भारतीय परम्परा में आभूषणों, कीमती धातुओं के प्रति आसक्ति हमेशा से रही है. निश्चित रूप से सोना-चांदी सम्पन्नता का प्रतीक रहा है, लेकिन घरों में संग्रहित यह सम्पदा अनुत्पादक भी है. भारतीय घरों में रखी इस अकूत सम्पदा को देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देने प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार ने स्वर्ण मौद्रिकीकरण की योजना पेश की. इस योजना को जिस तरह का प्रतिसाद मिलने की उम्मीद जताई गई थी, परिणाम उसके उलट रहा. सोने और आभूषणों के मोहपाश में जकड़े आम और खास भारतीयों ने लाभ हासिल करने जरा भी रूचि नहीं दिखाई. अब योजना को एक नया कंधा मिल सकता है, देश के अमीर तिरूपति बालाजी मंदिर ने 1320 करोड़ रूपए से भी अधिक कीमती 5.5 टन सोने को जमा कराने की मंशा जताई है. मंदिर ट्रस्ट को ब्याज स्वरूप अतिरिक्त राशि भी मिलेगी और यह सोना सरकारी योजनाओं का हिस्सा भी बन सकती है.
देश में लाखों मंदिर हैं, लेकिन सिर्फ दस सबसे समृद्ध मंदिरों की चर्चा करें तो 50 हजार करोड़ रूपए की सम्पत्ति वाले बालाजी मंदिर के मुकाबले तिरूअनंतपुरम स्थित पद्नाभ स्वामी मंदिर की संपत्ति और स्वर्ण भंडार सवा लाख करोड़ रूपए से भी अधिक है. पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भारी रकम दान स्वरूप आता है. सांई बाबा मंदिर में प्रतिवर्ष 350 करोड़ का दान श्रद्धालु समर्पित करते हैं. सिद्धि विनायक मंदिर, वैष्णो देवी मंदिर, सोमनाथ मंदिर, गुरूवायूर मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, मिनाक्षी अम्मन मंदिर में हजारों करोड़ रूपए के सोने सहित नगद राशि का चढ़ावा आता है. इसी तरह देश के दूसरे महत्वपूर्ण समुदाय मुस्लिम धर्मावलंबियों की धाॢमक संपत्ति वक्फ बोर्डों के अधीन है. सच्चर कमेटी के अनुसार 4.9 लाख से अधिक पंजीकृत वक्फ संपत्तियां हैं, जो बाजार मूल्य के लिहाज से 1.2 लाख करोड़ रूपए से अधिक है. स्वतंत्र और राज्यों से मिल रहे आंकड़ों के मुताबिक वक्फ संपत्तियां वस्तुत: कई लाख करोड़ रूपए की हैं. भारत में चर्च की संपत्ति कई बड़े औद्योगिक घरानों की कुल जमा पूंजी से भी ज्यादा है. यह कड़वी सच्चाई है कि मंदिरों, वक्फ बोर्डों, मिशनरियों सहित सिक्ख, जैन व अन्य धार्मिक समूहों के पवित्र स्थलों में अकूत सम्पदा है, लेकिन हर समूह का साधारण व्यक्ति जिसमें किसान, नौजवान, श्रमिक, मध्यवर्ग, महिलाएं शामिल हैं, घोर अभाव, परेशानियों और गरीबी से जूझ रहे हैं. विश्व के किसी भी धर्म के नबियों, ऋषियों, अवतारों की शिक्षाओं की बात करें तो सभी ने एक स्वर से मनुष्य की मुक्ति और उनकी बेहतरी की बात ही नहीं की, अपितु पूरे जीवन काल में संघर्ष किया, पुरानी शिक्षाओं से बेबहरा हो जाने के बाद भी एक सभ्य समाज की अपेक्षा कम से कम यह होती है कि सभी को भोजन मिले, जीवन-यापन के लिए काम और वेतन मिले, शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो, स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हों. जीवन में बेहतरी और समृद्धि की कामना लेकर धर्मस्थलों में प्रार्थना और भेंट देने वाला आम आदमी लगातार दरिद्रावस्था की ओर ही जा रहा है. वहीं धर्मस्थलों की सम्पदा अनुपयोगी पड़ी हुई है. सरकार को विकास के लिए सम्पत्ति की जरूरत होती है, स्वर्ण मौद्रिक योजना की मंशा नागरिकों और संस्थाओं के पास रखे 22 से 23 हजार टन सोने को अर्थव्यवस्था में शामिल करने की है.
इस दिशा में बालाजी मंदिर ने रूचि दिखाई है. यदि आस्था केंद्रों की संपत्ति उनकी समितियों या सरकारी योजनाओं में भागीदारी के जरिए बाहर आती है तो स्वागत योग्य कदम होगा. भारत में गरीबी इतनी भयावह है कि यदि ईश्वर, खुदा, गॉड, गरीब-वत्सल हैं तो मंदिरों, मठों, वक्फ, मिशनरी संस्थाओं की अथाह सम्पदा पड़ी सड़ क्यों रही है. किसी भी एक समूह की संपत्ति से गांव के गरीबों को रोजगार देने वाली मनरेगा योजना को दस साल तक संचालित करने योग्य राशि मिल सकती है. शिक्षा, स्वास्थ्य सहित गंभीर समस्याओं का समाधान हो सकता है. इस विषय पर चर्चा करते समय इस बात की ताकीद जरूरी है कि देश में मुक्त अर्थव्यवस्था, उदारीकरण जनता की पक्षधरता खोती जा रही है, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य के बजट में निरंतर कटौतियां हो रही हैं. इस दशा में अहम सवाल यह भी है कि अनुपयोगी पड़ी संपत्ति बाहर आए, अर्थव्यवस्था को गतिशील करे, साथ ही शासन की जन-कल्याणकारी भावना को विलोपित होने से भी रोके.
देश में लाखों मंदिर हैं, लेकिन सिर्फ दस सबसे समृद्ध मंदिरों की चर्चा करें तो 50 हजार करोड़ रूपए की सम्पत्ति वाले बालाजी मंदिर के मुकाबले तिरूअनंतपुरम स्थित पद्नाभ स्वामी मंदिर की संपत्ति और स्वर्ण भंडार सवा लाख करोड़ रूपए से भी अधिक है. पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भारी रकम दान स्वरूप आता है. सांई बाबा मंदिर में प्रतिवर्ष 350 करोड़ का दान श्रद्धालु समर्पित करते हैं. सिद्धि विनायक मंदिर, वैष्णो देवी मंदिर, सोमनाथ मंदिर, गुरूवायूर मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, मिनाक्षी अम्मन मंदिर में हजारों करोड़ रूपए के सोने सहित नगद राशि का चढ़ावा आता है. इसी तरह देश के दूसरे महत्वपूर्ण समुदाय मुस्लिम धर्मावलंबियों की धाॢमक संपत्ति वक्फ बोर्डों के अधीन है. सच्चर कमेटी के अनुसार 4.9 लाख से अधिक पंजीकृत वक्फ संपत्तियां हैं, जो बाजार मूल्य के लिहाज से 1.2 लाख करोड़ रूपए से अधिक है. स्वतंत्र और राज्यों से मिल रहे आंकड़ों के मुताबिक वक्फ संपत्तियां वस्तुत: कई लाख करोड़ रूपए की हैं. भारत में चर्च की संपत्ति कई बड़े औद्योगिक घरानों की कुल जमा पूंजी से भी ज्यादा है. यह कड़वी सच्चाई है कि मंदिरों, वक्फ बोर्डों, मिशनरियों सहित सिक्ख, जैन व अन्य धार्मिक समूहों के पवित्र स्थलों में अकूत सम्पदा है, लेकिन हर समूह का साधारण व्यक्ति जिसमें किसान, नौजवान, श्रमिक, मध्यवर्ग, महिलाएं शामिल हैं, घोर अभाव, परेशानियों और गरीबी से जूझ रहे हैं. विश्व के किसी भी धर्म के नबियों, ऋषियों, अवतारों की शिक्षाओं की बात करें तो सभी ने एक स्वर से मनुष्य की मुक्ति और उनकी बेहतरी की बात ही नहीं की, अपितु पूरे जीवन काल में संघर्ष किया, पुरानी शिक्षाओं से बेबहरा हो जाने के बाद भी एक सभ्य समाज की अपेक्षा कम से कम यह होती है कि सभी को भोजन मिले, जीवन-यापन के लिए काम और वेतन मिले, शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो, स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हों. जीवन में बेहतरी और समृद्धि की कामना लेकर धर्मस्थलों में प्रार्थना और भेंट देने वाला आम आदमी लगातार दरिद्रावस्था की ओर ही जा रहा है. वहीं धर्मस्थलों की सम्पदा अनुपयोगी पड़ी हुई है. सरकार को विकास के लिए सम्पत्ति की जरूरत होती है, स्वर्ण मौद्रिक योजना की मंशा नागरिकों और संस्थाओं के पास रखे 22 से 23 हजार टन सोने को अर्थव्यवस्था में शामिल करने की है.
इस दिशा में बालाजी मंदिर ने रूचि दिखाई है. यदि आस्था केंद्रों की संपत्ति उनकी समितियों या सरकारी योजनाओं में भागीदारी के जरिए बाहर आती है तो स्वागत योग्य कदम होगा. भारत में गरीबी इतनी भयावह है कि यदि ईश्वर, खुदा, गॉड, गरीब-वत्सल हैं तो मंदिरों, मठों, वक्फ, मिशनरी संस्थाओं की अथाह सम्पदा पड़ी सड़ क्यों रही है. किसी भी एक समूह की संपत्ति से गांव के गरीबों को रोजगार देने वाली मनरेगा योजना को दस साल तक संचालित करने योग्य राशि मिल सकती है. शिक्षा, स्वास्थ्य सहित गंभीर समस्याओं का समाधान हो सकता है. इस विषय पर चर्चा करते समय इस बात की ताकीद जरूरी है कि देश में मुक्त अर्थव्यवस्था, उदारीकरण जनता की पक्षधरता खोती जा रही है, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य के बजट में निरंतर कटौतियां हो रही हैं. इस दशा में अहम सवाल यह भी है कि अनुपयोगी पड़ी संपत्ति बाहर आए, अर्थव्यवस्था को गतिशील करे, साथ ही शासन की जन-कल्याणकारी भावना को विलोपित होने से भी रोके.
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