अक्षर यात्रा की कक्षा में "स" वर्ण की चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने बताया- पर्यटन, भ्रमण के अर्थ में संचारी शब्द काम लेते हैं। एक शिष्य ने कहा- गुरूजी हमें तो संचारी रोगों के बारे में पढ़ाया गया है।
आचार्य बोले- सही है पुत्र, एक से दूसरे में फैलने वाले या संक्रमण करने वाले, संक्रामक यानी छूत के रोग संचारी कहलाते हैं। "मातंगलीला" और "कुवलयानन्द" में गतिशील, गमनीय के अर्थ में संचारी शब्द का प्रयोग हुआ है। अस्थिर, परिवर्तनशील, चंचल, दुर्गम, अगम्य, क्षणभंगुर (भाव), प्रभावशाली, आनुवांशिक, वंश परम्परा प्राप्त (रोग) के अर्थ में भी संचारी शब्द काम लेते हैं। गंधद्रव्य, प्रणोदन, धूप या धूप के जलने से उठने वाला धुआं, वायु, हवा आदि अर्थो में भी संचारी शब्द प्रयुक्त करते हैं। गुंजा की झाड़ी को संचाली कहते हैं। ढेर लगाया हुआ, संगृहीत, जोड़ा गया, इकट्ठा किया गया, रखा गया, जमा किया गया, गिना गया, गणना की गई, भरा हुआ, सुसम्पन्न, संयुक्त, युक्त के अर्थ में संचित शब्द काम लेते हैं। बाधित, अवरूद्ध, सघन, घना (जैसे जंगल) के अर्थ में भी संचित शब्द प्रयुक्त होता है।
आचार्य ने बताया- संग्रह, संचय के लिए संचिति और विचार, विमर्श के लिए संचिन्तन शब्द काम लेते हैं। चूर-चूर करना को संचूर्ण कहते हैं। लिपटा हुआ, ढका हुआ, छिपा हुआ, वस्त्र पहने हुए के अर्थ में संछन्न शब्द का प्रयोग करते हैं। "रघुवंश" में संलग्न होना, जुड़े रहना, चिपके रहना के अर्थ में संज शब्द का प्रयोग हुआ है। "महाभारत" और "उत्तररामचरित" में अनु प्रत्यय के साथ संज का प्रयोग अनुसंज शब्द के रूप में चिपकना, जुड़ना, चिमटना, साथ होना के अर्थ में हुआ है। इसी तरह "भगवद्गीता" आदि ग्रंथों में भी अनुसंज इन्हीं अर्थो में दिखता है। "शिशुपाल वध" और "कुवलयानन्द" में निलम्बित करना, फेंकना, रखना, चिमटना आदि अर्थो में संज का प्रयोग अवसंज शब्द के रूप में हुआ है। सौंपना, सुपुर्द करना, निर्दिष्ट करना भी अवसंज के अर्थ हैं। "मृच्छकटिकम" में अवसंज शब्द सम्पर्क में होना, मिलते रहना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। "रघुवंश", "शकुन्तला" और "कुवलयानन्द" में जकड़ना, जोड़ना, जमाना, मिलाना, रखना आदि अर्थो में संज का प्रयोग आसंज शब्द के रूप में दिखता है। "किरातार्जुनीय" में आसंज शब्द अभिदान करना, प्रेरित करना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सुपुर्द करना, लगे रहना के अर्थ में भी आसंज का प्रयोग होता है। "कुवलयानन्द" और "रघुवंश" में जमे रहना, चिमटना के साथ ही रखा जाना, डाल दिया जाना और प्रतिबिम्बित होना के अर्थ में संज का प्रयोग निसंज शब्द के रूप में हुआ है। संलग्न होना को भी निसंज कहते हैं। "शारीर भाष्य" में चिमटना, जुड़ना, प्रयुक्त होना, अनुकरण करना, सही उतरना, ठीक बैठना के अर्थ में प्रसंज शब्द काम लिया गया है। "उत्तररामचरित" में मिलाना, साथ-साथ जोड़ना के अर्थ में व्यतिसंज शब्द में संज का प्रयोग हुआ है। ब्र्रह्मा और शिव का नाम भी संज है।
आचार्य ने बताया- संजय महाभारत का एक प्रसिद्ध पात्र था। यह धृतराष्ट्र का सारथि था। "भगवद् गीता" में प्रसंग है कि संजय ने कौरवों और पांडवों के झगड़े में शांति-पूर्ण समझौता कराने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु वह विफल रहा। उसी ने अन्धे राजा धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध का विवरण सुनाया। धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम संजय था। एक प्रकार के युद्ध व्यूह को भी संजय कहते हैं। वार्तालाप, अव्यवस्थित बातचीत, बकवाद करना, गड़बड़, शोर गुल और हंगामा के अर्थ में संजल्प शब्द काम लेते हैं।
आचार्य बोले- सही है पुत्र, एक से दूसरे में फैलने वाले या संक्रमण करने वाले, संक्रामक यानी छूत के रोग संचारी कहलाते हैं। "मातंगलीला" और "कुवलयानन्द" में गतिशील, गमनीय के अर्थ में संचारी शब्द का प्रयोग हुआ है। अस्थिर, परिवर्तनशील, चंचल, दुर्गम, अगम्य, क्षणभंगुर (भाव), प्रभावशाली, आनुवांशिक, वंश परम्परा प्राप्त (रोग) के अर्थ में भी संचारी शब्द काम लेते हैं। गंधद्रव्य, प्रणोदन, धूप या धूप के जलने से उठने वाला धुआं, वायु, हवा आदि अर्थो में भी संचारी शब्द प्रयुक्त करते हैं। गुंजा की झाड़ी को संचाली कहते हैं। ढेर लगाया हुआ, संगृहीत, जोड़ा गया, इकट्ठा किया गया, रखा गया, जमा किया गया, गिना गया, गणना की गई, भरा हुआ, सुसम्पन्न, संयुक्त, युक्त के अर्थ में संचित शब्द काम लेते हैं। बाधित, अवरूद्ध, सघन, घना (जैसे जंगल) के अर्थ में भी संचित शब्द प्रयुक्त होता है।
आचार्य ने बताया- संग्रह, संचय के लिए संचिति और विचार, विमर्श के लिए संचिन्तन शब्द काम लेते हैं। चूर-चूर करना को संचूर्ण कहते हैं। लिपटा हुआ, ढका हुआ, छिपा हुआ, वस्त्र पहने हुए के अर्थ में संछन्न शब्द का प्रयोग करते हैं। "रघुवंश" में संलग्न होना, जुड़े रहना, चिपके रहना के अर्थ में संज शब्द का प्रयोग हुआ है। "महाभारत" और "उत्तररामचरित" में अनु प्रत्यय के साथ संज का प्रयोग अनुसंज शब्द के रूप में चिपकना, जुड़ना, चिमटना, साथ होना के अर्थ में हुआ है। इसी तरह "भगवद्गीता" आदि ग्रंथों में भी अनुसंज इन्हीं अर्थो में दिखता है। "शिशुपाल वध" और "कुवलयानन्द" में निलम्बित करना, फेंकना, रखना, चिमटना आदि अर्थो में संज का प्रयोग अवसंज शब्द के रूप में हुआ है। सौंपना, सुपुर्द करना, निर्दिष्ट करना भी अवसंज के अर्थ हैं। "मृच्छकटिकम" में अवसंज शब्द सम्पर्क में होना, मिलते रहना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। "रघुवंश", "शकुन्तला" और "कुवलयानन्द" में जकड़ना, जोड़ना, जमाना, मिलाना, रखना आदि अर्थो में संज का प्रयोग आसंज शब्द के रूप में दिखता है। "किरातार्जुनीय" में आसंज शब्द अभिदान करना, प्रेरित करना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सुपुर्द करना, लगे रहना के अर्थ में भी आसंज का प्रयोग होता है। "कुवलयानन्द" और "रघुवंश" में जमे रहना, चिमटना के साथ ही रखा जाना, डाल दिया जाना और प्रतिबिम्बित होना के अर्थ में संज का प्रयोग निसंज शब्द के रूप में हुआ है। संलग्न होना को भी निसंज कहते हैं। "शारीर भाष्य" में चिमटना, जुड़ना, प्रयुक्त होना, अनुकरण करना, सही उतरना, ठीक बैठना के अर्थ में प्रसंज शब्द काम लिया गया है। "उत्तररामचरित" में मिलाना, साथ-साथ जोड़ना के अर्थ में व्यतिसंज शब्द में संज का प्रयोग हुआ है। ब्र्रह्मा और शिव का नाम भी संज है।
आचार्य ने बताया- संजय महाभारत का एक प्रसिद्ध पात्र था। यह धृतराष्ट्र का सारथि था। "भगवद् गीता" में प्रसंग है कि संजय ने कौरवों और पांडवों के झगड़े में शांति-पूर्ण समझौता कराने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु वह विफल रहा। उसी ने अन्धे राजा धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध का विवरण सुनाया। धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम संजय था। एक प्रकार के युद्ध व्यूह को भी संजय कहते हैं। वार्तालाप, अव्यवस्थित बातचीत, बकवाद करना, गड़बड़, शोर गुल और हंगामा के अर्थ में संजल्प शब्द काम लेते हैं।
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