सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज अशोक कुमार गांगुली ने अयोध्या रामजन्म भूमि विवाद मामले पर अदालत के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि इससे उनके दिमाग में संशय पैदा हो गया है और वह फैसले से काफी व्यथित हैं.
द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस गांगुली (72) ने कहा, ‘अल्पसंख्यकों ने यहां कई पीढ़ियों से मस्जिद देखी है. उसे ढहा दिया गया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार वहां मंदिर का निर्माण किया जाएगा. इससे मेरे दिमाग में संशय पैदा हो गया है. कानून का छात्र होने के नाते इसे स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है.’
उन्होंने कहा कि शनिवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि जब किसी स्थान पर नमाज़ अदा की जाती है तो नमाज़ अदा करने वाले का विश्वास होता है कि यह मस्जिद है और उसे चुनौती नहीं दी जा सकती.
उन्होंने कहा, ‘बेशक 1856-57 में वहां नमाज़ पढ़ने के सबूत नहीं मिले हों लेकिन 1949 से वहां नमाज़ पढ़ी गई. इसके सबूत हैं इसलिए जब हमारा संविधान अस्तित्व में आया तो नमाज़ वहां पढ़ी जा रही थी. एक जगह जहां नमाज़ पढ़ी गई और अगर उस जगह पर एक मस्जिद थी तो फिर अल्पसंख्यकों को अधिकार है कि वे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता का बचाव करें. यह संविधान में लोगों को मौलिक अधिकार है.’
जस्टिस गांगुली ने कहा, ‘इस फैसले के बाद आज मुसलमान क्या सोचेगा? वहां वर्षों से एक मस्जिद थी, जिसे तोड़ा गया. अब सुप्रीम कोर्ट ने वहां मंदिर बनाने की अनुमति दे दी है. यह अनुमति इस आधार पर दी गई कि जमीन रामलला से जुड़ी थी. क्या सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि सदियों पहले जमीन पर मालिकान हक़ किसका था? क्या सुप्रीम कोर्ट क्या इस बात को भूल जाएगा कि जब संविधान आया तो वहां एक मस्जिद थी? संविधान में प्रावधान हैं और यह सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वो उसकी रक्षा करे.’
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने कहा, ‘संविधान के लागू होने के बाद वहां पहले क्या था, यह सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी नहीं है. उस समय भारत कोई लोकतांत्रिक गणतंत्र नहीं था. तब वहां एक मस्जिद थी, एक मंदिर था, एक बौद्ध स्तूप था, एक चर्च था. अगर हम इस तरह बैठकर फैसला देंगे तो बहुत सारे मंदिर, मस्जिदें और अन्य ढांचों को तोडना पड़ेगा. हम पौराणिक तथ्यों पर नहीं जा सकते. राम कौन थे? क्या किसी तरह का ऐतिहासिक साक्ष्य है? यह आस्था और विश्वास का मामला है.’
उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आस्था और विश्वास के आधार पर आपको कोई प्राथमिकता नहीं मिल सकती. वे कह रहे हैं कि मस्जिद के नीचे एक ढांचा था लेकिन ढांचा मंदिर का नहीं था. कोई नहीं कह सकता कि मंदिर को ढहाकर मस्जिद बनाई गई लेकिन अब मस्जिद को ढहाकर मंदिर बनाया जाएगा?’
गांगुली ने कहा, ‘500 साल पहले जमीन का मालिकाना हक किसके पास था? क्या कोई जानता है? हम इतिहास को दोबारा नहीं बना सकते. अदालत की जिम्मेदारी है कि जो भी है, उसका संरक्षण किया जाए. इतिहास को दोबारा बनाना अदालत की जिम्मेदारी नहीं है. वहां 500 साल पहले क्या था, यह जानना अदालत का काम नहीं है. मस्जिद का वहां होना सीधे एक तर्क था, ऐतिहासिक तर्क नहीं बल्कि एक ऐसा तर्क जिसे हर किसी ने देखा है. इसका गिराया जाना सभी ने देखा, जिसे रिस्टोर किया जाना चाहिए. जब उनके पास मस्जिद होने का कोई अधिकार नहीं है तो आप मस्जिद के निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन देने के लिए सरकार को निर्देश कैसे दे रहे हैं. क्यों? आप स्वीकार कर रहे हैं कि मस्जिद को नष्ट किया जाना उचित नहीं था.’
यह पूछने पर कि आप उचित और निष्पक्ष फैसला किसे मानेंगे? इस पर जस्टिस गांगुली ने कहा, ‘मैं दो में से कोई एक फैसला लेता या तो मैं उस क्षेत्र में मस्जिद को दोबारा बनाए जाने को कहता या अगर वह जगह विवादित होती तो मैं कहता कि वहां न तो मस्जिद बनेगी और न ही मंदिर. आप वहां कोई अस्पताल या स्कूल बना सकते हैं या इसी तरह का कुछ या कॉलेज. मंदिर और मस्जिद दूसरे इलाकों में बनाने को कहा जा सकता था. इस जमीन को हिंदुओं को नहीं देना चाहिए था. यह विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) और बजरंग दल का दावा है. वे उस समय और आज किसी भी मस्जिद को ढहा सकते थे. उन्हें सरकार का समर्थन मिल रहा था और अब उन्हें न्यायपालिका का भी समर्थन मिल रहा है. मैं बहुत व्यथित हूं. बहुत सारे लोग स्पष्ट तरीके से ये चीजें नहीं कहेंगे.’
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