समूचे विश्व में विकास का पहिया थम सा गया है और बुद्धिमान अर्थशास्त्रियों के मुताबिक फिर से दुनिया सन 2008 जैसी मंदी के मुहाने पर आ खड़ी हुई है. स्विटजरलैंड के दावोस में सभी देशों के दिग्गज चिंतित हैं और मंदी के भयपूर्ण वातावरण से मुक्त होने के उपायों पर चर्चा कर रहे हैं. बीसवीं सदी के आरंभ से ही वैश्विक स्तर पर मंदियों का सिलसिला चलता ही रहा है और दुनिया को नए सिरे से बांटने के लिए विश्व युद्ध भी हुए हैं. आज परिस्थितियां पहले से बहुत अलग हैं और व्यावसायिक वैश्वीकरण और मुक्त-व्यापार की स्थितियों ने किसी भी देश को परेशानी से बचे रहने की गुंजाईश ही नहीं छोड़ी है. अब विकसित देशों में एेसी प्रणाली विकसित की है जिसके तहत देश अपनी विशिष्टताओं को छोडक़र वैश्विक आॢथक प्रणाली की कतार में जा खड़ा हुआ है. भारत अभी भी विकासशील देश है. जब आजादी के बाद भारत के आॢथक भविष्य गढऩे की बात उठी तो दो-ध्रुवीय विश्व की विशेषताओं को अपनाने का निश्चय कर मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींव रखी गई. सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना समाजवादी देशों की तर्ज पर की गई और आज भी यही क्षेत्र देश की आॢथकी की रीढ़ है. सन 1997 या 2008 की वैश्विक महा-मंदी का असर भारत में इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र बाजार की ताकतों के हाथ में नहीं थी. यह बात निश्चित रूप से देश के सत्ताधारी वर्ग और अर्थजगत के विद्वानों को मालूम है लेकिन नई आॢथक नीति व उदारीकरण ने अब सार्वजनिक क्षेत्र को धीरे-धीरे बाजार के हवाले कर दिया और इनकी तकदीर वैश्विक वित्तीय पूंजी और शेयर बाजार के अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव ने लिखना शुरू कर दिया. दावोस में जिन बातों पर चिंता की जा रही है उनमें चीन के विकास दर का पिछले 25 साल में सबसे कम होना, युआन के अवमूल्यन से दुनिया भर के व्यापार का लडख़ड़ाना, तेल की कीमत का एक साल के दौरान के 70 फीसदी तक गिर जाना, फेडरल बैंक के ब्याज दरों में बढ़ोतरी का निर्णय आदि है, जिसके कारण दुनिया भर में आॢथक गतिविधियां थमती जा रही हैं. बैंक आफ इंटरनेशनल सेटलमेंट्स के पूर्व चीफ इकानामिस्ट विलियम वाइट ने 2007 की परिस्थितियों का आंकलन कर 2008 की मंदी की सटीक चेतावनी दी थी, उन्होंने ही फिर बैकों को आवश्यक सुझाव देते हुए फिर मंदी के हालात का विश्लेषण किया. इसके बाद भारत सहित सारी दुनिया के शेयर बाजार लगातार लुढक़ रहे हैं. बैकिंग संस्थाओं के पुन: धराशायी होने की गुंजाईश बढ़ी है, जबकि हालात संभालने के विकल्प सीमित हैं. मंदियों के दौर का आना नई आॢथक व्यवस्था और पुरानी नीतियों के मुताबिक भी असहज स्थिति नहीं है, लेकिन भारत जैसे किसी देश की अपनी स्वतंत्र आॢथक प्रणाली का ध्वस्त होना और वैश्विक परेशानी में भागीदार होने की प्रक्रिया पर लगाम लगाया जा सकता था. आज जब सार्वजनिक क्षेत्र को समाप्त करने की मुहिम चल रही है, जरूरत इस बात की है कि उसे बचाएं और सशक्त करें ताकि देश की आॢथकी सुरक्षित रह सके.
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