गुरुवार, 10 जनवरी 2019

खेल की उपलब्धियां भी हमारे विकास का अनिवार्य हिस्सा बने

फीफा वल्र्ड कप का सरताज फ्रांस के बनते ही राष्ट्रपति मेक्रों सहित फ्रांस और दुनियाभर के फुटबाल प्रेमी झूम उठे. क्रोएशिया ने भी योद्धाओं की तरह लोहा लिया और विश्वभर के खेल प्रेमियों का दिल जीत लिया. इस आयोजन के दौरान दर्शकों का डूबना-उतरना जारी रहा. फुटबाल महाकुंभ के समापन के साथ आगामी स्पर्धाआें की तैयारियों में सभी देश जुट जाएंगे तथा सफलता, असफलताओं की समीक्षा भी की जाएगी. भारत में भी एेसे मौकों पर आत्म-चिंतन जरूरी हो जाता है कि खेल की दुनिया में आखिर हम कहां खड़े हैं. आबादी के लिहाज से दुनिया के दूसरे स्थान पर हमारा नाम होने के बाद भी खेल के मानचित्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल करना अभी तक सपना ही बना हुआ है. 68 वर्ष पहले भारत ने 1950 में ब्राजील में आयोजित फीफा वल्र्ड कप के लिए क्वालिफाई किया था, उसके बाद से इस टूर्नामेंट में भाग लेना संभव नहीं हो सका. भारत ने जकार्ता एशियाई खेलों में फुटबॉल का गोल्ड मेडल जीता था. भारत को एशियाई फुटबॉल का ब्राजील तक कहा जाने लगा था. तब चुन्नी गोस्वामी, बीके बेनर्जी, जरनैल सिंह, थंगराज जैसे खिलाड़ी भारतीय फुटबॉल का हिस्सा थे. आज सुनील क्षेत्री जैसे बेहतरीन खिलाड़ी होने के बाद भी फीफा रैंकिंग भारत का स्थान 97वां है. यह स्थिति बताती है कि खेलों को लेकर यहां सजगता और नीति का अभाव शुरू से बना रहा है. तमाम खेल संघों की दशा यह है कि खिलाडिय़ों की नर्सरी बनने की जगह ये बाग उजाडऩे वालों की भूमिका में आ जाते हैं. तमाम अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में पदक और उपलब्धियां हासिल करने वाले खिलाड़ी संघर्षों-अभावों से जूझकर अपने बूते पर आगे बढ़े हैं. कुछेक राज्यों में खेल के विकास पर ध्यान देने की कोशिश की गई है, लेकिन वे पर्याप्त नहीं कहे जा सकते. असम से हीमादास जैसी एथलीट जब स्वर्णपदक हासिल करती हैं तो भारत का कुंठित अभिजात्य मन उसकी अंग्रेजी ठीक से न बोल पाने से आहत हो जाता है. ऐसे लोगों को यह पूछा जाना गलत नहीं होगा कि आखिर खेल की कोई भाषा कैसे बनाई जा सकती है? खेल देश, भाषा, नस्ल की सीमाओं को तोडक़र विश्व बंधुत्व की भावना को बढ़ाने का सबसे बड़ा माध्यम है. देश ही नहीं, अपितु अतरराष्ट्रीय स्तर पर सकारात्मकता का वातावरण तैयार करता है. आज कुछ लाख की आबादी वाले देश विश्वस्तर पर खेल कौशल से चमत्कृत करते हैं, तो उन्हीं संबंधित देशों की जनता में खुशहाली भी देखी जा सकती है. भारत विकास के पैमाने पर तेजी से बढ़ता हुआ देश है. लेकिन यह विकास तब तक एकांगी दिखता है जब तक खेल में भी हमारी उपलब्धियां दर्ज होकर दुनिया का ध्यान न खींचे.

लड़कियों को शिक्षा सहित सारे लोकतांत्रिक अधिकारों की जरूरत

विश्व स्तर पर लड़कियों को शिक्षा से दूर रखने का प्रयास किया जाता है और करोड़ों लड़कियां समुचित योग्यता, प्रतिभा होते हुए भी शिक्षा के अभाव में पेशेवर नहीं बन पाती हैं. मलाला दिवस पर विश्व बैंक ने जारी रिपोर्ट में कहा है कि लड़कियों को शिक्षित न करने से वैश्विक अर्थव्यवस्था को 150 से 300 खरब डॉलर का नुकसान होता है. हालत यह है कि निम्न आय वर्ग वाले परिवारों से दो-तिहाई से भी कम लड़कियां प्राथमिक शिक्षा पूरी कर पाती हैं. वहीं तीन में से केवल एक लडक़ी माध्यमिक शिक्षा पूरी कर पाती हैं. यह सर्वविदित है कि शिक्षा से रोजगार मिलने की संभावना दोगुनी हो जाती है. विकसित देशों से लेकर गरीब और विकासशील देशों तक लड़कियों-महिलाओं की शिक्षा के बदतर हालात के लिए अनेक कारण हैं. पहला ठोस कारण, आर्थिक विपन्नता है, जो समान रूप से लडक़े-लड़कियों के शैक्षिक विकास में बाधा बनकर सामने आता है. दूसरा प्रमुख कारण, पितृ सत्तात्मक समाज हैं, जो लडक़ों को हर तरह की सुविधाएं देता हैं, लेकिन लड़कियों को दोयम दर्जे की नागरिक बनाए रखने की हिमायती है. लोकतांत्रिक समाज में भी सामंती बेडिय़ों ने दिमाग को जकड़ रखा है तथा कहीं-कहीं तो लड़कियों के जन्म लेने पर भी लोग परेशान हो जाते हैं. भेदभाव की स्थिति यह है कि लड़कियों को परिवार में पर्याप्त पोषक आहार से वंचित होना पड़ता है और कुपोषण की शिकार अधिकांश लड़कियां ही होती हैं. शिक्षा के क्षेत्र में डॉक्टर, इंजीनियर, वकील अथवा अन्य पेशेवर बनने के लिए लडक़ों पर खर्च करने के लिए परिवार तैयार रहता है, तो लड़कियों की शादी के लिए फिक्रमंद होकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता हैं. दुनिया की आधी आबादी यानी महिलाओं को उत्पादक इकाई के रूप में केन्द्र रखकर आंकलन करने से वैश्विक अर्थव्यवस्था को भयावह नुकसान दिखता है. यह समझ अभी विश्व के सभी देशों के नागरिकों और परिवारों में विकसित नहीं हुई है. मलाला युसुफजई ने कट्टरपंथियों द्वारा लड़कियों की पढ़ाई रोकने का प्रतिरोध किया था, उसे गोली मार दी गई थी. गहन चिकित्सा के उपरांत जान बचने पर उसने परिपक्वता के साथ लड़कियों की शिक्षा के लिए अपना अभियान शुरू किया. मलाला को सबसे कम उम्र में नोबल पुरस्कार मिलने के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ ने मलाला दिवस भी घोषित किया है. मलाला एक मिसाल है, विचार है. लेकिन इस विचार की व्यापकता के लिए अभी बहुत काम करना बाकी है. लोकतांत्रिक समाज लिंग भेद का विरोधी होता है. यदि लड़कियों को शिक्षा से ही वंचित रखने की चेष्टा की जाती है तो कोई भी समाज अथवा देश वांछित उन्नति नहीं कर सकता. लड़कियों को भी इंसानी दर्जा और लोकतांत्रिक अधिकार चाहिए.

निरंकुशता और अराजकता के बरस्क लोकतांत्रिक मूल्यों की विजय

दिल्ली के उपराज्यपाल और राज्य सरकार के बीच जारी रस्साकसी के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला अहम है. यह जनता के प्रति जवाबदेही तथा निर्वाचित सरकारों की प्रतिष्ठा व सर्वोच्चता स्थापित करता है और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए भविष्य में भी मार्गदर्शक साबित होगा. दिल्ली चूंकि पूर्ण राज्य नहीं है, इसलिए वहां केंद्र सरकार का उपराज्यपाल के माध्यम से अनेक मामलों में सीधा हस्तक्षेप होता है. यद्यपि संविधान में सारे अधिकार सुस्पष्ट रूप से व्याख्यायित हैं, उसके बाद भी तालमेल बिठाना कौशल का काम समझा जाता है. केन्द्र सरकार में बहुमत की सरकार और दिल्ली में प्रचंड बहुमत की सरकार बैठने के साथ तनावभरा समय गुजरा तथा उपराज्यपाल व राज्य सरकार के बीच तनातनी के माहौल ने स्थायी रूप से कामकाज पर प्रभाव डाला है. दिल्ली राज्य सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर छिड़ी जंग ने केन्द्र व केजरीवाल सरकार आमने-सामने खड़ा दिया था. उच्चतम न्यायालय के संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि उपराज्यपाल, जिसकी नियुक्ति केन्द्र करता है, वह विघ्नकारक रूप में काम नहीं कर सकते. संविधान पीठ तीन अलग-अलग लेकिन सहमति से दिए फैसले में कहा है कि उपराज्यपाल के पास स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. इस व्यवस्था ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सही ठहरा दिया है. पीठ ने उपराज्यपाल के लिए पहली बार स्पष्ट दिशा निर्देश प्रतिपादित किया है और दिल्ली राज्य सरकार के लिए विधायकों का जनता द्वारा चुने जाने का हवाला देते हुए उसकी सर्वोच्चता पर मुहर लगा दी है. केजरीवाल क्रमश: नजीब जंग और अनिल बैजल पर आरोप लगाते रहे हैं कि वे केन्द्र सरकार के इशारे पर ठीक से काम नहीं करने दे रहे हैं. इस लिहाज से संविधान पीठ का निर्णय आप सरकार के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ी जीत मानी जा सकती है. शीर्ष अदालत ने कहा है कि सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि के अलावा दिल्ली सरकार को अन्य विषयों पर कानून बनाने और शासन करने का अधिकार है. अन्य राज्यों की तरह दिल्ली में भी उपराज्यपाल की भूमिका मंत्रिमंडल की सलाह के चलने तथा अपवाद स्वरूप किन्हीं विशेष मामलों को राष्ट्रपति के पास निराकरण हेतु भेजने के प्रावधान तक सीमित है. आम आदमी पार्टी सहित अन्य दलों के पास अपने-अपने तर्क हो सकते हैं और अपने स्तर पर व्याख्या कर हार-जीत की परिभाषाएं भी गढ़ सकते हैं. लेकिन उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने लोकतंत्र की मूल भावना और जनता की सर्वोच्चता की याद दिलाई है तथा संविधान व लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप जनता के हित में काम करने का निर्देश दिया है, जहां अराजकता और मनमानी का कोई स्थान नहीं हो सकता. जनता सरकार के प्रति जवाबदेह हो और उपलब्ध हो, यही लोकतंत्र की मूल भावना है, जिसकी विजय हुई है. 

अंधविश्वास अथवा चमत्कार की उम्मीद में गई ग्यारह जान!

राजधानी दिल्ली में एक ही परिवार के 11 सदस्यों की मौत की घटना स्तब्ध कर देेने वाली है. विस्तृत जांच के बाद ही पता चलेगा कि यह मामला क्या है, लेकिन विवेचना में मिल रहे संकेतों के अनुसार धर्म-कर्म या गुरु-तांत्रिक के प्रभाव में आकर उठाया गया कदम बताया जा रहा है. सभी शवों के पोस्टमार्टम से भी यह बात सामने आई है कि एक ही तरह से मरने वाले परिवार के सदस्य आध्यात्मिक उपलब्धि, चमत्कार अथवा मोक्ष प्राप्त करना चाहते थे. यह अजीब खेल कुछ इस तरह का है कि 77 साल की वृद्धा से लेकर किशोरवय बच्चों ने भी मौत को गले लगा लिया. इस परिवार की पृष्ठभूमि मिलनसार तथा एक-दूसरे से सुख-दुख बांटने की थी. परिवार की एक उच्च शिक्षित लडक़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करती थी. यह सारे समाज के लिए हृदय विदारक घटना है, लेकिन एेसा प्रतीत होता है कि पूरे परिवार की सामूहिक आत्महत्या के लिए कई दिनों से तैयारी चल रही थी. अंधविश्वास का आवेग विवेक खत्म कर देता है और चमत्कार की उम्मीद भरे-पूरे घर को श्मशान में तब्दील कर देती है. अंधविश्वास पुराने दौर की मान्यताओं और आधुनिकता के प्रति अज्ञान से ही पैदा होता है. देश के हर क्षेत्र में अंधविश्वास का बोलबाला है और धार्मिक रूढिय़ों को तोडऩे में शिक्षित वर्ग भी विवेक का इस्तेमाल करने से डरता हैं. आधुनिक विचारों और जीवन शैली को अपनाने के बाद भी धर्मभीरुता विवेक व तर्कशक्ति को कमजोर कर देती है. समाज की धार्मिक प्रवृत्ति का लाभ लेने के लिए एक बड़ी फौज हमेशा से सक्रिय रही है, जो तार्किकता के विरूद्ध मोर्चा ले रही है. ग्रामीण, अर्धशिक्षित इलाकों में तरह-तरह की भ्रांत मान्यताओं की भरमार है तथा लोग विशेष किस्म के मनोविकार से ग्रस्त पाए जाते हैं. डायन के नाम पर हत्या जैसे जघन्य अपराधों को अंजाम देने के साथ ही दैनंदिन जीवन में भी व्याधियों के लिए ओझाओं, गुरुओं का सहारा लेना आम बात है. शहरी इलाके में इस मानसिकता में भले ही कमी आई हो, लेकिन यहां भी बहुतेरे लोग अंधविश्वासी ही हैं. समाज में वैज्ञानिक और तार्किक चेतना के प्रसार के लिए प्रयास बेहद कम हो रहे हैं. दूसरी तरफ राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए अतीत के ज्ञान का महिमा मंडन सहित प्रतिगामी विचारों को पालने-पोसने का काम निरंतर चल रहा है. यह दुखद है कि किसी मनो-चिकित्सक का मरीज समाज के बड़े वर्ग में चमत्कार के रूप में प्रतिष्ठित और पूजित हो जाता है. दिल्ली की घटना के संदर्भ में जितने भी तथ्य सामने आ रहे हैं, सबके संकेत अंधविश्वास अथवा चमत्कार के ही हैं. विज्ञान की चरम उपलब्धियों के युग में यह मानसिक दशा चिंतनीय है कि एक परिवार के 11 सदस्यों की किसी मोक्ष या चमत्कार की उम्मीद में मौत हो जाए. यह स्थिति बदलनी ही चाहिए जिसके लिए वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न समाज बनान का प्रयास ही उपाय हो सकता है.

निर्दोष लोगों की कब तक बलि लेती रहेंगी आदमखोर अफवाहें

देश के अलग-अलग हिस्सों में बच्चा चोरी के शक में भीड़ लोगों को पीट-पीटकर मार डाल रही है. इतिहास के पन्नों में असुरक्षित और अशिक्षित समाज में परिस्थितिजन्य घटनाओं के कारण के कारण भीड़ को हिंसक होते देखा गया है. लेकिन अब हिंसक भीड़ अपनी करनी को छिपाने के लिए एेसी घटनाओं को परिस्थितिजन्य बनाने की कोशिश करती नजर आ रही है, जो चिंता का विषय है. छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, त्रिपुरा, सहित अनेक राज्यों में भीड़ द्वारा अनजान लोगों को बिना जाने-समझे मार डाला गया. भीड़ ने उन लोगों को भी नहीं छोड़ा, जो अफवाह रोकने को उद्देश्य से उस स्थान तक पहुंचे थे. भीड़ को हिंसक बनाने के पीछे कई मनोवृत्तियां एक साथ कार्य करती हैं. पहला तो यही कि समाज में बेरोजगारी और आॢथक विषमताएं तेजी से फैल रही हैं, उन्हें दूर करने की कोई नीति नहीं है. एेसे में सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति जो गुस्सा है, उसके कारण भी कभी-कभी लोग हिंसक हो रहे हैं. इसके अलावा एक छोटा तबका राजनीति के इशारे पर समाज को बुनियादी समस्याओं से भटकाने के लिए अनावश्यक और जान-बूझकर जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रीयता के नाम पर हिंसक बना रहा है. बच्चा चोरी के नाम से हिंसा की घटनाओं से यह सवाल उठता है कि आखिरकार लोग सच जानने का प्रयास क्यों नहीं करते? तथ्य यह भी है कि अपेक्षाकृत पिछले इलाकों में काफी समय से सोशल मीडिया पर बच्चे चुराने वाले गिरोहों के सक्रिय होने की अफवाह फैलाई जा रही थी. इसके चलते भी बाहरी लोगों पर संदेह गहरा हो जाता है. हर साल इसके आंकड़े बढ़े हुए ही दर्ज होते हैं, पर तमाम दावों के बावजूद प्रशासन इस पर नकेल कसने में नाकाम रहता है. गरीब और आदिवासी इलाकोंसे बच्चे चुराना या उनके माता-पिता को बरगला कर शहरों में काम दिलाने के नाम पर ले जाया जाता है. आदिवासी इलाकों की बच्चियों को महानगरों में ले जाने की घटनाएं अनेक बार प्रकाश में आ चुकी हैं, और उन बच्चियों का कोई अता-पता नहीं चल पाया है. इस पृष्ठभूमि में अफवाहें लोगों के मन में गहरे तक धंसे शक को हिंसक रूप दे देती हैं. भीड़ द्वारा जान लेने की घटनाओं के पीछे आदमखोर अफवाहों का बड़ा हाथ होता है. लेकिन सवाल यह भी है कि लोगों का भीड़ में बदलना और कातिल हो जाना विकास का कैसा मुकाम है? सभ्य होते समाज को पीछे धकेलने के लिए सक्रिय अफवाह तंत्र को सामाजिक-राजनीतिक नवाचार के रूप में स्वीकार करना जिम्मेदार लोगों की सबसे बड़ी भूल नहीं है? इस तरह की घटनाएं चिंतित करती हैं तथा समाज को हिंसक बनाने वाले तत्वों के लिए पोषक होती हैं. घटनाओं के वक्त खामोश हो जाने वाली पुलिस और बौने लगने वाले कानून भी समस्या बन जाते हैं. यह सबकी जिम्मेदारी है कि सामाजिक विवेक को जागृत रखें ताकि अनावश्यक हिंसा की आग से समाज बच सके. 
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