सोमवार, 11 नवंबर 2019

अब नोटबंदी को गलत कैसे कह दूँ!


◾️नोटबंदी के बाद भी पहले की अपेक्षा ज्यादा ताकतवर बनकर केंद्र की सत्ता में काबिज हुआ, ज्यादा निरंकुश हुआ!
◾️क्या मतदाताओं की निर्णायक संख्या में नोटबंदी को जायज नहीं माना!
◾️नोटबंदी की घोषणा के साथ लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को लकवा मार गया था!
◾️ये बात अलग है कि बहुत बाद में ज्ञान झाड़ने आकर माथा ख़राब करते रहे.
◾️अर्थशास्त्र में दुनिया को लोहा मनवाने वाले वामदल, सीताराम येचुरी जैसे महान जानकार सिर्फ ये घिघियाते रहे कि केरल और त्रिपुरा को राहत दो! हो सके तो जनता को भी दे देना.
◾️इतने निकम्मे राजनीतिक दलों और नेताओं के बीच नरेंद्र मोदी क्या कोई भी ऐसी घटिया हरकत आराम से कर सकता है!
◾️3 साल बाद भी रोना-धोना विपक्ष के नेताओं और जिम्मेदार बुद्धिजीवियों का मात्र नाटक है !
◾️मुझे याद है, मेरे आदर्श रहे/हैं- ऐसे लोगों ने समझाने की कोशिश की नोटबंदी रद्द करने की मांग व्यर्थ है, यह सरासर कायरता थी!
◾️नोटबंदी दिवस हो या उसकी बरसी, नरेंद्र मोदी को चौराहे पर आने की चुनौती देने की जगह अपने मुंह पर थप्पड़ मारें तो यह दिवस सफल हो जाएगा.........

विरोधाभास

हिंदू पक्ष हमेशा से कहता रहा है कि बाबरी मसजिद राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। कोर्ट ने कहा, भारतीय पुरातत्व सर्वे यानी एएसआई की रिपोर्ट से ऐसा कुछ नहीं साबित होता कि यह मसजिद राम मंदिर या कोई भी मंदिर तोड़कर बनाई गई थी।
कोर्ट ने माना कि मसजिद किसी ख़ाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी। वहाँ किसी टूटे-फूटे मंदिर के अवशेष थे लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि इससे इस ज़मीन पर हिंदू पक्ष का क़ब्ज़ा साबित नहीं होता। यानी कोर्ट ने यह दलील नहीं मानी कि इस ज़मीन पर पहले कोई मंदिर होने के कारण इस भूमि पर हिंदुओं का अधिकार है।
कोर्ट ने यह भी माना कि 1855 से लेकर 16 दिसंबर 1949 तक वहाँ लगातार मुसलमान नमाज़ पढ़ते थे और मसजिद के अंदर यानी उस जगह पर जहाँ रामलला की प्रतिमा रखी गई है, वहाँ मुसलमानों का नियमित प्रवेश था। दूसरे शब्दों में यह परित्यक्त मसजिद नहीं थी और मुसलमानों का उसपर क़ब्ज़ा रहा है।
कोर्ट ने यह भी माना कि 23 दिसंबर 1949 की रात को मसजिद के अंदर मूर्तियाँ रखने की कार्रवाई ग़लत क़दम थी।
कोर्ट ने 6 दिसंबर 1992 को मसजिद के विध्वंस को भी ग़लत बताया।
कोर्ट ने हिंदू पक्ष की केवल यह दलील मानी कि मसजिद के बाहरी अहाते पर जहाँ राम चबूतरा, सीता रसोई आदि है, वहाँ लगातार हिंदुओं का क़ब्ज़ा रहा। लेकिन यह ऐसी दलील थी जिससे मुसलिम पक्ष ने कभी इनकार नहीं किया।

अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला समझना मेरे लिए मुश्किल: सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज


सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज अशोक कुमार गांगुली ने अयोध्या रामजन्म भूमि विवाद मामले पर अदालत के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि इससे उनके दिमाग में संशय पैदा हो गया है और वह फैसले से काफी व्यथित हैं.
द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस गांगुली (72) ने कहा, ‘अल्पसंख्यकों ने यहां कई पीढ़ियों से मस्जिद देखी है. उसे ढहा दिया गया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार वहां मंदिर का निर्माण किया जाएगा. इससे मेरे दिमाग में संशय पैदा हो गया है. कानून का छात्र होने के नाते इसे स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है.’
उन्होंने कहा कि शनिवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि जब किसी स्थान पर नमाज़ अदा की जाती है तो नमाज़ अदा करने वाले का विश्वास होता है कि यह मस्जिद है और उसे चुनौती नहीं दी जा सकती.
उन्होंने कहा, ‘बेशक 1856-57 में वहां नमाज़ पढ़ने के सबूत नहीं मिले हों लेकिन 1949 से वहां नमाज़ पढ़ी गई. इसके सबूत हैं इसलिए जब हमारा संविधान अस्तित्व में आया तो नमाज़ वहां पढ़ी जा रही थी. एक जगह जहां नमाज़ पढ़ी गई और अगर उस जगह पर एक मस्जिद थी तो फिर अल्पसंख्यकों को अधिकार है कि वे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता का बचाव करें. यह संविधान में लोगों को मौलिक अधिकार है.’
जस्टिस गांगुली ने कहा, ‘इस फैसले के बाद आज मुसलमान क्या सोचेगा? वहां वर्षों से एक मस्जिद थी, जिसे तोड़ा गया. अब सुप्रीम कोर्ट ने वहां मंदिर बनाने की अनुमति दे दी है. यह अनुमति इस आधार पर दी गई कि जमीन रामलला से जुड़ी थी. क्या सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि सदियों पहले जमीन पर मालिकान हक़ किसका था? क्या सुप्रीम कोर्ट क्या इस बात को भूल जाएगा कि जब संविधान आया तो वहां एक मस्जिद थी? संविधान में प्रावधान हैं और यह सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वो उसकी रक्षा करे.’
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने कहा, ‘संविधान के लागू होने के बाद वहां पहले क्या था, यह सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी नहीं है. उस समय भारत कोई लोकतांत्रिक गणतंत्र नहीं था. तब वहां एक मस्जिद थी, एक मंदिर था, एक बौद्ध स्तूप था, एक चर्च था. अगर हम इस तरह बैठकर फैसला देंगे तो बहुत सारे मंदिर, मस्जिदें और अन्य ढांचों को तोडना पड़ेगा. हम पौराणिक तथ्यों पर नहीं जा सकते. राम कौन थे? क्या किसी तरह का ऐतिहासिक साक्ष्य है? यह आस्था और विश्वास का मामला है.’
उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आस्था और विश्वास के आधार पर आपको कोई प्राथमिकता नहीं मिल सकती. वे कह रहे हैं कि मस्जिद के नीचे एक ढांचा था लेकिन ढांचा मंदिर का नहीं था. कोई नहीं कह सकता कि मंदिर को ढहाकर मस्जिद बनाई गई लेकिन अब मस्जिद को ढहाकर मंदिर बनाया जाएगा?’
गांगुली ने कहा, ‘500 साल पहले जमीन का मालिकाना हक किसके पास था? क्या कोई जानता है? हम इतिहास को दोबारा नहीं बना सकते. अदालत की जिम्मेदारी है कि जो भी है, उसका संरक्षण किया जाए. इतिहास को दोबारा बनाना अदालत की जिम्मेदारी नहीं है. वहां 500 साल पहले क्या था, यह जानना अदालत का काम नहीं है. मस्जिद का वहां होना सीधे एक तर्क था, ऐतिहासिक तर्क नहीं बल्कि एक ऐसा तर्क जिसे हर किसी ने देखा है. इसका गिराया जाना सभी ने देखा, जिसे रिस्टोर किया जाना चाहिए. जब उनके पास मस्जिद होने का कोई अधिकार नहीं है तो आप मस्जिद के निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन देने के लिए सरकार को निर्देश कैसे दे रहे हैं. क्यों? आप स्वीकार कर रहे हैं कि मस्जिद को नष्ट किया जाना उचित नहीं था.’
यह पूछने पर कि आप उचित और निष्पक्ष फैसला किसे मानेंगे? इस पर जस्टिस गांगुली ने कहा, ‘मैं दो में से कोई एक फैसला लेता या तो मैं उस क्षेत्र में मस्जिद को दोबारा बनाए जाने को कहता या अगर वह जगह विवादित होती तो मैं कहता कि वहां न तो मस्जिद बनेगी और न ही मंदिर. आप वहां कोई अस्पताल या स्कूल बना सकते हैं या इसी तरह का कुछ या कॉलेज. मंदिर और मस्जिद दूसरे इलाकों में बनाने को कहा जा सकता था. इस जमीन को हिंदुओं को नहीं देना चाहिए था. यह विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) और बजरंग दल का दावा है. वे उस समय और आज किसी भी मस्जिद को ढहा सकते थे. उन्हें सरकार का समर्थन मिल रहा था और अब उन्हें न्यायपालिका का भी समर्थन मिल रहा है. मैं बहुत व्यथित हूं. बहुत सारे लोग स्पष्ट तरीके से ये चीजें नहीं कहेंगे.’

मुस्लिम अब और हाशिए पर'


पिछले कई साल में मैं कई मुसलमानों से मिला, जो चाहते थे कि अयोध्या में मंदिर बन जाए, ताकि उन्हें इस मसले से छुटकारा मिले.
मुसलमानों को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद देश में हुए दंगे याद हैं, इसलिए वो एक मस्जिद से ज़्यादा अपनी सुरक्षा की फ्रिक करते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद के लिए अलग से उपयुक्त ज़मीन देने की बात कही है. इसके बावजूद इस फ़ैसले से मुसलमानों को हाशिए पर धकेले जाने और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझे जाने की बात को एक तरह से क़ानूनी मान्यता मिल गई है.
आज के भारतीय मुसलमान ज़्यादा चिंतित हैं, क्योंकि उनके सामने नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न यानी एनआरसी जैसी चुनौतियां हैं.
वो जानते हैं कि उन्हें सिस्टम से अब न्याय नहीं मिलेगा, इसलिए अब वो कागज़ात ढूंढने की जद्दोजहद में लग गए हैं, ताकि ये साबित कर सकें कि उनके दादा-परदादा भारत से थे. (BBC HINDI)

विरोधाभास

हिंदू पक्ष हमेशा से कहता रहा है कि बाबरी मसजिद राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। कोर्ट ने कहा, भारतीय पुरातत्व सर्वे यानी एएसआई की रिपोर्ट से ऐसा कुछ नहीं साबित होता कि यह मसजिद राम मंदिर या कोई भी मंदिर तोड़कर बनाई गई थी।
कोर्ट ने माना कि मसजिद किसी ख़ाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी। वहाँ किसी टूटे-फूटे मंदिर के अवशेष थे लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि इससे इस ज़मीन पर हिंदू पक्ष का क़ब्ज़ा साबित नहीं होता। यानी कोर्ट ने यह दलील नहीं मानी कि इस ज़मीन पर पहले कोई मंदिर होने के कारण इस भूमि पर हिंदुओं का अधिकार है।
कोर्ट ने यह भी माना कि 1855 से लेकर 16 दिसंबर 1949 तक वहाँ लगातार मुसलमान नमाज़ पढ़ते थे और मसजिद के अंदर यानी उस जगह पर जहाँ रामलला की प्रतिमा रखी गई है, वहाँ मुसलमानों का नियमित प्रवेश था। दूसरे शब्दों में यह परित्यक्त मसजिद नहीं थी और मुसलमानों का उसपर क़ब्ज़ा रहा है।
कोर्ट ने यह भी माना कि 23 दिसंबर 1949 की रात को मसजिद के अंदर मूर्तियाँ रखने की कार्रवाई ग़लत क़दम थी।
कोर्ट ने 6 दिसंबर 1992 को मसजिद के विध्वंस को भी ग़लत बताया।
कोर्ट ने हिंदू पक्ष की केवल यह दलील मानी कि मसजिद के बाहरी अहाते पर जहाँ राम चबूतरा, सीता रसोई आदि है, वहाँ लगातार हिंदुओं का क़ब्ज़ा रहा। लेकिन यह ऐसी दलील थी जिससे मुसलिम पक्ष ने कभी इनकार नहीं किया।

समाचारों के भी रंग होते हैं?

समाचारों के भी रंग होते हैं? काला, हरा, नीला, पीला, बैगनी, लाल, भगवा वगैरह वगैरह? शायद समाचार का अर्थ तथ्यों को बगैर तोड़े-मरोड़े यथावत रखना, अपने दृष्टिकोण से अलग रखते हुए रख देना होता है!
पैकेजिंग के बहाने दिमागी दुर्बलता और सड़ांध को परोसने का क्रम लंबे समय से जारी है।
अखबारों का पक्षकार बनना सामान्य सी बात हो चुकी है।
गोदी मीडिया -इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो सारे मूल्यों पद दलित कर खुद को खबरनवीसी की जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया है पर खुद को मध्यकाल के सामंतों के चारण-भाट के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए आतुर है।
बहरहाल, आज के अखबारों के पहले पन्ने या जैकेट पर नजर डालें तो वह भगवा रंग में रंगा है। यह मात्र रंग हो सकता है, अन्य रंगों की तरह, लेकिन आरएसएस का ध्वज और 'जय श्री राम' के नाम पूरी पट्टी कौन सी कथा कह रही है?
समाचारों के प्रतुतिकरण का एक। पक्षीय हो जाना पत्रकारिता की किस श्रेणी में आएगा?
आकर्षक बनाना और पैकेजिंग का अर्थ यह तो नहीं हो सकता कि हिन्दू-मुसलमान-सिख, ईसाई, पारसी, जैनी, बौद्ध हो जाये।
तथ्यों को परोसने वाले आर्डर पर माल तैयार करने वाले हलवाई भी कैसे हो सकते हैं?
वाकई, अब कोई सोचता नहीं और भेड़चाल में ऐसा कुछ भी करने लगता है कि यह कहना पड़ता है कि "प्रभु इन्हें माफ कर देना...." अन्यथा जानबूझ ऐतिहासिक अपराध करते हैं, इस पेशे की नैतिकता की निर्मम हत्या में लिप्त रहते हैं।
समाचारों की दमदार पैकेजिंग का अर्थ क्या हो यह सब कैसे तय होगा?
वामपंथी, दक्षिणपंथी मध्यमार्गी सत्ता में आते जाते रहेंगे। कोई भी पक्ष अमरत्व हासिल नहीं कर सकता, लेकिन कुछ क्षेत्र शाश्वत होते हैं। प्रवृत्तियां स्थायी होती हैं, उसकी रक्षा देश की विविधता और धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बचाये रख सकती हैं।

जो समझ से परे है

सबसे बड़े उर्दू अखबार ‘इंकलाब’ ने ‘एक लंबे इंतजार के बाद’ नामक शीर्षक से लिखे अपने संपादकीय में लिखा कि जो फैसला आया है, उसे स्वीकार करने का करने का ही एक मात्र विकल्प था। लेकिन अब उम्मीद की आखिरी लौ भी अब बुझ गई है। अखबार ने लिखा कि निराशा की भावना खत्म नहीं होगी। इसमें सवालिया लहजे में कहा गया है, “यह एकमात्र बिंदु है जो समझ से परे है। यदि मस्जिद वहां थी, तो फैसला इसके पक्ष में क्यों नहीं आया?”
इंकलाब लिखता है, “फैसला सबूतों के बजाय परिस्थितियों पर आधारित है।” अखबार ने मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या में वैकल्पिक 5 एकड़ जमीन मुहैया कराने पर भी सवाल उठाए हैं। इसमें कहा गया है,”अदालत ने फैसला सुनाया है कि मुसलमानों को भी नुकसान के मुआवजे के रूप में जमीन दिए जाने का अधिकार है, (लेकिन) समय और स्थान तय नहीं किया गया है। जबकि इसके विपरीत मंदिर बनाने के लिए सरकार ने तीन महीने के भीतर एक ट्रस्ट बनाने को कहा है। असंतोष इस बात का है कि 6 दिसंबर 1992 तक लोगों को दिखाई देने वाली मस्जिद के लिए कोई ठोस और विशेष निर्णय नहीं लिया गया।”

गुरुवार, 10 जनवरी 2019

खेल की उपलब्धियां भी हमारे विकास का अनिवार्य हिस्सा बने

फीफा वल्र्ड कप का सरताज फ्रांस के बनते ही राष्ट्रपति मेक्रों सहित फ्रांस और दुनियाभर के फुटबाल प्रेमी झूम उठे. क्रोएशिया ने भी योद्धाओं की तरह लोहा लिया और विश्वभर के खेल प्रेमियों का दिल जीत लिया. इस आयोजन के दौरान दर्शकों का डूबना-उतरना जारी रहा. फुटबाल महाकुंभ के समापन के साथ आगामी स्पर्धाआें की तैयारियों में सभी देश जुट जाएंगे तथा सफलता, असफलताओं की समीक्षा भी की जाएगी. भारत में भी एेसे मौकों पर आत्म-चिंतन जरूरी हो जाता है कि खेल की दुनिया में आखिर हम कहां खड़े हैं. आबादी के लिहाज से दुनिया के दूसरे स्थान पर हमारा नाम होने के बाद भी खेल के मानचित्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल करना अभी तक सपना ही बना हुआ है. 68 वर्ष पहले भारत ने 1950 में ब्राजील में आयोजित फीफा वल्र्ड कप के लिए क्वालिफाई किया था, उसके बाद से इस टूर्नामेंट में भाग लेना संभव नहीं हो सका. भारत ने जकार्ता एशियाई खेलों में फुटबॉल का गोल्ड मेडल जीता था. भारत को एशियाई फुटबॉल का ब्राजील तक कहा जाने लगा था. तब चुन्नी गोस्वामी, बीके बेनर्जी, जरनैल सिंह, थंगराज जैसे खिलाड़ी भारतीय फुटबॉल का हिस्सा थे. आज सुनील क्षेत्री जैसे बेहतरीन खिलाड़ी होने के बाद भी फीफा रैंकिंग भारत का स्थान 97वां है. यह स्थिति बताती है कि खेलों को लेकर यहां सजगता और नीति का अभाव शुरू से बना रहा है. तमाम खेल संघों की दशा यह है कि खिलाडिय़ों की नर्सरी बनने की जगह ये बाग उजाडऩे वालों की भूमिका में आ जाते हैं. तमाम अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में पदक और उपलब्धियां हासिल करने वाले खिलाड़ी संघर्षों-अभावों से जूझकर अपने बूते पर आगे बढ़े हैं. कुछेक राज्यों में खेल के विकास पर ध्यान देने की कोशिश की गई है, लेकिन वे पर्याप्त नहीं कहे जा सकते. असम से हीमादास जैसी एथलीट जब स्वर्णपदक हासिल करती हैं तो भारत का कुंठित अभिजात्य मन उसकी अंग्रेजी ठीक से न बोल पाने से आहत हो जाता है. ऐसे लोगों को यह पूछा जाना गलत नहीं होगा कि आखिर खेल की कोई भाषा कैसे बनाई जा सकती है? खेल देश, भाषा, नस्ल की सीमाओं को तोडक़र विश्व बंधुत्व की भावना को बढ़ाने का सबसे बड़ा माध्यम है. देश ही नहीं, अपितु अतरराष्ट्रीय स्तर पर सकारात्मकता का वातावरण तैयार करता है. आज कुछ लाख की आबादी वाले देश विश्वस्तर पर खेल कौशल से चमत्कृत करते हैं, तो उन्हीं संबंधित देशों की जनता में खुशहाली भी देखी जा सकती है. भारत विकास के पैमाने पर तेजी से बढ़ता हुआ देश है. लेकिन यह विकास तब तक एकांगी दिखता है जब तक खेल में भी हमारी उपलब्धियां दर्ज होकर दुनिया का ध्यान न खींचे.

लड़कियों को शिक्षा सहित सारे लोकतांत्रिक अधिकारों की जरूरत

विश्व स्तर पर लड़कियों को शिक्षा से दूर रखने का प्रयास किया जाता है और करोड़ों लड़कियां समुचित योग्यता, प्रतिभा होते हुए भी शिक्षा के अभाव में पेशेवर नहीं बन पाती हैं. मलाला दिवस पर विश्व बैंक ने जारी रिपोर्ट में कहा है कि लड़कियों को शिक्षित न करने से वैश्विक अर्थव्यवस्था को 150 से 300 खरब डॉलर का नुकसान होता है. हालत यह है कि निम्न आय वर्ग वाले परिवारों से दो-तिहाई से भी कम लड़कियां प्राथमिक शिक्षा पूरी कर पाती हैं. वहीं तीन में से केवल एक लडक़ी माध्यमिक शिक्षा पूरी कर पाती हैं. यह सर्वविदित है कि शिक्षा से रोजगार मिलने की संभावना दोगुनी हो जाती है. विकसित देशों से लेकर गरीब और विकासशील देशों तक लड़कियों-महिलाओं की शिक्षा के बदतर हालात के लिए अनेक कारण हैं. पहला ठोस कारण, आर्थिक विपन्नता है, जो समान रूप से लडक़े-लड़कियों के शैक्षिक विकास में बाधा बनकर सामने आता है. दूसरा प्रमुख कारण, पितृ सत्तात्मक समाज हैं, जो लडक़ों को हर तरह की सुविधाएं देता हैं, लेकिन लड़कियों को दोयम दर्जे की नागरिक बनाए रखने की हिमायती है. लोकतांत्रिक समाज में भी सामंती बेडिय़ों ने दिमाग को जकड़ रखा है तथा कहीं-कहीं तो लड़कियों के जन्म लेने पर भी लोग परेशान हो जाते हैं. भेदभाव की स्थिति यह है कि लड़कियों को परिवार में पर्याप्त पोषक आहार से वंचित होना पड़ता है और कुपोषण की शिकार अधिकांश लड़कियां ही होती हैं. शिक्षा के क्षेत्र में डॉक्टर, इंजीनियर, वकील अथवा अन्य पेशेवर बनने के लिए लडक़ों पर खर्च करने के लिए परिवार तैयार रहता है, तो लड़कियों की शादी के लिए फिक्रमंद होकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता हैं. दुनिया की आधी आबादी यानी महिलाओं को उत्पादक इकाई के रूप में केन्द्र रखकर आंकलन करने से वैश्विक अर्थव्यवस्था को भयावह नुकसान दिखता है. यह समझ अभी विश्व के सभी देशों के नागरिकों और परिवारों में विकसित नहीं हुई है. मलाला युसुफजई ने कट्टरपंथियों द्वारा लड़कियों की पढ़ाई रोकने का प्रतिरोध किया था, उसे गोली मार दी गई थी. गहन चिकित्सा के उपरांत जान बचने पर उसने परिपक्वता के साथ लड़कियों की शिक्षा के लिए अपना अभियान शुरू किया. मलाला को सबसे कम उम्र में नोबल पुरस्कार मिलने के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ ने मलाला दिवस भी घोषित किया है. मलाला एक मिसाल है, विचार है. लेकिन इस विचार की व्यापकता के लिए अभी बहुत काम करना बाकी है. लोकतांत्रिक समाज लिंग भेद का विरोधी होता है. यदि लड़कियों को शिक्षा से ही वंचित रखने की चेष्टा की जाती है तो कोई भी समाज अथवा देश वांछित उन्नति नहीं कर सकता. लड़कियों को भी इंसानी दर्जा और लोकतांत्रिक अधिकार चाहिए.

निरंकुशता और अराजकता के बरस्क लोकतांत्रिक मूल्यों की विजय

दिल्ली के उपराज्यपाल और राज्य सरकार के बीच जारी रस्साकसी के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला अहम है. यह जनता के प्रति जवाबदेही तथा निर्वाचित सरकारों की प्रतिष्ठा व सर्वोच्चता स्थापित करता है और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए भविष्य में भी मार्गदर्शक साबित होगा. दिल्ली चूंकि पूर्ण राज्य नहीं है, इसलिए वहां केंद्र सरकार का उपराज्यपाल के माध्यम से अनेक मामलों में सीधा हस्तक्षेप होता है. यद्यपि संविधान में सारे अधिकार सुस्पष्ट रूप से व्याख्यायित हैं, उसके बाद भी तालमेल बिठाना कौशल का काम समझा जाता है. केन्द्र सरकार में बहुमत की सरकार और दिल्ली में प्रचंड बहुमत की सरकार बैठने के साथ तनावभरा समय गुजरा तथा उपराज्यपाल व राज्य सरकार के बीच तनातनी के माहौल ने स्थायी रूप से कामकाज पर प्रभाव डाला है. दिल्ली राज्य सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर छिड़ी जंग ने केन्द्र व केजरीवाल सरकार आमने-सामने खड़ा दिया था. उच्चतम न्यायालय के संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि उपराज्यपाल, जिसकी नियुक्ति केन्द्र करता है, वह विघ्नकारक रूप में काम नहीं कर सकते. संविधान पीठ तीन अलग-अलग लेकिन सहमति से दिए फैसले में कहा है कि उपराज्यपाल के पास स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. इस व्यवस्था ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सही ठहरा दिया है. पीठ ने उपराज्यपाल के लिए पहली बार स्पष्ट दिशा निर्देश प्रतिपादित किया है और दिल्ली राज्य सरकार के लिए विधायकों का जनता द्वारा चुने जाने का हवाला देते हुए उसकी सर्वोच्चता पर मुहर लगा दी है. केजरीवाल क्रमश: नजीब जंग और अनिल बैजल पर आरोप लगाते रहे हैं कि वे केन्द्र सरकार के इशारे पर ठीक से काम नहीं करने दे रहे हैं. इस लिहाज से संविधान पीठ का निर्णय आप सरकार के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ी जीत मानी जा सकती है. शीर्ष अदालत ने कहा है कि सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि के अलावा दिल्ली सरकार को अन्य विषयों पर कानून बनाने और शासन करने का अधिकार है. अन्य राज्यों की तरह दिल्ली में भी उपराज्यपाल की भूमिका मंत्रिमंडल की सलाह के चलने तथा अपवाद स्वरूप किन्हीं विशेष मामलों को राष्ट्रपति के पास निराकरण हेतु भेजने के प्रावधान तक सीमित है. आम आदमी पार्टी सहित अन्य दलों के पास अपने-अपने तर्क हो सकते हैं और अपने स्तर पर व्याख्या कर हार-जीत की परिभाषाएं भी गढ़ सकते हैं. लेकिन उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने लोकतंत्र की मूल भावना और जनता की सर्वोच्चता की याद दिलाई है तथा संविधान व लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप जनता के हित में काम करने का निर्देश दिया है, जहां अराजकता और मनमानी का कोई स्थान नहीं हो सकता. जनता सरकार के प्रति जवाबदेह हो और उपलब्ध हो, यही लोकतंत्र की मूल भावना है, जिसकी विजय हुई है. 

अंधविश्वास अथवा चमत्कार की उम्मीद में गई ग्यारह जान!

राजधानी दिल्ली में एक ही परिवार के 11 सदस्यों की मौत की घटना स्तब्ध कर देेने वाली है. विस्तृत जांच के बाद ही पता चलेगा कि यह मामला क्या है, लेकिन विवेचना में मिल रहे संकेतों के अनुसार धर्म-कर्म या गुरु-तांत्रिक के प्रभाव में आकर उठाया गया कदम बताया जा रहा है. सभी शवों के पोस्टमार्टम से भी यह बात सामने आई है कि एक ही तरह से मरने वाले परिवार के सदस्य आध्यात्मिक उपलब्धि, चमत्कार अथवा मोक्ष प्राप्त करना चाहते थे. यह अजीब खेल कुछ इस तरह का है कि 77 साल की वृद्धा से लेकर किशोरवय बच्चों ने भी मौत को गले लगा लिया. इस परिवार की पृष्ठभूमि मिलनसार तथा एक-दूसरे से सुख-दुख बांटने की थी. परिवार की एक उच्च शिक्षित लडक़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करती थी. यह सारे समाज के लिए हृदय विदारक घटना है, लेकिन एेसा प्रतीत होता है कि पूरे परिवार की सामूहिक आत्महत्या के लिए कई दिनों से तैयारी चल रही थी. अंधविश्वास का आवेग विवेक खत्म कर देता है और चमत्कार की उम्मीद भरे-पूरे घर को श्मशान में तब्दील कर देती है. अंधविश्वास पुराने दौर की मान्यताओं और आधुनिकता के प्रति अज्ञान से ही पैदा होता है. देश के हर क्षेत्र में अंधविश्वास का बोलबाला है और धार्मिक रूढिय़ों को तोडऩे में शिक्षित वर्ग भी विवेक का इस्तेमाल करने से डरता हैं. आधुनिक विचारों और जीवन शैली को अपनाने के बाद भी धर्मभीरुता विवेक व तर्कशक्ति को कमजोर कर देती है. समाज की धार्मिक प्रवृत्ति का लाभ लेने के लिए एक बड़ी फौज हमेशा से सक्रिय रही है, जो तार्किकता के विरूद्ध मोर्चा ले रही है. ग्रामीण, अर्धशिक्षित इलाकों में तरह-तरह की भ्रांत मान्यताओं की भरमार है तथा लोग विशेष किस्म के मनोविकार से ग्रस्त पाए जाते हैं. डायन के नाम पर हत्या जैसे जघन्य अपराधों को अंजाम देने के साथ ही दैनंदिन जीवन में भी व्याधियों के लिए ओझाओं, गुरुओं का सहारा लेना आम बात है. शहरी इलाके में इस मानसिकता में भले ही कमी आई हो, लेकिन यहां भी बहुतेरे लोग अंधविश्वासी ही हैं. समाज में वैज्ञानिक और तार्किक चेतना के प्रसार के लिए प्रयास बेहद कम हो रहे हैं. दूसरी तरफ राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए अतीत के ज्ञान का महिमा मंडन सहित प्रतिगामी विचारों को पालने-पोसने का काम निरंतर चल रहा है. यह दुखद है कि किसी मनो-चिकित्सक का मरीज समाज के बड़े वर्ग में चमत्कार के रूप में प्रतिष्ठित और पूजित हो जाता है. दिल्ली की घटना के संदर्भ में जितने भी तथ्य सामने आ रहे हैं, सबके संकेत अंधविश्वास अथवा चमत्कार के ही हैं. विज्ञान की चरम उपलब्धियों के युग में यह मानसिक दशा चिंतनीय है कि एक परिवार के 11 सदस्यों की किसी मोक्ष या चमत्कार की उम्मीद में मौत हो जाए. यह स्थिति बदलनी ही चाहिए जिसके लिए वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न समाज बनान का प्रयास ही उपाय हो सकता है.

निर्दोष लोगों की कब तक बलि लेती रहेंगी आदमखोर अफवाहें

देश के अलग-अलग हिस्सों में बच्चा चोरी के शक में भीड़ लोगों को पीट-पीटकर मार डाल रही है. इतिहास के पन्नों में असुरक्षित और अशिक्षित समाज में परिस्थितिजन्य घटनाओं के कारण के कारण भीड़ को हिंसक होते देखा गया है. लेकिन अब हिंसक भीड़ अपनी करनी को छिपाने के लिए एेसी घटनाओं को परिस्थितिजन्य बनाने की कोशिश करती नजर आ रही है, जो चिंता का विषय है. छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, त्रिपुरा, सहित अनेक राज्यों में भीड़ द्वारा अनजान लोगों को बिना जाने-समझे मार डाला गया. भीड़ ने उन लोगों को भी नहीं छोड़ा, जो अफवाह रोकने को उद्देश्य से उस स्थान तक पहुंचे थे. भीड़ को हिंसक बनाने के पीछे कई मनोवृत्तियां एक साथ कार्य करती हैं. पहला तो यही कि समाज में बेरोजगारी और आॢथक विषमताएं तेजी से फैल रही हैं, उन्हें दूर करने की कोई नीति नहीं है. एेसे में सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति जो गुस्सा है, उसके कारण भी कभी-कभी लोग हिंसक हो रहे हैं. इसके अलावा एक छोटा तबका राजनीति के इशारे पर समाज को बुनियादी समस्याओं से भटकाने के लिए अनावश्यक और जान-बूझकर जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रीयता के नाम पर हिंसक बना रहा है. बच्चा चोरी के नाम से हिंसा की घटनाओं से यह सवाल उठता है कि आखिरकार लोग सच जानने का प्रयास क्यों नहीं करते? तथ्य यह भी है कि अपेक्षाकृत पिछले इलाकों में काफी समय से सोशल मीडिया पर बच्चे चुराने वाले गिरोहों के सक्रिय होने की अफवाह फैलाई जा रही थी. इसके चलते भी बाहरी लोगों पर संदेह गहरा हो जाता है. हर साल इसके आंकड़े बढ़े हुए ही दर्ज होते हैं, पर तमाम दावों के बावजूद प्रशासन इस पर नकेल कसने में नाकाम रहता है. गरीब और आदिवासी इलाकोंसे बच्चे चुराना या उनके माता-पिता को बरगला कर शहरों में काम दिलाने के नाम पर ले जाया जाता है. आदिवासी इलाकों की बच्चियों को महानगरों में ले जाने की घटनाएं अनेक बार प्रकाश में आ चुकी हैं, और उन बच्चियों का कोई अता-पता नहीं चल पाया है. इस पृष्ठभूमि में अफवाहें लोगों के मन में गहरे तक धंसे शक को हिंसक रूप दे देती हैं. भीड़ द्वारा जान लेने की घटनाओं के पीछे आदमखोर अफवाहों का बड़ा हाथ होता है. लेकिन सवाल यह भी है कि लोगों का भीड़ में बदलना और कातिल हो जाना विकास का कैसा मुकाम है? सभ्य होते समाज को पीछे धकेलने के लिए सक्रिय अफवाह तंत्र को सामाजिक-राजनीतिक नवाचार के रूप में स्वीकार करना जिम्मेदार लोगों की सबसे बड़ी भूल नहीं है? इस तरह की घटनाएं चिंतित करती हैं तथा समाज को हिंसक बनाने वाले तत्वों के लिए पोषक होती हैं. घटनाओं के वक्त खामोश हो जाने वाली पुलिस और बौने लगने वाले कानून भी समस्या बन जाते हैं. यह सबकी जिम्मेदारी है कि सामाजिक विवेक को जागृत रखें ताकि अनावश्यक हिंसा की आग से समाज बच सके. 
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