शिक्षा इस देश के रहने वालों का मौलिक अधिकार है तो शिक्षा सुलभ कराना सरकारों का बुनियादी दायित्व. प्रगति का आधार शिक्षित नागरिक ही हो सकते हैं, लेकिन इस दिशा में हम आज भी बेहद पिछड़े हुए हैं. सर्वसुलभ बनाने की जगह पिछले दो दशक से भी समय से शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया और सरकारें शिक्षक नामक संस्था को खत्म करने के लिए मनोयोग से जुटी हुई हैं. हर साल पढ़ाई की दृष्टि से सबसे संवेदनशील समय में शिक्षण संस्थान बाधित होते हैं और हड़तालों का दौर चलता है. शिक्षकों की भर्ती बन्द है और बेरोजगारों की विवशता का फायदा उठाते हुए शिक्षाकर्मियों की भर्ती को प्रोत्साहित किया गया. कथित स्थापना व्यय पर अंकुश लगाने और मितव्ययिता के नाम पर बेहद कम मानदेय देकर स्कूलों में पढ़ाने वालों की व्यवस्था की जाने लगी, जो बदस्तूर जारी है. शिक्षकों और शिक्षाकर्मियों के काम की प्रवृत्ति में रंच मात्र भी अंतर नहीं है लेकिन वेतन सहित तमाम सुविधाओं में जमीन-आसमान का फर्क है. अध्यापकों के बीच इस असमानता से उपजी कुंठा ने पढ़ाई के स्तर को गंभीर रूप से प्रभावित किया है. इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह भी है कि मां-बाप के बाद किसी के भी जीवन में शिक्षक का ही महत्वपूर्ण स्थान होता है जो उसके भविष्य को गढ़ता है. शिक्षकों की भूमिका पर बात करते तकरीबन हर आदमी श्रद्धावनत हो जाता है. वस्तुत: अध्यापन ही एक एेसा असामान्य पेशा है जो शिक्षकों को संस्था बना देती है. उन्हें बेहतर नहीं तो कंटकाकीर्ण जीवन देकर गुणवत्ता की उम्मीद नहीं की जा सकती. आखिर क्यों देश के कतिपय राज्यों को छोडक़र सभी प्रान्त शिक्षक संस्था के समूल विनाश पर तुले हैं? प्रदेश के शिक्षाकर्मी हर साल की तरह आंदोलित हैं और अपनी मांगों की फेहरिस्त में उन मामूली सुविधाओं को शामिल किया है जो आमतौर पर शासकीय सेवारत कर्मियों को मिलती है. शिक्षाकर्मियों को इतना दुर्दशाग्रस्त रखा गया है कि उनसे कई महीनों तक भूखे पेट अध्यापन की उम्मीद रखी जाती है. समान काम के लिए समान वेतन की मांग, पदोन्नति की गुजारिश, स्थानांतरण नीति, अनुकंपा नियुक्ति आदि एेसे बिन्दु हैं जिनमें कोई नई बात नहीं है. हैरानी की बात यह है कि इस तरह की मांगों पर अभी तक कोई निर्णय क्यों नहीं लिया गया है? सभी सतर्क नागरिकों को यह बात खलती है कि स्कूलों में संसाधनों का अभाव है और वह बढ़ता ही जा रहा है. इसके साथ ही हैरान-परेशान अध्यापक शिक्षा व्यवस्था के लिए किसी से दृष्टि हितकारी नहीं हैं. अंतर्राष्ट्रीय मंचों से प्रधानमंत्री कहते थकते नहीं हैं कि भारत श्रेष्ठ प्रतिभाओं का देश है जिसने विश्व को लाभान्वित किया है. प्रदेश सरकार को भी छत्तीसगढ़ की मेधा पर गर्व है जिसका उल्लेख मुख्यमंत्री दिग-दिगंत में कर आए हैं. इन सबके बाद भी मामूली सुविधाओं को उपलब्ध कराने और जरूरी वेतन देने में कृपणता क्यों? शिक्षक संस्था की पुनर्बहाली शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने की दिशा में पहली शर्त होनी चाहिए, वहीं इस क्षेत्र में बाजारीकरण को रोकने की कोशिशों पर भी काम करने की जरूरत है.
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