसी सब्सिडी खत्म करनी होगी. जब गरीबों को वित्तीय मदद दी जाती है, तो इसे सब्सिडी कहा जाता है, जिसे खलनायक का दर्जा दे दिया गया है. पर जब अमीरों को बड़े पैमाने पर खैरात, कौडिय़ों के मोल जमीन, प्राकृतिक संपदा और करों में छूट जैसी सौगातें दी जाती हैं, तो इन्हें विकास के लिए दिया जाने वाला प्रोत्साहन कहा जाता है. देश में रोजगार सृजन निराशाजनक हालात में है, औद्योगिक विकास धीमा है, निर्माण क्षेत्र नकारात्मक स्थिति में है और निर्यात भी गति नहीं पकड़ रहा. अगर कॉरपोरेट जगत को दी जाने वाली इन रियायतों का फायदा नहीं हो रहा, तो उन्हें दिया गया पैसा आखिर कहां चला गया? बैंकों की वसूली के मापदंड भी अलग-अलग हैं.
अगर एक आम आदमी बैंक लोन का भुगतान नहीं कर पाता, तो उसे डिफॉल्टर कहा जाता है, जिसकी एवज में बैंक उसकी संपत्ति जब्त कर सकता है या फिर जबरन वसूली भी कर सकता है. जबकि, अमीर और कॉरपोरेट कंपनियां बैंकों को भुगतान नहीं करती, तो इसे नॉन परफॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) कहा जाता है. देश की अर्थव्यवस्था को लम्बे समय तक बचाने के लिए जरूरी है कि अभी तक जारी रवैये में बदलाव हो. रिजर्व बैंक के गवर्नर सहित प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री भी बैंकों की दुर्दशा पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं, लेकिन सवाल नीतियों, राहतों और सब्सिडियों को तर्कसंगत बनाने का है ताकि देश का हर आदमी लाभान्वित हो सके.
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