बुधवार, 11 मई 2016

भावनात्मक मुद्दों से भला नहीं होगा

राम मंदिर मुद्दे को स्थायी रूप से चुनावी औजार बनाने की मंशा साफ हो चुकी है. मामला अदालत में है और सभी पक्ष न्याय मंदिर की बात मानने का जिक्र करते हैं, लेकिन जब भी चुनाव की आहट होती है, खासतौर पर उत्तरप्रदेश जैसे राज्य की बात करें तो बार-बार चर्चा शुरु हो जाती है. अयोध्या में शिला-पूजन, दिल्ली विश्वविद्यालय में राम मंदिर मुद्दे पर सेमिनार के बाद विश्व हिन्दू परिषद ने राम नवमीं से हर गांव में राम मंदिर स्थापना का अभियान बनाया है. केन्द्र सरकार खामोश है, इसका साफ अर्थ है कि इस मुद्दे को चर्चा पर लाने में केन्द्र की भी सहमति है. प्रधानमंत्री अभी तक विदेशों व चुनावी सभाओं में बोलते आए हैं ओर ट्विट भी आमतौर पर देश से जुड़े मुद्दों पर नहीं करते. यह सहज संयोग नहीं है कि एकबारगी चौतरफा मंदिर निर्माण के मुद्दे को उठाया जा रहा है. यहां इस बात को जेहन में रखना जरुरी है कि जब भारतीय जनता पार्टी के संसद में सिर्फ 2 संसद थे तो लालकृष्ण आडवानी ने रथ बैठकर अयोध्या कूच किया
, कार सेवा के नाम पर बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहा और देश में उन्माद के वातावरण ने अनगिनत शहरों में साम्प्रदायिक तनाव के साथ धु्रवीकरण की प्रक्रिया तेज की. फलस्वरूप राष्ट्रीय जनता पार्टी को 86 सीटें लोकसभा की मिली. ऐसे प्रयासों अल्प-जीवन होता है लेकिन जब इस दिशा में लगातार काम किया जाए तो सामाजिक समरता को स्थायी जख्म ही मिलता है. भाजपा ने लगातार मुद्दे बदले, रणनीति बदली और जब विकास की बातें की तो एनडीए की पहली सरकार अटल बिहारी बाजपेयी और दूसरी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी. फिर क्यों देश के आर्थिक विकास और जनता को राहत देने वाले मसलों से किनारा कर भावनात्मक मुद्दों को उछालने की जरुरत आ पड़ी है?  आज देश के विकास गति ठहरी हुई है, 
जनता को राहत मिलना तो दूर उनकी कठिनाईयां बढ़ी हैं. रोजगार के अवसर दूर ही होते जा रहे हैं, किसानी सजा हो गई है और किसान आत्महत्या कर हैं. नतीजा, दिल्ली फिर बिहार में भाजपा का निराशाजनक प्रदर्शन के बाद गुजरात और महाराष्ट्र की ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में केन्द्र सरकार की नीतियों को मतदाताओं ने नकार दिया और भाजपा चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई है. इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो बेहद सुनियोजित तरीके से भावनात्मक मुद्दों को उठाया जा रहा है. राम अयोध्या के ही घर-घर में नहीं बसते, उसकी व्यापकता पूरे देश के जन मानस में है. पठन-पाठन, शोध के केन्द्र विश्वविद्यालय में अयोध्या और मथुरा-काशी की बात होने लगे तो सचेत हो जाने का समय है. देश अब फिर से साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा सहने के लिए तैयार नहीं है. देश के गांव, शहरों के किसानों और काम करने वालों को रोजगार की जरुरत है. नई पीढ़ी को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और सर्वसमावेशी विकास चाहिए. ऐसी स्थिति में देश की सौहाद्र्र की परम्परा का अनुपालन करते सत्ता काम करे और एेसी कोशिशों को लगाम लगाने के लिए सचेत प्रयासों का भरोसा जनता को दे.

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