सोमवार, 21 नवंबर 2011

विषमता का दंश झेलता अमेरिका

फरीद जकरिया, वरिष्ठ अमेरिकी पत्रकार
जिस बात को हम सभी महसूस करते रहे हैं, वाशिंगटन पोस्ट-एबीसी न्यूज के एक सर्वे ने उसे तार्किकता के साथ सामने रखा है कि अपने देश में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई को लेकर ज्यादातर अमेरिकी उद्विग्न हैं, और चिंतित भी। जाहिर है, जल्दी ही इस मुद्दे पर पार्टी लाइन के आधार पर हमेशा की तरह दो खेमे बन गए। उदारवादी खेमा जहां अमीरी और गरीबी के इस फासले को कम करने के लिए सरकार से ठोस कदम उठाने की अपील करने लगा है, तो वहीं दूसरी तरफ परंपरावादी गुट ऐसे किन्हीं कदमों की मुखालफत के साथ सामने आ गया है। अलबत्ता, कुल मिलाकर एक बड़े बहुमत ने सरकार से हस्तक्षेप की मांग की है। लेकिन आय में बढ़ते अंतर से भी कहीं अहम इस मसले पर दोनों पक्षों को जिस बात पर सहमत होना पड़ेगा, वह है- सामाजिक सशक्तीकरण का महत्व। इंडियाना के गवर्नर मिक डैनियल (रिपब्लिकन) ने सही पहचाना है कि ‘अपवर्ड मोबलिटी यानी नीचे से ऊपर की ओर की ओर उदय अमेरिकी भरोसे का मुख्य बिंदु रहा है।’ कुछ अमेरिकी अब भी मानते हैं कि हमारे देश में सब कुछ अच्छा हो रहा है। हेरिटेज फाउंडेशन के जलसे के दौरान पिछले महीने दिए गए अपने भाषण में अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य पॉल रेयान ने कहा था, ‘अमेरिका में वर्ग की कोई तय परिभाषा नहीं है। हम एक सशक्त गतिशील समाज हैं, जिसमें विभिन्न आय समूहों के बीच कई तरह के आंदोलन चलते रहते हैं।’ रेयान ने अमेरिकी सामाजिक सशक्तीकरण की तुलना यूरोप की सामाजिक तरक्की से करते हुए कहा था, ‘यूरोप के बड़े कल्याणकारी देशों ने पारंपरिक कुलीन तंत्र का स्थान ले लिया है और उनमें लंबे समय से बेरोजगार रहे तबके को निचले दर्जे की श्रेणी में कैद कर दिया गया है।’ वास्तव में, पिछले दशक में अमेरिका में ऐसी कई बातें हुई हैं, जो ये बताती हैं कि इस देश में सामाजिक सशक्तीकरण की प्रक्रिया रुक-सी गई है। पिछले दिनों ही प्रसिद्ध पत्रिका टाइम ने आवरण कथा प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था, ‘क्या आप अब भी अमेरिका आ सकते हैं?’ इसका जवाब अनेक अकादमिक अध्ययनों से पता चलता है, जो ‘नहीं’ में है। और यह ‘नहीं’ यूरोप की तुलना में कहीं अधिक है। इस संदर्भ में ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन ऐंड डेवलपमेंट नामक संगठन ने पिछले साल एक व्यापक तुलनात्मक अध्ययन किया था। इसने अपने निष्कर्ष में पाया कि मिक डैनियल जिसे ‘नीचे से ऊपर उठने’ के रूप में परिभाषित करते हैं, यानी सामाजिक सशक्तीकरण की प्रक्रिया अमेरिका में यूरोप के ज्यादातर बड़े देशों के मुकाबले कहीं धीमी है। इस मामले में जर्मनी, स्वीडन, नीदरलैंड और डेनमार्क का प्रदर्शन कहीं बेहतर है। साल 2006 में इंस्टिट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ लेबर द्वारा जर्मनी में कराए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि अमेरिका ऊपर की तरफ सशक्तीकरण के मामले में कमजोर प्रतीत हो रहा है। वर्ष 2010 में ही इकोनॉमिक मोबिलिटी प्रोजेक्ट ने अपने अध्ययन में पाया कि लगभग तमाम पहलुओं से अमेरिका का सामाजिक-आर्थिक वर्गीय ढांचा कनाडा से अधिक सख्त है। अमेरिका के धनाढ्य पिताओं के एक चौथाई से भी अधिक बेटे अब भी वहां सर्वाधिक कमा रहे अमेरिकी युवकों की दस फीसदी हैं, जबकि कनाडा में इससे बेहतर हालात हैं। इसी तरह निचले आय वर्ग के अमेरिकी पिताओं के युवा बेटे अब भी निचले आय वर्ग में बने हुए हैं, जबकि इस मामले में भी कनाडा की स्थिति अच्छी है। इन सभी साक्ष्यों का अवलोकन करने के बाद ब्रूकिंग इंस्टिट्यूट के फेलो स्कॉट विनशिप ने पिछले दिनों नेशनल रिव्यू में लिखा कि ‘कम से कम एक मामले में तो अमेरिकी सशक्तीकरण असाधारण है।.. और वह यह कि नीचे से ऊपर की ओर सशक्तीकरण की जो अपनी रफ्तार रही है, हम उस पर अड़े हुए हैं।’ अमेरिकी समाज की ये हकीकतें चौंकाने वाली नहीं होनी चाहिए। अपने वर्गों में बंटे समाजों के भूत से परेशान यूरोपीय देशों ने सबको समान अवसर मुहैया कराने के लिए काफी निवेश किया। उन्होंने अपने देश में बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण से संबंधित प्रभावशाली कार्यक्रम लागू किए और अमेरिका के मुकाबले उनकी सार्वजनिक शिक्षा की स्थिति भी कहीं बेहतर है। परिणामस्वरूप, यूरोपीय मुल्कों में गरीब बच्चे भी अमीर बच्चों के साथ बराबरी की प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम हैं। अमेरिका में यदि आप गुरबत के मारे किसी परिवार में पैदा होते हैं, तो पूरी आशंका है कि आपका बचपन कुपोषण और खराब शिक्षा का शिकार हो जाए। अमेरिका की लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का सबसे खराब पहलू यह है कि यह गरीबों पर काफी कम खर्च करता है, क्योंकि वे बड़ी तादाद में वोट नहीं करते। अमेरिकी अर्थव्यवस्था गरीबों के बजाय मध्यवर्ग पर अधिक ध्यान देती है। परिणाम सामने है। अपॉरच्यूनिटी नेशन के साथ इंटरव्यू में एक छात्र ने काफी सारगर्भित बात कही, ‘आपकी पैदाइश का पता देने वाला कोड आपकी नियति का नियंता नहीं होना चाहिए, लेकिन दुर्योग से अमेरिका में ऐसा ही होता है।’ आय में असमानता की चुनौती का मुकाबला कोई आसान काम नहीं है। अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने से बुनियादी स्तर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि यह असमानता भूमंडलीकरण, प्रौद्योगिकी और शिक्षा व्यवस्था के कारण बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, आप अमेरिका में 1990 के आय के बंटवारे के स्तरों को देख लीजिए, आप पाएंगे कि जितने हजारों अरब डॉलर हर साल तब वितरित होते थे, वे आज के किसी भी बड़े टैक्स प्रस्ताव से कहीं अधिक होते थे। हमें यह सीखना होगा कि किस तरह से सामाजिक सशक्तीकरण को मजबूत किया जाए। इसके लिए हम उन मुल्कों से सबक ले सकते हैं, जो इस मामले में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। खासकर उत्तरी यूरोप के देश और कनाडा से काफी कुछ सीखा जा सकता है। सामाजिक परिवर्तन यानी गरीबों के सशक्तीकरण के उपाय बिल्कुल स्पष्ट हैं। मसलन, बच्चों के लिए भरपूर पोषण और बेहतर स्वास्थ्य सुविधा, स्तरीय सार्वजनिक शिक्षा, उच्च स्तर का बुनियादी ढांचा, जो सभी क्षेत्रों के समस्त लोगों की पहुंच बाजार के अवसरों तक बना सके और एक लचीली व प्रतिस्पर्धी मुक्त अर्थव्यवस्था। यही चीजें अमेरिका और उसके बाशिंदों को अब आगे ले जाएंगी।

पेट्रोल के बढ़ते दाम- सच और मिथक

सीताराम येचुरी, सदस्य, माकपा पोलित ब्यूरो
पेट्रोल की कीमतों में ताजातरीन बढ़ोतरी के बाद पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जनता पर इस नए बोझ को डाले जाने को न सिर्फ उचित ठहराया, बल्कि यह भी कहा कि ‘ज्यादातर उत्पादों’ की कीमतों को विनियंत्रित किए जाने की जरूरत है। इस तरह, उन्होंने साफ तौर पर यह बता दिया है कि आम जनता पर आगे और भी बोझ थोपे जाने वाले हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने कहा कि खाने-पीने की चीजों के दाम में लगातार तेजी का मतलब है कि इन चीजों की मांग पहले के मुकाबले अधिक बढ़ी है और मांग अगर ज्यादा है, तो यह खुशहाली का लक्षण है!
अगर अर्थव्यवस्था आठ फीसदी की दर से वृद्धि कर रही है और आबादी 1.6 फीसदी की दर से, तो इसका मतलब यह हुआ कि प्रति व्यक्ति आय 6.5 से 6.7 फीसदी की दर से बढ़ रही होगी। लेकिन सच्चाई यही है कि यह वृद्धि-दर ‘शाइनिंग इंडिया’ के ही चेहरे की चमक बढ़ा रही है, जबकि भारत की जनता का विराट बहुमत बढ़ते आर्थिक बोझ के तले पिसता ही जा रहा है।
वैसे भी इकोनॉमिक सर्वे (2010-11) के हिसाब से निजी अंतिम उपभोग खर्च की वृद्धि-दर, जो साल 2005-06 में 8.6 फीसदी पर चल रही थी, वर्ष 2010-11 तक घटकर 7.3 फीसदी रह गई थी। प्रधानमंत्रीजी, आपकी वह खुशहाली कहां गई?
तेल के दाम में बढ़ोतरी का अतिरिक्त बोझ जनता पर डाले जाने को मंजूर नहीं किया जा सकता। यह भी एक झूठा प्रचार है कि पेट्रोल सिर्फ धनी लोगों के उपयोग की चीज है। सच्चई यह है कि पेट्रोल की खपत मध्य व निम्न-मध्य वर्ग में भी बड़ी मात्र में होती है। आखिर इन वर्गो के लोग दो-पहिया वाहनों का इस्तेमाल करते ही हैं। इसके अलावा पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी का चौतरफा महंगाई पर असर पड़े बिना नहीं रहेगा।
हकीकत यह है कि पेट्रोल के दाम में इस ताजातरीन बढ़ोतरी से सबसे ज्यादा फायदा सरकारी खजाने को ही होने जा रहा है। इस बढ़े हुए दाम का 40 फीसदी हिस्सा तो विभिन्न करों व शुल्कों के रूप में सरकारी खजाने में ही पहुंचने जा रहा है। इस मूल्य बढ़ोतरी को मिलाकर वित्तीय वर्ष 2011-12 में केंद्र सरकार उत्पाद शुल्क के रूप में करीब 82,000 करोड़ रुपये बटोर लेगी। अनुमान यह है कि वर्ष 2010-11 में सभी करों व शुल्कों को मिलाकर पेट्रोलियम क्षेत्र से केंद्र सरकार का कुल राजस्व 1,20,000 करोड़ रुपये से ऊपर रहा होगा। मिसाल के तौर पर, हालिया मूल्य बढ़ोतरी के बाद दिल्ली में पेट्रोल का दाम 69 रुपये प्रति लीटर के करीब हो गया है। इसमें से करीब 30 रुपये तो विभिन्न तरह के करों व शुल्कों के जरिये सरकारी खजाने में चले जाएंगे। साफ है, यह तो जनता की कीमत पर सरकार द्वारा अपने राजस्व को बढ़ाने का ही मामला है। दूसरे शब्दों में, सरकार द्वारा जनता को कोई सब्सिडी देना तो दूर रहा, उलटे जनता ही सरकार को सब्सिडी दे रही है।
तेल के दाम में इस तरह की बढ़ोतरी को सही ठहराने के लिए दो दलीलें दी जाती हैं और वास्तव में ये दलीलें तमाम पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों के विनियंत्रण के जरिये दाम और बढ़ाए जाने की ओर ही इशारा करती हैं। पहली दलील तो यही है कि तेल कंपनियों को भारी ‘घाटा’ हो रहा है और उनकी अंडर-रिकवरी वर्ष 2011-12 में 1.32 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच जाने वाली है, जबकि 2010-11 में यह 78,000 करोड़ रुपये के स्तर पर ही थी। आखिर यह अंडर-रिकवरी क्या बला है? स्वतंत्रता के बाद जब हमारे देश में तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया गया था, तो उससे पहले तक देश में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी कीमतों के आधार पर तय होती थीं। कुख्यात ‘आयात तुल्यता मूल्य प्रणाली’ इसी का दूसरा नाम था। 1976 में इस व्यवस्था को खत्म कर पेट्रोलियम उत्पादों के लिए नियंत्रित मूल्य व्यवस्था शुरू की गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत आयातित कच्चे तेल की वास्तविक कीमत तथा शोधन की लागत में तेल कंपनियों के लिए एक उचित मुनाफा जोड़कर पेट्रोलियम उत्पादों के दाम तय किए जाते थे।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि आज भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से जो कच्चा तेल खरीद रहा है, उसकी औसत कीमत 110 डॉलर या 5,280 रुपये प्रति बैरल है। बैरल चूंकि करीब 160 लीटर का होता है, तो इसका मतलब हुआ कि एक लीटर कच्चे तेल पर खर्च हुए करीब 33 रुपये। इसमें तेल शोधन की लागत तथा तेल कंपनियों के लिए एक उचित मुनाफा जोड़ दिया जाए, तब भी तेल डिपो पर तेल की कीमत 40-41 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा किसी भी तरह से नहीं होगी। लेकिन दिल्ली में पेट्रोल का दाम है 69 रुपये प्रति लीटर के करीब। देश के दूसरे हिस्सों में तो यह दाम और भी ज्यादा है।
नव-उदारवादी निजाम में कथित नई आर्थिक नीतियों के तहत सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों के नियंत्रित मूल्य की व्यवस्था को खत्म कर दिया और आयात तुल्यता प्रणाली को फिर से ले आया गया, कच्चे तेल के लिए भी और अन्य पेट्रोलियम उत्पादों के लिए भी। इसका सीधा-सा मतलब यह हुआ कि अब घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें इन उत्पादों की विश्व बाजार की कीमतों से तय होंगी, फिर चाहे भारत में इन उत्पादों की वास्तविक उत्पादन लागत कितनी ही भिन्न क्यों न हो। अंडर रिकवरी इस आयात तुल्यता मूल्य और पेट्रोलियम उत्पादों के घरेलू बाजार के मूल्य के बीच के अंतर से ही निकाली जाती है। इस तरह, यह शुद्ध रूप से एक काल्पनिक घाटे का मामला है, जो घरेलू बाजार में तेल उत्पादों की लागत से नहीं, बल्कि उनकी अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर आधारित होता है। इस तरह, वास्तव में यह एक मिथक है, जिसे नव-उदारवादी सुधारवादियों ने  कॉरपोरेट मीडिया की मदद से प्रचारित किया है।
सच्चाई यह है कि हमारे देश की प्रमुख तेल कंपनियां किसी तरह के घाटे में हैं ही नहीं। 31 मार्च, 2010 को समाप्त वित्तीय वर्ष के लिए ऑडिटशुदा वित्तीय परिणाम दिखाते हैं कि इंडियन ऑइल कंपनी का शुद्ध मुनाफा 10,998 करोड़ रुपये रहा था। इसी तरह इंडियन ऑइल कॉरपोरेशन का संचित लाभ, 49,472 करोड़ रुपये का था। साल 2009 के अप्रैल-दिसंबर के दौरान ही, सार्वजनिक क्षेत्र की दो अन्य तेल कंपनियों, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन तथा भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन ने क्रमश: 5,444 करोड़ रुपये और 834 करोड़ रुपये का मुनाफा बटोरा था। इसलिए प्रधानमंत्रीजी, निरीह जनता पर बोझ लादने के लिए मिथकों का आविष्कार तो मत ही कीजिए!

रिएक्शनरी कहीं का!


सुधीश पचौरी, लेखक व पत्रकार
पूरे 75 साल बाद निराला की भिक्षुक कविता से निकल वह अंधेरिया मोड़ पार करते हुए मिले। पूछा, कैसे हो कॉमरेड? कहां से आ रहे हो?
‘लखनऊ से पैदल आ रहा हूं। वे सब साले शताब्दी से निकल गए। मुझे वहीं छोड़ गए। मांगते-खाते दस दिन में पैदल पहुंचा हूं। अजय भवन किधर है? महासचिव को रिपोर्ट देनी है।’
बात क्या है कामरेड?
‘सब बदमाश चौबीस बाई सात की ‘सिंथेसिस’ में मस्त हैं। मुझे यह पुरानी ‘थीसिस’ पकड़ा गए और कह गए कि इसकी ‘एंटीथीसिस’ ढूंढ़ लेना! सौ साल के हो जाओ, तो बात करेंगे।
‘कौन थे ऐसे कमीने?’
‘एक हो तो बताऊं। सबने ‘प्रोग्रेसिव लेंस’ लगा रखे हैं। नामवर ने ‘प्रोग्रेसिव आई शॉप’ खोल रखी है। लेंस विचारधारा है।’
मैं बोला, प्रोग्रेसिव लेंस प्रॉब्लम है। जिधर देखना है, उधर पूरा मुंह घुमाना पड़ता है। होरी की गाय को देखूं, तो पूरा चेहरा होरी के घर की ओर घुमाना पड़ता है। ‘तुमने भी प्रोग्रेसिव लेंस लगा रखा है?’ कॉमरेड ने पूछा। ‘इन दिनों इसी का चलन है। लगाते ही नजर अपने आप दिग्दिगंत प्रोग्रेसिव हो जाती है। मार्क्‍स, एंगेल्स पढ़ने नहीं पड़ते। जिधर घुमाके देखा, वही प्रोग्रसिव। रिएक्शनरी को देखो, तो प्रोग्रेसिव। कविता प्रोग्रेसिव, कहानी प्रोग्रेसिव। एंट्री लेते ही पात्र संघर्ष करते हैं। प्रोग्रेसिव लेंस की लीला।’
निराला का भिक्षुक अपना दुखड़ा भूल गया। कान पर लाल डोरे से बंधी सन छत्तीस की ऐनक उतारकर रख दी। मैंने प्रोग्रेसिव लेंस वाला अपना चश्मा लगा दिया। उसके लगते ही उनके चक्षु त्रिकालदर्शी हो चमक उठे। कैसा लग रहा है?
कमाल है। रेखा गा रही है- ‘दिल चीज क्या है आप मिरी जान लीजिए!
‘ये क्या! तुम्हें तो गरीबी की रेखा देखनी थी!
‘इतिहास देख रहा था। रेखा निकल पड़ी।’
इतिहास देखना है, तो उधर देख जिधर ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ बैठा है। इसी प्रगतिशील ढाबे पर यहीं बैठा है, जिसे मुक्तिबोध चलाते हैं। ऐतिहासिक भौतिकवाद की पीठ पर सोवियत के उजाड़ व चीन की पूंजीवादी पछाड़ के निशान थे। वह ब्लैकबेरी से ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ को अश्लील ‘जोक’ ट्वीट कर रहा था। आक्थू! उनके मुंह से निकला! देखो-देखो, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने ऐसा दुंदीकाल पेला कि सब लालच-लाल हो गए। प्रोग्रेसिव पब्लिशर्स बंद हो गया। गोर्की, चेखव, मायकोवस्की गायब हो गए।
‘सच बताना, अपने जन्म के वक्त तुम्हें कैसा लगा?’ ‘सच कहूं? प्रेमचंद ने गुड़ -गोबर किया। खुद स्वर्ग सिधार गए और मुझे गुंडों के हवाले कर गए।’
आप अपने साथियों के लिए अपमानजनक शब्द कह रहे हैं। मैंने ऐतराज किया। वे बोले- मुन्ना, मुंह न खुलवा। पहले सब अपने नालायक बच्चों को सोवियत पढ़ने भेजते थे, अब अमेरिका-इंग्लैंड भेजते हैं। हिंदी की जगह अंग्रेजी में प्रस्ताव पारित करते हैं। मैंने कहा था कि अमेरिका घुमा दो, तो कहने लगे, पतित न बनो। साम्राज्यवाद में न जाना। खतरनाक है। सीआईए बर्बाद कर देगी। तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं! मैं संघर्ष करता रह गया। वे अपने गिरोह बनाकर साहित्यिक बटमारी में निकल गए। लखनऊ से पैदल आ रहा हूं। नरक भी पैदल जाना होगा। स्वर्ग में तो उस रामविलास ने मुगदर भांज रखा है। कहता है कि जब मैंने कहा था कि प्रगतिशील तू मर जा! तब मरा नहीं। अब रो रहा है! रिएक्शनरी कहीं का!

शनिवार, 12 नवंबर 2011

वार्त्ता है बैंगन की फसल

अक्षर यात्रा की कक्षा में "व" वर्ण की चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "मनुस्मृति" और "याज्ञवल्क्य संहिता" में किसान की खेती और वैश्य के व्यापार के लिए वार्त्ता शब्द प्रयुक्त है। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, वार्त्ता तो बातचीत और समाचार को कहते हैं। फिर खेती व व्यापार के अर्थ में वार्त्ता शब्द कैसे बना?

आचार्य ने बताया- वत्स, बैंगन की फसल को वात्तü अथवा वात्ताü कहा गया है। देसी बोलियों में "बिंताक" शब्द बैंगन के अर्थ में मिलता है। जो वात्तüक का अपभ्रंश है। अंगराग यानी उबटन और मोमबत्ती को भी वार्त्ता कहा गया है। इनके व्यवसायी को वार्तिक कहते हैं। इसलिए वात्ताü शब्द व्यापार के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। "व्याकरण शास्त्र" का कथन है- "उक्तानुदुरूक्तार्थ व्यक्ति कारि तु वात्तिüकम्।" यानी वार्तिक एक ऎसा नियम है, जो किसी अधूरी बात की व्याख्या करता है। पाणिनि के सूत्रों पर कात्यायन द्वारा निर्मित व्याख्यापरक नियमों के लिए वार्तिक शब्द प्रयुक्त हैं। समाचार लाने वाले दूत को भी वार्तिक कहते हैं।

आचार्य ने बताया- "श्रीमद्भगवतगीता" में अनुभव से प्राप्त ज्ञान को विज्ञान कहा गया है। "दर्शनशास्त्र" के अनुसार अन्त:करण की उस चेतना का नाम विज्ञान है जिसके द्वारा अपने व्यक्तित्व का बोध होता है। इसका अर्थ अहंकार से मिलता-जुलता है। ज्ञान, बुद्धिमत्ता, प्रज्ञा और समझ के अर्थ में भी विज्ञान शब्द काम में लिया जाता है। भतृüहरि विवेचन, अन्तर पहचानने और कुशलता के अर्थ में विज्ञान शब्द का प्रयोग करते हैं। व्यवसाय और नियोजन के अर्थ में भी विज्ञान शब्द देखा गया है। संगीत और तंत्र के अर्थ में भी विज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है। विज्ञानवाद दर्शन के उस सिद्धांत का नाम, जो मानता है कि वस्तुसत्ता विज्ञानरू प है। विज्ञान यानी मन के व्यापार के सिवाय जगत का कोई अस्तित्व नहीं है।

आचार्य बोले- वेदांत में धर्म, दर्शन और कला के अर्थ में विद्या शब्द का प्रयोग मिलता है। दर्शन में विद्या का अर्थ अध्यात्म शास्त्र अर्थात आत्मज्ञान है। धर्म शास्त्र में विद्या का अर्थ त्रयी यानी तीन वेद हैं। पौराणिक तथा तांत्रिक मत में विद्या शब्द का प्रयोग महादेवी, दुर्गा अथवा शक्ति के मंत्र के अर्थ में मिलता है। कला के क्षेत्र में विद्या शब्द का प्रयोग धनुर्विद्या, शस्त्रविद्या और शिल्पविद्या जैसे शब्दों में दिखाई देता है। "अर्थशास्त्र" में चार विद्याएं वर्णित है- आन्वीक्षिकी यानी तर्क अथवा दर्शन, त्रयी यानी तीन वेद, वात्ताü यानी अर्थशास्त्र, दण्ड नीति और राजनीति। "मनुस्मृति" ने आत्मविद्या शब्द का प्रयोग आत्मज्ञान के लिए किया है। "याज्ञवक्ल्यस्मृति" में विद्या के चौदह स्थान बताए हैं- चार वेद, छह वेदांग, पुराण, न्याय, मीसांसा और स्मृति। कुछ विद्वान चार उपवेदों को भी जोड़कर अठारह विद्यास्थान बताते हैं। कई मतों में तेंतीस और कहीं चौंसठ विद्याएं मानी गई हैं। "ईशोपनिषद" में विद्या शब्द का प्रयोग अध्यात्म ज्ञान के अर्थ में हुआ है- विद्या†च अविद्या†च यस्तद् वेद उभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययाùमृतमश्नुते।। जो विद्या यानी अध्यात्म और अविद्या यानी भौतिक शास्त्र को एक साथ जानता है वह अविद्या यानी मृत्यु से ऊपर उठकर विद्या रू प अमृततžव को प्राप्त करता है। नागेश भट्ट ने भी इसी अर्थ में विद्या का प्रयोग किया है- "परमोत्तमपुरूषार्थसाधनीभूता विद्या ब्ा्रह्मज्ञानस्वरू पा।" यानी ब्ा्रह्म ज्ञान को विद्या कहा गया है।

आचार्य ने बताया- कालिदास प्रार्थना, अनुरोध और संवाद के अर्थ में विज्ञापन शब्द का प्रयोग करते हैं। "कुमारसम्भव" में शिष्ट-उक्ति के लिए विज्ञापन शब्द काम में लिया गया है। सूचना, वर्णन और शिक्षण के अर्थ में भी विज्ञापन शब्द प्रयुक्त हैं। शिक्षक को विज्ञापक और शिक्षित व्यक्ति को विज्ञापित कहते हैं। "गीतगोविन्द" निरर्थक तर्क-वितर्क के अर्थ में वितंडा शब्द काम में लेता है। दोषपूर्ण आलोचना यानी तू-तू मैं-मैं के अर्थ में भी वितंडा शब्द प्रयुक्त है। "दर्शनशास्त्र" में ओछे तर्क के लिए वितंडा शब्द देखने को मिलता है।

आचार्य ने बताया- वैदिक काल की एक नदी का नाम विपाशा है। विपाशा का अर्थ है पाश यानी बंधनों से मुक्त करने वाली नदी। इसी नदी के नामकरण के पीछे एक कथा मिलती है- वशिष्ठ ऋषि आत्मघात करने की इच्छा से अपने हाथ-पैर बांधकर विपाशा के जल में कूद गए, पर नदी ने उन्हें पाशमुक्त कर पुन: किनारे फेंक दिया। इसी से व्यास नदी का नाम विपाशा पड़ा।

शकुन्तला यानी पक्षियों से पोषित

अक्षर यात्रा की कक्षा में "श" वर्ण की चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "मेघदूत" में योग्य होने, सक्षम होने और सबल होने के अर्थ में शक् शब्द का प्रयोग मिलता है। एक शिष्य ने पूछा- "गुरूजी मैं यह काम कर सकता हूं।" शक् शब्द भी इस वाक्य में प्रयुक्त "सकने" के अर्थ को प्रकट करता है?
आचार्य ने कहा- हां वत्स, कालिदास और मनु ने शक् अथवा शक्त का प्रयोग "कर सकने" के अर्थ में किया है। इसलिए "सकना" शब्द शक् के अर्थ का वाहक है। सीखने के अर्थ में भी शक् शब्द प्रयुक्त है। राजा शालिवाहन को शक राज कहा गया है। शक संवत् इसी राजा के नाम से प्रचलित है। शक संवत् ईसाई कलेण्डर से 78 वर्ष बाद आरम्भ हुआ। एक देश और जनजाति का नाम भी शक है। "मनुस्मृति" में पौण्ड्रक के साथ शक शब्द का प्रयोग मिलता है। राजा विक्रमादित्य को शकारि कहा गया है। शकों का विनाश विक्रम ने ही किया था।

आचार्य ने बताया- "पंचतंत्र" में गाड़ी और छकड़े के अर्थ में शकट शब्द का प्रयोग मिलता है। "याज्ञवल्क्य संहिता" में भी शकट शब्द भार ढोने वाले वाहन के अर्थ में है। "मनुस्मृति" और "महाभारत" में एक व्यूह का नाम शकट व्यूह है। गाड़ी भर बोझ के अर्थ में भी शकट शब्द का प्रयोग होता है। 2000 पल के बराबर एक गाड़ी का बोझ माना गया है। पुराणों में एक राक्षस का नाम शकट था। शकटासुर का वध श्रीकृष्ण ने किया। कृष्ण का एक विशेषण शकटारि है। "ज्योतिषशास्त्र" में रोहिणी नक्षत्र को भी शकट कहा गया है। इस नक्षत्र का आकार छकड़े की तरह है। छोटी गाड़ी अथवा माटी की खिलौना गाड़ी को शकटिका कहा गया है। "मृच्छकटिका" शब्द इसका उदाहरण है।

आचार्य ने बताया- राजा के साले को शकार कहते हैं। इसे राज दरबार में उच्च पद प्राप्त होता था। शूद्रक रचित "मृच्छकटिकम्" में शकार का चरित्र चित्रण देखा जा सकता है। "साहित्यदर्पण" इस उपहासास्पद व्यक्तित्व का वर्णन करता है- "मदमूर्खताभिमानी दुष्कुलतैश्वयैसंयुक्त:। सोùयमनूढ़ाभ्राता राज्ञ: श्याल: शकार इत्युक्त:।।" यानी अहंकारी, मूर्ख और निम्न कोटि का आदमी राजा का साला होने से शकार कहा गया है। मुगल दरबारों में शकारों का बोलबाला था। अकबर और बीरबल के किस्सों में बादशाह के ऎसे ही मूर्ख साले का वर्णन है।

आचार्य ने बताया- "याज्ञवल्क्य संहिता" में एक पक्षी का नाम शकुन है। मिथकीय अवधारणा में एक ऎसे पक्षी का वर्णन है, जो शुभाशुभ को अपनी बोली से प्रकट करता है। पक्षियों की बोली के जानकार को शकुनविद् कहते हैं। शकुन विद्या का जानकार पक्षी की बोली के अनुसार फल कथन करता है। धीरे-धीरे शकुन शब्द शुभाशुभ बताने वाले चिह्नों के अर्थ को प्रकट करने लगा। भारत में हर कार्य के लिए शुभ शकुन लेने का रिवाज है। अशुभ संकेतों को अशुभ शकुन कहा गया है। शकुन विद्या का वर्णन शकुन शास्त्र में मिलता है। सभी देशों के रीति-रिवाजों में शकुन सम्बन्धी वर्णन मिलते हैं। शकुन शब्द से ही "सगुन" शब्द बना है। "उत्तररामचरित" में मुर्गे के लिए शकुनि शब्द प्रयुक्त है। "महाभारत" में गांधारराज सुबल के पुत्र का नाम शकुनि था। शकुनि दुर्योधन का मामा था। इसने दुर्योधन को अनेक दुरभि:संधियों से परिचित कराया। कई षड्यंत्र सिखाए। आज भी ऎसे रिश्तेदार या मित्र को शकुनि कहते हैं जिसका परामर्श बर्बादी की वजह बनता है। गलत चाल को शकुनि चाल कहते हैं।

आचार्य ने बताया- कालिदास ने शकुन्त पक्षी का वर्णन किया है। शकुन्त पक्षी नीलकंठ के रू प में जाना गया है। छत्तीसगढ़ में नीलकंठ सगुन पक्षी के रू प में विख्यात है। दशहरे के दिन नीलकंठ केदर्शन पूरे वर्ष के लिए शुभ शकुन माना गया है। राजस्थान में भी "सुगनचिड़ी" की मान्यता है। "सुगनचिड़ी" के रू प में "रू पारेल" पक्षी विख्यात है।

आचार्य ने बताया- मेनका अप्सरा से उत्पन्न विश्वामित्र की पुत्री का नाम शकुन्तला है। मेनका जब स्वर्ग गई तो अपनी नवजात बेटी को एकान्त जंगल में छोड़ गई। जंगल में पक्षियों ने इसका पालन-पोषण किया, इसीलिए इसका नाम शकुन्तला पड़ा। शकुन्तला महर्षि कण्व को मिली। कण्व ने अपनी पुत्री के रू प में पाला। राजा दुष्यन्त ने अपनी पत्नी बनाने के लिए शकुन्तला से गांधर्व विवाह किया। शकुन्तला के पुत्र भरत थे। भरत चक्रवर्ती राजा बने। एक मान्यता के अनुसार भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारतवर्ष प्रचलित हुआ।

अस्थिर, चंचल है संचारी

अक्षर यात्रा की कक्षा में "स" वर्ण की चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने बताया- पर्यटन, भ्रमण के अर्थ में संचारी शब्द काम लेते हैं। एक शिष्य ने कहा- गुरूजी हमें तो संचारी रोगों के बारे में पढ़ाया गया है।

आचार्य बोले- सही है पुत्र, एक से दूसरे में फैलने वाले या संक्रमण करने वाले, संक्रामक यानी छूत के रोग संचारी कहलाते हैं। "मातंगलीला" और "कुवलयानन्द" में गतिशील, गमनीय के अर्थ में संचारी शब्द का प्रयोग हुआ है। अस्थिर, परिवर्तनशील, चंचल, दुर्गम, अगम्य, क्षणभंगुर (भाव), प्रभावशाली, आनुवांशिक, वंश परम्परा प्राप्त (रोग) के अर्थ में भी संचारी शब्द काम लेते हैं। गंधद्रव्य, प्रणोदन, धूप या धूप के जलने से उठने वाला धुआं, वायु, हवा आदि अर्थो में भी संचारी शब्द प्रयुक्त करते हैं। गुंजा की झाड़ी को संचाली कहते हैं। ढेर लगाया हुआ, संगृहीत, जोड़ा गया, इकट्ठा किया गया, रखा गया, जमा किया गया, गिना गया, गणना की गई, भरा हुआ, सुसम्पन्न, संयुक्त, युक्त के अर्थ में संचित शब्द काम लेते हैं। बाधित, अवरूद्ध, सघन, घना (जैसे जंगल) के अर्थ में भी संचित शब्द प्रयुक्त होता है।

आचार्य ने बताया- संग्रह, संचय के लिए संचिति और विचार, विमर्श के लिए संचिन्तन शब्द काम लेते हैं। चूर-चूर करना को संचूर्ण कहते हैं। लिपटा हुआ, ढका हुआ, छिपा हुआ, वस्त्र पहने हुए के अर्थ में संछन्न शब्द का प्रयोग करते हैं। "रघुवंश" में संलग्न होना, जुड़े रहना, चिपके रहना के अर्थ में संज शब्द का प्रयोग हुआ है। "महाभारत" और "उत्तररामचरित" में अनु प्रत्यय के साथ संज का प्रयोग अनुसंज शब्द के रूप में चिपकना, जुड़ना, चिमटना, साथ होना के अर्थ में हुआ है। इसी तरह "भगवद्गीता" आदि ग्रंथों में भी अनुसंज इन्हीं अर्थो में दिखता है। "शिशुपाल वध" और "कुवलयानन्द" में निलम्बित करना, फेंकना, रखना, चिमटना आदि अर्थो में संज का प्रयोग अवसंज शब्द के रूप में हुआ है। सौंपना, सुपुर्द करना, निर्दिष्ट करना भी अवसंज के अर्थ हैं। "मृच्छकटिकम" में अवसंज शब्द सम्पर्क में होना, मिलते रहना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। "रघुवंश", "शकुन्तला" और "कुवलयानन्द" में जकड़ना, जोड़ना, जमाना, मिलाना, रखना आदि अर्थो में संज का प्रयोग आसंज शब्द के रूप में दिखता है। "किरातार्जुनीय" में आसंज शब्द अभिदान करना, प्रेरित करना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सुपुर्द करना, लगे रहना के अर्थ में भी आसंज का प्रयोग होता है। "कुवलयानन्द" और "रघुवंश" में जमे रहना, चिमटना के साथ ही रखा जाना, डाल दिया जाना और प्रतिबिम्बित होना के अर्थ में संज का प्रयोग निसंज शब्द के रूप में हुआ है। संलग्न होना को भी निसंज कहते हैं। "शारीर भाष्य" में चिमटना, जुड़ना, प्रयुक्त होना, अनुकरण करना, सही उतरना, ठीक बैठना के अर्थ में प्रसंज शब्द काम लिया गया है। "उत्तररामचरित" में मिलाना, साथ-साथ जोड़ना के अर्थ में व्यतिसंज शब्द में संज का प्रयोग हुआ है। ब्र्रह्मा और शिव का नाम भी संज है।

आचार्य ने बताया- संजय महाभारत का एक प्रसिद्ध पात्र था। यह धृतराष्ट्र का सारथि था। "भगवद् गीता" में प्रसंग है कि संजय ने कौरवों और पांडवों के झगड़े में शांति-पूर्ण समझौता कराने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु वह विफल रहा। उसी ने अन्धे राजा धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध का विवरण सुनाया। धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम संजय था। एक प्रकार के युद्ध व्यूह को भी संजय कहते हैं। वार्तालाप, अव्यवस्थित बातचीत, बकवाद करना, गड़बड़, शोर गुल और हंगामा के अर्थ में संजल्प शब्द काम लेते हैं।

सम्मीलन यानी पूर्ण ग्रहण

अक्षर यात्रा की कक्षा में "स" वर्ण की चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने बताया- माप, मापना, तुलना के अर्थ में सम्मान शब्द प्रयुक्त करते हैं। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, सम्मान शब्द का प्रयोग तो आदर के अर्थ में खूब प्रचलन में है।

आचार्य बोले- सही कहते हो पुत्र, आदर, प्रतिष्ठा, मान, इज्जत के अर्थ में सम्मान शब्द प्रचलित है। पूजन, सम्मान करना, सिखलाना, बतलाना के अर्थ में सम्मानन शब्द काम लेते हैं। प्रक्षालन, साफ करना, (लकड़ी आदि का बोझ बांधने के लिए बनाई) तृण की रस्सी को सम्मार्ग कहते हैं। झाड़ू, साफ करने वाला, झाड़ने वाला, बुहारने वाला सम्मार्जक कहलाता है। बुहारना, मांजना, निर्मल करना, साफ करना, झाड़ना, स्नानादि (मूर्ति का), थाली साफ करते समय निकला हुआ उच्छिष्ट, झाड़ू के अर्थ में सम्मार्जन शब्द प्रयुक्त होता है। "हेमचन्द्र" के अनुसार सम्मार्जनी और शोधनी- झाड़ू के दो नाम हैं। अच्छी तरह साफ किया हुआ, हटाया हुआ, नष्ट किया हुआ के अर्थ में सम्मार्जित शब्द का प्रयोग किया जाता है।

आचार्य ने बताया- मापा हुआ, नापा हुआ को सम्मित कहते हैं। "कादम्बरी" और "रघुवंश" में समान माप-विस्तार या मूल्य का, सम, वैसा ही, बराबर और मिलता-जुलता के अर्थ में सम्मित शब्द का प्रयोग हुआ है। इतना बड़ा जितना कि, पहुंचता हुआ, समरूप, समनुकूल, समानुपातिक, से युक्त, के निमित्त, सुसज्जित, सदृश, एक जैसा, अनुरूप और फासला के अर्थ में भी सम्मित शब्द काम लेते हैं। बराबरी, तुलना करना, महत्वाकांक्षा को सम्मिति कहते हैं। विष्ा द्रव्य, जहरीली चीजें सम्मिपात कहलाती हैं। परस्पर मिलाया हुआ, अन्तर्मिश्रित के लिए सम्मिश्र या सम्मिश्रित शब्द काम लेते हैं। इन्द्र का एक विशेष्ाण सम्मिश्ल है। एकत्र होना, मिलना सम्मिलन कहा जाता है। विष्ााक्त, अत्यन्त कड़ा विष्ा सम्मी कहलाता है। बन्द होना, ढकना, लपेटना, संकुचित होना, मूंदना, पूर्ण ग्रहण, खग्रास, सक्रियता का अन्त होना के अर्थ में सम्मीलन शब्द प्रयुक्त करते हैं। सुप्त, जिसने आंखें बन्द कर ली हैं के अर्थ में सम्मीलित और रक्त पुनर्नवा के लिए सम्मीलित द्रुम शब्द काम लेते हैं।

आचार्य ने बताया- "शकुन्तला", "शिशुपाल वध", "रघुवंश" में सामने का, सम्मुख स्थित, आमने-सामने अभिमुखी और सामना करने वाला के अर्थ में सम्मुख शब्द का प्रयोग दिखता है। मुठभेड़ करने वाला, भिड़ने वाला, की ओर प्रवृत्त, किसी बात पर तुला हुआ, मुकाबला करने वाला, उपयुक्त, स्वस्थ के अर्थ में भी सम्मुख शब्द काम लेते हैं। दर्पण, आईना, शीशा, वह जो सामने हो के लिए सम्मुखी शब्द प्रयुक्त करते हैं। भटका हुआ, घबराया हुआ, हतबुद्धि, सुन्दर के लिए सम्मुग्ध शब्द का प्रयोग करते हैं। संज्ञाहीन, मूर्ख, ज्ञानहीन, हतबुद्धि, राशीकृत, अस्त-व्यस्त, तेजी से उत्पन्न, भग्न और टूटा हुआ के अर्थ में सम्मूढ़ शब्द का प्रचलन है। जिसका दिमाग ठिकाने ना हो यानी हत बुद्धि को सम्मूढ चेता भी कहते हैं। व्याकुल, उद्विग्नमना के लिए सम्मूढ ह्वदय शब्द काम लेते हैं।

आचार्य ने बताया- घना होना, बढ़ना, फैलना को सम्मूच्र्छ कहते हैं। तृण, घास के लिए सम्मूच्र्छन शब्द काम लेते हैं। मूच्र्छा, बेहोशी, जमना, गाढ़ा होना, गाढ़ा करना, ऊंचाई, विश्व व्याप्ति, सह विस्तार, पूर्ण व्याप्ति के अर्थ में सम्मूच्र्छन शब्द प्रयुक्त किया जाता है। मछली या अन्य जलचल जन्तु सम्मूच्र्छनोद्भव कहलाते हैं। घनीभूत, बेहोश, प्रतिफलित (जैसे किरण) और मिलाया हुआ (स्वर) के अर्थ में सम्मूच्छिüत शब्द का प्रचलन है।

ब्रह्मशक्ति वाक् है सरस्वती

अक्षर यात्रा की कक्षा में "स" वर्ण की चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने बताया- वाणी और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता को सरस्वती कहते हैं जिसका वर्णन ब्रह्मा की पत्नी रूप में किया जाता है। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, एक पवित्र नदी का नाम भी तो सरस्वती है। आचार्य बोले- सही है पुत्र, सर्वप्रथम ऋग्वेद में सरस्वती का पवित्र नदी और नदी देवता तथा वाग्देवता के रूप में वर्णन मिलता है। हमारे विभिन्न शास्त्रों में सरस्वती को ब्राह्मी, (यानी ब्रह्म शक्ति), भारती, भाषा, गी, वाक् और वाणी नाम भी बताए हैं। कुछ विद्वानों के मत में वेदों में जिस सरस्वती नदी का वर्णन है उसका निश्चय नहीं हो सका है कि वह कौन-सी नदी है। बाद के साहित्य में उल्लिखित सरस्वती कहीं लुप्त होकर नीचे-नीचे गंगा से मिली बताते हैं। ग्रंथ कहते हैं कि सरस्वती मूलत: शुतुद्रि (सतलुज) की एक सहायक नदी थी। जब शुतुद्रि अपना मार्ग बदल कर बिपाशा (व्यास नदी) में मिल गई तो सरस्वती उसके पुराने पेटे (मार्ग) से बहती रही। यह पश्चिमी समुद्र (अब राजस्थान का क्षेत्र) में मिलती थी। इसका वर्णन अत्यन्त वेगवती नदी के रूप में है जिसके किनारे राजा और जन बसते थे, यज्ञ करते और मंत्रों का गान करते थे। सरस्वती को आजकल घग्घर भी कहते हैं। बीकानेर क्षेत्र में भूमिगत बहाव क्षेत्र के संकेत मिलने से कई विद्वान इसे विलुप्त हुई सरस्वती का मार्ग बताते हैं।

आचार्य ने बताया- सरस्वती और दृषद्वती के बीच का क्षेत्र ब्रह्मवर्त कहलाता था जो वैदिक ज्ञान और कर्मकाण्ड के लिए प्रसिद्ध था। ऋग्वेद में सरस्वती देवी के रूप में मानी गई है जो पवित्रता, शुद्धि, समृद्धि और शक्ति प्रदान करती है। उसका सम्बन्ध अन्य देवताओं- पूषा, इन्द्र और मरूत् से बताया है। कई सूक्तों में सरस्वती का सम्बन्ध यज्ञीय देवता इडा और भारती से भी जोड़ा है। पहले सरस्वती नदी देवता थी फिर ब्राह्मण काल में उसका वाक् (वाग्देवता) से अभेद माना (शतपथ ब्राह्मण, ऎतरेय ब्राह्मण)। शब्द वाक् की अधिष्ठात्री सरस्वती को और लक्ष्मी को अर्थ वाक् की अधिष्ठात्री माना है। बाद के काल में सरस्वती विद्या और कला की देवी हो गई। इसका वाहन हंस नीर-क्षीर-विवेक का प्रतीक है। कहीं चित्रों में मयूर को भी सरस्वती का वाहन बताया है।

आचार्य ने बताया- देववाणी, शब्द, स्वर, विद्या, दुर्गा, गाय, श्रेष्ठ स्त्री, सुषुम्ना नाड़ी, बौद्धों की एक देवी, सोमलता, ज्योतिष्मती नामक पौधा, ब्राह्मी लता, मनुपत्नी और जलाशयों से पूर्ण भूभाग के अर्थ में भी सरस्वती शब्द काम लेते हैं। विद्वान, ज्ञानी व्यक्ति, पण्डित को सरस्वती पुत्र कहते हैं। वह स्थान जहां सरस्वती नदी लुप्त हुई मानते हैं उसे सरस्वती विनशन कहा है।

आचार्य बोले- जलयुक्त, रसीला, स्वादिष्ट, सुन्दर, भावुक, रस प्राप्त करने वाला, समुद्र, नद और भैसा के अर्थ में सरस्वान शब्द प्रयुक्त करते हैं। रंगीन, हलके रंग वाला, रंगदार के अर्थ "कुवलयानन्द" में सराग शब्द का प्रयोग दिखता है। "रघुवंश" में लाल रंग की लाख से रंगा हुआ के अर्थ में सराग शब्द प्रयुक्त हुआ है।

"सुभाषित चरित" में प्रणयोन्मत्त, प्रेमाविष्ट, मुग्ध के लिए सराग शब्द का प्रयोग हुआ है। शब्द करने वाला, कोलाहल करने वाला, ढक्कन, कसोरा, चाय की तश्तरी के अर्थ में सराव शब्द काम लेते हैं। फौव्वारा, झरना को सरि कहते हैं। "मालविकाग्निमित्र" में नदी के लिए सरित शब्द प्रयुक्त हुआ है। धागा, डोरी को भी सरित कहते हैं। समुद्र को सरितनाथ, सरितपति, सरितभतृü कहा है। गंगा पुत्र भीष्म का विशेषण सरितपुत्र भी है।

श्याल यानी साला, सियार

अक्षर यात्रा की कक्षा में "श" वर्ण की चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने बताया- पत्नी का भाई श्याल और पत्नी की बहिन श्याली कहलाते हैं। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी श्याल तो सियार को कहते हैं।

आचार्य बोले- सही है वत्स, श्रृगाल या सियार के अर्थ में भी श्याल शब्द काम लेते हैं। साले के लिए श्यालक यानी भार्या- भ्रातृ और साली के लिए श्यालकी, श्यालिका यानी भार्या-भगिनी शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। "शकुन्तला" सावां चावल के लिए श्यामाक या श्यामक शब्द प्रयोग करता है। "कुवलयानन्द" में कालिमा, श्यामता के अर्थ में श्यामिका शब्द दिखता है। "रघुवंश" मलिनता और धातु आदि का खोटापन के अर्थ में श्यामिका शब्द काम लेता है। कपिश, गहरा भूरे रंग का, काला, धूसर, धुमैला के अर्थ में श्याव शब्द प्रयुक्त होता है। काला और पीला मिला हुआ, लाख के रंग का, भूरा के अर्थ में भी श्याव शब्द काम लेते हैं। आम के पेड़ को श्यावतैल और प्रकृतित काले रंग वाले दांत को श्याव दन्त कहते हैं। आंख का एक रोग श्याववत्र्म कहलाता है।

आचार्य ने बताया- श्वेत, सफेद, शुक्ल के अर्थ में श्येत शब्द काम लेते हैं। मृगया और बाज पक्षी से शिकार कराने को श्येनंपाता कहते हैं। बाज और शिकरा को श्येन कहा है। सफेदी, सफेद रंग, पाण्डुर रंग, पीला रंग, हिंसा, पीले रंग के अर्थ में भी श्येन शब्द काम लेते हैं। उतावलापन, बाज जैसी फुर्ती से लपक कर किसी काम में जुटना के अर्थ में श्येनकरण शब्द प्रयुक्त करते हैं। अलग चिता पर दाह करना के अर्थ में श्येनकरणिका शब्द काम लेते हैं। बाज पकड़ कर उसे बेचने से जीवनयापन करने वाले को श्येनचित या श्येनजीवी कहते हैं। दण्डव्यूह का एक प्रकार श्येन व्यूह कहलाता है जिसमें पक्ष तथा कक्ष के सैनिकों को स्थिर रख कर उरस्य (सामने के) सैनिकों को आगे बढ़ाया जाता है। मादा बाज श्येनिका कहलाती है। जटायु को श्यैनेय कहते हैं। जाना, हिलना-जुलना, जम जाना, कुम्हलाना के अर्थ में श्यै शब्द प्रयुक्त करते हैं। "रघुवंश" श्यै शब्द का प्रयोग सूख जाना के अर्थ में करता है। एक वृक्ष का नाम श्योणाक या श्योनाक है।

आचार्य ने बताया- कोमल, मृदु, सौम्य, स्निग्ध, नरम, मनोहर के अर्थ में श्लक्षण शब्द प्रयुक्त होता है। "शिशुपाल वध" चिकना, चमकदार के अर्थ में श्लक्षण शब्द काम लेता है। अल्प, स्वल्प, महीन, पतला, सूक्ष्म, सुन्दर, सुकुमार, लावण्यमय, निश्छल, ईमानदार, सच्चा, खरा आदि भी श्लक्षण के अन्य अर्थ हैं। सुपारी, पुंगीफल को श्लक्ष्णक कहते हैं। "रघुवंश" शिथिल, विश्रांत, खुला हुआ, फिसला हुआ के अर्थ में श्लथ शब्द का प्रयोग करता है। ढीला-ढाला होना, दुर्बल होना, छूटा हुआ, बिखरा हुआ के अर्थ में भी श्लथ शब्द काम लेते हैं। "शकुन्तला" और "गंगालहरी" विश्राम करना के अर्थ में "श्लथ शब्द प्रयुक्त करते हैं। चोट पहुंचाना, क्षति पहुंचाना, बिखरे हुए (जैसे बाल) के अर्थ में श्लथ शब्द काम लेते हैं। "कुवलयानन्द" में श्लथ लम्बिन का प्रयोग लटकता हुआ के अर्थ में दिखता है। जिसके अंग ढीले हो गए हों, उसे श्लथांग कहते हैं। व्याप्त होना, प्रविष्ट होना के अर्थ में श्लाख शब्द काम लेते हैं।

आचार्य बोले- "कुवलयानन्द" और "सुभाषित रत्नागार" के अनुसार गुणगान करना, स्तुति करना, सराहना, प्रशंसा करना के अर्थ में श्लाघ शब्द प्रयुक्त होता है। "भिकाव्य" में शेखी बघारना, घमण्ड करना के अर्थ में श्लाघ शब्द दिखता है। "सिद्धान्त कौमुदी" और "भिकाव्य" खुशामद करना, फुसलाकर काम निकालना के अर्थ में भी श्लाख शब्द काम लेते हैं। प्रशंसा, तारीफ करना, चापलूसी करना, आत्मप्रशंसी के अर्थ में श्लाघन या श्लाघा शब्द प्रयुक्त होता है। आत्मगुण कथन, अभिलाष, परिचर्या को भी श्लाघा कहते हैं। "वेणी संहार" स्तुति, सराहना तथा आत्मप्रशंसा, शेखी बघारना के अर्थ में श्लाघा शब्द काम लेता है। सेवा, कामना, इच्छा को भी श्लाघा कहते हैं। डींग मारने का अभाव के अर्थ में "रघुवंश" श्लाघा विपर्यय शब्द काम लेता है। प्रशंसा किया गया, सराहा गया, स्तुति किया गया के अर्थ में श्लाघित शब्द प्रयुक्त होता है। "उत्तररामचरित" में प्रशंसनीय, योग्य के अर्थ में श्लाघ्य शब्द दिखता है। आदरणीय, श्रद्धेय को भी श्लाघ्य कहते हैं।

लज्जा है छुई-मुई

अक्षर यात्रा की कक्षा में ल वर्ण पर चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "एकाक्षरी कोश" में छुई-मुई के पौधे के लिए लज्जा शब्द का प्रयोग हुआ है। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, हमने तो लज्जा शब्द का अर्थ शर्मीलापन पढ़ा है। फिर छुई-मुई के पौधे को लज्जा क्यों कहा गया
आचार्य ने बताया- कालिदास, भतृüहरि और अमर सिंह के "अमरकोश" में लज्जा का अर्थ संकोच, विनम्रता और संयमन के रू प में प्रयुक्त हुआ है। लज्जा का अर्थ शर्म या हया है। एक सुभाषित में कहा गया है- "कामातुराणां, न भयम् न लज्जा"। यानी कामाकुल व्यक्ति को न तो डर होता है और न किसी की शर्म। "नाटकशकुंतला" में "श्ृंगारलज्जां निरूपयति"। यानी श्ृंगार लज्जा से आवरित होता है। इसलिए लज्जा का एक अर्थ सजी हुई सुन्दरी पर पर्दा डालना है। शालीन और शर्मीले को लज्जाशील अथवा लज्जालु कहते हैं। छुई-मुई के पौधे को लज्जा अथवा लज्जालु इसलिए कहा है क्योंकि उसका स्पर्श करते ही वह संकुचित होने, सिमटने और मुरझाने लगता है। ढीठ, बेशर्म और अविनित को लज्जाहीन कहा है। लाज अथवा लज्जा को स्त्री का आभूषण कहा गया है।
आचार्य ने बताया- "वृक्षायुर्वेद" में बेल और फैलने वाले पौधे के अर्थ में लता शब्द का प्रयोग मिलता है। शाखा को भी लता कहते हैं। सौन्दर्य, कोमलता और पतलेपन को प्रकट करने के लिए समास के अन्त में लता शब्द का प्रयोग किया जाता है। भुजलता, बाहुलता, भ्रूलता और विद्युल्लता शब्द इसके उदाहरण है। सुन्दर स्त्री और मोतियों की लड़ को भी लता कहते हैं। कोड़े के अर्थ में भी लता शब्द प्रयुक्त है। फूल को लतान्त और बेल पत्तों से बनी कुटिया को लताकुंज कहा गया है। सांप को लताजिह्व और आलिंगन के लिए लतावेष्ट शब्द काम में लिया जाता है। प्राप्त और अवाप्त के अर्थ में लब्ध शब्द का प्रयोग "रघुवंश" में देखा जा सकता है। बात कहने के उचित अवसर को लब्धावकाश कहते हैं। इसका अर्थ कार्यालय से छुट्टी मिलना भी है।
आचार्य ने बताया- "तंत्रशास्त्र" के अनुसार जिस साधक को अभिष्ट सिद्धि मिल गई है उसे लब्धकाम कहते हैं। लाभ और फायदे के अर्थ में लब्धि शब्द का प्रयोग मिलता है। विद्वान और बुद्धिमान को लब्धवर्ण कहा है। "जैन आगमों" में लब्धि शब्द का प्रयोग सिद्धि के अर्थ में मिलता है। फसल की लुनाई, कटाई और पके अनाज के संग्रहण को लव कहते हैं। "लावनी" शब्द इसी अर्थ का द्योतक है। अनुभाग, खण्ड, कवल और ग्रास के अर्थ में भी लव शब्द काम में लिया गया है। कण, बून्द और अल्प मात्रा के अर्थ में भी लव शब्द का प्रयोग होता है। "ज्योतिषशास्त्र" में समय के सूक्ष्म विभाग को लव कहा गया है। लव निमेष का छठा भाग होता है। हानि और विनाश के अर्थ में भी लव शब्द का प्रयोग मिलता है। लौंग और जायफल को भी लव अथवा लवंग कहते हैं। "रामायण" में राम के यमज यानी जुड़वा पुत्रों में से एक का नाम लव था। सभास्थल पर रामायण का सबसे पहले पाठ करने वाले यमज- लव-कुश थे।
आचार्य ने बताया- पुराणों में 7 समुद्रों में से एक का नाम लवणसमुद्र है। "ब्रह्मवैवत्तüपुराण" के अनुसार श्रीकृष्ण की पत्नी विरजा के गर्भ से सात पुत्र जन्मे। इन्हीं के नाम से सात समुद्र हुए। इनमें से एक बालक के रोने से विरजा को संताप हुआ। विरजा के शाप से वह पुत्र नमकीन पानी का समुद्र हो गया, जिसे "लवणसमुद्र" कहा गया। लाक्षणिक अर्थ में निरन्तर रोने वाले को लवणसमुद्र कहते हैं क्योंकि आंसुओं का स्वाद नमकीन है। पुराणों में इन सात समुद्रों की उत्पत्ति राजा सगर के पुत्रों के खोदने से या राजा प्रियव्रत के रथ के चलने से जो गड्ढे बने, उनसे बताई है। नमक की खान को लवणाकर कहते हैं। सुन्दर स्त्री को भी लवणाकर अथवा लावण्यवती कहा है। "पkपुराण" में भगवती सीता का एक नाम लाक्षकी है। लाख को लाक्षा कहते हैं। अति ज्वलनशील लाख से बने घर को महाभारत में लाक्षागृह कहा गया। दुर्योधन आदि कौरव राजकुमारों ने षड्यंत्रपूर्वक ऎसा गृह बनवाया जिसमें आग लगाकर माता कुन्ती और पांचों पाण्डवों की हत्या का प्रयास किया था। "रघुवंश" में चिह्न और निशान के अर्थ में लांछन शब्द प्रयुक्त है। नाम, संज्ञा, विशेषण के अर्थ में भी लांछन शब्द प्रयुक्त है। चंद्रमा के बीच के काले धब्बे को भी लांछन कहा गया है। कलंक के लिए भी लांछन शब्द प्रयुक्त है। श्रीकृष्ण के ह्वदय पर अंकित श्रीवत्स को भी लांछन कहते हैं। यह लांछन भृगु ऋषि द्वारा विष्णु की छाती पर पाद प्रहार से बना था। सीमांत पर लगे पत्थर के अर्थ में भी लांछन शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन साहित्य में तीर्थकर के प्रतीक चिह्नों के लिए लांछन शब्द प्रयुक्त है।

पांसु-चन्दन यानी शिव

अक्षर यात्रा की कक्षा में प वर्ण पर चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "एकाक्षरी कोश" के अनुसार बचाने वाले, देखभाल करने वाले और स्थिर करने वाले के अर्थ में पा शब्द का उपयोग समास के अंत में होता है जैसे- गोपा शब्द का अर्थ है गायों की देखभाल अथवा रक्षा करने वाला।
एक शिष्य ने कहा- गुरूजी, क्या गोपा शब्द से ही गोपाल शब्द बना है।

आचार्य ने कहा- गायों के रखवाले को गोपाल अथवा गोपालक कहते हैं। भाषा में ग्वाला शब्द गोपालक के अर्थ को ही अभिव्यक्त करता है। समास के अंत में पा शब्द के और भी कई अर्थ देखने को मिलते हैं, जैसे- सोमपा शब्द में पा शब्द पीने के अर्थ को प्रकट कर रहा है। इस तरह सोमपा शब्द का अर्थ हुआ सोमरस पीने वाला। चढ़ाए जाने वाले के अर्थ में अग्रेपा शब्द पा को देखा जा सकता है।

"भामिनीविलास" पीने और एक सांस में चढ़ा जाने के अर्थ में पा शब्द का उपयोग करता है। वहीं "शिशुपाल वध" में चूमने के अर्थ में पा शब्द देखा जा सकता है। उत्सव मनाने, घ्यानपूर्वक सुनने के अर्थ में भी कालिदास ने पा शब्द को प्रयोग में लिया है।
आचार्य मनु ने सौन्दर्यावलोकन के अर्थ में पा शब्द का प्रयोग किया है। वहीं हुकूमत करने और शासन करने के अर्थ में शूद्रक ने "मृच्छकटिकम्" में पा शब्द को उपयोग में लिया है।

आचार्य ने बताया- पांस शब्द को प्राय: समास के अंत में काम में लिया जाता है। इसका अर्थ कलंकित करने वाला, अपमानित करने वाला और दूषित करने वाला होता है। कुल-कलंक को कुलपांस कहा गया है। "महावीर चरित्त" में पौलुस्त्यकुलपांसन यानी पौलुस्त्य कुल-कलंक शब्द में इसे देखा जा सकता है। धूल, गर्द, चूरे के अर्थ में पांसु शब्द का उपयोग होता है। "रघुवंश", "ऋतुसंहार" और "याज्ञवल्क्य संहिता" इन्हीं अर्थोü में पांसु शब्द काम में लेते हैं। धूल कण, गोबर, खाद और एक प्रकार के कपूर के लिए भी पांसु शब्द का उपयोग होता है। राजमार्ग को पांसुकुली कहते हैं और धूल के ढेर को पांसुकूल कहते हैं। पांसुकूल शब्द का प्रयोग ऎसे कानूनी दस्तावेज के लिए भी होता है जो किसी व्यक्ति विशेष के नाम नहीं लिखा गया हो। एक प्रकार के नमक को पांसुक्षार कहते हैं। शिव का एक विशेषण पांसु-चंदन है यानी धूल-राख का तिलक लगाने वाला। "एकाक्षरी कोश" के अनुसार विष्णु का एक विशेषण पांसुजालिक है। पेड़ की जड़ों के पास चारों ओर से खोदकर पानी सींचने के स्थान को पांसुमर्दन और धूल की सतह को पांसुपटल कहा जाता है। मच्छर, गोमक्खी और विकलांग के अर्थ में पांसुर अथवा पांसुल शब्द का उपयोग होता है। दुश्चरित्र, लम्पट और स्वेच्छाचारी को पांसुल कहते हैं। शिव के विशेषण के अर्थ में भी पांसुल शब्द को "एकाक्षरी कोश" में देखा जा सकता है। पृथ्वी के अर्थ में पांसुला शब्द का प्रयोग होता है। व्यभिचारिणी स्त्री के लिए पांसुली शब्द काम में लिया गया है। "रघुवंश" में इसी अर्थ में पांसुली शब्द काम में लिया गया है।

आचार्य ने बताया- "मनुस्मृति" के अनुसार प्रसाधन, सेकने, उबालने और भोजन पकाने के अर्थ में पाक शब्द का प्रयोग होता है। "याज्ञवल्क्य संहिता" ने भी इन्हीं अर्थोü में पाक शब्द का प्रयोग किया है। नतीजे, परीक्षाफल और परिणाम के अर्थ में पाक शब्द का प्रयोग "कुमारसंभव" में हुआ है। "उत्तररामचरित्त" में भी इसी अर्थ का समर्थन मिलता है। पकने की क्रिया और बुढ़ापे के कारण बालों के सफेद हो जाने को भी पाक कहते हैं। उल्लू, बच्चे और एक राक्षस जिसका वध इन्द्र ने किया था के लिए भी पाक शब्द का प्रयोग होता है। रसोई को पाकशाला, पाकस्थान और पाकागार कहते हैं। पकने के लिए तैयार और विकासोन्मुख के अर्थ में पाकाभिमुख शब्द का प्रयोग होता है। कृपापरायण के अर्थ में भी पाकाभिमुख शब्द काम में लिया जा सकता है। पकाने के बर्तन को पाकपात्र और कुम्हार के आवे को पाकपुटी कहते हैं। गृहयज्ञ के लिए पाकयज्ञ शब्द का प्रयोग "मनुस्मृति" में हुआ है।
आचार्य ने बताया- "कुमारसंभव" में इन्द्र के विशेषण के अर्थ में पाकशासन शब्द का प्रयोग हुआ है। इन्द्र के पुत्र जयंत, बालि और अर्जुन के विशेषण के अर्थ में पाकशासनि शब्द का प्रयोग होता है।

आचार्य ने बताया- आग, हवा और हाथी के बुखार को पाकल कहते हैं। कूटपाकल शब्द में इस अर्थ की साफ घ्वनि सुनाई देती है। रसोइये को पाकु अथवा पाकुक कहते हैं। पाकुक शब्द की आहट अंग्रेजी के "कुक" शब्द में दिखाई देती है। जिसका अर्थ भी रसोइया होता है। पकाने योग्य, परिपक्व होने और जवाखार को पाक्य कहते हैं। कृष्ण और शुक्ल पक्ष के अर्थ में पाक्ष शब्द का प्रयोग पखवाड़े के लिए होता है। भाषा में पाक्ष से ही पाख शब्द बना है। पक्ष से सम्बद्ध, अर्धमासिक, पक्षी से सम्बद्ध किसी दल या समूह का पक्ष लेने वाला पाक्षिक कहा जाता है। तर्क विषयक अर्थ में भी पाक्षिक शब्द का उपयोग होता है। ऎच्छिक अथवा वैकल्पिक के अर्थ में भी पाक्षिक शब्द का प्रयोग होता है। बहेलिए अथवा चिड़ीमार को भी पाक्षिक कहते हैं।

घ्यान यानी दिव्य अन्तज्ञापन

अक्षर यात्रा की कक्षा में ध वर्ण पर चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "श्रीमद् भगवद्गीता" का एक अमृत वचन है, "ज्ञानाद् घ्यानं विशिष्यते" यानी ज्ञान से भी घ्यान का महत्व विशिष्ट माना गया है।
एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, बोलचाल में तो ज्ञान-घ्यान शब्द एक साथ बोला जाता है। ये दोनों शब्द एक दूसरे के जोड़ीदार से हैं। क्या घ्यान का एक अर्थ ज्ञान भी हैक्
आचार्य ने कहा- हां, वत्स घ्यान का अर्थ कोरा आंख मूंदना, आसन लगाना और मौन होकर काष्टा भाव यानी लक्कड़ की तरह अकड़ कर बैठ जाना ही नहीं है। गीताकार के अनुसार मनन, विमर्श, विचार और चिंतन को भी घ्यान कहा है। चिंतन मनन और विचार विमर्श का सम्बन्ध ज्ञान से है तो घ्यान शब्द का व्यापक अर्थ ज्ञान के क्षेत्र तक फैल जाता है।
आचार्य ने बताया- भतृüहरि के अनुसार विशेष रूप से सूक्ष्म चिंतन अथवा आघ्यात्मिक मनन को भी घ्यान कहते हैं। कालीदास ने भी "रघुवंश" में घ्यान शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है। "योग शास्त्र" के अनुसार दिव्य अंतज्ञाüन या अन्तर्विवेक को भी घ्यान की संज्ञा दी गई है। किसी इष्ट देवता के प्रति आस्थापूर्वक तन्मय हो जाने यानी गहन अनुभूति को भी घ्यान कहते हैं। चिंतन मनन द्वारा प्राप्त होने वाले अनुभव को घ्यानगम्य कहा जाता है। विचारों में खोया हुआ, मनन में लीन और चिंतनशील व्यक्ति को घ्यान तत्पर, घ्याननिष्ठ अथवा घ्यानी कहते हैं।
आचार्य बोले- दुनिया की सभी धार्मिक आस्थाओं में घ्यान का महत्व है। अलग-अलग कई तरह की घ्यान विधियों का वर्णन भी मिलता है। भारतीय धर्मो में पातंजल योग सूत्र में घ्यान का विशद वर्णन हुआ है। बौद्ध और जैन धर्म को तो "घ्यान मार्ग" ही कहा जाता है। बुद्ध की विपस्यना घ्यान पद्धति की चर्चा पिटकों में मिलती है, जिसका आज भी जोर-शोर से चलन है। जैन साधना पद्धति में चार घ्यानों का वर्णन मिलता है- आर्तघ्यान, रौद्र घ्यान, धर्म घ्यान और शुक्ल घ्यान। पहले के दो घ्यान अशुभ और शेष दो को शुभ घ्यान कहा है। घ्यान के बारे में विशद साहित्य भी देखने को मिलता है। घ्यानशतक, घ्यानसूत्र और घ्यानबिंदु उपनिषद इनमें मुख्य माने गए हैं। जापान का झेन शब्द पालि और प्राकृत के झाण का ही जापानी रूप है।
आचार्य ने बताया- सूत्र साहित्य में ध्रुव एक तारे का नाम है। इस तारे का सम्बन्ध विवाह संस्कार में श्वसुर गृह को वधू का स्थायी गृह बताने के प्रतीक के रूप में होता है। ध्रुव का अर्थ स्थिर, दृढ़, अचल, स्थावर, स्थायी, अटल और अपरिवर्तनीय भी है। ज्योतिष में स्थिर के अर्थ में धु्रव शब्द का प्रयोग हुआ है। इस तरह ध्रुव का अर्थ "भगवद्गीता" के अनुसार निश्चित, अचूक और अनिवार्य है। गीता का कथन है- "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुüवं जन्म मृतस्य च।" यानी जो जन्मा है उसका मरना सुनिश्चित है और मरने वाले का पुनर्जन्म भी अनिवार्य है। चाणक्य भी इस अर्थ में ही ध्रुव शब्द को प्रयोग में लेते हैं। मेधावी और धारणशील को भी ध्रुव कहा गया है। स्थिर, अटल के अर्थ के विपरीत महज "मैत्रायणी संहिता" में "ध्रुवस्य प्रचलनम्" पाठ मिलता है जिसका अर्थ "ध्रुव का चलना" है। किंतु इसका अर्थ ध्रुव तारे की चाल नहीं होकर किसी अनहोनी का घट जाना है। इसलिए यहां "ध्रुवस्य प्रचलनम्" का अर्थ किसी घटना विशेष का होना है।
आचार्य ने बताया- "कालीदास" ने रघुवंश में ध्रुव नाम के एक तारे का उल्लेख किया है। उत्तानपाद के पुत्र और मनु के पौत्र का नाम ध्रुव उत्तर दिशा में स्थित एक तारा है। उत्तानपाद के सुरूचि और सुनीति नाम की दो पत्नियां थीं। सुरूचि के पुत्र का नाम उत्तम था। घ्रुव का जन्म सुनीति से हुआ था। एक दिन ध्रुव ने अपने बड़े भाई उत्तम की तरह पिता की गोद में बैठना चाहा, परन्तु उसे राजा और रानी सुरूचि दोनों ने दुत्कार दिया। धु्रव सुबकता हुआ अपनी माता सुनीति के पास गया, उसने बच्चे को सांत्वना दी और समझाया, कि सम्पत्ति और सम्मान कठोर परिश्रम के बिना नहीं मिलते। इन वचनों को सुन कर ध्रुव ने अपने पिता के घर को छोड़ कर जंगल की राह ली। यद्यपि वह अभी बच्चा ही था, तो भी उसने घोर तपस्या की तब विष्णु ने उसको ध्रुव तारे का पद प्रदान किया और ध्रुव लोक में जगह दी।
आकाश, अंतरिक्ष, स्वर्ग, यज्ञ श्रुवा भी ध्रुव है। पवित्र साघ्वी और सती स्त्री को ध्रुवा कहा गया है। वट वृक्ष, स्थाणु और खूंटे को भी ध्रुव कहा गया है।
आचार्य ने बताया- संगीत में गीत का आरम्भिक पद यानी टेक को ध्रुव कहते हैं। इसे गान में दोहराया जाता है। ज्योतिष में किसी बड़े वृत्त के दोनों सिरे, नाक्षत्र राशि चक्र के आरम्भ से ग्रह की दूरी भी ध्रुवा है। इसे धु्रवीय देशांतर भी कहा जाता है। समय, काल, युग और ब्रrाा, विष्णु, महेश की समन्वित उपाधि भी ध्रुव है। सिर पर रखे मुकुट का वह भाग जहां से बाल चमकते हैं उसे ध्रुवावत्तü कहा जाता है।
(राजस्थान पत्रिका से साभार)

नीति यानी आचरण

अक्षर यात्रा की कक्षा में न वर्ण पर चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "नैषध" के अनुसार निर्देशन, दिग्दर्शन, प्रबंध, व्यवहार और कार्यक्रम को नीति कहते हैं।
एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, हमें तो नीति के अनुसार चलने की सीख देते हुए दादाजी कहते रहते हैं कि जो आदमी नीति के रास्ते चलता है उसकी हमेशा जीत होती है।
आचार्य ने कहा- तुम ठीक कह रहे हो वत्स, कालिदास ने आचरण, चाल चलन, व्यवहार, औचित्य, शालीनता और बुद्धिमत्ता के लिए भी नीति शब्द का प्रयोग किया है। "मातंगलीला" योजना, उपाय और युक्ति के अर्थ में नीति शब्द का व्यवहार करती है।
आचार्य ने बताया- "शिशुपाल वध" ने राजनय, राजनीतिशास्त्र और कूटनीति के लिए नीति शब्द काम में लिया है। "भगवद्गीता" आत्म-उदय के अर्थ में नीति शब्द का व्यवहार करती है। अवाप्ति, अधिग्रहण, प्रदान और प्रस्तुत करने के अर्थ में भी नीति शब्द का व्यवहार होता है। सम्बन्ध और सहारे के लिए भी नीति शब्द प्रयुक्त किया जाता है। नीतिकार, राजनीतिज्ञ और सभ्य व्यक्ति के लिए नीतिज्ञ, नीतिकुशल, नीतिष्ण और नीतिविद् शब्द का उपयोग होता है।
आचार्य ने बताया- दूरदर्शी और बुद्धिमान को नीति विशारद कहते हैं। बृहस्पति की गाडी को नीतिघोष कहा जाता है। किसी भूल या अपराध को नीतिदोष कहते हैं। षडयंत्र के मूल स्रोत को नीतिबीज कहा गया है। विष्णु शर्मा ने "पंचतंत्र" में इसी अर्थ में नीति शब्द को ग्रहण किया है। नीतिशास्त्र या राजनीति के नियमों के उल्लंघन को नीति- व्यतिक्रम कहा जाता है। चाल चलन की गलती के अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। लोक और शास्त्र में चार प्रकार की नीतियों का वर्णन हुआ है- साम, दाम, दंड और भेद।
आचार्य ने बताया- "ज्योतिर्विज्ञान" में चंद्रमा को नीध्र कहा है। "एकाक्षरी कोश" के अनुसार रेवती नक्षत्र का एक नाम भी नीध्र है। छत का किनारा, जंगल और पहिए की परिधि अथवा घेरे को भी नीध्र कहा जाता है। "रघुवंश" में राजाओं के एक कुल को नीप कहा गया है। "मृच्छकटिकम्" के अनुसार बरसात में फूलने वाले कदम्ब के वृक्ष को नीप कहते हैं। अशोक वृक्ष के लिए भी कालिदास नीप शब्द काम में लेते हैं।
आचार्य ने बताया- "भामिनीविलास" पानी, रस और आसव के अर्थ में नीर शब्द का उपयोग करता है। "शिशुपाल वध" में नीरद को बादल का एक नाम कहा है। समुद्र को नीर निधि कहते हैं। "एकाक्षरी कोश" के अनुसार कमल का एक नाम नीररूह है।
आचार्य ने बताया- प्राचीन काल में सैन्य धर्म के अनुसार आश्विन महीने में एक पर्व मनाया जाता था इस पर्व को नीराजन कहा जाता था। इसमें राजा, पुरोहित और मंत्रीगण युद्ध में जाने से पहले वेद मंत्रों द्वारा अपने शस्त्रास्त्रों को चमकाते थे। इस पर्व को मनाने के पीछे युद्ध में विजय की कामना था। देव प्रतिमा के सामने प्रज्ज्वलित दीपक को आरती के रू प में प्रस्तुत करना भी नीराजन कहा जाता है।
आचार्य ने बताया- "रामायण" के अनुसार राम की सेना का एक वानर नायक नील था। नल और नील ने ही सेतुबंध बनाया था। "एकाक्षरी कोश" में एक पर्वत श्ृंखला का नाम नील अथवा नीलगिरि है। काला नमक, नीला थोथा अथवा जहर को भी नील कहते हैं। नीलांजन सुरमे का एक नाम है।
आचार्य बोले- बिजली का नाम नीलांजना है। "महापुराण" में नीलांजना एक ऎसी अप्सरा का नाम है जो बिजली की गति से नृत्य करती थी। नीलांजना ने आदि तीर्थüकर ऋषभदेव के सामने मनोहारी नृत्य किया। नृत्य करते-करते ही उसका प्राणांत हो गया। देवमाया ने ऎसा चमत्कार किया कि ठीक वैसी ही अप्सरा उसकी जगह नृत्य करने लगी। दर्शकों ने क्षण भर के लिए नीलांजना के गायब हो जाने को अभिनय का हिस्सा माना। रंग में भंग डाले बिना देवमाया ने नृत्य जारी रखा। ऋषभदेव इस देवमाया को समझ गए और इस घटना से उनकी भावदशा बदल गई और वे राग से विराग पथ पर बढ गए। नीलाम्बुज और नीलोपल्ल नीलकमल के नाम हैं। काले बादल को नीलाभ्र अथवा नीलांबर कहते हैं। नीलांबर का शाब्दिक अर्थ है- गहरे नीले रंगों के वस्त्रों से सुसज्जित। शनिग्रह को नीलक कहते हैं। बलराम का एक विशेषण भी नीलक है।
आचार्य बोले- प्रभातकाल यानी पौ फटने के समय को नीलारूण कहते हैं। "मातंगलीला" में मोर का एक नाम नीलकंठ है। "एकाक्षरी कोश" में शिव के विशेषण के रूप में भी नीलकंठ शब्द का उपयोग हुआ है। खंजन को भी नीलकंठ कहा जाता है। गरूड और छुहारे के पेड को नीलच्छद कहते हैं। नीलतरू नारियल के पेड का नाम है। घने अंधेरे को नीलपंक कहते हैं। "पंचतंत्र" में नील पटल अंधेरे के आवरण को कहा गया है। बाज को नीलपिच्छ कहते हैं। चंद्रमा और बादल का नाम नीलाभ है।
आचार्य ने बताया- "ऋतुसंहार" घोर अंधकार या अंधेरे की गहन काली रेखा को नील रात्रि अथवा नीलांधकार कहा है। "एकाक्षरी कोश" में शिव का एक विशेषण नीललोहित है और नीलम को नीलमणि कहा जाता है।
(राजस्थान पत्रिका से साभार)

समाचार अर्थात संदिष्ट

अक्षर यात्रा की कक्षा में "स" वर्ण की चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने बताया- संग्रह, मिलाप, मिश्रण को सन्दर्भ कहते हैं। एक शिष्य ने पूछा-गुरूजी, सन्दर्भ शब्द का प्रचलन तो ऎसे अर्थ में करते हैं जब एक ही विष्ाय के बारे में अन्यत्र भी जानकारी उपलब्ध हो, तभी तो सन्दर्भ ग्रंथ शब्द हम काम लेते हैं।
आचार्य मुस्कुरा कर बोले- इसे ही मिला कर नत्थी करना, ग्रथन करना या क्रम में रखना सन्दर्भ कहलाता है। "गीतगोविन्द" में संगति, निरन्तरता, नियमित सम्बन्ध, संलग्नता के अर्थ में भी सन्दर्भ शब्द प्रयुक्त हुआ है। "रस गंगाधर" और "उत्तरराम चरित" में संरचना, निबन्ध और साहित्यकृति के अर्थ में सन्दर्भ शब्द दिखता है। प्रसन्न करना, परितृप्त करना, आराम पहुंचाना के अर्थ में संतोष्ाण और छोड़ना, त्यागना के अर्थ में सन्त्यजन शब्द काम लेते हैं। डर, भय, आतंक के लिए सन्त्रास शब्द काम में लेने का प्रचलन है। चिमटा, संडासी को सन्दंश या सन्दर्शक कहते हैं। स्वर या वर्णो के उच्चारण में दांत भींचना भी सन्दंश कहलाता है। एक नरक का नाम भी सन्दंश है।

आचार्य ने बताया-देखना, अवलोकन, नजर डालना, ताकना, टकटकी लगाकर देखना के अर्थ में सन्दर्शन शब्द काम में लेते हैं। मिलना, एक दूसरे को देखना, दर्शन, दृष्टि, निगाह, खयाल, ध्यान के लिए भी सन्दर्शन शब्द का प्रयोग करते हैं। रस्सी, डोरी, श्ृंखला और बेड़ी को सन्दान कहते हैं। हाथी का गण्डस्थल भी सन्दान कहलाता है जहां से मद बहता है। बद्ध, कसा हुआ, बेड़ी में जकड़ा हुआ, श्ृंखलित के अर्थ में सन्दानित या सन्दित शब्द काम लेते हैं। गोशाला, गोष्ठ को सन्दानिनी कहते हैं। भगदड़, प्रत्यावर्तन के अर्थ में सन्दाव शब्द प्रयुक्त होता है। जलन,उपयोग को सन्दाह कहा है। आचार्य बोले- भ्रामक, सन्देहात्मक, अनिश्चित और सना हुआ, ढका हुआ के अर्थ में सन्दिग्ध शब्द काम लेते हैं। "मालविकाग्निमित्र" में भ्रान्त तथा विह्वल के अर्थ में सन्दिग्ध शब्द दिखता है। सशंक, प्रश्नास्पद, अव्यवस्थित, अस्पष्ट, दुरूह (जैसे वाक्य), को भी सन्दिग्ध कहते हैं। खतरनाक, जोखिम से भरा हुआ, असुरक्षित और विष्ााक्त के अर्थ में भी सन्दिग्ध शब्द प्रयुक्त करते हैं। संकेतित, इंगित किया हुआ को सन्दिष्ट कहते हैं। उक्त, वर्णित, निर्दिष्ट , सूचित के अर्थ में भी सन्दिष्ट शब्द काम लेते हैं। वादा किया हुआ, प्रतिज्ञात, जिसे सन्देश पहुंचाने का कार्य सौंपा गया हो, दूत, सन्देश वाहक, हल्कारा भी सन्दिष्ट कहलाता है। सूचना, समाचार, खबर को भी सन्दिष्ट कहा है। आचार्य ने बताया- खटोला, छोटी खाट, शय्याकुश को सन्दी कहते हैं। सुलगने वाला, प्रज्जवलित करने वाला और "उत्तरराम चरित" के अनुसार भड़काने वाला सन्दीपन कहलाता है। इसी ग्रंथ में उद्दीपक के अर्थ में भी सन्दीपन शब्द प्रयुक्त हुआ है। "ऋ तुसंहार" में सुलगाना, भड़काना, प्रज्जवलित करना, उद्दीप्त करना के अर्थ में सन्दीपन शब्द का प्रयोग दिखता है। कामदेव के बाण को भी सन्दीपन कहते हैं। प्रणोदित-उकसाया हुआ, सुलगाया हुआ, उत्तेजित और उद्दीपित के अर्थ में सन्दीप्त शब्द काम लेते हैं। दुष्ट, कमीना, कलुçष्ात किया हुआ, मलिन किया हुआ को सन्दुष्ट कहते हैं। भ्रष्ट करना, मलिन करना, विष्ााक्त करना, खराब करना, सन्दूष्ाण कहलाता है।

आचार्य बोले- सूचना, समाचार, खबर के अर्थ में सन्देश शब्द काम लेते हैं। "मेघदूत", "रघुवंश" और "कुवलयानन्द" में सन्देश, संवाद के अर्थ में तथा "शकुन्तला" में आज्ञा, आदेश के अर्थ में सन्देश शब्द का प्रयोग दिखता है। सन्देश का विष्ाय- सन्देशार्थ कहलाता है। सन्देश ही दूत, राजदूत या सन्देशवाहक को कहते हैं।
(राजस्थान पत्रिका से साभार)

मातृका हैं अक्षर और देव

अक्षर यात्रा की कक्षा में म वर्ण पर चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "एकार्थक नाममाला" के अनुसार गाय, दुर्गा और लक्ष्मी को मातृका कहा गया है। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, क्या इसीलिए गाय, दुर्गा और लक्ष्मी को मां कहते हैं।

आचार्य ने कहा- हां वत्स, मूल रूप से मातृका शब्द देव माताओं का विशेषण माना गया है। ये देव माताएं संख्या में सात मानी गई हैं ब्राही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, माहेन्द्री, वाराही और चामुंडा। एक मान्यता के अनुसार इनकी संख्या आठ है और दूसरी मान्यता के अनुसार इनकी संख्या सोलह भी मानी गई है। "श्रीमद्भागवत" के अनुसार अर्यम की पत्नी और चर्षणिस की माता का नाम भी मातृका है। काम, क्रोध आदि आठ विकारों की अधिष्ठात्री देवियों को मातृका कहते हैं। काम की अधिष्ठात्री योगेश्वरी, क्रोध की माहेश्वरी, लोभ वैष्णवी, मद की ब्रrााणी, मात्सर्य की ऎन्द्राणी, माशुन्य की दंडधारिणी एवं असूया की अधिष्ठात्री वाराही मानी गई हैं। इन्हें अष्टमातृका कहा जाता है। ये अष्टमातृकाएं शिव की परिचारिकाएं मानी गई हैं। अक्षरों और अंकों में लिखे रेखाचित्रों अथवा यंत्र-मंत्र में प्रयुक्त बीजाक्षरों को भी मातृका कहते हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- "अक्षराणामकारोùस्मि।" यानी अक्षरों में मैं अकार हूं। इसलिए अकार को मातृका देव कहा गया है।

आचार्य ने बताया- जैसे लोक एवं शास्त्र में एक ही व्यक्ति के कई नाम प्रचलित होते हैं। गुण, क्रिया, सम्बन्ध और जाति इसके आधार हैं। वैसे ही "तंत्राभिधान" के अनुसार प्रत्येक वर्ण, अक्षर, पद और वाक्य का अपना स्वतंत्र अर्थ और स्वतंत्र आस्वाद होता है। स्वरों के मिलने से पदों के अर्थ में भिन्नता आ जाती है- जैसे मल का अर्थ त्याज्य है और माल का अर्थ ग्राह्य है। मिल का अर्थ मिलना है वहीं मील का अर्थ उन्मीलन यानी खुलना है। मूल-मूल्य, मोल-मौल आदि शब्दों को देखने से स्पष्ट पता चलता है कि थोड़े से परिवर्तन से स्वर ने अपना अर्थ बदल दिया है।

आचार्य ने बताया-"तंत्राभिधान" पर आधारित सर जॉन वुडरफ की किताब "द गारलैण्ड ऑव लैटर्स" के अनुसार प्रत्येक वर्ण का अपना अर्थ होता है। जैसे- अ का अर्थ पूर्ण, व्यापक, अखण्ड तथा अभाव और शून्य है। इ गति, समीप और वाला के अर्थ में प्रयुक्त होती है। जैसे धनी में ई का उ“ाारण धनवाला के अर्थ को प्रकट कर रहा है। ए का अर्थ निश्चल होता है। उ ऊपर एवं दूर के अर्थ में प्रयुक्त है। ओ का अर्थ "वही" होता है। ऋ का अर्थ बाहरी और लृ का अर्थ भीतरी माना गया है। पांचों वर्ग के अन्तिम वर्ण कaा अर्थ अभाव होता है। "मातृकाविज्ञान" के अनुसार प्रत्येक वर्ग के प्रथम वर्ण का अर्थ द्वितीय वर्ण के अर्थ से विपरीत होता है। जैसे- क का अर्थ बांधना, ख का अर्थ खुलना है। ग का अर्थ गति, घ का अर्थ ठहरा हुआ माना गया है। च का अर्थ चलना और चमकना वहीं छ का अaर्थ छांह होता है। ज का अर्थ जन्मना और झ का अर्थ झर जाना है। ट का अर्थ टूटना और ठ का अर्थ इकटे होना है। ड का अर्थ चलना और ढ का अर्थ ठहरा हुआ ढेर होता है। त का अर्थ तैरना या तल तक पहुंचना है वहीं थ का अर्थ स्थापित होने के अर्थ में ठिकाना और ठौर माना गया है। द का अर्थ देना और ध का अर्थ धारण करना है वहीं प का अर्थ पकड़ना और फ का अर्थ फेंकना होता है। ब का अर्थ घुसना, भ का अर्थ प्रकट होना है। य का अर्थ नियंत्रण करना और र का अर्थ देना होता है। ल का अर्थ लेना है। ष का अर्थ ज्ञान और प्रकाश है वहीं स का अर्थ साथ होता है। क्ष का अर्थ बांधना है और त्र का अर्थ समग्र होता है। ज्ञ अजन्म और अनादि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। "नन्दिकेश्वर काशिका" के उपमन्यु कृत भाष्य में भी यह वर्णन मिलता है।

आचार्य ने बताया- वर्ण मातृकाओं के प्रभाव के बारे में "तंत्रशास्त्र" का कथन है कि प्रत्येक अक्षर से बने बीज के जप से हर तरह की कार्य सिद्धि होती है। "मंत्रशास्त्र" इसी सिद्धांत पर काम करता है। एक तांत्रिक मान्यता के अनुसार पाणिनी के शिवसूत्रों यानी अ इ उ ण आदि से अभिषिक्त जल के उपयोग से सभी कार्यों की सिद्धि होती है। 16 स्वर, 25 व्यंजन और 10 अंतस्थ अक्षरों सहित कुल 51 वर्ण मातृकाओं का चमत्कारी प्रभाव माना गया है। आज का विज्ञान भी ध्वनि के आधार पर कई तरह की खोजों में व्यस्त है। इसलिए मातृकाविज्ञान अथवा मंत्रशास्त्र का वैज्ञानिक महžव स्वत: प्रमाणित है।

आचार्य ने बताया- देव माताओं के समूह अथवा अक्षरों के समूह को मातृका चक्र अथवा मातृका मण्डल कहा जाता हैं। अक्षर मातृकाओं के द्वारा सम्पन्न यज्ञ को मातृका यज्ञ कहते हैं। इसमें सस्वर मंत्रोच्चारण किया जाता है। कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, मति, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, तुष्टि और क्रांति के अर्थ में भी मातृका शब्द का प्रयोग होता है। "विष्णुपुराण" के अनुसार समय के सबसे छोटे विभाग यानी निमेष काल के लिए मात्रा शब्द प्रयुक्त होता है। माप, मानक, नियम, क्षण और कण के अर्थ में भी मात्रा शब्द देखा जा सकता है। धन-सम्पत्ति के अर्थ में मात्रा शब्द का प्रयोग होता है। "छन्दशास्त्र" में एक मात्रा का अक्षर ह्रस्व और दो मात्रा का अक्षर दीर्घ कहा जाता है। तत्व और भौतिक जगत के अर्थ में मात्रा शब्द प्रयुक्त होता है। कान की बाली के लिए भी मात्रा शब्द काम में लिया जाता है। "श्रीमद्भगवद्गीता" में भौतिक वस्तुओं के साथ इन्द्रियों के संयोग को भी मात्रा कहा गया है।
(राजस्थान पत्रिका से साभार)

"व" है सर्वसिद्धि दायक

अक्षर यात्रा की कक्षा में अंत:स्थ वर्णो के चौथे अक्षर "व" की चर्चा प्रारम्भ करते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "मेदिनीकोश" का कथन है- "व: सान्त्वने च वाते वरूणे च निगद्यते।" यानी "व" शांति, वायु और वरूण के अर्थ को प्रकट करता है। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, हमने तो "व" का एक अर्थ वर-वधू भी पढ़ा है।
आचार्य ने बताया- हां वत्स, "लोकवेद" में कहा गया है- "व-वास्तलो की बीन्दोली।" यानी "व" का अर्थ वास्तु यानी घर होता है। यहां बीन्दोली अर्थ बिंदी और वर की शोभा यात्रा है। बिंदी स्त्री का सौभाग्य सूचक चिह्न है। वास्तु शब्द घर के अर्थ को भी प्रकट करता है। वैदिक वाक्य है- "गृहिणी गृहमुच्यते।" यानी गृहिणी को ही घर कहा गया है। इस तरह "व" का एक अर्थ वर-वधू होना स्वाभाविक है। राजस्थानी में वर को बीन्द कहते हैं। "मेदिनीकोश" में अन्त:स्थ "व" का सम्बन्ध वास्तु और बिन्दु से जोड़कर कहा गया है- वास्तु और बिन्दु का गर्भ से गहन सम्बन्ध है। पुत्रेष्टि यज्ञ अथवा सन्तानोत्पत्ति कर्मविधान में "चरक" ने सबसे पहले वास्तु-पूजन का निर्देश किया है। वेदी स्थापना के साथ हिरण्यगर्भ यानी प्रजापति के ध्यान का निर्देश भी मिलता है।

आचार्य ने बताया- "व" शब्द की व्युत्पत्ति आत्मनेपद में "विद्लृ लाभे" और "विन्दते इति बिन्दु:"। यानी विन्दते- प्राप्त करने, सम्पादित करने के अर्थ में प्रयुक्त होने वाला क्रियापद है। राजस्थानी का बीन्द यानी पति शब्द भी बिन्दु का ही अपभ्रंश है। बीन्द कन्या को प्राप्त करता है और कन्या उसे ग्रहण करती है। वास्तु पूजन और बिन्दु स्थापना गर्भ की पूर्व दशा कही गई है। "मेदिनीकोश" में" "व" के पर्यायवाची संस्कृत शब्दों में भी यही अर्थ दृष्टि मिलती है- सान्त्वन- यानी शांति। शांति का गृह- वास्तु से सीधा सम्बन्ध है। उस घर को घर नहीं कहते जहां सुख-शांति नहीं होती। "व" का एक अर्थ वात- यानी वायु है। "आयुर्वेद" में कहा गया है- "सर्वतन्त्राणां विधाता वायुरेव भगवान्" यानी वायु सब तंत्रों का विधाता है। "योगशास्त्र" कहता है- "मनोयत्र मरूस्तत्र।" यानी जहां वायु है वहां मन है। "व" का अर्थ वरूण भी है। जल देवता वरूण अस्तंगत सूर्य की संज्ञा भी है। "अस्त" का एक अर्थ "घर" भी है। इस तरह घर, गृहिणी, गर्भ, वर-वधू आदि सभी "व" के अर्थ को प्रकट करने वाले हैं। "एकाक्षरीकोश" में भुजा, समुद्र, वस्त्र, राहु और सम्बोधन के अर्थ में भी "व" शब्द देखा गया है। "कामधेनुतंत्र" में "व" को पंचदेवमय और सर्वसिद्धि दायक वर्ण माना गया है। "वर्णोद्धार तंत्र" में तो "व" की ध्यान विधि का वर्णन भी मिलता है। आचार्य ने बताया- "मेघदूत", "भामिनीविलास" और "रघुवंश" में जाति, परिवार, कुटुम्ब और परम्परा के अर्थ में वंश शब्द मिलता है। वंश शब्द मूल रू प से बांस के अर्थ को प्रकट करता है। ईख और साल के वृक्ष को भी वंश कहते हैं। रीढ़ की हड्डी के अर्थ में भी वंश शब्द देखा गया है। दस हाथ के बराबर की लम्बाई को भी वंश कहा गया है। परिवार की परम्परा को वंशावलि कहते हैं। "गीतगोविन्द" में बांसुरी को वंशिका अथवा बंशी कहा है। कृष्ण का एक विशेषण वंशीधर यानी "बंसी को धारण करने वाला" है।

आचार्य ने बताया- "महाभाष्य" में कहे जाने योग्य, तौले जाने योग्य अथवा बात किए जाने योग्य के अर्थ में वक्तव्य शब्द प्रयुक्त है। भाषण, विधि-नियम, सिद्धांत, वाक्य, कलंक और निन्दा के अर्थ में भी वक्तव्य शब्द का प्रयोग देखा जा सकता है। "कुमारसम्भव", कुटिल, टेढ़े और घुमावदार के अर्थ में वक्र शब्द का प्रयोग करता है। परोक्ष, गोल-मोल और टालम-टोल के अर्थ में भी वक्र शब्द "शिशुपाल वध" में दिखता है। "ज्योतिष" में क्रूर और घातक के अर्थ में वक्र शब्द प्रयुक्त है। "छन्दशास्त्र" में गुरू यानी दीर्घ मात्रा को वक्र कहा गया है। मंगल, शनि और शंकर के अर्थ में भी वक्र शब्द दिखता है। नदी के मोड़ को भी वक्र कहते हैं। हंस, चकवा और सांप के अर्थ में भी वक्र शब्द काम में लिया गया है। "अलंकार दर्पण" में एक अलंकार का नाम वक्रोक्ति है। इसमें बात को श्लेषपूर्ण ढंग से अथवा स्वर बदलकर कहा जाता है। कटाक्ष के अर्थ में भी वक्रोक्ति शब्द का प्रयोग होता है। "कुमारसम्भव" ब्ा्रह्मचारी के अर्थ में वटुक शब्द का प्रयोग करता है। मूर्ख, बुद्धू और बालक के लिए भी वटुक शब्द प्रयुक्त है। जल के पात्र को वठर कहते हैं। वैद्य और जड़ व्यक्ति के लिए भी वठर शब्द प्रयुक्त है। शक्तिशाली को भी वठर कहा गया है।
 (राजस्थान पत्रिका से साभार)

सान्दीपनि- कृष्ण के आचार्य

अक्षर यात्रा की कक्षा में "सा" वर्ण की चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने बताया- शान्त करने के अर्थ में सान्त्व शब्द का प्रयोग करते हैं। मेदिनीकोश में इसी अर्थ में साम को भी सान्त्व का पर्याय बताया है। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, आम तौर पर हम ढाढ़स बंधाने के लिए जिस सान्त्वना शब्द का प्रयोग करते हैं, क्या वह भी इस सान्त्व शब्द से कोई सम्बन्ध रखता है?

आचार्य ने बताया- पुत्र, "भिकाव्य" तथा अन्य ग्रंथों में ढाढ़स बंधाना के अर्थ में सान्त्व, सान्त्वन अथवा सान्त्वना शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इनका अर्थ खुश करना, सुलह करना, आराम पहुंचाना भी है। मृदु या हलका उपाय, कृपापूर्ण या ढाढ़स बंधाने वाले शब्द, मृदुता, अभिवादन एवं कुशलक्षेम के अर्थ में भी सान्त्व, सान्त्वन या सान्त्वना शब्द काम में लेते हैं। कृष्ण और बलराम के शिक्षा गुरू एक ऋ çष्ा का नाम "विष्णुपुराण" के अनुसार सान्दीपनि था। "ब्ा्रह्मवैवर्त पुराण" में बताया है कि सान्दीपन के वंश में ये उत्पन्न हुए इसलिए सान्दीपनि कहलाए। कृष्ण और बलराम ने उनसे अस्त्र-विद्या ग्रहण की। गुरू के पुत्र को पंचजन नाम का राक्षस उठा कर पानी में घुस गया था। मृतपुत्र को कृष्ण और बलराम पंचजन राक्षस को मार कर गुरूदक्षिणा के तौर पर वापस लाए। "भागवत पुराण" के अनुसार सुदामा भी दोनों भाइयों के साथ इन्हीं सान्दीपनि के शिष्य थे। शिप्रा नदी की पावन नगरी उज्जयिनी (उज्जैन) में स्थित सान्दीपनि आश्रम का इन्हीं प्रसंगों से आज भी महात्म्य मानते हैं।

आचार्य ने बताया- देखते ही देखते होने वाला, तात्कालिक, तात्कालिक परिणाम के अर्थ में सान्दृष्टिक शब्द प्रयुक्त करते हैं। पास-पास, सटा हुआ, अनन्तराल के अर्थ में सान्द्र शब्द का प्रयोग किया जाता है। "शिशुपाल वध", "रघुवंश", "ऋ तुसंहार" में मोटा, घन, ठोस, गाढ़ा के अर्थ में सान्द्र शब्द का प्रयोग दिखता है- "दुर्वर्णभित्तिरिह सान्द्रसुवासवर्णा।" गुच्छा बना हुआ, संगृहीत, ह्वष्टपुष्ट, मजबूत, हट्टाकट्टा के अर्थ में भी सान्द्र शब्द काम में लेते हैं। "उत्तर राम चरित" में अत्यधिक, विपुल, प्रचुर के अर्थ में सान्द्र प्रयुक्त हुआ है। "रघुवंश" में उग्र, प्रखर, प्रचण्ड के अर्थ में भी सान्द्र काम में लिया गया है। चिकना, तैलाक्त, चिपचिपा, स्निग्ध, मृदु, सौम्य, सुखकर, रूचिकर, राशि, ढेर के अर्थ में भी सान्द्र शब्द प्रयुक्त करते हैं। जो छूने में मृदु हो, चिपचिपा हो उसे सान्द्र स्पर्श कहते हैं। "नारायणीय" में आध्यात्मिक सुख को सान्द्रानन्द कहा है।

आचार्य ने बताया- शराब खींचने वाला, कलाल सान्घिक कहलाता है। सान्घिविग्रहिक शब्द का प्रयोग विदेश मंत्री के अर्थ में हुआ है जो सन्घि और विग्रह का निर्णय करता है। इसे राज्य सचिव भी कहा है। "मेघदूत" और "रघुवंश" में सांझ सम्बन्धी, सायंकालीन के अर्थ में सान्ध्य शब्द काम में लिया गया है।

"शिशुपाल वध" में शस्त्र उठाने के लिए कहने वाला, युद्ध के लिए तैयार होने को प्रोत्साहित करने वाला सान्नहनिक कहा गया है। इसका अर्थ कवचधारी भी है। इसे सान्नाहिक भी कहते हैं। घी युक्त कोई पदार्थ जो आहुति के रूप में अग्नि में डाला जाए उसे सान्नाय्य "शिशुपाल वध" में कहा है। "मालविकाग्निमित्र" में पड़ोस, सामीप्य के अर्थ में सान्निध्य शब्द प्रयुक्त हुआ है। "रघुवंश" और "कुवलयानन्द" में उपस्थिति, हाजिरी के अर्थ में सान्निध्य शब्द दिखता है। मुक्ति का एक प्रकार भी सान्निध्य कहलाता है। "पंचतंत्र" और "कुवलयानन्द" में त्रिदोष्ा यानी जिसके कफ, वायु, पित्त तीनों ही दोष्ा विकृत हो गए हों, उसे सान्निपातिक कहा है। विविध, जटिल, पेचीदा, विष्ाम के लिए भी सान्निपातिक शब्द काम में लेते हैं।
 (राजस्थान पत्रिका से साभार)

बुधवार, 9 नवंबर 2011

ईमानदार प्रधानमंत्री

भारत के इतिहास में वाकई डा. मनमोहन सिंह सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री के रूप में याद किए जाएँगे क्योकि उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है. विदेश में और देश में आने के बाद भी उन्होने साफ शब्दों में कह दिया - मूल्य निर्धारण का जिम्मा बाजार ही करेगा, जनता को तकलीफ़ होती है तो हुआ करे, आर्थिक विकास की चिंता सर्वोपरि है.

यह साफगोई किसी को भी भ्रम में नहीं रखती. मनमोहन जी जनता के लिए प्रधानमंत्री नहीं बने हैं, उनकी सारी चिंताओं में कारॅपोरेट जगत के अलावा संकटग्रस्त अमेरिका-यूरोप जगत है. आर्थिक सुधारों के जनक कभी भी अपने रास्ते से भटके नहीं- अर्थशास्त्री होने के नाते उन्हें मालूम है की महँगाई-बेरोज़गारी से कैसे निपटा जा सकता, लेकिन यह उनकी प्रतिबद्धता में शामिल नहीं है.

अमेरिका का खेल

:: प्रकाश करात ::


पश्चिम एशिया में अमेरिका-नाटो की दखलंदाजी एक महत्वपूर्ण मुकाम पर पहुंच गई है। गद्दाफी निजाम को पलटकर और गद्दाफी की नृशंसतापूर्वक हत्या कर उन्होंने लीबिया को ‘मुक्त’ करा लिया है। लीबिया अब नाटो का संरक्षित क्षेत्र बन गया है। नाटो के हस्तक्षेप पर जन विद्रोह का जो झीना अवरण डाला जा रहा था, वह पूरी तरह से उतर गया है। सचाई यही है कि भीषण बमबारी के अलावा भी ब्रिटिश व अन्य नाटो देशों के विशेष बल बागियों की मदद करने में जुटे रहे थे। अमेरिका के वफादार सहयोगी और कतर की सेना बागी सेना के साथ लीबिया में लड़ रही थी। गद्दाफी निजाम के पतन के बाद भी लीबियाई संक्रमणकालीन परिषद् ने नाटो से आग्रह किया है कि दिसंबर के आखिर तक हवाई गश्त की अपनी व्यवस्था जारी रखे।

लीबिया को नाटो के नियंत्रण के अंतर्गत लाए जाने के बहुत गंभीर निहितार्थ हैं। अमेरिका अब अपने अफ्रीकी मिलिटरी कमांड (एफ्रीकॉम) के लिए अड्डा हासिल कर सकता है। लीबिया पर हमले में आगे रहने वाले फ्रांसीसी अब चैन की सांस ले सकेंगे, क्योंकि अफ्रीका में फ्रांस के परंपरागत प्रभाव के लिए गद्दाफी की चुनौती खत्म की जा चुकी है। नाटो अब साम्राज्यवाद का विश्व सैन्य बाजू बन गया है, जिसके हाथ अब अफ्रीका, एशिया तथा दुनिया के दूसरे तमाम हिस्सों तक फैल चुके हैं।

अमेरिका तथा नाटो अब अपना पूरा ध्यान सीरिया पर लगा सकते हैं। सीरिया एक ऐसा अरब देश है, जो अमेरिकी छतरी के नीचे आने से हठपूर्वक इनकार करता आया है। रूस तथा चीन के वीटो के चलते संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् से सीरिया के खिलाफ पाबंदियां लगाने का प्रस्ताव पारित कराने और इस तरह उसके खिलाफ दखलंदाजी का रास्ता खोलने में विफल रहने के बाद अमेरिका अब सीरिया में सत्ता-बदल कराने के रास्ते निकाल रहा है। वह तुर्की अब सीरिया-विरोधी ताकतों का केंद्र बनता जा रहा है, जो नाटो का सदस्य है और जिसके सीरिया के साथ अच्छे रिश्ते रहे हैं।

अमेरिका का प्रमुख अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स में पहली बार यह खबर आई है कि एक ‘मुक्त सीरियाई सेना’ तुर्की से अपनी कार्रवाइयां संचालित कर रही है। इससे पहले इस्तांबुल में वर्तमान सीरियाई शासन के खिलाफ खड़े विभिन्न विरोधी गुटों को लेकर एक सीरियाई राष्ट्रीय परिषद् का गठन किया गया था। अमेरिका के घनिष्ठतम सहयोगी, सऊदी अरब ने सीरिया की सरकार की भर्त्सना की है और दमिश्क से अपने राजदूत को वापस बुला लिया है। कुवैत तथा बहरीन ने उसके पीछे-पीछे चलते हुए ऐसा ही किया है।

नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने गद्दाफी की मौत पर गाल बजाने और सीरिया को अस्थिर करने के लिए चालें चलने के बाद अब ईरान के खिलाफ तनाव बढ़ाने में ध्यान लगाया है। पिछले ही दिनों अमेरिकी प्रशासन ने यह ऐलान किया है कि उसने अमेरिका में सऊदी अरब के राजदूत की हत्या कराने के ईरानी रेवोल्यूशनरी गार्ड्स के एक षड्यंत्र का पता लगा लिया है। उसके बाद से फारस की खाड़ी में नौसैनिक जमावड़े और कुवैत जैसी जगहों में अपनी सेना की तैनाती बढ़ाने की अमेरिकी योजनाओं की खबरें आई हैं। इस साल के आखिर तक इराक से अमेरिकी सेना हट जाने वाली हैं। इसी पृष्ठभूमि में ईरान से बढ़ते खतरे का हौवा खड़ा कर ओबामा प्रशासन खाड़ी क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ाने में जुटा है।

जिस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति की हैसियत से बुश ने आखिरकार इराक पर हमला करने से पहले कई साल तक इराक में सद्दाम हुसैन के शासन से खतरे का प्रचार किया था और उसके पास मानव संहारक हथियार होने संबंधी दावे किए थे, उसी प्रकार शांति लाने के लिए सम्मानित ओबामा अब ईरान के खिलाफ युद्ध की जमीन तैयार करने के खतरनाक रास्ते पर चल रहे हैं। सीरिया को अस्थिर करना, ईरान को अलग-थलग करने के लिए एक साथ कई ओर से आगे बढ़ने की योजना का हिस्सा है। हालांकि ईरान के खिलाफ युद्ध अमेरिका को आसानी से हजम होने वाला नहीं है, फिर भी ओबामा अपने ही राजनीतिक गणित को सामने रखकर इस तरह के आक्रामक पैंतरों का सहारा ले रहे हैं।

दरअसल ओबामा की लोकप्रियता का ग्राफ गिरावट पर है और अगले ही साल उन्हें राष्ट्रपति चुनाव का सामना करना है। ऐसे में वह ईरान के खिलाफ शत्रुतापूर्ण पैंतरेबाजी करने के जरिये इस्राइलपरस्त लॉबी के बीच से अपने लिए समर्थन जुटाने की कोशिशों में लगे दिख रहे हैं। लीबियाई दुस्साहस का मकसद अरब जन-उभार का अपहरण करना ही था। जब ट्यूनीशिया तथा मिस्र में जन-विद्रोहों ने निरंकुश सरकारों व तानाशाहों का तख्ता पलट दिया, तब इस्राइल खुद को ज्यादा से ज्यादा अलग-थलग पड़ता महसूस कर रहा था। इसलिए जन-उभार के दूसरे चरण में अमेरिका तथा उसके सहयोगियों ने जनतंत्र के बहाने तथा जन-विद्रोहों को समर्थन देने के नाम पर लीबिया में अपने ऑपरेशन को सफलता से अंजाम दे दिया। उनका अगला निशाना सीरिया है और अंत में ईरान का नंबर आना है।

आज हमारा सामना पश्चिम एशिया में साम्राज्यवाद की बढ़ी हुई आक्रामकता और उन ताकतों की तिकड़मों से हो रहा है। वे तेल और प्राकृतिक गैस संसाधनों तक पहुंच तथा उन पर नियंत्रण हासिल करने के पहलू से प्रभुत्व का दरजा हासिल करने की कोशिश में लगे हैं। अमेरिका तथा यूरोप की बहुत कमजोर हो गई अर्थव्यवस्थाएं पश्चिम एशिया के संसाधनों पर कब्जा करने जैसे उपहार को आसानी से हाथ से कैसे निकल जाने दे सकती हैं? कहने की जरूरत नहीं कि यह अपनी नियति खुद तय करने के प्रयासों में लगे अरब अवाम की आकांक्षाओं का बेशर्मी से मजाक उड़ाए जाने के सिवा और कुछ नहीं है।

सिर्फ यूपी में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान क्यों?

ऐसा लग रहा है जैसे भारत जैसे महादेश का पूरा भ्रष्टाचार सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही सिमट गया है या यूपी में भ्रष्टाचार का अलख जगा दिया जाए तो समूचे देश में जागृती अपने आप आ जायेगी. शायद इसीलिए बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर अभियान केवल यूपी में चला रहे हैं. टीम अन्ना भी यूपी में ही अभियान चलाना चाहती है, कुछेक काम तो कर भी लिया. हिसार में तो एनजीओ के गैर राजनीतिक चरित्र का मुजाहिरा बड़े भी भौडे तरीके से हो ही चुका है. लम्बे मौन व्रत के बाद बुद्धत्व को प्राप्त करने के बाद अन्ना हजारे का अंतिम ज्ञान या सत्य यही सामने आया कि मेरा जन लोकपाल पास नहीं करते तो विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ खुलकर प्रचार करूंगा. (फिलहाल अन्ना यह मानकर चल रहे हैं कि शीतकालीन सत्र में बिल पास नहीं होगा).

यूपी में ही सब पिल पड़े, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात राजस्थान बंगाल बिहार आन्ध्र कर्नाटक आदि आदि प्रदेश में यह सब करने की जरूरत महसूस नहीं कर रहे हैं. पहली, दूसरी, तीसरी नजर में सिर्फ यही लगता है अन्ना, बाबा श्री श्री ने सुपारी ले रखी कि आपकी खोयी गरिमा, सत्ता  इस चुनाव में वापस लेकर आयेंगे ही. भाजपा की रणनीति, नीयत साफ है. उसके संगी - सहयोगी भी लग गए हैं.  वास्तव में ये सारे लोग कोई कुछ भी कहे भाजपा की बी-सी आदि टीम ही है. यूपी में भाजपा की हालत लम्बे समय से बहुत ख़राब है. कांग्रेस के नौजवान नेता को नानी सहित पर नाना के प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना का दायित्व मिला हुआ है. बहन जी और मुलायम ने जी भरकर राज्य को भोग लिया. कांग्रेस और भाजपा को काफी उम्मीदें हैं. ऐसे में अब समय आ गया है कि सब कुछ दांव पर लगा दिया जाए. लग भी गया, लेकिन इस प्रक्रिया में बहुत से लोग भविष्य में नंगे भी हो जायेंगे. उनमें बाबाओं सहित नए मसीहा भी शामिल होंगे.

मुद्दे से भटकाने की चल रही साजिश ....

जन-लोकपाल या सशक्त लोकपाल से भ्रष्टाचार 60 फीसदी खत्म होगा (अन्ना के अनुसार) और बाकी भक्तों के अनुसार समूचे रोगों की जड़ मात्र एक क़ानून बना देना है इसलिए "इसके लिए कुछ करेगा" की तर्ज पर पागलपन सवार है और विवेक खोते जा रहे लोगों  में धुन सवार हो गया है. यह सही है पहले से मौजूद क़ानून लचर हैं लेकिन यह भी सही है कि इन्हीं कानूनों को किसी ने इस्तेमाल करने की कोशिश की तो येदियुरप्पा साहब जेल की हवा खा रहे हैं. कितना भी सख्त क़ानून बना दिया जाए अगर उसे अमली जामा पहनाने की नीयत नहीं है तो उसका औचित्य ही क्या है.
अन्ना और अन्ना टीम जन -लोकपाल के लिए उद्वेलित है, उनके साथ देश का बहुत बड़ा जन--मानस है. लेकिन इस आन्दोलन के उन्माद का असर लोगों को मूल मुद्दे से भटकाने वाला ही साबित हो रहा है, पिछले दिनों वित्त आयोग नई भार्तियों पर रोक लगाने की सिफारिश कर दी. पेट्रोल की तरह डीजल को नियंत्रण मुक्त करने की कवायद चल रही है. सारे दाम बाजार के भूखे भेड़ियों के हवाले करने का उद्घोष प्रधानमंत्री स्वयं कर रहे हैं. किसानों, मेहनतकशों की समस्याएं अपनी जगह हैं. श्रम कानूनों को ख़त्म करने की वार्निंग पीएम खुलेआम दे रहे हैं. समाज का हर वर्ग परेशान है. लेकिन ऐसा लग रहा है कि नौकरी, रोटी नहीं सिर्फ लोकपाल चाहिए.
अन्ना टीम रामलीला मैदान से फारिग होकर नेपथ्य में जा रही थी क्योकि शीत सत्र से पहले कुछ करने का बचा नहीं था. लेकिन देवदूत दिग्विजय सिंह जी प्रगट हुए और अपने जलती वाणी से मीडिया में पूरे तामझाम के साथ टीम अन्ना सहित लोकपाल को जिंदा कर दिया. देश में लोग व्यस्त हैं किरण बेदी, केजरीवाल सही है या दिग्विजय. बहसें चल रही हैं. लोकपाल क्यों और उनके दुश्मन कौन?
कांग्रेस को बड़ा फायदा मिल रहा है कि देश का पढ़ा लिखा वर्ग बाकी सबको समझा रहा है कि लोकपाल आयेगा और आपको मुक्ति-इश्वर-धन-धर्म सब मिल जाएगा. दरअसल, एक बड़ा षड़यंत्र चल रहा है जनता के खिलाफ. इसमें कारपोरेट, मीडिया, सताधारी दल, मुख्य विपक्षी सहित टीम अन्ना भी शामिल दिख रहा है.