अक्षर यात्रा की कक्षा में अंत:स्थ वर्णो के चौथे अक्षर "व" की चर्चा प्रारम्भ करते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "मेदिनीकोश" का कथन है- "व: सान्त्वने च वाते वरूणे च निगद्यते।" यानी "व" शांति, वायु और वरूण के अर्थ को प्रकट करता है। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, हमने तो "व" का एक अर्थ वर-वधू भी पढ़ा है।
आचार्य ने बताया- हां वत्स, "लोकवेद" में कहा गया है- "व-वास्तलो की बीन्दोली।" यानी "व" का अर्थ वास्तु यानी घर होता है। यहां बीन्दोली अर्थ बिंदी और वर की शोभा यात्रा है। बिंदी स्त्री का सौभाग्य सूचक चिह्न है। वास्तु शब्द घर के अर्थ को भी प्रकट करता है। वैदिक वाक्य है- "गृहिणी गृहमुच्यते।" यानी गृहिणी को ही घर कहा गया है। इस तरह "व" का एक अर्थ वर-वधू होना स्वाभाविक है। राजस्थानी में वर को बीन्द कहते हैं। "मेदिनीकोश" में अन्त:स्थ "व" का सम्बन्ध वास्तु और बिन्दु से जोड़कर कहा गया है- वास्तु और बिन्दु का गर्भ से गहन सम्बन्ध है। पुत्रेष्टि यज्ञ अथवा सन्तानोत्पत्ति कर्मविधान में "चरक" ने सबसे पहले वास्तु-पूजन का निर्देश किया है। वेदी स्थापना के साथ हिरण्यगर्भ यानी प्रजापति के ध्यान का निर्देश भी मिलता है।
आचार्य ने बताया- "व" शब्द की व्युत्पत्ति आत्मनेपद में "विद्लृ लाभे" और "विन्दते इति बिन्दु:"। यानी विन्दते- प्राप्त करने, सम्पादित करने के अर्थ में प्रयुक्त होने वाला क्रियापद है। राजस्थानी का बीन्द यानी पति शब्द भी बिन्दु का ही अपभ्रंश है। बीन्द कन्या को प्राप्त करता है और कन्या उसे ग्रहण करती है। वास्तु पूजन और बिन्दु स्थापना गर्भ की पूर्व दशा कही गई है। "मेदिनीकोश" में" "व" के पर्यायवाची संस्कृत शब्दों में भी यही अर्थ दृष्टि मिलती है- सान्त्वन- यानी शांति। शांति का गृह- वास्तु से सीधा सम्बन्ध है। उस घर को घर नहीं कहते जहां सुख-शांति नहीं होती। "व" का एक अर्थ वात- यानी वायु है। "आयुर्वेद" में कहा गया है- "सर्वतन्त्राणां विधाता वायुरेव भगवान्" यानी वायु सब तंत्रों का विधाता है। "योगशास्त्र" कहता है- "मनोयत्र मरूस्तत्र।" यानी जहां वायु है वहां मन है। "व" का अर्थ वरूण भी है। जल देवता वरूण अस्तंगत सूर्य की संज्ञा भी है। "अस्त" का एक अर्थ "घर" भी है। इस तरह घर, गृहिणी, गर्भ, वर-वधू आदि सभी "व" के अर्थ को प्रकट करने वाले हैं। "एकाक्षरीकोश" में भुजा, समुद्र, वस्त्र, राहु और सम्बोधन के अर्थ में भी "व" शब्द देखा गया है। "कामधेनुतंत्र" में "व" को पंचदेवमय और सर्वसिद्धि दायक वर्ण माना गया है। "वर्णोद्धार तंत्र" में तो "व" की ध्यान विधि का वर्णन भी मिलता है। आचार्य ने बताया- "मेघदूत", "भामिनीविलास" और "रघुवंश" में जाति, परिवार, कुटुम्ब और परम्परा के अर्थ में वंश शब्द मिलता है। वंश शब्द मूल रू प से बांस के अर्थ को प्रकट करता है। ईख और साल के वृक्ष को भी वंश कहते हैं। रीढ़ की हड्डी के अर्थ में भी वंश शब्द देखा गया है। दस हाथ के बराबर की लम्बाई को भी वंश कहा गया है। परिवार की परम्परा को वंशावलि कहते हैं। "गीतगोविन्द" में बांसुरी को वंशिका अथवा बंशी कहा है। कृष्ण का एक विशेषण वंशीधर यानी "बंसी को धारण करने वाला" है।
आचार्य ने बताया- "महाभाष्य" में कहे जाने योग्य, तौले जाने योग्य अथवा बात किए जाने योग्य के अर्थ में वक्तव्य शब्द प्रयुक्त है। भाषण, विधि-नियम, सिद्धांत, वाक्य, कलंक और निन्दा के अर्थ में भी वक्तव्य शब्द का प्रयोग देखा जा सकता है। "कुमारसम्भव", कुटिल, टेढ़े और घुमावदार के अर्थ में वक्र शब्द का प्रयोग करता है। परोक्ष, गोल-मोल और टालम-टोल के अर्थ में भी वक्र शब्द "शिशुपाल वध" में दिखता है। "ज्योतिष" में क्रूर और घातक के अर्थ में वक्र शब्द प्रयुक्त है। "छन्दशास्त्र" में गुरू यानी दीर्घ मात्रा को वक्र कहा गया है। मंगल, शनि और शंकर के अर्थ में भी वक्र शब्द दिखता है। नदी के मोड़ को भी वक्र कहते हैं। हंस, चकवा और सांप के अर्थ में भी वक्र शब्द काम में लिया गया है। "अलंकार दर्पण" में एक अलंकार का नाम वक्रोक्ति है। इसमें बात को श्लेषपूर्ण ढंग से अथवा स्वर बदलकर कहा जाता है। कटाक्ष के अर्थ में भी वक्रोक्ति शब्द का प्रयोग होता है। "कुमारसम्भव" ब्ा्रह्मचारी के अर्थ में वटुक शब्द का प्रयोग करता है। मूर्ख, बुद्धू और बालक के लिए भी वटुक शब्द प्रयुक्त है। जल के पात्र को वठर कहते हैं। वैद्य और जड़ व्यक्ति के लिए भी वठर शब्द प्रयुक्त है। शक्तिशाली को भी वठर कहा गया है।
(राजस्थान पत्रिका से साभार)
आचार्य ने बताया- हां वत्स, "लोकवेद" में कहा गया है- "व-वास्तलो की बीन्दोली।" यानी "व" का अर्थ वास्तु यानी घर होता है। यहां बीन्दोली अर्थ बिंदी और वर की शोभा यात्रा है। बिंदी स्त्री का सौभाग्य सूचक चिह्न है। वास्तु शब्द घर के अर्थ को भी प्रकट करता है। वैदिक वाक्य है- "गृहिणी गृहमुच्यते।" यानी गृहिणी को ही घर कहा गया है। इस तरह "व" का एक अर्थ वर-वधू होना स्वाभाविक है। राजस्थानी में वर को बीन्द कहते हैं। "मेदिनीकोश" में अन्त:स्थ "व" का सम्बन्ध वास्तु और बिन्दु से जोड़कर कहा गया है- वास्तु और बिन्दु का गर्भ से गहन सम्बन्ध है। पुत्रेष्टि यज्ञ अथवा सन्तानोत्पत्ति कर्मविधान में "चरक" ने सबसे पहले वास्तु-पूजन का निर्देश किया है। वेदी स्थापना के साथ हिरण्यगर्भ यानी प्रजापति के ध्यान का निर्देश भी मिलता है।
आचार्य ने बताया- "व" शब्द की व्युत्पत्ति आत्मनेपद में "विद्लृ लाभे" और "विन्दते इति बिन्दु:"। यानी विन्दते- प्राप्त करने, सम्पादित करने के अर्थ में प्रयुक्त होने वाला क्रियापद है। राजस्थानी का बीन्द यानी पति शब्द भी बिन्दु का ही अपभ्रंश है। बीन्द कन्या को प्राप्त करता है और कन्या उसे ग्रहण करती है। वास्तु पूजन और बिन्दु स्थापना गर्भ की पूर्व दशा कही गई है। "मेदिनीकोश" में" "व" के पर्यायवाची संस्कृत शब्दों में भी यही अर्थ दृष्टि मिलती है- सान्त्वन- यानी शांति। शांति का गृह- वास्तु से सीधा सम्बन्ध है। उस घर को घर नहीं कहते जहां सुख-शांति नहीं होती। "व" का एक अर्थ वात- यानी वायु है। "आयुर्वेद" में कहा गया है- "सर्वतन्त्राणां विधाता वायुरेव भगवान्" यानी वायु सब तंत्रों का विधाता है। "योगशास्त्र" कहता है- "मनोयत्र मरूस्तत्र।" यानी जहां वायु है वहां मन है। "व" का अर्थ वरूण भी है। जल देवता वरूण अस्तंगत सूर्य की संज्ञा भी है। "अस्त" का एक अर्थ "घर" भी है। इस तरह घर, गृहिणी, गर्भ, वर-वधू आदि सभी "व" के अर्थ को प्रकट करने वाले हैं। "एकाक्षरीकोश" में भुजा, समुद्र, वस्त्र, राहु और सम्बोधन के अर्थ में भी "व" शब्द देखा गया है। "कामधेनुतंत्र" में "व" को पंचदेवमय और सर्वसिद्धि दायक वर्ण माना गया है। "वर्णोद्धार तंत्र" में तो "व" की ध्यान विधि का वर्णन भी मिलता है। आचार्य ने बताया- "मेघदूत", "भामिनीविलास" और "रघुवंश" में जाति, परिवार, कुटुम्ब और परम्परा के अर्थ में वंश शब्द मिलता है। वंश शब्द मूल रू प से बांस के अर्थ को प्रकट करता है। ईख और साल के वृक्ष को भी वंश कहते हैं। रीढ़ की हड्डी के अर्थ में भी वंश शब्द देखा गया है। दस हाथ के बराबर की लम्बाई को भी वंश कहा गया है। परिवार की परम्परा को वंशावलि कहते हैं। "गीतगोविन्द" में बांसुरी को वंशिका अथवा बंशी कहा है। कृष्ण का एक विशेषण वंशीधर यानी "बंसी को धारण करने वाला" है।
आचार्य ने बताया- "महाभाष्य" में कहे जाने योग्य, तौले जाने योग्य अथवा बात किए जाने योग्य के अर्थ में वक्तव्य शब्द प्रयुक्त है। भाषण, विधि-नियम, सिद्धांत, वाक्य, कलंक और निन्दा के अर्थ में भी वक्तव्य शब्द का प्रयोग देखा जा सकता है। "कुमारसम्भव", कुटिल, टेढ़े और घुमावदार के अर्थ में वक्र शब्द का प्रयोग करता है। परोक्ष, गोल-मोल और टालम-टोल के अर्थ में भी वक्र शब्द "शिशुपाल वध" में दिखता है। "ज्योतिष" में क्रूर और घातक के अर्थ में वक्र शब्द प्रयुक्त है। "छन्दशास्त्र" में गुरू यानी दीर्घ मात्रा को वक्र कहा गया है। मंगल, शनि और शंकर के अर्थ में भी वक्र शब्द दिखता है। नदी के मोड़ को भी वक्र कहते हैं। हंस, चकवा और सांप के अर्थ में भी वक्र शब्द काम में लिया गया है। "अलंकार दर्पण" में एक अलंकार का नाम वक्रोक्ति है। इसमें बात को श्लेषपूर्ण ढंग से अथवा स्वर बदलकर कहा जाता है। कटाक्ष के अर्थ में भी वक्रोक्ति शब्द का प्रयोग होता है। "कुमारसम्भव" ब्ा्रह्मचारी के अर्थ में वटुक शब्द का प्रयोग करता है। मूर्ख, बुद्धू और बालक के लिए भी वटुक शब्द प्रयुक्त है। जल के पात्र को वठर कहते हैं। वैद्य और जड़ व्यक्ति के लिए भी वठर शब्द प्रयुक्त है। शक्तिशाली को भी वठर कहा गया है।
(राजस्थान पत्रिका से साभार)
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