बुधवार, 11 मई 2016

पूरा तंत्र स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है?

छत्तीसगढ़ की निर्भया ने जब सिस्टम की दोगलेबाजी को नजदीक से महसूसा तो आत्महत्या कर ली और समाज के सामने उन्हीं भयावह सवालों को खड़ा कर दिया जिससे लगातार लोग जूझ रहे हैं. हर रोज, हर घंटे, हर मिनट मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त लोग स्त्री-शरीर को काबू पाने की चेष्टा में मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना को अंजाम दे रहे हैं. आखिर क्या फायदा है उन सब बातों का जिसमें स्त्री को शक्ति-स्वरूपा मानने, विद्वता के शिखर में स्थान देने, पूज्यनीय बताने की कोशिश करते हैं. प्रतिदिन परम्पराओं की दुहाई और हर क्षण पाशविक अत्याचार? आखिर समूचा तंत्र क्यों स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है? सामूहिक अनाचार का शिकार छत्तीसगढ़ की निर्भया ने अन्याय को चुनौती दी थी और अपराधियों को दंड दिलाने सिस्टम के पास गई थी. यह बेहद दुर्भाग्यजनक है कि तंत्र को चाहे कितना भी मजबूत बनाने की सैद्धांतिक कवायद की जाए, 
व्यवहारवाद अंतत: अन्याय करने वालों के पक्ष में जा खड़ा होता है. छग की निर्भया के मामले में वकील, न्यायपालिका, पुलिस, अफसर, सरकार सब के सब संवेदनहीनता के शिकार नजर आए और पीडि़ता को न्याय पाने की राह में भयावह उत्पीडऩ का फिर से शिकार होना पड़ा, जिसने सीधे- सीधे भयावह नैराश्य डालकर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया, ताकि समाज के दरिंदे बिना दंड के सुख से रहे सकें. यह मामला रोंगटे खड़े कर देने वाला है. मरीज डॉक्टर के पास जाकर सुरक्षित महसूस करता है, पुलिस आम आदमी की सुरक्षा के लिए होती है, वकील न्याय दिलाने में कानूनी मदद के लिए होता है और न्यायपालिका तो न्याय देने के लिए ही, लेकिन सबने निराश किया. डॉक्टर, पुलिस अपराधी बने, वकील मदद नहीं कर सकी और न्यायपालिका से जब तक न्याय आता ये निर्भया हार गई. सवाल-दर-सवाल खड़े करती ये आत्महत्या यह यह भी पूछती है कि क्या यह व्यवस्था नारी सुरक्षा के सिर्फ खोखले वादे करती है?
 दिल्ली के निर्भया कांड के बाद जन-प्रतिरोध के ज्वार ने व्यवस्था के सभी अंगों को झकझोरा था, लेकिन स्थिति जस की तस है. बाल अपराध कानून में संशोधन करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त स्त्री विरोधी और उन पर दमन करने वाली प्रवृत्तियों के खिलाफ कारगर कार्रवाई के लिए रंचमात्र भी प्रयास किए गए? किसी भी दृष्टि से एेसा नहीं लगता. उल्टे नौजवानों से गलती हो जाने पर क्या फांसी पर चढ़ा दोगे, अनाचार की घटनाओं का कारण वेशभूषा, मोबाइल आदि है- एेसा वक्तव्य देकर स्त्री- विरोधी अत्याचारों को प्रोत्साहन देने का काम देश के जिम्मेदार लोग कर रहे हैं. पुलिस, अफसर आज भी अपनी अकड़ के साथ समाजद्रोही ताकतों के साथ जा खड़े होने में शर्मिदगी महसूस नहीं करते. वकील और न्यायपालिका में व्यवस्थागत व्यवहारिक निर्ममता बनी हुई है. आखिर इस असंवेदनशील समय में स्त्री विरोधी जड़ों को हिलाने और उखाडऩे की कोशिश कब होगी? छ.ग. की निर्भया मामले में आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले कारणों की सख्त पड़ताल के साथ तंत्र के दोषियों पर कार्रवाई सुनिश्चित करने की पहल की जानी चाहिए.

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