संविधान ने हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया है, और पत्रकारिता ने तो भारत के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सहित हर मोर्चे पर मुखरता से हस्तक्षेप करते हुए लोकतंत्र के प्रहरी होने की भूमिका का निर्वाह किया है. इस पेशे में बेबाकी और आलोचना प्रमुख तत्व हैं, और किसी भी संस्थान, सत्ता व अन्य क्षेत्रों को आलोचना सहने के लिए तैयार रहना चाहिए. इन दिनों बस्तर में पत्रकारिता को लेकर जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिए शासन-प्रशासन के अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन किसी भी दशा में यह मामला उत्पीडऩ तक पहुंच जाना और पत्रकारों का आंदोलित होना चिंता का विषय है. बस्तर में प्रशासन द्वारा पत्रकारों पर दबाव और उन पर आरोप लगाकर जेल भेज देने का मामला देश ही नहीं विदेशों तक चर्चा का विषय बन गया है और धुर-नक्सली क्षेत्र के खबरनवीसों के साथ सैकड़ों की संख्या में पत्रकार और बुद्धिजीवी आ खड़े हुए हैं.
बस्तर में दो पत्रकारों की गिरफ्तारी के विरूद्ध जेल-भरो आंदोलन चल रहा है. बस्तर के पत्रकार संतोष यादव को नक्सली गतिविधियों में संलिप्त रहने के आरोप में अक्टूबर के महीने में गिरफ्तार कर लिया गया, तो जुलाई माह में एक अखबार के प्रतिनिधि सोमारू नाग को इसी तरह के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इन पत्रकारों पर ‘छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम’ के तहत कार्रवाई की गई है, जिसे मानवाधिकार संगठनों टाडा और पोटा से भी खतरनाक कानून करार दिया है. इस अधिनियम का देश के नामी पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी ने छग की राजधानी में मुखर विरोध किया था. बस्तर नक्सली गतिविधियों का प्रमुख केंद्र है और आए दिन यहां भयावह हिंसाचार होते हैं. आंदोलनरत पत्रकारों की मानें तो वहां के स्थानीय सक्षम अधिकारी अपने खिलाफ समाचार लिखने के कारण इन दो पत्रकारों पर वह कार्रवाई की है, वह भी उस कानून के तहत जिसे नक्सली समस्या से निबटने के लिए बनाया गया है. दूसरी ओर पत्रकारों के समक्ष बड़ी चुनौती यह भी है कि नक्सल संगठन के लोग भी पत्रकारों से यह अपेक्षा करते हैं कि उनके खिलाफ कुछ न लिखा जाए, एेसा नहीं होने पर पत्रकारों को नक्सलियों से प्रताडि़त होना पड़ा और हत्याएं तक हुई हैं. वस्तुत: बस्तर की पत्रकारिता ‘इधर कुंआ उधर खाई’ जैसी है.
सरकार ने स्थानीय प्रशासन और पुलिस को इतने अधिकार सौंप रखे हैं कि उसका दुरूपयोग आसानी से किया जा सकता है. जबकि बस्तर जैसे इलाके में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए विशेष नीति बनाए जाने की जरूरत है ताकि वे खबरों का तथ्यपूर्ण संकलन सुरक्षित तरीके से कर सकें. यह इन बातों के मद्देनजर जरूरी लगता है कि 2013 में पत्रकार नेमीचंद जैन पर पुलिस ने माओवादी होने के आरोप में जेल में डाला, वहीं श्री जैन की हत्या नक्सलियों ने पुलिस का मुखबिर बताकर कर दी. सांई रेड्डी की हत्या भी नक्सली हिंसा में जान गंवा चुके हैं. वस्तुत: यहां पत्रकार न सिर्फ बेहद असुरक्षित हैं, बल्कि प्रशासन व नक्सलियों के बीच पिस रहे हैं. पत्रकार जमीनी रिपोर्टिंग करते हैं और प्राप्त तथ्यों की अनदेखी नहीं कर सकते. इस स्थिति में माओवादी और प्रशासन दोनों को ही आलोचना का शिकार होना स्वाभाविक है. छत्तीसगढ़ ही नहीं, पूरे देश में पत्रकारिता की प्रवृत्ति लगभग यही है. एेसी स्थिति में बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में पत्रकारों को सुरक्षा की दरकार है, लेकिन दुर्भाग्य से पत्रकारों की जमात रहबरों पर विश्वास नहीं कर पा रही है. यहां बेहद जरूरी है कि प्रशासन संवेदनशीलता से काम करे और समाज के लोगों की सुरक्षा का दायित्व संभालने के साथ ही समाचारों के संकलन करने वालों से अन्याय न हो, यह भी सुनिश्चित करे.
बस्तर में दो पत्रकारों की गिरफ्तारी के विरूद्ध जेल-भरो आंदोलन चल रहा है. बस्तर के पत्रकार संतोष यादव को नक्सली गतिविधियों में संलिप्त रहने के आरोप में अक्टूबर के महीने में गिरफ्तार कर लिया गया, तो जुलाई माह में एक अखबार के प्रतिनिधि सोमारू नाग को इसी तरह के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इन पत्रकारों पर ‘छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम’ के तहत कार्रवाई की गई है, जिसे मानवाधिकार संगठनों टाडा और पोटा से भी खतरनाक कानून करार दिया है. इस अधिनियम का देश के नामी पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी ने छग की राजधानी में मुखर विरोध किया था. बस्तर नक्सली गतिविधियों का प्रमुख केंद्र है और आए दिन यहां भयावह हिंसाचार होते हैं. आंदोलनरत पत्रकारों की मानें तो वहां के स्थानीय सक्षम अधिकारी अपने खिलाफ समाचार लिखने के कारण इन दो पत्रकारों पर वह कार्रवाई की है, वह भी उस कानून के तहत जिसे नक्सली समस्या से निबटने के लिए बनाया गया है. दूसरी ओर पत्रकारों के समक्ष बड़ी चुनौती यह भी है कि नक्सल संगठन के लोग भी पत्रकारों से यह अपेक्षा करते हैं कि उनके खिलाफ कुछ न लिखा जाए, एेसा नहीं होने पर पत्रकारों को नक्सलियों से प्रताडि़त होना पड़ा और हत्याएं तक हुई हैं. वस्तुत: बस्तर की पत्रकारिता ‘इधर कुंआ उधर खाई’ जैसी है.
सरकार ने स्थानीय प्रशासन और पुलिस को इतने अधिकार सौंप रखे हैं कि उसका दुरूपयोग आसानी से किया जा सकता है. जबकि बस्तर जैसे इलाके में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए विशेष नीति बनाए जाने की जरूरत है ताकि वे खबरों का तथ्यपूर्ण संकलन सुरक्षित तरीके से कर सकें. यह इन बातों के मद्देनजर जरूरी लगता है कि 2013 में पत्रकार नेमीचंद जैन पर पुलिस ने माओवादी होने के आरोप में जेल में डाला, वहीं श्री जैन की हत्या नक्सलियों ने पुलिस का मुखबिर बताकर कर दी. सांई रेड्डी की हत्या भी नक्सली हिंसा में जान गंवा चुके हैं. वस्तुत: यहां पत्रकार न सिर्फ बेहद असुरक्षित हैं, बल्कि प्रशासन व नक्सलियों के बीच पिस रहे हैं. पत्रकार जमीनी रिपोर्टिंग करते हैं और प्राप्त तथ्यों की अनदेखी नहीं कर सकते. इस स्थिति में माओवादी और प्रशासन दोनों को ही आलोचना का शिकार होना स्वाभाविक है. छत्तीसगढ़ ही नहीं, पूरे देश में पत्रकारिता की प्रवृत्ति लगभग यही है. एेसी स्थिति में बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में पत्रकारों को सुरक्षा की दरकार है, लेकिन दुर्भाग्य से पत्रकारों की जमात रहबरों पर विश्वास नहीं कर पा रही है. यहां बेहद जरूरी है कि प्रशासन संवेदनशीलता से काम करे और समाज के लोगों की सुरक्षा का दायित्व संभालने के साथ ही समाचारों के संकलन करने वालों से अन्याय न हो, यह भी सुनिश्चित करे.
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