गणतंत्र पर दिवस भारतीय गण की ताकत, विकास और समृद्धि के प्रदर्शन के लिए महीनों से तैयारी की जाती है और समूचा विश्व देखता है. वहीं दूसरी ओर भारतीय गणराज्य की घोषणा के महापर्व पर सम्यक समीक्षा की आवश्यकता आज भी महसूस की जा रही है. भारत के प्रधानमंत्री लगातार विदेश दौरों में गणराज्य की ताकत को बखूबी बताते हैं और उल्लेख करते हैं कि भारत नौजवानों का देश है जहां की 30 से अधिक प्रतिशत आबादी तरूणों की है. भारत के विद्याॢथयों की शिक्षा और कौशल के विश्व को अवदान की चर्चा भी अवश्य की जाती है. इस सबसे बड़े तबके की चर्चा करें तो एक स्याह तस्वीर भी उभरती है. तीन मेडिकल छात्राओं की कथित आत्महत्या, उससे पहले शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या, कोटा में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते छात्र की खुदकुशी तो हाल की ही बहुचॢचत घटनाएं हैं, लेकिन पूरी तरूणाई इतनी ही बेबसी में है और फिलहाल पढ़ाई सहित रोजगार की चिंता में अवसादग्रस्त है. भारत में विश्वविद्यालय परिसरों में निरंतर पठन-पाठन, शोध, अनुसंधान में कमी आ रही है. स्वच्छंद, स्वतंत्र विकास की संभावनाएं निरंतर कम होती जा रही हैं. सरकारों द्वारा शिक्षा बजट में कटौतियों के साथ छात्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने की कवायद लगातार जारी है. कैम्पस से देश के निर्माण हेतु वैज्ञानिक, नौकरशाह, शिक्षाविद, राजनेता सहित विविध क्षेत्र की प्रतिभाएं निकलती हैं. इस उद्गम को प्रदूषित करने से समूचे देश का विकास प्रदूषित होगा. यहां छोटे से राजनीतिक स्वार्थ के लिए किसी पर बदले की राजनीतिक कार्यवाही से बाज आना चाहिए. शहरी बेरोजगारी चिंताजनक स्थिति पर है. एक रिपोर्ट के अनुसार निजी और सरकारी क्षेत्र से निकले स्नातक अभियंताओं में से 80 फीसदी नौकरी के काबिल नहीं पाए जाते. एेसी स्थिति में कुकुरमुत्तों की तरह संस्थानों को स्थापित करने और व्यवसायीकरण का औचित्य क्या है? हर साल हजारों छात्र उच्च शिक्षा पूरा किए बगैर संस्थानों से बाहर आ जाते हैं. ग्रामीण क्षेत्र के नौजवानों की हालात और भी खराब है. ग्रामीण शैक्षणिक परिसरों की स्थिति बिगड़ती ही जा रही है. रूपए में तौली जा रही शिक्षा से ग्रामीण नौजवान वंचित हैं. एेसी स्थिति में देश की नौजवानी पर गर्व करने से पहले सर्वसुलभ गुणवत्ता और कौशल बढ़ाने वाली शिक्षा को युक्तिसंगत बनाते हुए उसका हक सबको सुनिश्चित करने की कोशिश की जानी चाहिए. दुनियाभर की नजरें भारत में इसलिए रहती है क्योंकि यहां विशाल आबादी पश्चिमी देशों के लिए विराट उपभोक्ता समूह है. भारत की सबसे बड़ी जनसंख्या ग्रामीणों और किसानों की है और देश में कृषि सबसे जोखिम का काम है. सिंचाई सहित तमाम सरकारी सहायता के अभाव में बैकों और महाजनों के कर्ज से दबे किसान आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए विवश होते हैं और यह आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं. सरकारी गोदाम में अनाज सड़ता है तो बुंदेलखंड में गांव का गरीब घास की रोटी खाता है. भारत का गण ही इतना विवश हो तो गणतंत्र कैसे सशक्त हो सकता है? आज जरूरी है कि देश की तरूणाई और किसान सहित सबका सम्यक विकास हो, ताकि गणतंत्र सशक्त हो सके.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें