खबरें आ रही हैं कि केंद्र सरकार भविष्य निधि और राष्ट्रीय बचत पत्र पर ब्याज दरों को घटाने की तैयारी में है. यह खबर पुष्ट भले न हो, लेकिन नई आर्थिक नीति के जानकार इस तथ्य से बखूबी परिचित हैं कि मौजूदा आॢथक माडल के विकास का एक आयाम जनता की आमदनी पर नियंत्रण करना भी है. अभी तक मिल रही सुविधाओं में कटौती पूंजी के केन्द्रीकरण के लिए जरूरी है. भविष्य निधि, राष्ट्रीय बचत पत्र सहित तमाम छोटी बचत योजनाओं का ताल्लुक सीधे देश के करोड़ों लोगों से होता है. अर्थशास्त्र की भाषा बहुत कठिन होती है, उसे समझना सबके लिए सहज नहीं है, लेकिन एक बात बहुत साधारण सी लेकिन महत्वपूर्ण है कि जो विद्वता और योजनाएं देश की जनता की कठिनाइयां बढ़ाए, उनकी आमदनी घटाए- वह किस काम का? देश में बहुत बड़ी आबादी गरीब और निम्न मध्य वर्ग से ताल्लुक रखती है. इनमें से भी एक छोटा समूह ही बचत योजनाओं के जरिए अपने आने वाले वर्षों की जरूरतों के ताने-बाने बुनता है. यदि अर्थशास्त्र के सिद्धांत जनता की बचत पर कैंची चलाने की कोशिश करता है तो लोक-कल्याण की भावना का विलुप्तीकरण हो जाता है.
इस देश में सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं अत्यंत प्रारंभिक अवस्था में हैं, किसी निराश्रित या जीवन के चौथे चरण में पहुंचे लोगो को सरकार चार दिन की भी सुरक्षा देने में असमर्थ है, इस दशा में छोटी बचत योजनाओं को हतोत्साहित करने का औचित्य समझ से परे है. बाजार के नियामक शक्तियों का अधिपत्य सरकार पर है और इनका दबाव उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा देना है. वित्त मंत्रालय खास प्रोडक्ट के लिए खास रेट तय करने की योजनाएं बना रहा है, ताकि बाजार सरकार और सक्षम लोगों को लाभ मिल सके. गौरतलब है कि भारत में बहुसंख्यक लोग अभी भी उपभोक्ता नहीं हैं और उनकी क्रय क्षमता न के बराबर है. वे जरूरी रोजमर्रा की चीजों से इसलिये वंचित रहते हैं कि उन्हें खरीद भी नहीं पाते. दालों सहित तेल, सब्जी की मंहगाई बढऩे पर उसे अपनी थाली में शामिल करना छोड़ देते हैं.
एेसी स्थिति में भारत को चीन के बाद सबसे बड़ा बाजार मानने में हर्ज नहीं है, तब भी लोगों को आॢथक रूप से मजबूत बनाएं बगैर उपभोक्ता नहीं बनाया जा सकता. भारत में कृषि हमेशा घाटे का सौदा रही है और कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या करते हैं. देश की ग्रामीण आबादी सिर्फ मनरेगा और कृषि मजदूरी से जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी जुगाड़ पाती है. लगातार लोग अन्य राज्यों में विषम परिस्थितियों के बावजूद रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं. नौजवानों को काम की तलाश बनी हुई है. स्वास्थ्य सुविधाएं सबको सुलभ नहीं है. इन सब स्थितियों के मद्देनजर कर्मचारियों की भविष्य निधि और गाढ़ी कमाई के पैसे से की जा रही छोटी बचत योजनाओं के ब्याज पर कटौती की योजनाएं बनाना किसी भी दशा में उचित नहीं ठहराई जा सकती. सरकारों को बाजार का विकास करना है तो देश के आम लोगों को आॢथक रूप से सशक्त करना होगा और सर्व-समावेशी योजनाओं के निर्माण पर ध्यान देना पड़ेगा.
इस देश में सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं अत्यंत प्रारंभिक अवस्था में हैं, किसी निराश्रित या जीवन के चौथे चरण में पहुंचे लोगो को सरकार चार दिन की भी सुरक्षा देने में असमर्थ है, इस दशा में छोटी बचत योजनाओं को हतोत्साहित करने का औचित्य समझ से परे है. बाजार के नियामक शक्तियों का अधिपत्य सरकार पर है और इनका दबाव उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा देना है. वित्त मंत्रालय खास प्रोडक्ट के लिए खास रेट तय करने की योजनाएं बना रहा है, ताकि बाजार सरकार और सक्षम लोगों को लाभ मिल सके. गौरतलब है कि भारत में बहुसंख्यक लोग अभी भी उपभोक्ता नहीं हैं और उनकी क्रय क्षमता न के बराबर है. वे जरूरी रोजमर्रा की चीजों से इसलिये वंचित रहते हैं कि उन्हें खरीद भी नहीं पाते. दालों सहित तेल, सब्जी की मंहगाई बढऩे पर उसे अपनी थाली में शामिल करना छोड़ देते हैं.
एेसी स्थिति में भारत को चीन के बाद सबसे बड़ा बाजार मानने में हर्ज नहीं है, तब भी लोगों को आॢथक रूप से मजबूत बनाएं बगैर उपभोक्ता नहीं बनाया जा सकता. भारत में कृषि हमेशा घाटे का सौदा रही है और कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या करते हैं. देश की ग्रामीण आबादी सिर्फ मनरेगा और कृषि मजदूरी से जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी जुगाड़ पाती है. लगातार लोग अन्य राज्यों में विषम परिस्थितियों के बावजूद रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं. नौजवानों को काम की तलाश बनी हुई है. स्वास्थ्य सुविधाएं सबको सुलभ नहीं है. इन सब स्थितियों के मद्देनजर कर्मचारियों की भविष्य निधि और गाढ़ी कमाई के पैसे से की जा रही छोटी बचत योजनाओं के ब्याज पर कटौती की योजनाएं बनाना किसी भी दशा में उचित नहीं ठहराई जा सकती. सरकारों को बाजार का विकास करना है तो देश के आम लोगों को आॢथक रूप से सशक्त करना होगा और सर्व-समावेशी योजनाओं के निर्माण पर ध्यान देना पड़ेगा.
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