सभ्य समाज व्यवस्थित और नैतिक होता है और इसे हासिल करने लिए हमें हजारों साल लगे हैं, और भी बेहतर समाज के लिए निरंतर कोशिशें हो रही हैं. आदिमकाल की प्रवृत्तियों में जो अच्छाईयां थी उन्हें लगातार पल्लवित हुए बर्बर समाज से मुक्त होते गये. इक्कीसवीं सदी का समाज लोकतांत्रिक और समानता का पक्षधर हैं. यह विडंबना ही है कि कतिपय लोग समाज की धारा को बर्बर संस्कृति की ओर मोडऩा चाहते हैं. पिछले दिनों ‘दिनों घर में घुसकर मारेंगे, देश छोडऩे या देश से भगाने, दफन कर देंगे’ जैसे नारे लगे, तो अब बहुत ही असहनीय बातें होने लगी है जिसमें किसी भी ‘जीभ काट लेने’ पर पांच लाख और ‘हत्या करने’ पर दस लाख रूपए इनाम देने की भी घोषणाएं होने लगी हैं. यह पहली बार नहीं हो रहा है. भारत में ही पैगम्बर निन्दा के आरोपी के कत्ल के लिए करोड़ों के उपहार देने की बात की गई थी. हाल की घटनाओं पर नजर डालें तो मणिपुर और दादरी में सिर्फ अफवाह उड़ाकर दो लोगों की सरेआम हत्या कर दी गई. तर्कवादी दाभोलकर, पानसरे और डा. कालबुर्गी को बर्बरता का शिकार होना पड़ा.
पूरा देश एेसी घटनाओं पर चिंतित है और संविधान, कानून पर आस्था रखने वाला हर व्यक्ति मर्माहत और भयभीत है. यह याद रखना जरूरी है कि प्रकृति, विज्ञान और समाज विकास के नियम के तहत बीते हुए समय को वापस नहीं लाया जा सकता. समाज पाषाण युग, धातु युग से होते हुए सामंतवाद-राजतंत्र से मुक्ति पाकर जनतांत्रिक बना है और साथ ही सभ्यता-संस्कृति परिष्कृत और उद्दात्त हुई है. इसका अर्थ यह नहीं है कि बर्बर सोच के लोगों से समाज मुक्त है या सामंतवादी प्रवृत्तियों के लोग आज भी नहीं रहते. खाप पंचायतों के फैसलों ने समाज के अनिष्ट करने वाले संकेतों दिखाया है तो एेसे संगठनों की भरमार है जो कानून और संविधान की परवाह नहीं करते. जंगलों में रहने वाले अति-वामपंथी भी इन्हीं प्रवृत्तियों के शिकार हैं और अपने प्रभाव क्षेत्र में समानान्तर सरकार चलाते हैं. वे अपनी अदालत में नृशंस सजाएं देते हैं. इस रोग से विश्व का समूचा हिस्सा पीडि़त है और तरह-तरह के आतंकवादी संगठन असभ्य, अराजक और बर्बर समाज की स्थापना के लिए प्रयास कर रहे हैं.
इस तरह की कोशिशों ने मनुष्य और मनुष्यता के समक्ष बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है. यह सच है कि विश्व के तमाम देशों सहित भारत की बहुसंख्यक आबादी सभ्य और कानून सम्मत समाज का पक्षधर है. भारत में आजादी के बाद श्रेष्ठतम प्रवृत्तियों को संविधान में समाहित किया गया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित समाज को अधिक लोकतांत्रिक बनाने की अनुमति भी दी गई है. समाज सहित सरकार को संविधान के द्वारा प्रदत्त अधिकारों के इस्तेमाल करने की इजाजत देनी होगी, इसी दशा में भारत श्रेष्ठ और भद्र समाज बन सकेगा. हाल में दिख रही कमजोरी या प्रतिगामी सोच के प्रति शासकवर्ग की पक्षधरता नए किस्म के संकट को जन्म देने वाली साबित होगी. आतंकवाद से त्रस्त और गृह युद्ध के बर्बाद देशों से सबक लेकर बर्बर और गैर-लोकतांत्रिक सोच पर अंकुश लगाना वक्त की जरूरत है.
पूरा देश एेसी घटनाओं पर चिंतित है और संविधान, कानून पर आस्था रखने वाला हर व्यक्ति मर्माहत और भयभीत है. यह याद रखना जरूरी है कि प्रकृति, विज्ञान और समाज विकास के नियम के तहत बीते हुए समय को वापस नहीं लाया जा सकता. समाज पाषाण युग, धातु युग से होते हुए सामंतवाद-राजतंत्र से मुक्ति पाकर जनतांत्रिक बना है और साथ ही सभ्यता-संस्कृति परिष्कृत और उद्दात्त हुई है. इसका अर्थ यह नहीं है कि बर्बर सोच के लोगों से समाज मुक्त है या सामंतवादी प्रवृत्तियों के लोग आज भी नहीं रहते. खाप पंचायतों के फैसलों ने समाज के अनिष्ट करने वाले संकेतों दिखाया है तो एेसे संगठनों की भरमार है जो कानून और संविधान की परवाह नहीं करते. जंगलों में रहने वाले अति-वामपंथी भी इन्हीं प्रवृत्तियों के शिकार हैं और अपने प्रभाव क्षेत्र में समानान्तर सरकार चलाते हैं. वे अपनी अदालत में नृशंस सजाएं देते हैं. इस रोग से विश्व का समूचा हिस्सा पीडि़त है और तरह-तरह के आतंकवादी संगठन असभ्य, अराजक और बर्बर समाज की स्थापना के लिए प्रयास कर रहे हैं.
इस तरह की कोशिशों ने मनुष्य और मनुष्यता के समक्ष बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है. यह सच है कि विश्व के तमाम देशों सहित भारत की बहुसंख्यक आबादी सभ्य और कानून सम्मत समाज का पक्षधर है. भारत में आजादी के बाद श्रेष्ठतम प्रवृत्तियों को संविधान में समाहित किया गया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित समाज को अधिक लोकतांत्रिक बनाने की अनुमति भी दी गई है. समाज सहित सरकार को संविधान के द्वारा प्रदत्त अधिकारों के इस्तेमाल करने की इजाजत देनी होगी, इसी दशा में भारत श्रेष्ठ और भद्र समाज बन सकेगा. हाल में दिख रही कमजोरी या प्रतिगामी सोच के प्रति शासकवर्ग की पक्षधरता नए किस्म के संकट को जन्म देने वाली साबित होगी. आतंकवाद से त्रस्त और गृह युद्ध के बर्बाद देशों से सबक लेकर बर्बर और गैर-लोकतांत्रिक सोच पर अंकुश लगाना वक्त की जरूरत है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें