छत्तीसगढ़ में रसूखदार व्यक्ति अभिषेक मिश्रा की हत्या की गुत्थी पुलिस ने 44 दिन बाद सुलझा ही ली और आरोपियों के रूप में पकड़े गए लोगों में से सभी पीडि़त और भयादोहन का शिकार निकले. निजी कालेज समूहों में ऊंचा ओहदा रखने वाले शंकराचार्य के डायरेक्टर की हत्या बहुचॢचत फिल्म दृश्यम के तरीके से की गई. हत्याकांड की चर्चा में बहुत से विचारणीय मुद्दे सामने आते हैं, जो समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र सहित पुलिस-तंत्र पर सवाल-दर-सवाल दागते नजर आते हैं. लंबे समय से ‘आपत्तिजनक जरूरतों’ के लिए लगातार भयावह प्रताडऩा के शिकार परिवार आखिर क्यों अपनी फरियाद लेकर पुलिस के पास नहीं गया और अपराध का प्रतिकार अपराध के जरिए करने विवश हुए? आमतौर पर पुलिस-तंत्र अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाने और आम-नागरिकों को भयमुक्त जीवन देने के लिए होता है. लेकिन धरातल पर स्थिति उल्टी है.
अगर ये कहा जाए कि अपराधियों को पुलिस का खौफ नहीं, बल्कि आम-आदमी के मन-मानस में पुलिस के प्रति डर की भावना है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. कतिपय पुलिस के जवानों, अधिकारियों ने अपनी हरकतों से एेसे वातावरण को बना दिया है, जहां अपराध और अपराधियों का संरक्षण होता है. समाज का प्रभुत्वशाली तबका मनमाफिक प्राथमिकी दर्ज कराने और पीडि़तों को थाने के स्तर पर न्याय से वंचित करने में सफल हो जाता है. आरोपियों के पक्ष में थाने में भीड़ का दबाव बनाना और समाज और राजनीति के क्षेत्रों के लोगों का किसी न किसी के पक्ष में सक्रिय होना रोजमर्रा की बात हो गई है. विवेचना में त्रुटि प्रभुत्वशाली वर्ग के आरोपियों में पक्ष में होती है वे और न्यायालय से बेदाग बरी हो जाते हैं. कुल मिलाकर पुलिस और समाज के बीच अविश्वास की खाई निरंतर गहरा रही है. यह बात दहला देने वाली है कि अभिषेक मिश्रा हत्याकांड का आरोपी कहता है, ऊंची पहुंच वाले व्यक्ति की पुलिस के पास शिकायत उल्टी पड़ सकती है और उनकी हत्या कराई जा सकती थी.
जनता और पुलिस के बीच विश्वास कायम रखने संवाद स्थापित करने पुलिस मित्र योजना, ग्राम रक्षा समितियां, शांति समिति जैसे संगठनों का फिलहाल अस्तित्व ही नहीं है. जानकारों के मुताबिक इस तरह की कवायदें सामानान्तर पुलिस व्यवस्था बन आरोपियों-पीडि़तों के दोहन का जरिया बन गई थी. बहुचॢचत अभिषेक मिश्रा हत्याकांड ने तमाम सवालों पर नए सिरे से बहस की जरूरत को रेखांकित किया है कि आखिर कब तक लोग अपनी सुरक्षा के लिए बनाए गए तंत्र से ही भयभीत रहेंगे. पूरे देश में कमोबेश हालात यही है और सवालों के जवाब ढूंढने ही पड़ेंगे. प्रधानमंत्री की मौजूदगी में देश भर के पुलिस प्रमुखों ने मंथन किया, वहां भी पुलिस की छवि को लेकर चिंता जाहिर की गई. एक सभ्य समाज के लिए जरूरी है कि अपराध का प्रतिकार अपराध न हो और पीडि़तों को न्याय मिले, यह सुनिश्चित हो.
अगर ये कहा जाए कि अपराधियों को पुलिस का खौफ नहीं, बल्कि आम-आदमी के मन-मानस में पुलिस के प्रति डर की भावना है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. कतिपय पुलिस के जवानों, अधिकारियों ने अपनी हरकतों से एेसे वातावरण को बना दिया है, जहां अपराध और अपराधियों का संरक्षण होता है. समाज का प्रभुत्वशाली तबका मनमाफिक प्राथमिकी दर्ज कराने और पीडि़तों को थाने के स्तर पर न्याय से वंचित करने में सफल हो जाता है. आरोपियों के पक्ष में थाने में भीड़ का दबाव बनाना और समाज और राजनीति के क्षेत्रों के लोगों का किसी न किसी के पक्ष में सक्रिय होना रोजमर्रा की बात हो गई है. विवेचना में त्रुटि प्रभुत्वशाली वर्ग के आरोपियों में पक्ष में होती है वे और न्यायालय से बेदाग बरी हो जाते हैं. कुल मिलाकर पुलिस और समाज के बीच अविश्वास की खाई निरंतर गहरा रही है. यह बात दहला देने वाली है कि अभिषेक मिश्रा हत्याकांड का आरोपी कहता है, ऊंची पहुंच वाले व्यक्ति की पुलिस के पास शिकायत उल्टी पड़ सकती है और उनकी हत्या कराई जा सकती थी.
जनता और पुलिस के बीच विश्वास कायम रखने संवाद स्थापित करने पुलिस मित्र योजना, ग्राम रक्षा समितियां, शांति समिति जैसे संगठनों का फिलहाल अस्तित्व ही नहीं है. जानकारों के मुताबिक इस तरह की कवायदें सामानान्तर पुलिस व्यवस्था बन आरोपियों-पीडि़तों के दोहन का जरिया बन गई थी. बहुचॢचत अभिषेक मिश्रा हत्याकांड ने तमाम सवालों पर नए सिरे से बहस की जरूरत को रेखांकित किया है कि आखिर कब तक लोग अपनी सुरक्षा के लिए बनाए गए तंत्र से ही भयभीत रहेंगे. पूरे देश में कमोबेश हालात यही है और सवालों के जवाब ढूंढने ही पड़ेंगे. प्रधानमंत्री की मौजूदगी में देश भर के पुलिस प्रमुखों ने मंथन किया, वहां भी पुलिस की छवि को लेकर चिंता जाहिर की गई. एक सभ्य समाज के लिए जरूरी है कि अपराध का प्रतिकार अपराध न हो और पीडि़तों को न्याय मिले, यह सुनिश्चित हो.
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