भारत मेें पंूजी निवेश के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ताबड़तोड़ विदेशी दौरे किए. उन्होंने सभी देशों में व्यापारिक कूटनीति ही अधिक की और पूंजी निवेश के लिए विश्व के अनेक देशों के व्यवसायियों को आमंत्रित किया. इसके साथ ही उन्होंने भरोसा दिलाया कि उन्हें अनुकूल वातावरण मिलेगा. प्रधानमंत्री की कवायद का व्यापक पैमाने पर स्वागत भी हुआ, लेकिन डेढ़ साल से ज्यादा अवधि बीतने के बाद भी विदेशी निवेश की रफ्तार धीमी ही बनी हुई है. निश्चित रुप से इसका कारण घरेलू मोर्चे पर तैयारी का न होना है. यह विडंबना ही है कि इस मामले में ठीक उल्टी बात हो रही है. भारत की आर्थिक गतिविधियों का पल-पल का हाल देने वाले शेयर बाजार से विदेशी संस्थागत पूंजी निवेशकों ने सिर्फ 7 महीने में 2 अरब डॉलर देश से बाहर भेज दिया. वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में अर्थव्यवस्था पर वित्तीय पूंजी का प्रभुत्व पिछले दो दशक से बढ़ा है. इसके साथ ही भारत विदेशी निवेशकों के लिए सबसे पसंदीदा स्थान रहा है.
साल भर पहले तक रेमिटेंस की रकम भारतीय रिजर्व बैंक ने सवा लाख डॉलर निर्धारित की थी, जो जुलाई 2015 से ढाई लाख डॉलर कर दी गई. इसके बाद संस्थागत विदेशी निवेशकों द्वारा पैसे विदेश भेजने की रफ्तार तीव्र गति से बढ़ी और 66.5 करोड़ से बढक़र 2 अरब डॉलर तक जा पहुंची. इसका जबर्दस्त असर रुपये की सेहत पर पड़ा है. आमतौर पर शेयर बाजार से वित्तीय पूंजी निकालने से मुद्रा कमजोर होती है, लेकिन विदेश भेजी जाने वाली रकम ज्यादा ही असर डाल रही है. रिजर्व बैंक द्वारा रेमिटेंस स्कीम में ढील दिए जाने के पीछे व्यावसायिक रुप से उदार बनना था, परन्तु विदेशों में रहने वाले भारतीय निवेशक अपना पैसा तेजी से वापस मंगा रहे हैं.
इसके अतिरिक्त एनआईआर अपनी परिसम्पत्तियां भी बेच रहे हैं तथा टैक्स संबंधी मुश्किलों की आशंका के चलते भारत में पैसा लगाने से भी कतरा रहे हैं. शेयर बाजार सहित भारत में तमाम तरीके से निवेश की जरुरतों से किसी को इनकार नहीं है. यदि धरातल पर स्थिति विपरीत दिखाई देती है, तो भारत के नीति नियंताओं को इसकी समीक्षा करने की जरुरत है. यह भी सच है कि नई सरकार के गठन के बाद गंभीरता से काम सिर्फ उद्योग जगत के लिए हुआ है और वह भी देश की सवा सौ करोड़ आबादी की दुश्वारियों की कीमत पर. आश्चर्यजनक बात है कि इसके बाद भी भारत में निवेश और औद्यौगिक विकास का मामला एक कदम आगे बढऩे की बजाय दो कदम पीछे हटता दिखाई देता है. वास्तव में ऐसे कदमों के प्रभाव तत्काल दिखाई नहीं देते और पक्ष में अनेक तर्क गढ़े जा सकते हैं. लेकिन अब मूल्यांकनकर्ता सतर्क हो गए हैं और रणनीति के खोखलेपन को महसूस कर रहे हैं. यह भी उतना ही सच है कि देश में आबादी के समूचे हिस्से को उनके हक की खुशहाली नहीं मिली है, जनता की आर्थिक ताकत ही देश के शेयर बाजारों को परवान चढऩे देने और विकास को गति देने के लिए पर्याप्त होगी.
साल भर पहले तक रेमिटेंस की रकम भारतीय रिजर्व बैंक ने सवा लाख डॉलर निर्धारित की थी, जो जुलाई 2015 से ढाई लाख डॉलर कर दी गई. इसके बाद संस्थागत विदेशी निवेशकों द्वारा पैसे विदेश भेजने की रफ्तार तीव्र गति से बढ़ी और 66.5 करोड़ से बढक़र 2 अरब डॉलर तक जा पहुंची. इसका जबर्दस्त असर रुपये की सेहत पर पड़ा है. आमतौर पर शेयर बाजार से वित्तीय पूंजी निकालने से मुद्रा कमजोर होती है, लेकिन विदेश भेजी जाने वाली रकम ज्यादा ही असर डाल रही है. रिजर्व बैंक द्वारा रेमिटेंस स्कीम में ढील दिए जाने के पीछे व्यावसायिक रुप से उदार बनना था, परन्तु विदेशों में रहने वाले भारतीय निवेशक अपना पैसा तेजी से वापस मंगा रहे हैं.
इसके अतिरिक्त एनआईआर अपनी परिसम्पत्तियां भी बेच रहे हैं तथा टैक्स संबंधी मुश्किलों की आशंका के चलते भारत में पैसा लगाने से भी कतरा रहे हैं. शेयर बाजार सहित भारत में तमाम तरीके से निवेश की जरुरतों से किसी को इनकार नहीं है. यदि धरातल पर स्थिति विपरीत दिखाई देती है, तो भारत के नीति नियंताओं को इसकी समीक्षा करने की जरुरत है. यह भी सच है कि नई सरकार के गठन के बाद गंभीरता से काम सिर्फ उद्योग जगत के लिए हुआ है और वह भी देश की सवा सौ करोड़ आबादी की दुश्वारियों की कीमत पर. आश्चर्यजनक बात है कि इसके बाद भी भारत में निवेश और औद्यौगिक विकास का मामला एक कदम आगे बढऩे की बजाय दो कदम पीछे हटता दिखाई देता है. वास्तव में ऐसे कदमों के प्रभाव तत्काल दिखाई नहीं देते और पक्ष में अनेक तर्क गढ़े जा सकते हैं. लेकिन अब मूल्यांकनकर्ता सतर्क हो गए हैं और रणनीति के खोखलेपन को महसूस कर रहे हैं. यह भी उतना ही सच है कि देश में आबादी के समूचे हिस्से को उनके हक की खुशहाली नहीं मिली है, जनता की आर्थिक ताकत ही देश के शेयर बाजारों को परवान चढऩे देने और विकास को गति देने के लिए पर्याप्त होगी.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें