tag:blogger.com,1999:blog-22810770794123547362024-03-13T17:16:34.088-07:00Ganesh TiwariGanesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.comBlogger185125tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-64843677616103568782019-11-11T04:48:00.000-08:002019-11-11T04:48:07.504-08:00अब नोटबंदी को गलत कैसे कह दूँ!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span class="_5mfr" style="font-family: inherit; margin: 0px 1px;"><span class="_6qdm" style="background-image: url("https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/t6b/1/16/25fe.png"); background-repeat: no-repeat; background-size: contain; color: transparent; display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 16px; height: 16px; text-shadow: none; vertical-align: text-bottom; width: 16px;">◾️</span></span>नोटबंदी के बाद भी पहले की अपेक्षा ज्यादा ताकतवर बनकर केंद्र की सत्ता में काबिज हुआ, ज्यादा निरंकुश हुआ!<br /><span class="_5mfr" style="font-family: inherit; margin: 0px 1px;"><span class="_6qdm" style="background-image: url("https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/t6b/1/16/25fe.png"); background-repeat: no-repeat; background-size: contain; color: transparent; display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 16px; height: 16px; text-shadow: none; vertical-align: text-bottom; width: 16px;">◾️</span></span>क्या मतदाताओं की निर्णायक संख्या में नोटबंदी को जायज नहीं माना!<br /><span class="_5mfr" style="font-family: inherit; margin: 0px 1px;"><span class="_6qdm" style="background-image: url("https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/t6b/1/16/25fe.png"); background-repeat: no-repeat; background-size: contain; color: transparent; display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 16px; height: 16px; text-shadow: none; vertical-align: text-bottom; width: 16px;">◾️</span></span>नोटबंदी की घोषणा के साथ लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को लकवा मार गया था!<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;"><br /><span class="_5mfr" style="font-family: inherit; margin: 0px 1px;"><span class="_6qdm" style="background-image: url("https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/t6b/1/16/25fe.png"); background-repeat: no-repeat; background-size: contain; color: transparent; display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 16px; height: 16px; text-shadow: none; vertical-align: text-bottom; width: 16px;">◾️</span></span>ये बात अलग है कि बहुत बाद में ज्ञान झाड़ने आकर माथा ख़राब करते रहे.<br /><span class="_5mfr" style="font-family: inherit; margin: 0px 1px;"><span class="_6qdm" style="background-image: url("https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/t6b/1/16/25fe.png"); background-repeat: no-repeat; background-size: contain; color: transparent; display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 16px; height: 16px; text-shadow: none; vertical-align: text-bottom; width: 16px;">◾️</span></span>अर्थशास्त्र में दुनिया को लोहा मनवाने वाले वामदल, सीताराम येचुरी जैसे महान जानकार सिर्फ ये घिघियाते रहे कि केरल और त्रिपुरा को राहत दो! हो सके तो जनता को भी दे देना.<br /><span class="_5mfr" style="font-family: inherit; margin: 0px 1px;"><span class="_6qdm" style="background-image: url("https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/t6b/1/16/25fe.png"); background-repeat: no-repeat; background-size: contain; color: transparent; display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 16px; height: 16px; text-shadow: none; vertical-align: text-bottom; width: 16px;">◾️</span></span>इतने निकम्मे राजनीतिक दलों और नेताओं के बीच नरेंद्र मोदी क्या कोई भी ऐसी घटिया हरकत आराम से कर सकता है!<br /><span class="_5mfr" style="font-family: inherit; margin: 0px 1px;"><span class="_6qdm" style="background-image: url("https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/t6b/1/16/25fe.png"); background-repeat: no-repeat; background-size: contain; color: transparent; display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 16px; height: 16px; text-shadow: none; vertical-align: text-bottom; width: 16px;">◾️</span></span>3 साल बाद भी रोना-धोना विपक्ष के नेताओं और जिम्मेदार बुद्धिजीवियों का मात्र नाटक है !<br /><span class="_5mfr" style="font-family: inherit; margin: 0px 1px;"><span class="_6qdm" style="background-image: url("https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/t6b/1/16/25fe.png"); background-repeat: no-repeat; background-size: contain; color: transparent; display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 16px; height: 16px; text-shadow: none; vertical-align: text-bottom; width: 16px;">◾️</span></span>मुझे याद है, मेरे आदर्श रहे/हैं- ऐसे लोगों ने समझाने की कोशिश की नोटबंदी रद्द करने की मांग व्यर्थ है, यह सरासर कायरता थी!<br /><span class="_5mfr" style="font-family: inherit; margin: 0px 1px;"><span class="_6qdm" style="background-image: url("https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/t6b/1/16/25fe.png"); background-repeat: no-repeat; background-size: contain; color: transparent; display: inline-block; font-family: inherit; font-size: 16px; height: 16px; text-shadow: none; vertical-align: text-bottom; width: 16px;">◾️</span></span>नोटबंदी दिवस हो या उसकी बरसी, नरेंद्र मोदी को चौराहे पर आने की चुनौती देने की जगह अपने मुंह पर थप्पड़ मारें तो यह दिवस सफल हो जाएगा.........</span></div>
</div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-77486904441235404842019-11-11T04:42:00.002-08:002019-11-11T04:43:33.728-08:00विरोधाभास <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
हिंदू पक्ष हमेशा से कहता रहा है कि बाबरी मसजिद राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। कोर्ट ने कहा, भारतीय पुरातत्व सर्वे यानी एएसआई की रिपोर्ट से ऐसा कुछ नहीं साबित होता कि यह मसजिद राम मंदिर या कोई भी मंदिर तोड़कर बनाई गई थी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कोर्ट ने माना कि मसजिद किसी ख़ाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी। वहाँ किसी टूटे-फूटे मंदिर के अवशेष थे लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि इससे इस ज़मीन पर हिंदू पक्ष का क़ब्ज़ा साबित नहीं होता। यानी कोर्ट ने यह दलील नहीं मानी कि इस ज़मीन पर पहले कोई मंदिर होने के कारण इ<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">स भूमि पर हिंदुओं का अधिकार है।</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1c1e21; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px;">
कोर्ट ने यह भी माना कि 1855 से लेकर 16 दिसंबर 1949 तक वहाँ लगातार मुसलमान नमाज़ पढ़ते थे और मसजिद के अंदर यानी उस जगह पर जहाँ रामलला की प्रतिमा रखी गई है, वहाँ मुसलमानों का नियमित प्रवेश था। दूसरे शब्दों में यह परित्यक्त मसजिद नहीं थी और मुसलमानों का उसपर क़ब्ज़ा रहा है।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कोर्ट ने यह भी माना कि 23 दिसंबर 1949 की रात को मसजिद के अंदर मूर्तियाँ रखने की कार्रवाई ग़लत क़दम थी।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कोर्ट ने 6 दिसंबर 1992 को मसजिद के विध्वंस को भी ग़लत बताया।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कोर्ट ने हिंदू पक्ष की केवल यह दलील मानी कि मसजिद के बाहरी अहाते पर जहाँ राम चबूतरा, सीता रसोई आदि है, वहाँ लगातार हिंदुओं का क़ब्ज़ा रहा। लेकिन यह ऐसी दलील थी जिससे मुसलिम पक्ष ने कभी इनकार नहीं किया।</div>
</div>
</div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-62432084577770746862019-11-11T04:39:00.002-08:002019-11-11T04:43:56.490-08:00अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला समझना मेरे लिए मुश्किल: सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज अशोक कुमार गांगुली ने अयोध्या रामजन्म भूमि विवाद मामले पर अदालत के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि इससे उनके दिमाग में संशय पैदा हो गया है और वह फैसले से काफी व्यथित हैं.</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस गांगुली (72) ने कहा, ‘अल्पसंख्यकों ने यहां कई पीढ़ियों से मस्जिद देखी है. उसे ढहा दिया गया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार वहां मंदिर का निर्माण किया जाएगा. इससे मेरे दिमाग में संशय पैदा हो गया है. कानून का छात्र होने के नाते इसे स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है.’</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उन्होंने कहा कि शनिवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि जब किसी स्थान पर नमाज़ अदा की जाती है तो नमाज़ अदा करने वाले का विश्वास होता है कि यह मस्जिद है और उसे चुनौती नहीं दी जा सकती.</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उन्होंने कहा, ‘बेशक 1856-57 में वहां नमाज़ पढ़ने के सबूत नहीं मिले हों लेकिन 1949 से वहां नमाज़ पढ़ी गई. इसके सबूत हैं इसलिए जब हमारा संविधान अस्तित्व में आया तो नमाज़ वहां पढ़ी जा रही थी. एक जगह जहां नमाज़ पढ़ी गई और अगर उस जगह पर एक मस्जिद थी तो फिर अल्पसंख्यकों को अधिकार है कि वे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता का बचाव करें. यह संविधान में लोगों को मौलिक अधिकार है.’</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
जस्टिस गांगुली ने कहा, ‘इस फैसले के बाद आज मुसलमान क्या सोचेगा? वहां वर्षों से एक मस्जिद थी, जिसे तोड़ा गया. अब सुप्रीम कोर्ट ने वहां मंदिर बनाने की अनुमति दे दी है. यह अनुमति इस आधार पर दी गई कि जमीन रामलला से जुड़ी थी. क्या सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि सदियों पहले जमीन पर मालिकान हक़ किसका था? क्या सुप्रीम कोर्ट क्या इस बात को भूल जाएगा कि जब संविधान आया तो वहां एक मस्जिद थी? संविधान में प्रावधान हैं और यह सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वो उसकी रक्षा करे.’</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने कहा, ‘संविधान के लागू होने के बाद वहां पहले क्या था, यह सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी नहीं है. उस समय भारत कोई लोकतांत्रिक गणतंत्र नहीं था. तब वहां एक मस्जिद थी, एक मंदिर था, एक बौद्ध स्तूप था, एक चर्च था. अगर हम इस तरह बैठकर फैसला देंगे तो बहुत सारे मंदिर, मस्जिदें और अन्य ढांचों को तोडना पड़ेगा. हम पौराणिक तथ्यों पर नहीं जा सकते. राम कौन थे? क्या किसी तरह का ऐतिहासिक साक्ष्य है? यह आस्था और विश्वास का मामला है.’</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आस्था और विश्वास के आधार पर आपको कोई प्राथमिकता नहीं मिल सकती. वे कह रहे हैं कि मस्जिद के नीचे एक ढांचा था लेकिन ढांचा मंदिर का नहीं था. कोई नहीं कह सकता कि मंदिर को ढहाकर मस्जिद बनाई गई लेकिन अब मस्जिद को ढहाकर मंदिर बनाया जाएगा?’</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गांगुली ने कहा, ‘500 साल पहले जमीन का मालिकाना हक किसके पास था? क्या कोई जानता है? हम इतिहास को दोबारा नहीं बना सकते. अदालत की जिम्मेदारी है कि जो भी है, उसका संरक्षण किया जाए. इतिहास को दोबारा बनाना अदालत की जिम्मेदारी नहीं है. वहां 500 साल पहले क्या था, यह जानना अदालत का काम नहीं है. मस्जिद का वहां होना सीधे एक तर्क था, ऐतिहासिक तर्क नहीं बल्कि एक ऐसा तर्क जिसे हर किसी ने देखा है. इसका गिराया जाना सभी ने देखा, जिसे रिस्टोर किया जाना चाहिए. जब उनके पास मस्जिद होने का कोई अधिकार नहीं है तो आप मस्जिद के निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन देने के लिए सरकार को निर्देश कैसे दे रहे हैं. क्यों? आप स्वीकार कर रहे हैं कि मस्जिद को नष्ट किया जाना उचित नहीं था.’</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
यह पूछने पर कि आप उचित और निष्पक्ष फैसला किसे मानेंगे? इस पर जस्टिस गांगुली ने कहा, ‘मैं दो में से कोई एक फैसला लेता या तो मैं उस क्षेत्र में मस्जिद को दोबारा बनाए जाने को कहता या अगर वह जगह विवादित होती तो मैं कहता कि वहां न तो मस्जिद बनेगी और न ही मंदिर. आप वहां कोई अस्पताल या स्कूल बना सकते हैं या इसी तरह का कुछ या कॉलेज. मंदिर और मस्जिद दूसरे इलाकों में बनाने को कहा जा सकता था. इस जमीन को हिंदुओं को नहीं देना चाहिए था. यह विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) और बजरंग दल का दावा है. वे उस समय और आज किसी भी मस्जिद को ढहा सकते थे. उन्हें सरकार का समर्थन मिल रहा था और अब उन्हें न्यायपालिका का भी समर्थन मिल रहा है. मैं बहुत व्यथित हूं. बहुत सारे लोग स्पष्ट तरीके से ये चीजें नहीं कहेंगे.’</div>
</div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-60512790625593681482019-11-11T04:37:00.002-08:002019-11-11T04:37:36.067-08:00मुस्लिम अब और हाशिए पर'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<br />पिछले कई साल में मैं कई मुसलमानों से मिला, जो चाहते थे कि अयोध्या में मंदिर बन जाए, ताकि उन्हें इस मसले से छुटकारा मिले.</div>
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मुसलमानों को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद देश में हुए दंगे याद हैं, इसलिए वो एक मस्जिद से ज़्यादा अपनी सुरक्षा की फ्रिक करते हैं.</div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1c1e21; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px;">
सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद के लिए अलग से उपयुक्त ज़मीन देने की बात कही है. इसके बावजूद इस फ़ैसले से मुसलमानों को हाशिए पर धकेले जाने और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझे जाने की बात को एक तरह से क़ानूनी मान्यता मिल गई है.</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आज के भारतीय मुसलमान ज़्यादा चिंतित हैं, क्योंकि उनके सामने नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न यानी एनआरसी जैसी चुनौतियां हैं.</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
वो जानते हैं कि उन्हें सिस्टम से अब न्याय नहीं मिलेगा, इसलिए अब वो कागज़ात ढूंढने की जद्दोजहद में लग गए हैं, ताकि ये साबित कर सकें कि उनके दादा-परदादा भारत से थे. (BBC HINDI)</div>
</div>
</div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-52046625794173854092019-11-11T04:36:00.002-08:002019-11-11T04:36:51.369-08:00विरोधाभास <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
हिंदू पक्ष हमेशा से कहता रहा है कि बाबरी मसजिद राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। कोर्ट ने कहा, भारतीय पुरातत्व सर्वे यानी एएसआई की रिपोर्ट से ऐसा कुछ नहीं साबित होता कि यह मसजिद राम मंदिर या कोई भी मंदिर तोड़कर बनाई गई थी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कोर्ट ने माना कि मसजिद किसी ख़ाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी। वहाँ किसी टूटे-फूटे मंदिर के अवशेष थे लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि इससे इस ज़मीन पर हिंदू पक्ष का क़ब्ज़ा साबित नहीं होता। यानी कोर्ट ने यह दलील नहीं मानी कि इस ज़मीन पर पहले कोई मंदिर होने के कारण इ<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">स भूमि पर हिंदुओं का अधिकार है।</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1c1e21; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px;">
कोर्ट ने यह भी माना कि 1855 से लेकर 16 दिसंबर 1949 तक वहाँ लगातार मुसलमान नमाज़ पढ़ते थे और मसजिद के अंदर यानी उस जगह पर जहाँ रामलला की प्रतिमा रखी गई है, वहाँ मुसलमानों का नियमित प्रवेश था। दूसरे शब्दों में यह परित्यक्त मसजिद नहीं थी और मुसलमानों का उसपर क़ब्ज़ा रहा है।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कोर्ट ने यह भी माना कि 23 दिसंबर 1949 की रात को मसजिद के अंदर मूर्तियाँ रखने की कार्रवाई ग़लत क़दम थी।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कोर्ट ने 6 दिसंबर 1992 को मसजिद के विध्वंस को भी ग़लत बताया।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कोर्ट ने हिंदू पक्ष की केवल यह दलील मानी कि मसजिद के बाहरी अहाते पर जहाँ राम चबूतरा, सीता रसोई आदि है, वहाँ लगातार हिंदुओं का क़ब्ज़ा रहा। लेकिन यह ऐसी दलील थी जिससे मुसलिम पक्ष ने कभी इनकार नहीं किया।</div>
</div>
</div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-68445792269561289612019-11-11T04:35:00.002-08:002019-11-11T04:35:25.533-08:00समाचारों के भी रंग होते हैं?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">समाचारों के भी रंग होते हैं? काला, हरा, नीला, पीला, बैगनी, लाल, भगवा वगैरह वगैरह? शायद समाचार का अर्थ तथ्यों को बगैर तोड़े-मरोड़े यथावत रखना, अपने दृष्टिकोण से अलग रखते हुए रख देना होता है!</span><br style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">पैकेजिंग के बहाने दिमागी दुर्बलता और सड़ांध को परोसने का क्रम लंबे समय से जारी है।</span><br style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">अखबारों का पक्षकार बनना सामान्य सी बात हो चुकी है।</span><br style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">गोदी मीडिया -इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो सारे मूल्यों पद दलित कर खुद को खबरनवीसी की जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया है पर खुद को मध्यकाल के सामंतों के चारण-भाट के रू</span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1c1e21; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">प में प्रतिष्ठित करने के लिए आतुर है।<br />बहरहाल, आज के अखबारों के पहले पन्ने या जैकेट पर नजर डालें तो वह भगवा रंग में रंगा है। यह मात्र रंग हो सकता है, अन्य रंगों की तरह, लेकिन आरएसएस का ध्वज और 'जय श्री राम' के नाम पूरी पट्टी कौन सी कथा कह रही है?<br />समाचारों के प्रतुतिकरण का एक। पक्षीय हो जाना पत्रकारिता की किस श्रेणी में आएगा?<br />आकर्षक बनाना और पैकेजिंग का अर्थ यह तो नहीं हो सकता कि हिन्दू-मुसलमान-सिख, ईसाई, पारसी, जैनी, बौद्ध हो जाये।<br />तथ्यों को परोसने वाले आर्डर पर माल तैयार करने वाले हलवाई भी कैसे हो सकते हैं?<br />वाकई, अब कोई सोचता नहीं और भेड़चाल में ऐसा कुछ भी करने लगता है कि यह कहना पड़ता है कि "प्रभु इन्हें माफ कर देना...." अन्यथा जानबूझ ऐतिहासिक अपराध करते हैं, इस पेशे की नैतिकता की निर्मम हत्या में लिप्त रहते हैं।<br />समाचारों की दमदार पैकेजिंग का अर्थ क्या हो यह सब कैसे तय होगा?<br />वामपंथी, दक्षिणपंथी मध्यमार्गी सत्ता में आते जाते रहेंगे। कोई भी पक्ष अमरत्व हासिल नहीं कर सकता, लेकिन कुछ क्षेत्र शाश्वत होते हैं। प्रवृत्तियां स्थायी होती हैं, उसकी रक्षा देश की विविधता और धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बचाये रख सकती हैं।</span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-32149474005474055622019-11-11T04:34:00.000-08:002019-11-11T04:34:09.770-08:00जो समझ से परे है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
सबसे बड़े उर्दू अखबार ‘इंकलाब’ ने ‘एक लंबे इंतजार के बाद’ नामक शीर्षक से लिखे अपने संपादकीय में लिखा कि जो फैसला आया है, उसे स्वीकार करने का करने का ही एक मात्र विकल्प था। लेकिन अब उम्मीद की आखिरी लौ भी अब बुझ गई है। अखबार ने लिखा कि निराशा की भावना खत्म नहीं होगी। इसमें सवालिया लहजे में कहा गया है, “यह एकमात्र बिंदु है जो समझ से परे है। यदि मस्जिद वहां थी, तो फैसला इसके पक्ष में क्यों नहीं आया?”</div>
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इंकलाब लिखता है, “फैसला सबूतों के बजाय परिस्थितियों पर आधारित है।” अखबार ने मस्ज<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">िद बनाने के लिए अयोध्या में वैकल्पिक 5 एकड़ जमीन मुहैया कराने पर भी सवाल उठाए हैं। इसमें कहा गया है,”अदालत ने फैसला सुनाया है कि मुसलमानों को भी नुकसान के मुआवजे के रूप में जमीन दिए जाने का अधिकार है, (लेकिन) समय और स्थान तय नहीं किया गया है। जबकि इसके विपरीत मंदिर बनाने के लिए सरकार ने तीन महीने के भीतर एक ट्रस्ट बनाने को कहा है। असंतोष इस बात का है कि 6 दिसंबर 1992 तक लोगों को दिखाई देने वाली मस्जिद के लिए कोई ठोस और विशेष निर्णय नहीं लिया गया।”</span></div>
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Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-44075611124076859712019-01-10T08:56:00.003-08:002019-01-10T08:56:34.605-08:00खेल की उपलब्धियां भी हमारे विकास का अनिवार्य हिस्सा बने<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #26282a; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 13px;">
फीफा वल्र्ड कप का सरताज फ्रांस के बनते ही राष्ट्रपति मेक्रों सहित फ्रांस और दुनियाभर के फुटबाल प्रेमी झूम उठे. क्रोएशिया ने भी योद्धाओं की तरह लोहा लिया और विश्वभर के खेल प्रेमियों का दिल जीत लिया. इस आयोजन के दौरान दर्शकों का डूबना-उतरना जारी रहा. फुटबाल महाकुंभ के समापन के साथ आगामी स्पर्धाआें की तैयारियों में सभी देश जुट जाएंगे तथा सफलता, असफलताओं की समीक्षा भी की जाएगी. भारत में भी एेसे मौकों पर आत्म-चिंतन जरूरी हो जाता है कि खेल की दुनिया में आखिर हम कहां खड़े हैं. आबादी के लिहाज से दुनिया के दूसरे स्थान पर हमारा नाम होने के बाद भी खेल के मानचित्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल करना अभी तक सपना ही बना हुआ है. 68 वर्ष पहले भारत ने 1950 में ब्राजील में आयोजित फीफा वल्र्ड कप के लिए क्वालिफाई किया था, उसके बाद से इस टूर्नामेंट में भाग लेना संभव नहीं हो सका. भारत ने जकार्ता एशियाई खेलों में फुटबॉल का गोल्ड मेडल जीता था. भारत को एशियाई फुटबॉल का ब्राजील तक कहा जाने लगा था. तब चुन्नी गोस्वामी, बीके बेनर्जी, जरनैल सिंह, थंगराज जैसे खिलाड़ी भारतीय फुटबॉल का हिस्सा थे. आज सुनील क्षेत्री जैसे बेहतरीन खिलाड़ी होने के बाद भी फीफा रैंकिंग भारत का स्थान 97वां है. यह स्थिति बताती है कि खेलों को लेकर यहां सजगता और नीति का अभाव शुरू से बना रहा है. तमाम खेल संघों की दशा यह है कि खिलाडिय़ों की नर्सरी बनने की जगह ये बाग उजाडऩे वालों की भूमिका में आ जाते हैं. तमाम अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में पदक और उपलब्धियां हासिल करने वाले खिलाड़ी संघर्षों-अभावों से जूझकर अपने बूते पर आगे बढ़े हैं. कुछेक राज्यों में खेल के विकास पर ध्यान देने की कोशिश की गई है, लेकिन वे पर्याप्त नहीं कहे जा सकते. असम से हीमादास जैसी एथलीट जब स्वर्णपदक हासिल करती हैं तो भारत का कुंठित अभिजात्य मन उसकी अंग्रेजी ठीक से न बोल पाने से आहत हो जाता है. ऐसे लोगों को यह पूछा जाना गलत नहीं होगा कि आखिर खेल की कोई भाषा कैसे बनाई जा सकती है? खेल देश, भाषा, नस्ल की सीमाओं को तोडक़र विश्व बंधुत्व की भावना को बढ़ाने का सबसे बड़ा माध्यम है. देश ही नहीं, अपितु अतरराष्ट्रीय स्तर पर सकारात्मकता का वातावरण तैयार करता है. आज कुछ लाख की आबादी वाले देश विश्वस्तर पर खेल कौशल से चमत्कृत करते हैं, तो उन्हीं संबंधित देशों की जनता में खुशहाली भी देखी जा सकती है. भारत विकास के पैमाने पर तेजी से बढ़ता हुआ देश है. लेकिन यह विकास तब तक एकांगी दिखता है जब तक खेल में भी हमारी उपलब्धियां दर्ज होकर दुनिया का ध्यान न खींचे.</div>
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Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-67208347639751668482019-01-10T08:56:00.000-08:002019-01-10T08:56:10.433-08:00लड़कियों को शिक्षा सहित सारे लोकतांत्रिक अधिकारों की जरूरत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #26282a; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 13px;">विश्व स्तर पर लड़कियों को शिक्षा से दूर रखने का प्रयास किया जाता है और करोड़ों लड़कियां समुचित योग्यता, प्रतिभा होते हुए भी शिक्षा के अभाव में पेशेवर नहीं बन पाती हैं. मलाला दिवस पर विश्व बैंक ने जारी रिपोर्ट में कहा है कि लड़कियों को शिक्षित न करने से वैश्विक अर्थव्यवस्था को 150 से 300 खरब डॉलर का नुकसान होता है. हालत यह है कि निम्न आय वर्ग वाले परिवारों से दो-तिहाई से भी कम लड़कियां प्राथमिक शिक्षा पूरी कर पाती हैं. वहीं तीन में से केवल एक लडक़ी माध्यमिक शिक्षा पूरी कर पाती हैं. यह सर्वविदित है कि शिक्षा से रोजगार मिलने की संभावना दोगुनी हो जाती है. विकसित देशों से लेकर गरीब और विकासशील देशों तक लड़कियों-महिलाओं की शिक्षा के बदतर हालात के लिए अनेक कारण हैं. पहला ठोस कारण, आर्थिक विपन्नता है, जो समान रूप से लडक़े-लड़कियों के शैक्षिक विकास में बाधा बनकर सामने आता है. दूसरा प्रमुख कारण, पितृ सत्तात्मक समाज हैं, जो लडक़ों को हर तरह की सुविधाएं देता हैं, लेकिन लड़कियों को दोयम दर्जे की नागरिक बनाए रखने की हिमायती है. लोकतांत्रिक समाज में भी सामंती बेडिय़ों ने दिमाग को जकड़ रखा है तथा कहीं-कहीं तो लड़कियों के जन्म लेने पर भी लोग परेशान हो जाते हैं. भेदभाव की स्थिति यह है कि लड़कियों को परिवार में पर्याप्त पोषक आहार से वंचित होना पड़ता है और कुपोषण की शिकार अधिकांश लड़कियां ही होती हैं. शिक्षा के क्षेत्र में डॉक्टर, इंजीनियर, वकील अथवा अन्य पेशेवर बनने के लिए लडक़ों पर खर्च करने के लिए परिवार तैयार रहता है, तो लड़कियों की शादी के लिए फिक्रमंद होकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता हैं. दुनिया की आधी आबादी यानी महिलाओं को उत्पादक इकाई के रूप में केन्द्र रखकर आंकलन करने से वैश्विक अर्थव्यवस्था को भयावह नुकसान दिखता है. यह समझ अभी विश्व के सभी देशों के नागरिकों और परिवारों में विकसित नहीं हुई है. मलाला युसुफजई ने कट्टरपंथियों द्वारा लड़कियों की पढ़ाई रोकने का प्रतिरोध किया था, उसे गोली मार दी गई थी. गहन चिकित्सा के उपरांत जान बचने पर उसने परिपक्वता के साथ लड़कियों की शिक्षा के लिए अपना अभियान शुरू किया. मलाला को सबसे कम उम्र में नोबल पुरस्कार मिलने के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ ने मलाला दिवस भी घोषित किया है. मलाला एक मिसाल है, विचार है. लेकिन इस विचार की व्यापकता के लिए अभी बहुत काम करना बाकी है. लोकतांत्रिक समाज लिंग भेद का विरोधी होता है. यदि लड़कियों को शिक्षा से ही वंचित रखने की चेष्टा की जाती है तो कोई भी समाज अथवा देश वांछित उन्नति नहीं कर सकता. लड़कियों को भी इंसानी दर्जा और लोकतांत्रिक अधिकार चाहिए.</span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-82250016712787147342019-01-10T08:54:00.001-08:002019-01-10T08:54:11.814-08:00निरंकुशता और अराजकता के बरस्क लोकतांत्रिक मूल्यों की विजय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #26282a; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 13px;">
दिल्ली के उपराज्यपाल और राज्य सरकार के बीच जारी रस्साकसी के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला अहम है. यह जनता के प्रति जवाबदेही तथा निर्वाचित सरकारों की प्रतिष्ठा व सर्वोच्चता स्थापित करता है और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए भविष्य में भी मार्गदर्शक साबित होगा. दिल्ली चूंकि पूर्ण राज्य नहीं है, इसलिए वहां केंद्र सरकार का उपराज्यपाल के माध्यम से अनेक मामलों में सीधा हस्तक्षेप होता है. यद्यपि संविधान में सारे अधिकार सुस्पष्ट रूप से व्याख्यायित हैं, उसके बाद भी तालमेल बिठाना कौशल का काम समझा जाता है. केन्द्र सरकार में बहुमत की सरकार और दिल्ली में प्रचंड बहुमत की सरकार बैठने के साथ तनावभरा समय गुजरा तथा उपराज्यपाल व राज्य सरकार के बीच तनातनी के माहौल ने स्थायी रूप से कामकाज पर प्रभाव डाला है. दिल्ली राज्य सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर छिड़ी जंग ने केन्द्र व केजरीवाल सरकार आमने-सामने खड़ा दिया था. उच्चतम न्यायालय के संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि उपराज्यपाल, जिसकी नियुक्ति केन्द्र करता है, वह विघ्नकारक रूप में काम नहीं कर सकते. संविधान पीठ तीन अलग-अलग लेकिन सहमति से दिए फैसले में कहा है कि उपराज्यपाल के पास स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. इस व्यवस्था ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सही ठहरा दिया है. पीठ ने उपराज्यपाल के लिए पहली बार स्पष्ट दिशा निर्देश प्रतिपादित किया है और दिल्ली राज्य सरकार के लिए विधायकों का जनता द्वारा चुने जाने का हवाला देते हुए उसकी सर्वोच्चता पर मुहर लगा दी है. केजरीवाल क्रमश: नजीब जंग और अनिल बैजल पर आरोप लगाते रहे हैं कि वे केन्द्र सरकार के इशारे पर ठीक से काम नहीं करने दे रहे हैं. इस लिहाज से संविधान पीठ का निर्णय आप सरकार के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ी जीत मानी जा सकती है. शीर्ष अदालत ने कहा है कि सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि के अलावा दिल्ली सरकार को अन्य विषयों पर कानून बनाने और शासन करने का अधिकार है. अन्य राज्यों की तरह दिल्ली में भी उपराज्यपाल की भूमिका मंत्रिमंडल की सलाह के चलने तथा अपवाद स्वरूप किन्हीं विशेष मामलों को राष्ट्रपति के पास निराकरण हेतु भेजने के प्रावधान तक सीमित है. आम आदमी पार्टी सहित अन्य दलों के पास अपने-अपने तर्क हो सकते हैं और अपने स्तर पर व्याख्या कर हार-जीत की परिभाषाएं भी गढ़ सकते हैं. लेकिन उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने लोकतंत्र की मूल भावना और जनता की सर्वोच्चता की याद दिलाई है तथा संविधान व लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप जनता के हित में काम करने का निर्देश दिया है, जहां अराजकता और मनमानी का कोई स्थान नहीं हो सकता. जनता सरकार के प्रति जवाबदेह हो और उपलब्ध हो, यही लोकतंत्र की मूल भावना है, जिसकी विजय हुई है. </div>
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Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-77122767224012913522019-01-10T08:53:00.002-08:002019-01-10T08:53:53.220-08:00अंधविश्वास अथवा चमत्कार की उम्मीद में गई ग्यारह जान!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #26282a; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 13px;">राजधानी दिल्ली में एक ही परिवार के 11 सदस्यों की मौत की घटना स्तब्ध कर देेने वाली है. विस्तृत जांच के बाद ही पता चलेगा कि यह मामला क्या है, लेकिन विवेचना में मिल रहे संकेतों के अनुसार धर्म-कर्म या गुरु-तांत्रिक के प्रभाव में आकर उठाया गया कदम बताया जा रहा है. सभी शवों के पोस्टमार्टम से भी यह बात सामने आई है कि एक ही तरह से मरने वाले परिवार के सदस्य आध्यात्मिक उपलब्धि, चमत्कार अथवा मोक्ष प्राप्त करना चाहते थे. यह अजीब खेल कुछ इस तरह का है कि 77 साल की वृद्धा से लेकर किशोरवय बच्चों ने भी मौत को गले लगा लिया. इस परिवार की पृष्ठभूमि मिलनसार तथा एक-दूसरे से सुख-दुख बांटने की थी. परिवार की एक उच्च शिक्षित लडक़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करती थी. यह सारे समाज के लिए हृदय विदारक घटना है, लेकिन एेसा प्रतीत होता है कि पूरे परिवार की सामूहिक आत्महत्या के लिए कई दिनों से तैयारी चल रही थी. अंधविश्वास का आवेग विवेक खत्म कर देता है और चमत्कार की उम्मीद भरे-पूरे घर को श्मशान में तब्दील कर देती है. अंधविश्वास पुराने दौर की मान्यताओं और आधुनिकता के प्रति अज्ञान से ही पैदा होता है. देश के हर क्षेत्र में अंधविश्वास का बोलबाला है और धार्मिक रूढिय़ों को तोडऩे में शिक्षित वर्ग भी विवेक का इस्तेमाल करने से डरता हैं. आधुनिक विचारों और जीवन शैली को अपनाने के बाद भी धर्मभीरुता विवेक व तर्कशक्ति को कमजोर कर देती है. समाज की धार्मिक प्रवृत्ति का लाभ लेने के लिए एक बड़ी फौज हमेशा से सक्रिय रही है, जो तार्किकता के विरूद्ध मोर्चा ले रही है. ग्रामीण, अर्धशिक्षित इलाकों में तरह-तरह की भ्रांत मान्यताओं की भरमार है तथा लोग विशेष किस्म के मनोविकार से ग्रस्त पाए जाते हैं. डायन के नाम पर हत्या जैसे जघन्य अपराधों को अंजाम देने के साथ ही दैनंदिन जीवन में भी व्याधियों के लिए ओझाओं, गुरुओं का सहारा लेना आम बात है. शहरी इलाके में इस मानसिकता में भले ही कमी आई हो, लेकिन यहां भी बहुतेरे लोग अंधविश्वासी ही हैं. समाज में वैज्ञानिक और तार्किक चेतना के प्रसार के लिए प्रयास बेहद कम हो रहे हैं. दूसरी तरफ राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए अतीत के ज्ञान का महिमा मंडन सहित प्रतिगामी विचारों को पालने-पोसने का काम निरंतर चल रहा है. यह दुखद है कि किसी मनो-चिकित्सक का मरीज समाज के बड़े वर्ग में चमत्कार के रूप में प्रतिष्ठित और पूजित हो जाता है. दिल्ली की घटना के संदर्भ में जितने भी तथ्य सामने आ रहे हैं, सबके संकेत अंधविश्वास अथवा चमत्कार के ही हैं. विज्ञान की चरम उपलब्धियों के युग में यह मानसिक दशा चिंतनीय है कि एक परिवार के 11 सदस्यों की किसी मोक्ष या चमत्कार की उम्मीद में मौत हो जाए. यह स्थिति बदलनी ही चाहिए जिसके लिए वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न समाज बनान का प्रयास ही उपाय हो सकता है.</span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-48757821462020238792019-01-10T08:52:00.003-08:002019-01-10T08:52:38.326-08:00निर्दोष लोगों की कब तक बलि लेती रहेंगी आदमखोर अफवाहें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div data-test-id="message-view-body" style="background-color: white; color: #26282a; font-family: "Helvetica Neue", "Segoe UI", Helvetica, Arial, "Lucida Grande", sans-serif; font-size: 13px;">
<div class="msg-body P_wpofO iy_A" data-test-id="message-view-body-content" style="font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: normal; overflow-wrap: break-word; overflow-x: auto; padding: 2px 0px 0px;">
<div class="jb_0 X_6MGW N_6Fd5" style="padding-bottom: 0px; padding-left: 24px; padding-right: 16px;">
<div id="yiv4981721580">
देश के अलग-अलग हिस्सों में बच्चा चोरी के शक में भीड़ लोगों को पीट-पीटकर मार डाल रही है. इतिहास के पन्नों में असुरक्षित और अशिक्षित समाज में परिस्थितिजन्य घटनाओं के कारण के कारण भीड़ को हिंसक होते देखा गया है. लेकिन अब हिंसक भीड़ अपनी करनी को छिपाने के लिए एेसी घटनाओं को परिस्थितिजन्य बनाने की कोशिश करती नजर आ रही है, जो चिंता का विषय है. छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, त्रिपुरा, सहित अनेक राज्यों में भीड़ द्वारा अनजान लोगों को बिना जाने-समझे मार डाला गया. भीड़ ने उन लोगों को भी नहीं छोड़ा, जो अफवाह रोकने को उद्देश्य से उस स्थान तक पहुंचे थे. भीड़ को हिंसक बनाने के पीछे कई मनोवृत्तियां एक साथ कार्य करती हैं. पहला तो यही कि समाज में बेरोजगारी और आॢथक विषमताएं तेजी से फैल रही हैं, उन्हें दूर करने की कोई नीति नहीं है. एेसे में सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति जो गुस्सा है, उसके कारण भी कभी-कभी लोग हिंसक हो रहे हैं. इसके अलावा एक छोटा तबका राजनीति के इशारे पर समाज को बुनियादी समस्याओं से भटकाने के लिए अनावश्यक और जान-बूझकर जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रीयता के नाम पर हिंसक बना रहा है. बच्चा चोरी के नाम से हिंसा की घटनाओं से यह सवाल उठता है कि आखिरकार लोग सच जानने का प्रयास क्यों नहीं करते? तथ्य यह भी है कि अपेक्षाकृत पिछले इलाकों में काफी समय से सोशल मीडिया पर बच्चे चुराने वाले गिरोहों के सक्रिय होने की अफवाह फैलाई जा रही थी. इसके चलते भी बाहरी लोगों पर संदेह गहरा हो जाता है. हर साल इसके आंकड़े बढ़े हुए ही दर्ज होते हैं, पर तमाम दावों के बावजूद प्रशासन इस पर नकेल कसने में नाकाम रहता है. गरीब और आदिवासी इलाकोंसे बच्चे चुराना या उनके माता-पिता को बरगला कर शहरों में काम दिलाने के नाम पर ले जाया जाता है. आदिवासी इलाकों की बच्चियों को महानगरों में ले जाने की घटनाएं अनेक बार प्रकाश में आ चुकी हैं, और उन बच्चियों का कोई अता-पता नहीं चल पाया है. इस पृष्ठभूमि में अफवाहें लोगों के मन में गहरे तक धंसे शक को हिंसक रूप दे देती हैं. भीड़ द्वारा जान लेने की घटनाओं के पीछे आदमखोर अफवाहों का बड़ा हाथ होता है. लेकिन सवाल यह भी है कि लोगों का भीड़ में बदलना और कातिल हो जाना विकास का कैसा मुकाम है? सभ्य होते समाज को पीछे धकेलने के लिए सक्रिय अफवाह तंत्र को सामाजिक-राजनीतिक नवाचार के रूप में स्वीकार करना जिम्मेदार लोगों की सबसे बड़ी भूल नहीं है? इस तरह की घटनाएं चिंतित करती हैं तथा समाज को हिंसक बनाने वाले तत्वों के लिए पोषक होती हैं. घटनाओं के वक्त खामोश हो जाने वाली पुलिस और बौने लगने वाले कानून भी समस्या बन जाते हैं. यह सबकी जिम्मेदारी है कि सामाजिक विवेक को जागृत रखें ताकि अनावश्यक हिंसा की आग से समाज बच सके. <br />---------------</div>
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<div class="jb_0 X_6MGW N_6Fd5" style="padding-bottom: 0px; padding-left: 24px; padding-right: 16px;">
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Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-73648019409438163942016-05-11T15:48:00.002-07:002016-05-11T15:48:14.848-07:00शिक्षक की पुनर्बहाली जरूरी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="body undoreset" id="yui_3_16_0_ym19_1_1463039457348_12992" style="-webkit-padding-start: 0px; background-color: white; box-sizing: border-box; display: table; font-family: 'Helvetica Neue', 'Segoe UI', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 13px; outline: none 0px; padding-left: 0px; padding-top: 12px; width: 567px;" tabindex="0">
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<div id="yui_3_16_0_ym19_1_1463039457348_12989" style="-webkit-padding-start: 0px; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif;">
<div dir="ltr" id="yiv4672108116yui_3_16_0_1_1454589249825_2364" style="-webkit-padding-start: 0px;">
<span style="font-size: large;">शिक्षा</span><span style="font-size: 14px;"> इस देश के रहने वालों का मौलिक अधिकार है तो शिक्षा सुलभ कराना सरकारों का बुनियादी दायित्व. प्रगति का आधार शिक्षित नागरिक ही हो सकते हैं, लेकिन इस दिशा में हम आज भी बेहद पिछड़े हुए हैं. सर्वसुलभ बनाने की जगह पिछले दो दशक से भी समय से शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया और सरकारें शिक्षक नामक संस्था को खत्म करने के लिए मनोयोग से जुटी हुई हैं. हर साल पढ़ाई की दृष्टि से सबसे संवेदनशील समय में शिक्षण संस्थान बाधित होते हैं और हड़तालों का दौर चलता है. शिक्षकों की भर्ती बन्द है और बेरोजगारों की विवशता का फायदा उठाते हुए शिक्षाकर्मियों की भर्ती को प्रोत्साहित किया गया. कथित स्थापना व्यय पर अंकुश लगाने और मितव्ययिता के नाम पर बेहद कम मानदेय देकर स्कूलों में पढ़ाने वालों की व्यवस्था की जाने लगी, जो बदस्तूर जारी है. शिक्षकों और शिक्षाकर्मियों के काम की प्रवृत्ति में रंच मात्र भी अंतर नहीं है लेकिन वेतन सहित तमाम सुविधाओं में जमीन-आसमान का फर्क है. अध्यापकों के बीच इस असमानता से उपजी कुंठा ने पढ़ाई के स्तर को गंभीर रूप से प्रभावित किया है. इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह भी है कि मां-बाप के बाद किसी के भी जीवन में शिक्षक का ही महत्वपूर्ण स्थान होता है जो उसके भविष्य को गढ़ता है. शिक्षकों की भूमिका पर बात करते तकरीबन हर आदमी श्रद्धावनत हो जाता है. वस्तुत: अध्यापन ही एक एेसा असामान्य पेशा है जो शिक्षकों को संस्था बना देती है. उन्हें बेहतर नहीं तो कंटकाकीर्ण जीवन देकर गुणवत्ता की उम्मीद नहीं की जा सकती. आखिर क्यों देश के कतिपय राज्यों को छोडक़र सभी प्रान्त शिक्षक संस्था के समूल विनाश पर तुले हैं? प्रदेश के शिक्षाकर्मी हर साल की तरह आंदोलित हैं और अपनी मांगों की फेहरिस्त में उन मामूली सुविधाओं को शामिल किया है जो आमतौर पर शासकीय सेवारत कर्मियों को मिलती है. शिक्षाकर्मियों को इतना दुर्दशाग्रस्त रखा गया है कि उनसे कई महीनों तक भूखे पेट अध्यापन की उम्मीद रखी जाती है. समान काम के लिए समान वेतन की मांग, पदोन्नति की गुजारिश, स्थानांतरण नीति, अनुकंपा नियुक्ति आदि एेसे बिन्दु हैं जिनमें कोई नई बात नहीं है. हैरानी की बात यह है कि इस तरह की मांगों पर अभी तक कोई निर्णय क्यों नहीं लिया गया है? सभी सतर्क नागरिकों को यह बात खलती है कि स्कूलों में संसाधनों का अभाव है और वह बढ़ता ही जा रहा है. इसके साथ ही हैरान-परेशान अध्यापक शिक्षा व्यवस्था के लिए किसी से दृष्टि हितकारी नहीं हैं. अंतर्राष्ट्रीय मंचों से प्रधानमंत्री कहते थकते नहीं हैं कि भारत श्रेष्ठ प्रतिभाओं का देश है जिसने विश्व को लाभान्वित किया है. प्रदेश सरकार को भी छत्तीसगढ़ की मेधा पर गर्व है जिसका उल्लेख मुख्यमंत्री दिग-दिगंत में कर आए हैं. इन सबके बाद भी मामूली सुविधाओं को उपलब्ध कराने और जरूरी वेतन देने में कृपणता क्यों? शिक्षक संस्था की पुनर्बहाली शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने की दिशा में पहली शर्त होनी चाहिए, वहीं इस क्षेत्र में बाजारीकरण को रोकने की कोशिशों पर भी काम करने की जरूरत है.</span></div>
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Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-12661806842063125342016-05-11T15:46:00.004-07:002016-05-11T15:46:47.354-07:00भ्रष्टाचार के विरूद्ध जंग जनता लड़े<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">भ्रष्टाचार का जहर देश के रग-रग में समाया हुआ है और तमाम उपाय अभी तक नाकाफी ही साबित हुए हैं. जिम्मेदार देशवासियों सहित न्यायपालिका भी इस जानलेवा विषबाधा की गंभीरता से परिचित है. इसी का परिणाम है कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने नाराजगी की चरम सीमा में जाकर भ्रष्टाचार को ‘बड़े सिर वाला राक्षस’ करार देते हुये नागरिकों से सीधा संवाद किया, साथ ही सलाह भी दी कि अब एकसाथ आकर अपनी सरकारों को बताएं कि सारी सीमाएं टूट चुकी हैं, भ्रष्टाचार की सड़ांध खत्म हो ही जानी चाहिए और सरकारों को विवश करने नागरिक असहयोग आंदोलन चलाएं, टैक्स देना बंद कर दें. लोकशाही अण्णा भाऊ साठे विकास महामंडल में 385 करोड़ रूपये के गबन की सुनवाई के दौरान न्यायपालिका की यह झल्लाहट वस्तुत: देश के हर नागरिक के आक्रोश की अभिव्यक्ति है. </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">भ्रष्टाचार के खिलाफ हमेशा से आवाजें उठती रही हैं, लेकिन समाज के प्रति दुराचरण प्रभु-वर्ग के लिए आभूषण बन गया और सिस्टम का हिस्सा बनाने की कोशिशें चलती रही हैं. हर स्तर पर भ्रष्टाचार की बातें आम बात है और तंत्र में शामिल लोगों के लिए हर आम और खास को लूटना धर्म तथा पीडि़तों के लिए नियति बन गई. इस नासूर के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर गोलबंदी अण्णा हजारे ने की, जो महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ गांधीवादी तरीके से युद्ध के प्रतीक बन गए थे. दिलचस्प बात है कि देश का चप्पा-चप्पा, हर गांव, हर शहर आंदोलन से जुड़ा और लोगों को मुखर मंच मिला. कहीं न कहीं से शुरूआत की बात उठी और सरकारी स्तर के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जन-लोकपाल की मांग पर जोर दिया गया. इस आंदोलन में व्यवस्था पर सवाल उठाए गए और तंत्र में सुधार के लिए अरङ्क्षवद केजरीवाल ने राजनीतिक दल बनाने के साथ दिल्ली में सरकार भी बना ली. ये दोनों पड़ाव थे भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम के, लेकिन कष्टप्रद प्रक्रिया और इसके अंतर्विरोधों ने आंदोलन की निरंतरता खो दी और दिल्ली में मामला सिर्फ उम्मीदों तक सीमित है. ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा इस साल के लिए जारी भ्रष्ट देशों की सूची में भारत को 76 वें स्थान पर रखा गया है, इस लिहाज से स्थिति सुधरी हुई दिखाई देती है. परन्तु सच्चाई यह है कि सर्वेक्षण के लिए बनाए गए मापदंडों में भारत वहीं का वहीं खड़ा है और दूसरे देशों के ज्यादा भ्रष्ट होने की मेहरबानी के चलते हम अपनी स्थिति में सुधार महसूस कर रहे हैं. यह बेहद हास्यास्पद और गंभीर स्थिति है. राजनीतिक दलों सहित संसद और सत्ता केंद्रों को भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम में हमेशा से अरूचि रही है, इसलिए संबंधित कड़े कदम किसी भी स्तर पर उठते दिखाई नहीं पड़ते. उल्टे हर कदम पर भ्रष्टाचार की बू आती है. एनडीए सरकार ने पारदॢशता को लेकर जितनी ऊंची उम्मीदों के साथ काम करना शुरू किया था, पारदॢशता की स्थिति बनाने में उतनी ही फिसड्डी साबित हुई है. न्यायपालिका की टिप्पणी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की हर स्तर पर पोल खोल दी है और इस तल्खी ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध जनता के मिजाज को मुखर अभिव्यक्ति दी है. </span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-74816104522200772752016-05-11T15:45:00.001-07:002016-05-11T15:45:06.389-07:00कारोबार जगत में पस्त होते दिग्गज<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif;"><span style="font-size: large;">कारोबार </span></span><span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">की दुनिया में भयानक युद्ध होता है और कोई योद्धा किसी दिग्गज को धराशायी कर, उसको अपने अधीनस्थ बना मध्ययुगीन दृश्यों को ताजा कर देता है. आज कारोबार जगत और उसकी खबरों में दिलचस्पी लेने वाले उत्तेजित और उद्वेलित हैं. सिर्फ पांच महीने पहले कारोबार के मैदान में उतरी अल्फाबेट, महाकाय एप्पल को पछाडक़र दुनिया की सबसे मूल्यवान कम्पनी बन गई. वैश्विक बाजार वित्तीय पूंजी और तकनालॉजी का दिलचस्प और बेरहम अखाड़ा बन गया है. वित्तीय पूंजी के वर्चस्व और मार्केटिंग की रणनीति हमेशा से चौकाती रही हैं. </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">यह घटना पहली बार नहीं हुई है, इससे पहले भी बड़े उलटफेरों में माइक्रोसॉफ्ट ने आईबीएम को परास्त करने का कारनामा दिखाया था, तो एप्पल ने माइक्रोसाफ्ट को 2010 में पटखनी दी थी. इसी एप्पल को उम्र के लिहाज से एक शिशु कम्पनी के हाथों मात खाना, वाकई हैरतअंगेज और मानीखेज है. आज बाजार की ताकतों का वास्तविक नियंत्रण शेयर बाजारों में होता है और सोमवार को अमेरिकी बाजार की भारी खरीद-फरोख्त ने दुनिया के सबसे बड़े सर्च इंजन और तकनालॉजी कम्पनी गूगल को अल्फाबेट के अधीन कर दिया. अपने लांच के साथ ही गूगल की मोबाइल आपरेटिंग सिस्टम एंड्रायड दुनिया में नंबर एक बन गई थी, लेकिन एप्पल जब सैमसंग के साथ मुकदमें में फंसी तो नवीनतम तकनीक देने में पिछड़ती रही. कुल मिलाकर स्थिति यह है कि आज का उपभोक्ता, बाजार से प्रतिदिन नवीनतम की मांग करता है और नया न दे पाने की स्थिति में बाजार पुरानी कंपनियों को पीछे धकेल देता है, नए दिग्गज आ जाते हैं. </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">कारोबार जगत का लक्ष्य अकूत मुनाफा कमाना होता है लेकिन इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसे हर क्षण मेहनत करनी पड़ती है. यदि किसी बड़ी सफलता और काम को लंबे समय के लिए भुनाने की कोशिश करें तो अर्श से फर्श पर आ जाने में देर नहीं लगती. नए उद्योगों की सफलताओं की कहानियों में अल्फाबेट मील का पत्थर है तो भारत जैसे विकासशील देशों के उद्यमियों के बीच उम्मीद का संचार भी करता है. कारोबार जगत में ऊंचाइयां हासिल करने के लिये नवीनतम ज्ञान और तकनीक का सतत प्रवाह जरूरी है. नए उद्यमियों के लिए प्रधानमंत्री द्वारा घोषित स्टार्टअप योजना जहां ठोस आधार प्रदान करती है तो अल्फाबेट सहित पहले की कम्पनियों की गतिविधियां आगे बढऩे और उस तरह गलतियां न करने की हिदायत देती हैं. साथ ही सावधान भी करती है कारोबार जगत का ‘मत्स्य-न्याय’ उन्हें अस्तित्वहीन भी कर सकती है. भारत में सफलताओं की ढेरों कहानियां हैं. </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">ऑनलाइन व्यापार के क्षेत्र में एक कमरे से शुरू हुए उद्यम अमेरिकी कम्पनियों को भी डराने में सक्षम हैं, लेकिन आजू-बाजू की छोटी कम्पनियों को उदरस्थ करने में भी माहिर होती जा रही हैं. किसी बने बनाए रास्ते पर चलने की जगह नई राह बनाने वाली स्थिति ही कारआमद साबित होती है. सब कुछ अनिश्चित होने के बाद भी यह कारोबार जगत की सच्चाई है कि स्थिरता के लिए नए ज्ञान नई तकनालॉजी के साथ नवीनतम मार्केटिंग पद्धति जरूरी अवयव हैं. इसके बाद मध्ययुगीन युद्धों के परिणाम की तरह कभी भी जीतने, गुलाम होने या मारे जाने के लिए तैयार रहना होता है. </span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-68322643794220712652016-05-11T15:43:00.005-07:002016-05-11T15:43:44.643-07:00गरीब-वंचित तबकों में बढ़ रहा तनाव <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif;"><span style="font-size: large;">छत्तीसगढ़ </span></span><span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">के संतुष्ट, निश्छल जीवन का राज यह माना जाता है कि यहां तमाम अभावों के बाद भी लोग तनावग्रस्त नहीं रहते. यह बात अब बीते जमाने की हो गई है. शहर ही नहीं, बल्कि सुदूर ग्राम्यांचल तक अब तनाव पसरा हुआ है. समाचारों के अवलोकन के समय सबकी जान हलक पर इसलिए आ जाती है क्योंकि उनमें बुजुर्ग मां को बेटी ने जहर देकर फांसी लगा ली, 35 वर्षीय युवक दिलीप विश्वकर्मा ने फांसी लगाकर जान दे दी, पत्नी ने दुख में कलाई काट ली, दो बहनों और भाई ने फांसी लगाकर खुदकुशी की -जैसे समाचार शामिल होते हैं. ये घटनाएं सिर्फ आज की हैं लेकिन इस तरह की हृदय-विदारक वारदातों को रोज अंजाम दिया जा रहा है. आखिर वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से तनावग्रस्त होकर लोग अवसाद की स्थिति में पहुंचकर आत्महत्या के लिए विवश होते हैं. निश्चित रूप से किशोरवय छत्तीसगढ़ के लिए यह बेहद संवेदनशील मामला है. बहुमूल्य जीवन को खत्म करने की प्रवृत्ति शहरों तक सीमित नहीं है बल्कि इसकी व्याप्ति गांव-गांव तक है. छत्तीसगढ़ राज्य बनने के साथ विकास की अपनी अपेक्षाएं थी, और उस दिशा में काम भी हो रहा है लेकिन तनाव और अवसाद की स्थिति साफ इंगित करती है कि विकास में हिस्सेदारी गरीब और वंचित तबके की अभी तक सुनिश्चित नहीं हो पाई है. इस तरह की प्रवृत्तियों के लिए सामाजिक-आॢथक-राजनीतिक स्तर पर समग्र रूप से पड़ताल करने की आवश्यकता है. तीनों ही स्थितियां बहुत गहरे तक एक दूसरे से जुड़ी हैं. छग जैसे छोटे राज्य का निर्माण ही इसीलिए हुआ है कि बेहतर शासन-प्रशासन यहां के आम-आदमी को उन्मुक्त सामाजिक जीवन, बेहतर आॢथक परिस्थिति और स्वच्छ राजनीतिक माहौल उपलब्ध कराए. दुर्भाग्य से इन सभी मोर्चों पर अभी तक सकारात्मक काम नहीं हो पाया है. छग के बड़े हिस्से में अभी तक उद्योग-धंधों का विकास नहीं हुआ है, जहां रोजगार की संभावनाएं है वहां मेहनत करने वालों को सुरक्षा की गारंटी नहीं है. श्रम कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जा सका है. गांव के खेतिहर मजदूरों को रोजगार और कृषि को फायदे का व्यवसाय बनाना तो दूर उनकी हालत बदतर ही हुई है, जिसका परिणाम कर्ज में डूबे और अकाल से त्रस्त किसानों की सिलसिलेवार आत्महत्या के रूप में सामने आ रही है. नौजवानों को रोजगार नहीं मिल रहा है, विद्याॢथयों को वांछित शिक्षा भी नहीं. स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम से भी प्रदेश पिछड़ा हुआ है. स्मार्ट कार्ड की सुविधा के बावजूद भी गंभीर मरीज के सामने पूरा परिवार असहाय होता है और बेटी विवशता में मां को जहर देकर खुदकुशी कर लेती है. आॢथक मोर्चे का तनाव घर तक आता है और जब सब रास्ते बंद मिलते हैं तो सामूहिक आत्महत्या जैसी घटना सामने आ जाती है. निश्चित रूप से यह तस्वीर हृदय विदारक ही नहीं, बेहद चिंता का विषय है. आखिर क्यों गरीब और वंचित तबके में तनाव बढ़ रहा है? इसके सामाजिक-आॢथक-राजनीतिक कारणों की पड़ताल और तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता है. समाज और सरकार को व्यापक और दूरंदेशी नजरिए से इस मुद्दे को संबोधित करने की जरूरत है. </span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-52200270644998235102016-05-11T15:42:00.002-07:002016-05-11T15:42:46.581-07:00पूरा तंत्र स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif;"><span style="font-size: large;">छत्तीसगढ़</span></span><span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;"> की निर्भया ने जब सिस्टम की दोगलेबाजी को नजदीक से महसूसा तो आत्महत्या कर ली और समाज के सामने उन्हीं भयावह सवालों को खड़ा कर दिया जिससे लगातार लोग जूझ रहे हैं. हर रोज, हर घंटे, हर मिनट मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त लोग स्त्री-शरीर को काबू पाने की चेष्टा में मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना को अंजाम दे रहे हैं. आखिर क्या फायदा है उन सब बातों का जिसमें स्त्री को शक्ति-स्वरूपा मानने, विद्वता के शिखर में स्थान देने, पूज्यनीय बताने की कोशिश करते हैं. प्रतिदिन परम्पराओं की दुहाई और हर क्षण पाशविक अत्याचार? आखिर समूचा तंत्र क्यों स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है? सामूहिक अनाचार का शिकार छत्तीसगढ़ की निर्भया ने अन्याय को चुनौती दी थी और अपराधियों को दंड दिलाने सिस्टम के पास गई थी. यह बेहद दुर्भाग्यजनक है कि तंत्र को चाहे कितना भी मजबूत बनाने की सैद्धांतिक कवायद की जाए, </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">व्यवहारवाद अंतत: अन्याय करने वालों के पक्ष में जा खड़ा होता है. छग की निर्भया के मामले में वकील, न्यायपालिका, पुलिस, अफसर, सरकार सब के सब संवेदनहीनता के शिकार नजर आए और पीडि़ता को न्याय पाने की राह में भयावह उत्पीडऩ का फिर से शिकार होना पड़ा, जिसने सीधे- सीधे भयावह नैराश्य डालकर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया, ताकि समाज के दरिंदे बिना दंड के सुख से रहे सकें. यह मामला रोंगटे खड़े कर देने वाला है. मरीज डॉक्टर के पास जाकर सुरक्षित महसूस करता है, पुलिस आम आदमी की सुरक्षा के लिए होती है, वकील न्याय दिलाने में कानूनी मदद के लिए होता है और न्यायपालिका तो न्याय देने के लिए ही, लेकिन सबने निराश किया. डॉक्टर, पुलिस अपराधी बने, वकील मदद नहीं कर सकी और न्यायपालिका से जब तक न्याय आता ये निर्भया हार गई. सवाल-दर-सवाल खड़े करती ये आत्महत्या यह यह भी पूछती है कि क्या यह व्यवस्था नारी सुरक्षा के सिर्फ खोखले वादे करती है?</span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;"> दिल्ली के निर्भया कांड के बाद जन-प्रतिरोध के ज्वार ने व्यवस्था के सभी अंगों को झकझोरा था, लेकिन स्थिति जस की तस है. बाल अपराध कानून में संशोधन करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त स्त्री विरोधी और उन पर दमन करने वाली प्रवृत्तियों के खिलाफ कारगर कार्रवाई के लिए रंचमात्र भी प्रयास किए गए? किसी भी दृष्टि से एेसा नहीं लगता. उल्टे नौजवानों से गलती हो जाने पर क्या फांसी पर चढ़ा दोगे, अनाचार की घटनाओं का कारण वेशभूषा, मोबाइल आदि है- एेसा वक्तव्य देकर स्त्री- विरोधी अत्याचारों को प्रोत्साहन देने का काम देश के जिम्मेदार लोग कर रहे हैं. पुलिस, अफसर आज भी अपनी अकड़ के साथ समाजद्रोही ताकतों के साथ जा खड़े होने में शर्मिदगी महसूस नहीं करते. वकील और न्यायपालिका में व्यवस्थागत व्यवहारिक निर्ममता बनी हुई है. आखिर इस असंवेदनशील समय में स्त्री विरोधी जड़ों को हिलाने और उखाडऩे की कोशिश कब होगी? छ.ग. की निर्भया मामले में आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले कारणों की सख्त पड़ताल के साथ तंत्र के दोषियों पर कार्रवाई सुनिश्चित करने की पहल की जानी चाहिए.</span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-89072241862436708852016-05-11T15:40:00.004-07:002016-05-11T15:40:33.563-07:00‘धरती पर फरिश्ते’ दयनीय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif;"><span style="font-size: large;">भारत</span></span><span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;"> में चिकित्सा सेवा की हालत बेहद दयनीय है, केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में स्वीकार किया है कि 11 हजार रोगियों के बीच सिर्फ एक एलोपैथी डॉक्टर उपलब्ध है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चिकित्सक-रोगी का अनुपात 1000 तय किया है. इन डॉक्टरों की चिकित्सा का बड़ा हिस्सा उनके सहयोगी स्टाफ पर निर्भर होता है और उसमें भी नर्सों का दायित्व अतुलनीय होता है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने दिन-रात मरीजों की सेवा करने वाली नर्सों और खासतौर पर निजी अस्पताल में कार्यरत स्टाफ की दयनीय दशा पर गौर करने के लिए केन्द्र सरकार को निर्देश दिया है. उच्चतम न्यायालय ने चार हफ्ते के भीतर विशेषज्ञ समिति बनाने सहित कानून बनाने को भी कहा है ताकि नर्सों को उचित वेतन सहित अनुकूल वातावरण मिल सके. सरकारी क्षेत्र में कार्यरत नर्सों को वेतनमान सहित काम के तयशुदा घंटे में सेवा ली जाती है, लेकिन निजी अस्पतालों में संचालकों की मनमर्जी ही कानून होता है. वेतन की बात करें तो चिकित्सा के निजी व्यावसायिक संस्थानों का जोर सिर्फ खुद के लिए मुनाफा बटोरने पर होता है. बहुतेरे स्थानों पर कलेक्टर द्वारा निर्धारित दर पर भी सहयोगी स्टाफ और नर्सों को वेतन नहीं मिलता. यह भी सच है कि सरकारी अस्पतालों की उपलब्धता ही गरीब जनता के लिए उपचार का माध्यम है. मरीजों से भारी शुल्क लेकर चिकित्सा करने वाले निजी संस्थाओं के द्वारा शासकीय चिकित्सालयों की बेवजह बदनामी कर मरीजों को भरमाने का क्रम लम्बे समय से चल रहा है. लेकिन रायपुर मेकाहारा, बिलासपुर के सिम्स सहित तमाम जिला चिकित्सालयों में नाम मात्र शुल्क के साथ बेहतर उपचार की सुविधाएं उपलब्ध हैं. भिलाई स्थित अस्पताल तो श्रेष्ठ उपचार का मशहूर केन्द्र रहा है, जिसे स्टील प्लांट संचालित करता है. बेहतर चिकित्सा के लिए न सिर्फ डॉक्टर बल्कि अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में काम करने वाली नर्सें भी उत्तरदायी होती हैं. किसी दशा में विशेषज्ञ चिकित्सक की अपेक्षा स्टाफ और नर्सों को अधिक देखभाल करनी पड़ती है. ‘धरती पर फरिश्ते’ के रूप में पेश की जाने वाली नर्सों की पेशेवर जिंदगी बेहद खस्ताहाल है. विभिन्न अध्ययनों से जो तथ्य सामने आए हैं उनमें उनका मौखिक, शारीरिक उत्पीडऩ के साथ डॉक्टरों, प्रबंधन तथा सहकर्मियों द्वारा दुव्र्यवहार जैसी बातें शामिल हैं. नर्सों और प्रबंधन के बीच गुलाम और मालिक जैसे रिश्ते की बात अतिरंजनापूर्ण नहीं है. निजी क्षेत्रों में कार्यरत नर्सों को अपनी पढ़ाई के लिए चार से छह लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जब रोजगार मिलता है तो वेतन ढाई से छह हजार रुपये तक ही सीमित होता है. मरीजों की जान बचाने वाली नर्सों के उल्लेखनीय योगदान पर कभी भी चर्चा नहीं होती न ही किसी दस्तावेज पर उनका नाम ही दर्ज होता है. इसके अलावा निजी संस्थानों में उनके प्रमाण पत्रों को जब्त करने और दर्शाए गए वेतन से भी कम देने की शिकायतें भी आम बात हैं. एेसी स्थिति में भारत के सबसे बड़े न्यायालय की पहल बेहद स्वागतेय है और अपेक्षा की जानी चाहिए कि भारत सरकार चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण किरदार नर्सों को दयनीय स्थिति से उबारने सारी कोशिशें करेगी.</span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-84110674208483622882016-05-11T15:39:00.005-07:002016-05-11T15:39:41.919-07:00सम्पत्ति कर में भारी वृद्धि औचित्यहीन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif;"><span style="font-size: large;">प्रदेश</span></span><span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;"> के नगरीय निकायों में सम्पत्ति कर में एकमुश्त पचास फीसदी की बढ़ोतरी से लोग उद्वेलित हैं और राजनीतिक दल आंदोलित. आखिर बीस साल बाद एकमुश्त बढ़ोतरी का औचित्य क्या है? इस सवाल से आम और खास सभी परेशान हैं. यहां यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि प्रदेश के नगरों को आबंटित राशि का पूरा उपयोग न होने और नियोजित विकास के अभाव में केंद्र सरकार द्वारा जारी सूची में छत्तीसगढ़ के किसी भी शहर को स्मार्ट सिटी के दायरे में नहीं रखा गया है. इस बात से किसी को भी इनकार नहीं है कि प्रदेश के शहरों के विकास और विस्तार की जरूरतों को पूरा करने के लिए उनके स्वत: की स्त्रोतों से आमदनी बढऩी चाहिए, लेकिन सवाल यह भी है कि एकमुश्त वृद्धि क्यों? </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">यह सर्वविदित है कि राजनीतिक लाभ के लिए चुनाव जैसे मौैकों को ध्यान में रखकर जनता पर पडऩे वाले भार को टाल दिया जाता है. इसके साथ ही यह भी कहना गलत नही हैं कि अचानक दी गई रियायतों को मुफीद समय पर ब्याज समेत वापस लेने की परंपरा सिर्फ परेशान करती है. यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि शहरों में रहने वाले नागरिकों से लगातार करों के जरिए वसूल की जाने वाली राशि का सदुपयोग होता है या नहीं? </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">क्या शहर का मतलब गौरवपथ में करोड़ों रूपए फूंक देना और गलियों का टूटा फूटा होना तो नहीं? मुख्य मार्गों पर झिलमिलाती रोशनी और मोहल्लों में अंधेरा तो नहीं? यह भी तथ्य छिपा नहीं है कि आए दिन साफ-सफाई के नाम पर करोड़ों रूपए की मशीनें खरीदी जाती हैं और फिर उसका स्थान सिर्फ कबाडख़ानों में होता है. जनता से कर के रूप में वसूली की जाने वाली राशि से इस भयावह दुरूपयोग की अभी तक किसी जवाबदेही तय की गई होगी, एेसा कोई प्रसंग सामने नहीं आया है. अभी भी शहरों में रहने वालों को पीने का साफ पानी नगरीय निकाय उपलब्ध नहीं करा पाए और राजधानी रायपुर सहित छग के शहरों में प्रदूषित जल के कारण पीलिया व उल्टी दस्त की बीमारियां महामारी के रूप में प्रकट होती हैं. नगरीय निकायों के द्वारा जनता की सम्पत्ति का सदुपयोग आखिर कैसे हो, इस प्रश्न पर कार्य-नीति के अभाव ने अभी तक करदाता नागरिकों को बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा है और चौक-चौराहों सडक़ों के सौंदर्यीकरण से ठेकेदारों की पौ-बारह ही ज्यादा होती रही है. संपत्ति कर देने के मामले के मामले में आम शहरी तो अपना दायित्व निभाता है लेकिन प्रभुत्वशाली लोग औने-पौने राशि देकर अपना काम निकाल लेते हैं.</span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;"> यह सुनिश्चित करना फौरी जरुरत है इस तरह का भेदभाव न हो और समान रूप से टैक्स वसूली हो. निश्चित रूप से एकमुश्त सम्पत्ति कर बढ़ाने के औचित्य पर सवाल उठाना अनुचित नहीं है साथ ही प्रदेश के विपक्ष को भी इस बात की जिम्मेदारी लेनी होगी कि शहरों की दुर्दशा के हिस्सेदार वे भी रहे हैं. विकास के लिए कोष चाहिए लेकिन उसे धीरे-धीरे बढ़ाना था साथ ही धन राशि के सदुपयोग और जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा के दायित्व को भी निभाना था. </span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-10386468672719414272016-05-11T15:38:00.001-07:002016-05-11T15:38:22.476-07:00लोकतंत्र को तार-तार न होने दें <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="body undoreset" id="yui_3_16_0_ym19_1_1463039457348_9707" style="-webkit-padding-start: 0px; background-color: white; box-sizing: border-box; display: table; font-family: 'Helvetica Neue', 'Segoe UI', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 13px; outline: none 0px; padding-left: 0px; padding-top: 12px; width: 567px;" tabindex="0">
<div class="email-wrapped" id="yui_3_16_0_ym19_1_1463039457348_9706" style="-webkit-padding-start: 0px; display: table-cell; width: auto; word-break: break-word; word-wrap: break-word;">
<div id="yiv7639342594" style="-webkit-padding-start: 0px;">
<div id="yui_3_16_0_ym19_1_1463039457348_9705" style="-webkit-padding-start: 0px;">
<div id="yui_3_16_0_ym19_1_1463039457348_9704" style="-webkit-padding-start: 0px; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif;">
<div style="-webkit-padding-start: 0px; text-align: left;">
<span style="font-size: large;">अरूणाचल</span><span style="font-size: 14px;"> प्रदेश में संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है और राष्ट्रपति शासन लगाने के बाद उच्चतम न्यायालय ने भी इस मामले में गंभीर रूख अपनाते हुए केन्द्र सरकार और राज्यपाल को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है. इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह की टिप्पणी की है वह लोकतंत्र और संघीय ढांचे सहित संवैधानिक मर्यादाओं पर विश्वास करने वालों को झकझोरने के लिए पर्याप्त है. देश की सबसे बड़ी अदालत का कहना है कि राज्यपाल की ओर से सभी जानकारियां क्यों नहीं दी जा रही हैं? इसके साथ ही इंटरनेट युग में वक्त मांगने पर फटकार लगाई और ई-मेल का प्रयोग कर 15 मिनट में राज्यपाल की रिपोर्ट मुहैया कराने की हिदायत दी.</span></div>
<div style="-webkit-padding-start: 0px; text-align: left;">
<span style="font-size: 14px;">पांच जजों की संविधान पीठ ने यह गंभीर सवाल भी किया है कि ‘किन हालातों में इमरजेंसी लगाई गई है, यह जानकारी हमारे लिए जरूरी है.’ गौरतलब है कि अरुणाचल प्रदेश में वर्ष 2014 में हुए विधानसभा चुनाव में 60 सीटों में 42 सीटें कांग्रेस ने जीती थी और बहुमत के साथ वह सत्ता पर काबिज हुई. भाजपा को 11 सीटें हासिल हुई थीं, जबकि पीपुल्स पार्टी आफ अरुणाचल प्रदेश को 5 सीटें मिली थीं, और उसने बाद में कांग्रेस में विलय कर लिया था. इस तरह कांग्रेस के पास 47 विधायक थे. लेकिन विगत 16 दिसंबर को कांग्रेस के 21 बागी विधायकों ने कांग्रेसी मुख्यमंत्री नबाम तुकी के खिलाफ जाते हुए बीजेपी के 11 सदस्यों और दो निर्दलीय विधायकों के साथ मिलकर एक सामुदायिक केंद्र में आयोजित सत्र में विधानसभा अध्यक्ष नबाम रेबिया पर महाभियोग चलाया. इनमें 14 सदस्य वे भी थे जिन्हें एक दिन पहले ही अयोग्य करार दिया गया था. विधानसभा अध्यक्ष ने इस कदम को अवैध और असंवैधानिक बताया था. राज्य विधानसभा परिसर को स्थानीय प्रशासन द्वारा सील किए जाने के बाद इन सदस्यों ने सामुदायिक केंद्र में उपाध्यक्ष टी नोरबू थांगडोक की अध्यक्षता में तत्काल एक सत्र बुलाकर रेबिया पर महाभियोग चलाया.</span></div>
<div style="-webkit-padding-start: 0px; text-align: left;">
<span style="font-size: 14px;"> इतना ही नहीं, इन लोगों ने एक और कांग्रेसी असंतुष्ट कलिखो पुल को राज्य का नया मुख्यमंत्री चुना. लेकिन गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए बागियों के सत्र में लिये गये फैसलों पर रोक लगा दी थी. इससे पहले राज्यपाल शीतकालीन सत्र बुलाने की तारीख चौदह जनवरी के बजाय सोलह दिसंबर कर दलील दी थी कि विशेष परिस्थितियों में सत्र की बैठक पहले बुलाई जा सकती है. गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने इस अधिसूचना को रद्द कर दिया था.</span></div>
<div style="-webkit-padding-start: 0px; text-align: left;">
<span style="font-size: 14px;"> न्यायालय का कहना था कि राज्यपाल ने सत्र बुलाने से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 174 और 175 का उल्लंघन किया है. एक राज्यपाल के लिए अदालत की एेसी टिप्पणी दशार्ती है कि वे अपने संवैधानिक दायरों का उल्लंघन कर रहे थे. निश्चित रूप से यह मामला अब उच्चतम न्यायालय के हवाले है. लेकिन इसके साथ ही देश में लोकतंत्र, संविधान और संवैधानिक मर्यादाओं की रक्षा का सवाल उठ खड़ा हुआ है. निर्वाचित सरकारों की अस्थिरता, खरीद-फरोख्त, जोड़-तोड़ से सत्ता तो हासिल की जा सकती है, लेकिन इस तरह की कार्रवाईयां लोकतंत्र को तार-तार करने वाली ही साबित होती हैं. </span></div>
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Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-18598960493387460122016-05-11T15:36:00.002-07:002016-05-11T15:36:29.408-07:00 ‘गण’ से ही सशक्त बनेगा ‘गणतंत्र’<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="body undoreset" id="yui_3_16_0_ym19_1_1463039457348_9312" style="-webkit-padding-start: 0px; background-color: white; box-sizing: border-box; display: table; font-family: 'Helvetica Neue', 'Segoe UI', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 13px; outline: none 0px; padding-left: 0px; padding-top: 12px; width: 567px;" tabindex="0">
<div class="email-wrapped" id="yui_3_16_0_ym19_1_1463039457348_9311" style="-webkit-padding-start: 0px; display: table-cell; width: auto; word-break: break-word; word-wrap: break-word;">
<div id="yiv7233138483" style="-webkit-padding-start: 0px;">
<div id="yui_3_16_0_ym19_1_1463039457348_9310" style="-webkit-padding-start: 0px;">
<div id="yui_3_16_0_ym19_1_1463039457348_9309" style="-webkit-padding-start: 0px; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif;">
<h2 style="-webkit-padding-start: 0px; text-align: left;">
<span style="font-size: large;">गणतं</span><span style="font-size: 14px;">त्र पर दिवस भारतीय गण की ताकत, विकास और समृद्धि के प्रदर्शन के लिए महीनों से तैयारी की जाती है और समूचा विश्व देखता है. वहीं दूसरी ओर भारतीय गणराज्य की घोषणा के महापर्व पर सम्यक समीक्षा की आवश्यकता आज भी महसूस की जा रही है. भारत के प्रधानमंत्री लगातार विदेश दौरों में गणराज्य की ताकत को बखूबी बताते हैं और उल्लेख करते हैं कि भारत नौजवानों का देश है जहां की 30 से अधिक प्रतिशत आबादी तरूणों की है. भारत के विद्याॢथयों की शिक्षा और कौशल के विश्व को अवदान की चर्चा भी अवश्य की जाती है. इस सबसे बड़े तबके की चर्चा करें तो एक स्याह तस्वीर भी उभरती है. तीन मेडिकल छात्राओं की कथित आत्महत्या, उससे पहले शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या, कोटा में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते छात्र की खुदकुशी तो हाल की ही बहुचॢचत घटनाएं हैं, लेकिन पूरी तरूणाई इतनी ही बेबसी में है और फिलहाल पढ़ाई सहित रोजगार की चिंता में अवसादग्रस्त है. भारत में विश्वविद्यालय परिसरों में निरंतर पठन-पाठन, शोध, अनुसंधान में कमी आ रही है. स्वच्छंद, स्वतंत्र विकास की संभावनाएं निरंतर कम होती जा रही हैं. सरकारों द्वारा शिक्षा बजट में कटौतियों के साथ छात्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने की कवायद लगातार जारी है. कैम्पस से देश के निर्माण हेतु वैज्ञानिक, नौकरशाह, शिक्षाविद, राजनेता सहित विविध क्षेत्र की प्रतिभाएं निकलती हैं. इस उद्गम को प्रदूषित करने से समूचे देश का विकास प्रदूषित होगा. यहां छोटे से राजनीतिक स्वार्थ के लिए किसी पर बदले की राजनीतिक कार्यवाही से बाज आना चाहिए. शहरी बेरोजगारी चिंताजनक स्थिति पर है. एक रिपोर्ट के अनुसार निजी और सरकारी क्षेत्र से निकले स्नातक अभियंताओं में से 80 फीसदी नौकरी के काबिल नहीं पाए जाते. एेसी स्थिति में कुकुरमुत्तों की तरह संस्थानों को स्थापित करने और व्यवसायीकरण का औचित्य क्या है? हर साल हजारों छात्र उच्च शिक्षा पूरा किए बगैर संस्थानों से बाहर आ जाते हैं. ग्रामीण क्षेत्र के नौजवानों की हालात और भी खराब है. ग्रामीण शैक्षणिक परिसरों की स्थिति बिगड़ती ही जा रही है. रूपए में तौली जा रही शिक्षा से ग्रामीण नौजवान वंचित हैं. एेसी स्थिति में देश की नौजवानी पर गर्व करने से पहले सर्वसुलभ गुणवत्ता और कौशल बढ़ाने वाली शिक्षा को युक्तिसंगत बनाते हुए उसका हक सबको सुनिश्चित करने की कोशिश की जानी चाहिए. दुनियाभर की नजरें भारत में इसलिए रहती है क्योंकि यहां विशाल आबादी पश्चिमी देशों के लिए विराट उपभोक्ता समूह है. भारत की सबसे बड़ी जनसंख्या ग्रामीणों और किसानों की है और देश में कृषि सबसे जोखिम का काम है. सिंचाई सहित तमाम सरकारी सहायता के अभाव में बैकों और महाजनों के कर्ज से दबे किसान आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए विवश होते हैं और यह आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं. सरकारी गोदाम में अनाज सड़ता है तो बुंदेलखंड में गांव का गरीब घास की रोटी खाता है. भारत का गण ही इतना विवश हो तो गणतंत्र कैसे सशक्त हो सकता है? आज जरूरी है कि देश की तरूणाई और किसान सहित सबका सम्यक विकास हो, ताकि गणतंत्र सशक्त हो सके. </span></h2>
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Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-72258813019285808962016-05-11T15:34:00.005-07:002016-05-11T15:34:54.776-07:00नेताजी पर अवांछित राजनीति न हो <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">बहुप्रतीक्षित दस्तावेजों के जारी होने के बाद अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर कई तरह की बातें आ रही हैं. पं. जवाहर लाल नेहरू की 1945 में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी पर कांग्रेस-भाजपा के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी शुरू हो गया है. सारी घटनाओं को उसके परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है. दूसरे विश्वयुद्ध में दुनिया दो हिस्सों में बंट गई थी, एक ओर जर्मनी के नेतृत्व में धुरी-राष्ट्र जिसमें इटली जापान आस्ट्रिया प्रमुख थे, दूसरी ओर ब्रिटेन के नेतृत्व में रूस, फ्रांस आदि थे. अमेरिका बाद में मित्र राष्ट्रों के साथ आया, भारत शुरू से इसमें शामिल नहीं था. गांधीजी ने जब युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने का एलान किया और भारतीय नौजवानों की फौज में भर्ती करवाई. कम्युनिस्ट पार्टी ने फासीवादी के विरोध के नाम पर भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन नहीं किया परंतु व्यक्तिगत रूप से बहुत से कम्युनिस्ट भारत छोड़ो आंदोलन में कूदे.</span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">चूंकि भारत मित्र राष्ट्रों में था इसलिए जापान या जर्मनी से सहायता लेकर ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध लडऩा, परोक्ष रूप से फासीवाद का समर्थन था जबकि सुभाष बाबू घोषित रूप से फासिज्म के खिलाफ थे और इसीलिये हिटलर से उन्हें कोई बड़ी सहायता नहीं मिली, हां, एक जापानी जनरल ने आजाद हिंद फौज को ट्रेनिंग और असलहा दिया था. बाद में स्तालिन ने सुभाष बाबू को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नायक मानकर उन्हें रूस आने की इजाजत दी. फासिस्टों पर न्यूरेमबर्ग में मुकदमा चला जिसमें जीवित मृत सभी प्रमुख फासिस्टों के नाम हैं. सुभाष बाबू उनमें नहीं थे, </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">इसका मतलब यह है कि उन्हें युद्ध अपराधी नहीं माना गया. कांग्रेस पार्टी उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मानती रही है. दस्तावेज आने से धुंध ही छंटनी ही चाहिए और कम से कम उन्हें कांग्रेस के बहाने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को कटघरे में खड़े करने का अधिकार नहीं है जो उसमें शामिल ही नहीं थे. वस्तुत: नेताजी आजादी दिलाने के पक्षधर थे, जिसमें सैन्य, आॢथक और आजादी शामिल थी. नेताजी कांग्रेस के गरम दल के नेता थे और हथियारबंद का युद्ध का आव्हान करते थे. इसी बात पर महात्मा गांधी से उनके मतभेद हुए. </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">इस मुद्दे पर किसी को राजनीतिक लाभ के लिए लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती. वस्तुत: इतिहास के नायकों को इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है. द्वितीय विश्व युद्ध के समय धुरी राष्ट्रों के कहर से दुनिया थर्रा उठी थी. दिलचस्प बात है कि गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि की हैसियत से फ्रांस के प्रधानमंत्री भारत आ चुके हैं और यही फ्रांस फासीवादियों का सबसे अधिक उत्पीडऩ बर्दाश्त करने वाला देश था. इसी का परिणाम है कि फ्रांस सेक्युलरिज्म का सबसे आदर्श उदाहरण है जो धर्म को राजनीति से दूर रखने के विचारों को अमली जामा पहनाता है. जबकि भारत में असहिष्णुता, साम्प्रदायिक विचारों से प्रेरित हिंसात्मक व्यवहार, फसाद आदि सबसे बड़ी चुनौती हैं. जरूरत इस बात की है कि नेताजी के नाम से राजनीति करने की जगह उनकी विचारधारा और धर्म-निरपेक्षता से केन्द्र सरकार और सभी दल सहमत होकर आचरण करें. </span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-88813033407438778082016-05-11T15:33:00.004-07:002016-05-11T15:33:35.239-07:00महा-मंदी की आहट और भारत <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">समूचे विश्व में विकास का पहिया थम सा गया है और बुद्धिमान अर्थशास्त्रियों के मुताबिक फिर से दुनिया सन 2008 जैसी मंदी के मुहाने पर आ खड़ी हुई है. स्विटजरलैंड के दावोस में सभी देशों के दिग्गज चिंतित हैं और मंदी के भयपूर्ण वातावरण से मुक्त होने के उपायों पर चर्चा कर रहे हैं. बीसवीं सदी के आरंभ से ही वैश्विक स्तर पर मंदियों का सिलसिला चलता ही रहा है और दुनिया को नए सिरे से बांटने के लिए विश्व युद्ध भी हुए हैं. आज परिस्थितियां पहले से बहुत अलग हैं और व्यावसायिक वैश्वीकरण और मुक्त-व्यापार की स्थितियों ने किसी भी देश को परेशानी से बचे रहने की गुंजाईश ही नहीं छोड़ी है. अब विकसित देशों में एेसी प्रणाली विकसित की है जिसके तहत देश अपनी विशिष्टताओं को छोडक़र वैश्विक आॢथक प्रणाली की कतार में जा खड़ा हुआ है. भारत अभी भी विकासशील देश है. जब आजादी के बाद भारत के आॢथक भविष्य गढऩे की बात उठी तो दो-ध्रुवीय विश्व की विशेषताओं को अपनाने का निश्चय कर मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींव रखी गई. सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना समाजवादी देशों की तर्ज पर की गई और आज भी यही क्षेत्र देश की आॢथकी की रीढ़ है. सन 1997 या 2008 की वैश्विक महा-मंदी का असर भारत में इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र बाजार की ताकतों के हाथ में नहीं थी. यह बात निश्चित रूप से देश के सत्ताधारी वर्ग और अर्थजगत के विद्वानों को मालूम है लेकिन नई आॢथक नीति व उदारीकरण ने अब सार्वजनिक क्षेत्र को धीरे-धीरे बाजार के हवाले कर दिया और इनकी तकदीर वैश्विक वित्तीय पूंजी और शेयर बाजार के अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव ने लिखना शुरू कर दिया. दावोस में जिन बातों पर चिंता की जा रही है उनमें चीन के विकास दर का पिछले 25 साल में सबसे कम होना, युआन के अवमूल्यन से दुनिया भर के व्यापार का लडख़ड़ाना, तेल की कीमत का एक साल के दौरान के 70 फीसदी तक गिर जाना, फेडरल बैंक के ब्याज दरों में बढ़ोतरी का निर्णय आदि है, जिसके कारण दुनिया भर में आॢथक गतिविधियां थमती जा रही हैं. बैंक आफ इंटरनेशनल सेटलमेंट्स के पूर्व चीफ इकानामिस्ट विलियम वाइट ने 2007 की परिस्थितियों का आंकलन कर 2008 की मंदी की सटीक चेतावनी दी थी, उन्होंने ही फिर बैकों को आवश्यक सुझाव देते हुए फिर मंदी के हालात का विश्लेषण किया. इसके बाद भारत सहित सारी दुनिया के शेयर बाजार लगातार लुढक़ रहे हैं. बैकिंग संस्थाओं के पुन: धराशायी होने की गुंजाईश बढ़ी है, जबकि हालात संभालने के विकल्प सीमित हैं. मंदियों के दौर का आना नई आॢथक व्यवस्था और पुरानी नीतियों के मुताबिक भी असहज स्थिति नहीं है, लेकिन भारत जैसे किसी देश की अपनी स्वतंत्र आॢथक प्रणाली का ध्वस्त होना और वैश्विक परेशानी में भागीदार होने की प्रक्रिया पर लगाम लगाया जा सकता था. आज जब सार्वजनिक क्षेत्र को समाप्त करने की मुहिम चल रही है, जरूरत इस बात की है कि उसे बचाएं और सशक्त करें ताकि देश की आॢथकी सुरक्षित रह सके. </span></div>
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Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-61212354683849925342016-05-11T15:32:00.000-07:002016-05-11T15:32:06.515-07:00आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक युद्ध जरूरी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">सारी सीमाएं पार कर दी फिर निर्मम हत्यारों ने, बाचा खान विश्वविद्यालय में आतंकवादियों ने सीमांत गांधी को श्रद्धांजलि देते पाकिस्तान के भविष्य होनहार छात्रों के बीच घुसकर अंधाधुंध गोलियां चलाकर दो दर्जन से ज्यादा जानें ले लीं. ये वहीं क्रूरतम लोग हैं जो पेशावर के सैनिक स्कूल में डेढ़ सौ से ज्यादा मासूम विद्याॢथयों को मार डाला था, जिनका जनाजा उठाते पाकिस्तान के उनके अभिभावकों सहित विश्व के सभी शांतिकामी लोगों का कलेजा फटा जा रहा था. बाचा खान या बादशाह खान या सीमांत गांधी पेशावर से ही थे. बाचा खान महात्मा गांधी के समकालीन स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम योद्धा थे और सत्य के आग्रही होने के साथ शांति के लिए आजीवन प्रतिबद्ध रहे.</span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;"> महात्मा गांधी के दिवंगत होने के बाद भी सीमा के दोनों तरफ के लोग बादशाह खान से मिलकर अपनी साध पूरी करते थे. शांति के अग्रदूत की धरती खैबर-पख्तूनवा प्रान्त पाकिस्तान में बहुत अशांत है और आतंकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र भी. इस हिस्से में आतंकियों द्वारा निर्दोष छात्रों को लगातार निशाना बनाना अत्यधिक चिन्ता का कारण बन गया है. भारत के मुकाबले पाकिस्तान में कई गुनी आतंकी घटनाएं होती हैं और आए दिन आम-नागरिक मारे जाते हैं. भारत की घटनाओं के लिए भी पाकिस्तान से आए दहशतगर्दों पर ही अंगुलियां उठती हैं और वहीं से प्रशिक्षित आतंकी आमतौर पर मारे या पकड़े जाते हैं. गौरतलब है कि हाल में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी पाकिस्तान को आतंकवादियों का मददगार और पनाहगार देश के रूप में चिन्हित कर वहां के हुक्मरानों को चेतावनी दी कि अपना रवैया बदलें. भारतीय उप महाद्वीप सहित दक्षिण एशिया में आतंकी घटनाओं की वृद्धि चिंताजनक है ही, खुद पाकिस्तान इस आग से झुलस रहा है. </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">भले ही बांग्लादेश सहित यह देश भारत का पड़ोसी हो गया हो, रिश्तेदारी सहित सांस्कृति, भाषा, खान-पान, रहन सहन में एक जैसे हैं. खून चाहे पठानकोट में बहे या पेशावर में दर्द दोनों तरफ के लोगों को एक जैसा होता है. यह सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि दोनों देशों के शासकवर्ग जनता की भावनाओं को समझें और उन्हें तकलीफ देने वाले संगठित तंत्र का खात्मा करें. पाकिस्तान के शासक वर्ग हमेशा इस बात को दुहराते हैं कि भारत की अपेक्षा वे आतंकवाद से ज्यादा पीडि़त हैं. इस बात पर जरा भी संदेह नहीं है, परंतु आतंकी दबाव समूह का नियंत्रण भी स्वीकार कर हर दृष्टि से ढिलाई बरती जाती है और क्रूरतम लोगों वहां प्रोत्साहन मिलता है, यह भी सच्चाई है. </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">निश्चित रूप से पाकिस्तान में जम्हूरियत है और इंतखाब भी होते हैं. हुक्मरानों को वहां की बहुसंख्यक जनता, जो बाचा खान को दिल से चाहती है, वहीं चुनकर सत्ता सौंपती है. फिर क्यों मनुष्यता के दुश्मनों के दबाव में सरकार आती है? उन छात्रों को निशाना बनाया जाना किसी भी दृष्टि से असहनीय है जो नए विचार, ज्ञान, विज्ञान से देश के भविष्य को गढऩा चाहते हैं. अब बहुत हो चुका, अब तो सिर्फ इस बात का समय है कि सीमांत गांधी जैसे शंतिकामी महामानवों और आम-आदमी की सुनें और दहशतगर्दी को सभी अर्थों में खत्म करने अभियान चलाएं. </span></div>
Ganesh Tiwarihttp://www.blogger.com/profile/17525286615393512926noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2281077079412354736.post-91280895772250389962016-05-11T15:30:00.003-07:002016-05-11T15:30:37.680-07:00हवा न हो जाए हवाई निरीक्षण<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br class="yiv7413495231" id="yiv7413495231yui_3_16_0_1_1453202096136_4702" style="-webkit-padding-start: 0px; background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">मतदाताओं के एक-एक वोट हासिल करने की कड़ी मशक्कत के बाद किसी राजनीतिक दल को शासन-प्रशासन चलाने की इजाजत इस उम्मीद के साथ मिलती है कि वह जनता के जीवन को खुशहाल बनाये और प्रशासन को जनोन्मुखी और दुरुस्त. छत्तीसगढ़ के मुखिया का दायित्व तीसरी बार संभाल रहे डॉ. रमन सिंह अचानक एक स्कूल पहुंचे और सच्चाईयों से रूबरू हुए. राज्य के मुखिया की एेसी कार्रवाई प्रशासनिक चुस्ती के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि जनता की जरूरतों का एहसास भी जनता के बीच जाने पर होता है. दुर्भाग्य से सत्ता की राजनीति सत्ताधीशों को जनता से दूर ही कर रही है. कभी सुरक्षा, कभी व्यस्तता या कभी अरुचि के कारण. हमेशा इस बात को जेहन रखना जरुरी है कि अंतत: अंतिम निर्णय जनता के हाथ में ही होता है. राजनेताओं की सादगी और जनता से तादात्म्य अब विलुप्त होती चीज है. </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">पार्रिकर या माणिक सरकार जैसे उदाहरण कितने हैं. डॉ. रमन सिंह ग्राम सुराज अभियान के नाम पर निकलते हैं लेकिन लगभग सभी को मालूम होता है कि उस पखवाड़े में किसे क्या करना है! कार्रवाई के नाम पर कुछ छोटे-मोटे अफसर कर्मचारी ही निपट जाते हैं. कार्रवाई हो ही यह जरूरी नहीं है लेकिन जरूरी यह है कि सरकार और उसकी नीतियां-कार्यक्रम जनता तक पहुंचे. जरूरी यह है कि जनता की आवाज, उसके दु:ख दर्द सरकार तक पहुंचे. सरकार की तमाम योजनाओं को जनता तक पहुंचाने वाला तंत्र तो इस मामले में अत्यंत नकारा साबित हुआ है. कहीं भूख से मौत हो जाती है, कहीं किसान आत्महत्या कर रहा है लेकिन एेसे तमाम जरूरी सवालों पर इस राज्य का तंत्र तभी हरकत में आता दिखता है जब कम से कम मुख्यमंत्री उसका संज्ञान लेते हैं. </span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;">प्रशासनिक विकेंद्रीकरण दरअसल व्यावहारिक रूप से अब भी अपनी भावनाओं के अनुकूल जनता तक नहीं पहुचा है. इस राज्य में अफसर ही नहीं मंत्री भी जनता के दुखों से बेपरवाह ही नजर आते हैं. बहुत हो गया तो अपने चुनाव क्षेत्र के कुछ लोगों से मिलकर अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री मान लेते हैं. अनेक मंत्रियों के बंगलों में आम आदमी का फटकना भी मुश्किल है लेकिन यहाँ दलाल किस्म के लोग बेधडक़ आते-जाते नजर आते हैं. इस माहौल में डॉ. रमन सिंह का एेसा औचक निरीक्षण सकारात्मक तो है, बस सवाल सिर्फ यही है कि कहीं यह श्रृंगारिक निरीक्षण बस ना रह जाए! मुख्यमंत्री अगर अपनी व्यस्तता से समय निकाल कर समय-समय पर इस तरह का औचक निरीक्षण करें तो उन्हें पता लगेगा कि मंत्रालय की बैठकों में अफसरों के प्रेसेंटेशन और जमीनी हकीकत में फासला कितना है.</span><br />
<span style="background-color: white; font-family: HelveticaNeue, 'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, 'Lucida Grande', sans-serif; font-size: 14px;"> महासमुंद के बिराजपाली में ही जब मुख्यमंत्री भोजन के लिए जमीन एक फटे हुए बोरे पर बैठे तब पता लगा कि सर्वशिक्षा अभियान में पैसा नहीं था इसलिए टाट पट्टी की खरीदी नहीं हुई थी. यह उस राज्य का हाल था जहाँ खुद मुख्यमंत्री लगातार शिक्षा की गुणवत्ता की बात कर रहे हैं और इसीलिए उन्होंने एक ग्रामीण स्कूल का औचक निरीक्षण किया भी. मुख्यमंत्री एेसे दौरे पर समय समय पर निकलेंगे तो राज्य की नब्ज को और बेहतर तरीके से पकड़ सकेंगे. </span></div>
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