बुधवार, 11 मई 2016

नेताजी पर अवांछित राजनीति न हो

बहुप्रतीक्षित दस्तावेजों के जारी होने के बाद अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर कई तरह की बातें आ रही हैं. पं. जवाहर लाल नेहरू की 1945 में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी पर कांग्रेस-भाजपा के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी शुरू हो गया है. सारी घटनाओं को उसके परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है. दूसरे विश्वयुद्ध में दुनिया दो हिस्सों में बंट गई थी, एक ओर जर्मनी के नेतृत्व में धुरी-राष्ट्र जिसमें इटली जापान आस्ट्रिया प्रमुख थे, दूसरी ओर ब्रिटेन के नेतृत्व में रूस, फ्रांस आदि थे. अमेरिका बाद में मित्र राष्ट्रों के साथ आया, भारत शुरू से इसमें शामिल नहीं था. गांधीजी ने जब युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने का एलान किया और भारतीय नौजवानों की फौज में भर्ती करवाई. कम्युनिस्ट पार्टी ने फासीवादी के विरोध के नाम पर भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन नहीं किया परंतु व्यक्तिगत रूप से बहुत से कम्युनिस्ट भारत छोड़ो आंदोलन में कूदे.
चूंकि भारत मित्र राष्ट्रों में था इसलिए जापान या जर्मनी से सहायता लेकर ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध लडऩा, परोक्ष रूप से फासीवाद का समर्थन था जबकि सुभाष बाबू घोषित रूप से फासिज्म के खिलाफ थे और इसीलिये हिटलर से उन्हें कोई बड़ी सहायता नहीं मिली, हां, एक जापानी जनरल ने आजाद हिंद फौज को ट्रेनिंग और असलहा दिया था. बाद में स्तालिन ने सुभाष बाबू को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नायक मानकर उन्हें रूस आने की इजाजत दी. फासिस्टों पर न्यूरेमबर्ग में मुकदमा चला जिसमें जीवित मृत सभी प्रमुख फासिस्टों के नाम हैं. सुभाष बाबू उनमें नहीं थे, 
इसका मतलब यह है कि उन्हें युद्ध अपराधी नहीं माना गया. कांग्रेस पार्टी उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मानती रही है. दस्तावेज आने से धुंध ही छंटनी ही चाहिए और कम से कम उन्हें कांग्रेस के बहाने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को कटघरे में खड़े करने का अधिकार नहीं है जो उसमें शामिल ही नहीं थे. वस्तुत: नेताजी आजादी दिलाने के पक्षधर थे, जिसमें सैन्य, आॢथक और आजादी शामिल थी. नेताजी कांग्रेस के गरम दल के नेता थे और हथियारबंद का युद्ध का आव्हान करते थे. इसी बात पर महात्मा गांधी से उनके मतभेद हुए. 
इस मुद्दे पर किसी को राजनीतिक लाभ के लिए लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती. वस्तुत: इतिहास के नायकों को इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है. द्वितीय विश्व युद्ध के समय धुरी राष्ट्रों के कहर से दुनिया थर्रा उठी थी. दिलचस्प बात है कि गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि की हैसियत से फ्रांस के प्रधानमंत्री भारत आ चुके हैं और यही फ्रांस फासीवादियों का सबसे अधिक उत्पीडऩ बर्दाश्त करने वाला देश था. इसी का परिणाम है कि फ्रांस सेक्युलरिज्म का सबसे आदर्श उदाहरण है जो धर्म को राजनीति से दूर रखने के विचारों को अमली जामा पहनाता है. जबकि भारत में असहिष्णुता, साम्प्रदायिक विचारों से प्रेरित हिंसात्मक व्यवहार, फसाद आदि सबसे बड़ी चुनौती हैं. जरूरत इस बात की है कि नेताजी के नाम से राजनीति करने की जगह उनकी विचारधारा और धर्म-निरपेक्षता से केन्द्र सरकार और सभी दल सहमत होकर आचरण करें. 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें