सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है और गंगा-जमुनी तहजीब का भी. धार्मिक परम्पराओं में नदी का विशेष महत्व है. स्नान, कर्मकांड, विशाल मेले, कुंभ आदि सब नदियों के तट पर ही होते हैं. इसका दूसरा पहलू यह भी है कि प्राचीन परम्पराओं के निर्वाह के नाम पर हम प्रकृति की रक्षा के दायित्व से मुकरते भी रहे हैं. इन्हीं बातों पर बहस के साथ अध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर का भव्यतम आयोजन दिल्ली में यमुना तट पर आरंभ हो गया.
विश्व संस्कृति महोत्सव कराने के पीछे कारण यह बताया गया है कि श्री श्री की संस्था के 35 वर्ष पूरे हो रहे हैं और भारतीय संस्कृति और भारतीयता की ताकत दिखाने का अवसर है. आयोजन के लिए देश की राजधानी और यमुना तट का चयन ही विवाद का कारण बना. पिछले कई दशक से नदियों की दुर्दशा और गंदगी पर चिंता जताई जा रही है. एनडीए की वाजपेयी सरकार ने नदियों को जोडऩे की योजना बनाई थी, तो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने पवित्र नदियों खासतौर पर गंगा की सफाई के लिए विशेष योजना बनाई है. प्रधानमंत्री ने ‘नमामि गंगे’ परियोजना भी प्रस्तुत की है. ऐसी स्थिति में जब वाकई संस्कृति, सभ्यता की धरोहर नदियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा हो तो यह भी जरुरी है कि हम अपनी आस्था, उत्सवधर्मिता को व्यक्त करने का तरीका बदलें. तटों को लेकर सावधानी बरतने की चिंता से ही नदियों का भला नहीं होगा.
श्री श्री के आयोजन को लेकर जिस तरह की चिंताएं व्यक्त की गई, उसमें यमुना के डूब वाले भूकम्प और बाढ़ की दृष्टि के संवेदनशील इलाके शामिल हैं. इसके अलावा किसानों की फसल काटकर जमीन के इस्तेमाल से लेकर विभिन्न अस्थायी निर्माण कार्य सहित तट पर बने शौचालयों से यमुना के प्रभावित होने की आशंका है. आयोजक पर्यावरण व यमुना नदी की हानि की संभावना से इंकार कर रहे हैं, जबकि इन तर्कों से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल सहमत नहीं है और पांच करोड़ रुपये के जुर्माने के साथ कार्यक्रम की अनुमति दे दी. सवाल यह भी है कि अनुमानित 35 लाख लोगों की भागीदारी वाले आयोजन से संभावित पर्यावरण की क्षति को पांच करोड़ रुपये से कैसे बचाया जा सकता है. किसी भी आयोजन के पूर्व और बाद की स्थिति में नुकसान हमेशा चिरस्थायी होता है. केन्द्र सरकार की ओर से कहा गया है कि श्री श्री का आयोजन सांस्कृतिक विविधताओं का उत्सव है, यह भारत को प्रसिद्धि दिलायेगा, अत: इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए. अन्य तर्कों में यह भी शामिल है कि कुंभ जैसे आयोजन के लिए सेना की मदद ली जाती है तो पुल बनाने पर आपत्ति क्यों? मामला तर्क-वितर्क का नहीं, पक्षधरता का है. सरकारों पर यह जिम्मेदारी आयद होती है कि भारत को प्रसिद्धि भी मिले और समय की जरुरतों का ध्यान भी रखा जाये. पर्यावरण से लेकर विश्व के सभी देशों सहित भारत भी चिंतित है, इस लिहाज से कोई अन्य बेहतर स्थल का चयन भी हो सकता था. बहरहाल बॉलीवुड स्तर के चकाचौंध के साथ विविधताओं का उत्सव आरंभ हो चुका है, आनंद लें, पर्यावरण की चिंता भी होती रहेगी.
विश्व संस्कृति महोत्सव कराने के पीछे कारण यह बताया गया है कि श्री श्री की संस्था के 35 वर्ष पूरे हो रहे हैं और भारतीय संस्कृति और भारतीयता की ताकत दिखाने का अवसर है. आयोजन के लिए देश की राजधानी और यमुना तट का चयन ही विवाद का कारण बना. पिछले कई दशक से नदियों की दुर्दशा और गंदगी पर चिंता जताई जा रही है. एनडीए की वाजपेयी सरकार ने नदियों को जोडऩे की योजना बनाई थी, तो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने पवित्र नदियों खासतौर पर गंगा की सफाई के लिए विशेष योजना बनाई है. प्रधानमंत्री ने ‘नमामि गंगे’ परियोजना भी प्रस्तुत की है. ऐसी स्थिति में जब वाकई संस्कृति, सभ्यता की धरोहर नदियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा हो तो यह भी जरुरी है कि हम अपनी आस्था, उत्सवधर्मिता को व्यक्त करने का तरीका बदलें. तटों को लेकर सावधानी बरतने की चिंता से ही नदियों का भला नहीं होगा.
श्री श्री के आयोजन को लेकर जिस तरह की चिंताएं व्यक्त की गई, उसमें यमुना के डूब वाले भूकम्प और बाढ़ की दृष्टि के संवेदनशील इलाके शामिल हैं. इसके अलावा किसानों की फसल काटकर जमीन के इस्तेमाल से लेकर विभिन्न अस्थायी निर्माण कार्य सहित तट पर बने शौचालयों से यमुना के प्रभावित होने की आशंका है. आयोजक पर्यावरण व यमुना नदी की हानि की संभावना से इंकार कर रहे हैं, जबकि इन तर्कों से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल सहमत नहीं है और पांच करोड़ रुपये के जुर्माने के साथ कार्यक्रम की अनुमति दे दी. सवाल यह भी है कि अनुमानित 35 लाख लोगों की भागीदारी वाले आयोजन से संभावित पर्यावरण की क्षति को पांच करोड़ रुपये से कैसे बचाया जा सकता है. किसी भी आयोजन के पूर्व और बाद की स्थिति में नुकसान हमेशा चिरस्थायी होता है. केन्द्र सरकार की ओर से कहा गया है कि श्री श्री का आयोजन सांस्कृतिक विविधताओं का उत्सव है, यह भारत को प्रसिद्धि दिलायेगा, अत: इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए. अन्य तर्कों में यह भी शामिल है कि कुंभ जैसे आयोजन के लिए सेना की मदद ली जाती है तो पुल बनाने पर आपत्ति क्यों? मामला तर्क-वितर्क का नहीं, पक्षधरता का है. सरकारों पर यह जिम्मेदारी आयद होती है कि भारत को प्रसिद्धि भी मिले और समय की जरुरतों का ध्यान भी रखा जाये. पर्यावरण से लेकर विश्व के सभी देशों सहित भारत भी चिंतित है, इस लिहाज से कोई अन्य बेहतर स्थल का चयन भी हो सकता था. बहरहाल बॉलीवुड स्तर के चकाचौंध के साथ विविधताओं का उत्सव आरंभ हो चुका है, आनंद लें, पर्यावरण की चिंता भी होती रहेगी.
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