अक्षर यात्रा की कक्षा में म वर्ण पर चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "एकार्थक नाममाला" के अनुसार गाय, दुर्गा और लक्ष्मी को मातृका कहा गया है। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, क्या इसीलिए गाय, दुर्गा और लक्ष्मी को मां कहते हैं।
आचार्य ने कहा- हां वत्स, मूल रूप से मातृका शब्द देव माताओं का विशेषण माना गया है। ये देव माताएं संख्या में सात मानी गई हैं ब्राही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, माहेन्द्री, वाराही और चामुंडा। एक मान्यता के अनुसार इनकी संख्या आठ है और दूसरी मान्यता के अनुसार इनकी संख्या सोलह भी मानी गई है। "श्रीमद्भागवत" के अनुसार अर्यम की पत्नी और चर्षणिस की माता का नाम भी मातृका है। काम, क्रोध आदि आठ विकारों की अधिष्ठात्री देवियों को मातृका कहते हैं। काम की अधिष्ठात्री योगेश्वरी, क्रोध की माहेश्वरी, लोभ वैष्णवी, मद की ब्रrााणी, मात्सर्य की ऎन्द्राणी, माशुन्य की दंडधारिणी एवं असूया की अधिष्ठात्री वाराही मानी गई हैं। इन्हें अष्टमातृका कहा जाता है। ये अष्टमातृकाएं शिव की परिचारिकाएं मानी गई हैं। अक्षरों और अंकों में लिखे रेखाचित्रों अथवा यंत्र-मंत्र में प्रयुक्त बीजाक्षरों को भी मातृका कहते हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- "अक्षराणामकारोùस्मि।" यानी अक्षरों में मैं अकार हूं। इसलिए अकार को मातृका देव कहा गया है।
आचार्य ने बताया- जैसे लोक एवं शास्त्र में एक ही व्यक्ति के कई नाम प्रचलित होते हैं। गुण, क्रिया, सम्बन्ध और जाति इसके आधार हैं। वैसे ही "तंत्राभिधान" के अनुसार प्रत्येक वर्ण, अक्षर, पद और वाक्य का अपना स्वतंत्र अर्थ और स्वतंत्र आस्वाद होता है। स्वरों के मिलने से पदों के अर्थ में भिन्नता आ जाती है- जैसे मल का अर्थ त्याज्य है और माल का अर्थ ग्राह्य है। मिल का अर्थ मिलना है वहीं मील का अर्थ उन्मीलन यानी खुलना है। मूल-मूल्य, मोल-मौल आदि शब्दों को देखने से स्पष्ट पता चलता है कि थोड़े से परिवर्तन से स्वर ने अपना अर्थ बदल दिया है।
आचार्य ने बताया-"तंत्राभिधान" पर आधारित सर जॉन वुडरफ की किताब "द गारलैण्ड ऑव लैटर्स" के अनुसार प्रत्येक वर्ण का अपना अर्थ होता है। जैसे- अ का अर्थ पूर्ण, व्यापक, अखण्ड तथा अभाव और शून्य है। इ गति, समीप और वाला के अर्थ में प्रयुक्त होती है। जैसे धनी में ई का उ“ाारण धनवाला के अर्थ को प्रकट कर रहा है। ए का अर्थ निश्चल होता है। उ ऊपर एवं दूर के अर्थ में प्रयुक्त है। ओ का अर्थ "वही" होता है। ऋ का अर्थ बाहरी और लृ का अर्थ भीतरी माना गया है। पांचों वर्ग के अन्तिम वर्ण कaा अर्थ अभाव होता है। "मातृकाविज्ञान" के अनुसार प्रत्येक वर्ग के प्रथम वर्ण का अर्थ द्वितीय वर्ण के अर्थ से विपरीत होता है। जैसे- क का अर्थ बांधना, ख का अर्थ खुलना है। ग का अर्थ गति, घ का अर्थ ठहरा हुआ माना गया है। च का अर्थ चलना और चमकना वहीं छ का अaर्थ छांह होता है। ज का अर्थ जन्मना और झ का अर्थ झर जाना है। ट का अर्थ टूटना और ठ का अर्थ इकटे होना है। ड का अर्थ चलना और ढ का अर्थ ठहरा हुआ ढेर होता है। त का अर्थ तैरना या तल तक पहुंचना है वहीं थ का अर्थ स्थापित होने के अर्थ में ठिकाना और ठौर माना गया है। द का अर्थ देना और ध का अर्थ धारण करना है वहीं प का अर्थ पकड़ना और फ का अर्थ फेंकना होता है। ब का अर्थ घुसना, भ का अर्थ प्रकट होना है। य का अर्थ नियंत्रण करना और र का अर्थ देना होता है। ल का अर्थ लेना है। ष का अर्थ ज्ञान और प्रकाश है वहीं स का अर्थ साथ होता है। क्ष का अर्थ बांधना है और त्र का अर्थ समग्र होता है। ज्ञ अजन्म और अनादि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। "नन्दिकेश्वर काशिका" के उपमन्यु कृत भाष्य में भी यह वर्णन मिलता है।
आचार्य ने बताया- वर्ण मातृकाओं के प्रभाव के बारे में "तंत्रशास्त्र" का कथन है कि प्रत्येक अक्षर से बने बीज के जप से हर तरह की कार्य सिद्धि होती है। "मंत्रशास्त्र" इसी सिद्धांत पर काम करता है। एक तांत्रिक मान्यता के अनुसार पाणिनी के शिवसूत्रों यानी अ इ उ ण आदि से अभिषिक्त जल के उपयोग से सभी कार्यों की सिद्धि होती है। 16 स्वर, 25 व्यंजन और 10 अंतस्थ अक्षरों सहित कुल 51 वर्ण मातृकाओं का चमत्कारी प्रभाव माना गया है। आज का विज्ञान भी ध्वनि के आधार पर कई तरह की खोजों में व्यस्त है। इसलिए मातृकाविज्ञान अथवा मंत्रशास्त्र का वैज्ञानिक महžव स्वत: प्रमाणित है।
आचार्य ने बताया- देव माताओं के समूह अथवा अक्षरों के समूह को मातृका चक्र अथवा मातृका मण्डल कहा जाता हैं। अक्षर मातृकाओं के द्वारा सम्पन्न यज्ञ को मातृका यज्ञ कहते हैं। इसमें सस्वर मंत्रोच्चारण किया जाता है। कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, मति, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, तुष्टि और क्रांति के अर्थ में भी मातृका शब्द का प्रयोग होता है। "विष्णुपुराण" के अनुसार समय के सबसे छोटे विभाग यानी निमेष काल के लिए मात्रा शब्द प्रयुक्त होता है। माप, मानक, नियम, क्षण और कण के अर्थ में भी मात्रा शब्द देखा जा सकता है। धन-सम्पत्ति के अर्थ में मात्रा शब्द का प्रयोग होता है। "छन्दशास्त्र" में एक मात्रा का अक्षर ह्रस्व और दो मात्रा का अक्षर दीर्घ कहा जाता है। तत्व और भौतिक जगत के अर्थ में मात्रा शब्द प्रयुक्त होता है। कान की बाली के लिए भी मात्रा शब्द काम में लिया जाता है। "श्रीमद्भगवद्गीता" में भौतिक वस्तुओं के साथ इन्द्रियों के संयोग को भी मात्रा कहा गया है।
(राजस्थान पत्रिका से साभार)
आचार्य ने कहा- हां वत्स, मूल रूप से मातृका शब्द देव माताओं का विशेषण माना गया है। ये देव माताएं संख्या में सात मानी गई हैं ब्राही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, माहेन्द्री, वाराही और चामुंडा। एक मान्यता के अनुसार इनकी संख्या आठ है और दूसरी मान्यता के अनुसार इनकी संख्या सोलह भी मानी गई है। "श्रीमद्भागवत" के अनुसार अर्यम की पत्नी और चर्षणिस की माता का नाम भी मातृका है। काम, क्रोध आदि आठ विकारों की अधिष्ठात्री देवियों को मातृका कहते हैं। काम की अधिष्ठात्री योगेश्वरी, क्रोध की माहेश्वरी, लोभ वैष्णवी, मद की ब्रrााणी, मात्सर्य की ऎन्द्राणी, माशुन्य की दंडधारिणी एवं असूया की अधिष्ठात्री वाराही मानी गई हैं। इन्हें अष्टमातृका कहा जाता है। ये अष्टमातृकाएं शिव की परिचारिकाएं मानी गई हैं। अक्षरों और अंकों में लिखे रेखाचित्रों अथवा यंत्र-मंत्र में प्रयुक्त बीजाक्षरों को भी मातृका कहते हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- "अक्षराणामकारोùस्मि।" यानी अक्षरों में मैं अकार हूं। इसलिए अकार को मातृका देव कहा गया है।
आचार्य ने बताया- जैसे लोक एवं शास्त्र में एक ही व्यक्ति के कई नाम प्रचलित होते हैं। गुण, क्रिया, सम्बन्ध और जाति इसके आधार हैं। वैसे ही "तंत्राभिधान" के अनुसार प्रत्येक वर्ण, अक्षर, पद और वाक्य का अपना स्वतंत्र अर्थ और स्वतंत्र आस्वाद होता है। स्वरों के मिलने से पदों के अर्थ में भिन्नता आ जाती है- जैसे मल का अर्थ त्याज्य है और माल का अर्थ ग्राह्य है। मिल का अर्थ मिलना है वहीं मील का अर्थ उन्मीलन यानी खुलना है। मूल-मूल्य, मोल-मौल आदि शब्दों को देखने से स्पष्ट पता चलता है कि थोड़े से परिवर्तन से स्वर ने अपना अर्थ बदल दिया है।
आचार्य ने बताया-"तंत्राभिधान" पर आधारित सर जॉन वुडरफ की किताब "द गारलैण्ड ऑव लैटर्स" के अनुसार प्रत्येक वर्ण का अपना अर्थ होता है। जैसे- अ का अर्थ पूर्ण, व्यापक, अखण्ड तथा अभाव और शून्य है। इ गति, समीप और वाला के अर्थ में प्रयुक्त होती है। जैसे धनी में ई का उ“ाारण धनवाला के अर्थ को प्रकट कर रहा है। ए का अर्थ निश्चल होता है। उ ऊपर एवं दूर के अर्थ में प्रयुक्त है। ओ का अर्थ "वही" होता है। ऋ का अर्थ बाहरी और लृ का अर्थ भीतरी माना गया है। पांचों वर्ग के अन्तिम वर्ण कaा अर्थ अभाव होता है। "मातृकाविज्ञान" के अनुसार प्रत्येक वर्ग के प्रथम वर्ण का अर्थ द्वितीय वर्ण के अर्थ से विपरीत होता है। जैसे- क का अर्थ बांधना, ख का अर्थ खुलना है। ग का अर्थ गति, घ का अर्थ ठहरा हुआ माना गया है। च का अर्थ चलना और चमकना वहीं छ का अaर्थ छांह होता है। ज का अर्थ जन्मना और झ का अर्थ झर जाना है। ट का अर्थ टूटना और ठ का अर्थ इकटे होना है। ड का अर्थ चलना और ढ का अर्थ ठहरा हुआ ढेर होता है। त का अर्थ तैरना या तल तक पहुंचना है वहीं थ का अर्थ स्थापित होने के अर्थ में ठिकाना और ठौर माना गया है। द का अर्थ देना और ध का अर्थ धारण करना है वहीं प का अर्थ पकड़ना और फ का अर्थ फेंकना होता है। ब का अर्थ घुसना, भ का अर्थ प्रकट होना है। य का अर्थ नियंत्रण करना और र का अर्थ देना होता है। ल का अर्थ लेना है। ष का अर्थ ज्ञान और प्रकाश है वहीं स का अर्थ साथ होता है। क्ष का अर्थ बांधना है और त्र का अर्थ समग्र होता है। ज्ञ अजन्म और अनादि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। "नन्दिकेश्वर काशिका" के उपमन्यु कृत भाष्य में भी यह वर्णन मिलता है।
आचार्य ने बताया- वर्ण मातृकाओं के प्रभाव के बारे में "तंत्रशास्त्र" का कथन है कि प्रत्येक अक्षर से बने बीज के जप से हर तरह की कार्य सिद्धि होती है। "मंत्रशास्त्र" इसी सिद्धांत पर काम करता है। एक तांत्रिक मान्यता के अनुसार पाणिनी के शिवसूत्रों यानी अ इ उ ण आदि से अभिषिक्त जल के उपयोग से सभी कार्यों की सिद्धि होती है। 16 स्वर, 25 व्यंजन और 10 अंतस्थ अक्षरों सहित कुल 51 वर्ण मातृकाओं का चमत्कारी प्रभाव माना गया है। आज का विज्ञान भी ध्वनि के आधार पर कई तरह की खोजों में व्यस्त है। इसलिए मातृकाविज्ञान अथवा मंत्रशास्त्र का वैज्ञानिक महžव स्वत: प्रमाणित है।
आचार्य ने बताया- देव माताओं के समूह अथवा अक्षरों के समूह को मातृका चक्र अथवा मातृका मण्डल कहा जाता हैं। अक्षर मातृकाओं के द्वारा सम्पन्न यज्ञ को मातृका यज्ञ कहते हैं। इसमें सस्वर मंत्रोच्चारण किया जाता है। कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, मति, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, तुष्टि और क्रांति के अर्थ में भी मातृका शब्द का प्रयोग होता है। "विष्णुपुराण" के अनुसार समय के सबसे छोटे विभाग यानी निमेष काल के लिए मात्रा शब्द प्रयुक्त होता है। माप, मानक, नियम, क्षण और कण के अर्थ में भी मात्रा शब्द देखा जा सकता है। धन-सम्पत्ति के अर्थ में मात्रा शब्द का प्रयोग होता है। "छन्दशास्त्र" में एक मात्रा का अक्षर ह्रस्व और दो मात्रा का अक्षर दीर्घ कहा जाता है। तत्व और भौतिक जगत के अर्थ में मात्रा शब्द प्रयुक्त होता है। कान की बाली के लिए भी मात्रा शब्द काम में लिया जाता है। "श्रीमद्भगवद्गीता" में भौतिक वस्तुओं के साथ इन्द्रियों के संयोग को भी मात्रा कहा गया है।
(राजस्थान पत्रिका से साभार)
very good information
जवाब देंहटाएंka varga ,pa varga matruka kya hai iski jankari kaha milegi ?
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