सोमवार, 21 नवंबर 2011

रिएक्शनरी कहीं का!


सुधीश पचौरी, लेखक व पत्रकार
पूरे 75 साल बाद निराला की भिक्षुक कविता से निकल वह अंधेरिया मोड़ पार करते हुए मिले। पूछा, कैसे हो कॉमरेड? कहां से आ रहे हो?
‘लखनऊ से पैदल आ रहा हूं। वे सब साले शताब्दी से निकल गए। मुझे वहीं छोड़ गए। मांगते-खाते दस दिन में पैदल पहुंचा हूं। अजय भवन किधर है? महासचिव को रिपोर्ट देनी है।’
बात क्या है कामरेड?
‘सब बदमाश चौबीस बाई सात की ‘सिंथेसिस’ में मस्त हैं। मुझे यह पुरानी ‘थीसिस’ पकड़ा गए और कह गए कि इसकी ‘एंटीथीसिस’ ढूंढ़ लेना! सौ साल के हो जाओ, तो बात करेंगे।
‘कौन थे ऐसे कमीने?’
‘एक हो तो बताऊं। सबने ‘प्रोग्रेसिव लेंस’ लगा रखे हैं। नामवर ने ‘प्रोग्रेसिव आई शॉप’ खोल रखी है। लेंस विचारधारा है।’
मैं बोला, प्रोग्रेसिव लेंस प्रॉब्लम है। जिधर देखना है, उधर पूरा मुंह घुमाना पड़ता है। होरी की गाय को देखूं, तो पूरा चेहरा होरी के घर की ओर घुमाना पड़ता है। ‘तुमने भी प्रोग्रेसिव लेंस लगा रखा है?’ कॉमरेड ने पूछा। ‘इन दिनों इसी का चलन है। लगाते ही नजर अपने आप दिग्दिगंत प्रोग्रेसिव हो जाती है। मार्क्‍स, एंगेल्स पढ़ने नहीं पड़ते। जिधर घुमाके देखा, वही प्रोग्रसिव। रिएक्शनरी को देखो, तो प्रोग्रेसिव। कविता प्रोग्रेसिव, कहानी प्रोग्रेसिव। एंट्री लेते ही पात्र संघर्ष करते हैं। प्रोग्रेसिव लेंस की लीला।’
निराला का भिक्षुक अपना दुखड़ा भूल गया। कान पर लाल डोरे से बंधी सन छत्तीस की ऐनक उतारकर रख दी। मैंने प्रोग्रेसिव लेंस वाला अपना चश्मा लगा दिया। उसके लगते ही उनके चक्षु त्रिकालदर्शी हो चमक उठे। कैसा लग रहा है?
कमाल है। रेखा गा रही है- ‘दिल चीज क्या है आप मिरी जान लीजिए!
‘ये क्या! तुम्हें तो गरीबी की रेखा देखनी थी!
‘इतिहास देख रहा था। रेखा निकल पड़ी।’
इतिहास देखना है, तो उधर देख जिधर ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ बैठा है। इसी प्रगतिशील ढाबे पर यहीं बैठा है, जिसे मुक्तिबोध चलाते हैं। ऐतिहासिक भौतिकवाद की पीठ पर सोवियत के उजाड़ व चीन की पूंजीवादी पछाड़ के निशान थे। वह ब्लैकबेरी से ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ को अश्लील ‘जोक’ ट्वीट कर रहा था। आक्थू! उनके मुंह से निकला! देखो-देखो, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने ऐसा दुंदीकाल पेला कि सब लालच-लाल हो गए। प्रोग्रेसिव पब्लिशर्स बंद हो गया। गोर्की, चेखव, मायकोवस्की गायब हो गए।
‘सच बताना, अपने जन्म के वक्त तुम्हें कैसा लगा?’ ‘सच कहूं? प्रेमचंद ने गुड़ -गोबर किया। खुद स्वर्ग सिधार गए और मुझे गुंडों के हवाले कर गए।’
आप अपने साथियों के लिए अपमानजनक शब्द कह रहे हैं। मैंने ऐतराज किया। वे बोले- मुन्ना, मुंह न खुलवा। पहले सब अपने नालायक बच्चों को सोवियत पढ़ने भेजते थे, अब अमेरिका-इंग्लैंड भेजते हैं। हिंदी की जगह अंग्रेजी में प्रस्ताव पारित करते हैं। मैंने कहा था कि अमेरिका घुमा दो, तो कहने लगे, पतित न बनो। साम्राज्यवाद में न जाना। खतरनाक है। सीआईए बर्बाद कर देगी। तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं! मैं संघर्ष करता रह गया। वे अपने गिरोह बनाकर साहित्यिक बटमारी में निकल गए। लखनऊ से पैदल आ रहा हूं। नरक भी पैदल जाना होगा। स्वर्ग में तो उस रामविलास ने मुगदर भांज रखा है। कहता है कि जब मैंने कहा था कि प्रगतिशील तू मर जा! तब मरा नहीं। अब रो रहा है! रिएक्शनरी कहीं का!

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