मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

सम्मान बनाम सियासत




पुण्य प्रसून वाजपेयी
जनसत्ता 26 दिसंबर, 2011: भारत रत्न’ के दायरे में खेल-खिलाड़ी भी आ जाएंगे यह कभी सोचा नहीं गया था। लेकिन अब भारत रत्न देने की बात उठेगी तो कला-संस्कृति, साहित्य, समाज सेवा और राजनीति की विभूतियों के अलावा खिलाड़ियों के भी नाम सामने आएंगे इसके संकेत साफ हैं। आने वाले दौर में बाजारवादी लोकप्रियता भी भारत रत्न की हकदार नजर आएगी। तो क्या भारत रत्न की जो परिभाषा आजादी के बाद गढ़ी गई, अब उसे बदलने का वक्त आ गया है? क्योंकि खेल को कभी राष्ट्रीय उपलब्धि या राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा नहीं गया। सार्वजनिक हितों के लिए संघर्ष और कला के दायरे में ही हमेशा भारत रत्न की पहचान की गई।
जबकि खेल के जरिए भारत को दुनिया में असल पहचान हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने ही पहली बार दिलाई थी। 1936 में बर्लिन ओलपिंक में हिटलर के सामने न सिर्फ जर्मनी की हॉकी टीम को 8-1 से पराजित किया बल्कि उस दौर में दुनिया के सबसे बडेÞ तानाशाह के सामने खडेÞ होकर तब उसे भारतीय होने के महत्त्व का अहसास कराया जब हिटलर से आंख मिलाना भी हर किसी के बस की बात नहीं होती थी। ध्यानचंद ने उस फरमाइश को खारिज कर दिया जिसमें हिटलर ने ध्यानचंद को भारत छोड़ कर्नल का पद लेकर जर्मनी में रहने को कहा था।
लेकिन ध्यानचंद उस वक्त भी भारत को लेकर अडिग रहे और अपने फटे जूते और लांसनायक के अपने पद को बतौर भारतीय ज्यादा महत्त्व दिया। इतना ही नहीं, आजादी से पहले देश के बाहर देश का झंडा लेकर कोई शख्स गया था तो वह ध्यानचंद ही थे। ओलपिंक के फाइनल में जर्मनी से भिड़ने के पहले बाकायदा टीम के कोच पंकज गुप्त ने कप्तान ध्यानचंद के कहने पर कांग्रेस का झंडा, जो उस वक्त देश की पहचान बना हुआ था, हाथ में लेकर जर्मनी की टीम को पराजित करने की कसम खाई थी। लेकिन भारत रत्न की कतार में कभी ध्यानचंद को लेकर सोचा भी नहीं गया।
इसी तरह देश का एक नायाब हीरा शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खां भी है, जिनकी शहनाई सुन कर एक बार अमेरिका ने उन्हें हर तरह की सुविधा देते हुए अमेरिका में रहने की फरमाइश की थी। कहा कि बिस्मिल्ला खां जो चाहेंगे वह उन्हें अमेरिका में मिलेगा। लेकिन तब बिस्मिल्ला खां ने बेहद मासूमियत से यह सवाल किया था कि गंगा और बनारस कैसे लाओगे। उसके बगैर तो मेरी शहनाई का कोई मतलब ही नहीं!
बिस्मिल्ला खां को भारत रत्न से नवाजा गया। लेकिन अब जब भारत रत्न के दायरे में खेल-खिलाड़ियों को भी लाने की कवायद सरकार ने शुरू की है तो खेल की दुनिया में भारत के सबसे बडेÞ ब्रांड सचिन तेंदुलकर को लेकर भारत रत्न दिए जाने की संभावना जोर पकड़ रही है और इस बारे में चर्चा शुरू हो चुकी है। लता मंगेशकर से लेकर अण्णा हजारे और कई सांसदों ने बार-बार सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दिए जाने की पैरवी की है।
सामान्य तौर पर यह बहस हो सकती है कि सचिन तेंदुलकर से बड़ा नाम इस देश में और कौन है जिसने इतिहास रचा और अब भी मैदान पर है? हालांकि चर्चा इस बात को लेकर भी हो सकती है कि सचिन ने देश के लिए किया क्या है। खिलाड़ी की मान्यता के साथ ही खुद को बाजार का सबसे उम्दा ब्रांड बना कर सचिन की सारी पहल देश के किस मर्म से जुड़ती है यह अपने आप में सवाल है।
मगर जब भारत रत्न का कैनवास बड़ा किया ही गया है तो इस अलंकरण की इससे पहले की सियासत के कुछ पहलुओं को भी समझना जरूरी है। 1954 में शुरू हुई इस परंपरा में यानी बीते सत्तावन बरसों में चालीस लोगों को इस सम्मान से नवाजा गया। लेकिन भारत रत्न से जुड़ी सियासत पहले तीन भारत रत्न के बाद से डगमगाने लगी। 1954 में देश के सबसे विशिष्ट नागरिक अलंकरण यानी भारत रत्न से उपराष्ट्रपति सर्वेपल्ली राधाकृष्णन, पूर्व गवर्नर जनरल राजगोपालाचारी और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकटरमन को सम्मानित किया गया। लेकिन अगले ही बरस यानी 1955 में भारत रत्न के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय से जो चौथा नाम निकला वह खुद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का था। यानी खुद से खुद को सबसे बड़े नागरिक अलंकरण से सम्मानित करने की यह पहली पहल थी। इसके बाद इसका दोहराव सोलह बरस बाद 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया। एक बार फिर पीएमओ से जो नाम भारत रत्न के लिए निकला वह खुद प्रधानमंत्री का था।
दरअसल, सत्ता का असर कैसे भारत रत्न जैसे फैसलों में जाहिर होता है, यह 1991 में भी दिखा। तब के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को यह अलंकरण मरणोपरांत दिए जाने की घोषणा की। चंद्रशेखर की सरकार कांग्रेस के समर्थन से बनी थी और इस फैसले से जाहिर है वे कांग्रेस को खुश करना चाहते थे।  प्रधानमंत्रियों की फेहरिस्त में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के अलावा दो और नाम हैं जिन्हें भारत रत्न से नवाजा गया- लालबहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई। भारतीय जनता पार्टी अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न दिए जाने की मांग बार-बार उठाती रही है, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी है, क्योंकि सत्ता कांग्रेस की है।
जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो छह बरस के उस दौर में छह भारत रत्न दिए गए। इनमें जयप्रकाश नारायण, गोपीनाथ बरदोलई, पंडित रविशंकर, अमर्त्य सेन, लता मंगेशकर और बिस्मिल्ला खां शामिल हैं। लेकिन जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, तब से किसी को भारत रत्न नहीं दिया गया है।   अलबत्ता इस बीच अनेक नाम प्रस्तावित किए गए। अब यहां सवाल सचिन तेंदुलकर का उठ सकता है। क्योंकि मनमोहन सिंह का मतलब अगर आर्थिक सुधार के जरिए भारत को बाजार में तब्दील करना है तो सचिन का मतलब उस बाजार का सबसे अनुकूल चेहरा होना है।
सचिन को इतनी लोकप्रियता क्रिक्रेट ने दी। सचिन के किसको पहचान दी? उन सत्ताईस उत्पादों को, जिनके ब्रांड एंबेसडर वे बने। इस वक्त देश में तीस लाख करोड़ के धंधे के सचिन तेंदुलकर अकेले ब्रांड एंबेसडर हैं। यानी जो पहचान देश के क्रिक्रेट खिलाड़ी होकर सचिन ने पाई उसकी कीमत वे सालाना करोड़ों में बतौर खुद का नाम और चेहरा बेच कर कमाते हैं। और वे जिन उत्पादों का गुणगान करते नजर आते हैं उनमें से नौ उत्पाद तो देश के हैं भी नहीं, बाकी अठारह उत्पादों का काम भी मुनाफा बनाने से इतर कुछ है नहीं। लेकिन इसमें सचिन तेंदुलकर का कोई दोष नहीं है, अगर इस दौर में देश का मतलब बाजार ही हो चला है। अगर विकास का मतलब ही शेयर बाजार और कॉरपोरेट तले औद्योगिक विकास दर ऊपर उठाना है। तो फिर बतौर नागरिक किसी भी सचिन तेंदुलकर का महत्त्व होगा कहां।
असल और सफल सचिन तो वही होगा जो उपभोक्ताओं को लुभाए, जो अपने आप में सबसे बड़ा उपभोक्ता हो। इसलिए क्रिकेट का नया मतलब मुकेश अंबानी और विजय माल्या का क्रिक्रेट है, जिसमें शामिल होने के लिए वेस्ट इंडीज के क्रिक्रेटर क्रिस गेल अपने ही देश की क्रिक्रेट टीम में शरीक नहीं होते। पाकिस्तान के क्रिक्रेटर भारत के कॉरपोरेट क्रिक्रेट में शामिल न हो पाने का दर्द खुले तौर पर तल्खी के साथ रखने से नहीं कतराते। और सचिन तेंदुलकर भी भारतीय क्रिक्रेट टीम में शामिल होकर कॉरपोरेट क्रिक्रेट की 20-20 मुकाबलों में शिरकत करने से नहीं हिचकते।
गौरतलब है कि कॉरपोरेट घरानो में सिर्फ जेआरडी टाटा को ही यह सम्मान मिला है। लेकिन अब के दौर में जेआरडी टाटा से कहीं आगे अंबानी बधुओं समेत देश के शीर्ष पांच उद्योगपति आगे पहुंच चुके हैं। दुनिया में भारतीय कॉरपोरेट की सफलता की तूती बोलने लगी है। चार कॉरपोरेट घरानों ने इसी दौर में मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार तले इतना मुनाफा बनाया कि जेआरडी के दौर में जो विकास टाटा ने आजादी के बाद चालीस बरस में किया उससे ज्यादा टर्नओवर सिर्फ सात बरस में बना लिया। लेकिन देश की सीमा से बाहर निकल कर खुद को बहुराष्ट्रीय कंपनी के तौर पर मान्यता पाने वालों में किसी का भी नाम भारत रत्न की दौड़ में नहीं है।
यह कमाल अब की अर्थव्यवस्था का ही है कि देश के बीस करोड़ लोग एक ऐसा बाजार बन चुके हैं जिनके जरिए अमेरिका और चीन जैसे शक्तिशाली देशों से भी भारत कूटनीतिक सौदेबाजी करने की स्थिति में है। और जी-20 से लेकर ब्रिक्स और आसियान से लेकर जी-8 में भी भारत के बगैर आर्थिक विकास और वैश्विक लेन-देन की कोई चर्चा पूरी नहीं होती।
लेकिन इस मध्यवर्ग को भुनाने के साथ-साथ यह भी हुआ है कि पूरे देश की छवि सिमटती गई है। एक सौ बीस करोड़ का यह देश केवल अपने मध्यवर्ग को अपना पर्याय समझने लगे और बाकी लोगों का आर्थिक विकास से कोई लेना-देना न हो तो भारत की जो छवि प्रचारित की जा रही है वह समग्र कैसे हो सकती है। जो लोग देश में मध्यवर्ग के विस्तार पर फूले नहीं समाते, उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इस दौर में गरीबों और बेरोजगारों की तादाद कितनी बढ़ी है।
इसी दौर में देश की जो पीढ़ी युवा हुई उसके लिए आजादी के संघर्ष का महत्त्व बेमानी हो गया। न गालिब का कोई महत्त्व इस दौर में बचा न भगत सिंह का। और खेल-खिलाड़ी को भारत रत्न के दायरे में लाने पर अगर ध्यानचंद के साथ सचिन तेंदुलकर का नाम ही सत्ता की जुबान पर सबसे पहले आया तो फिर इस बार भारत रत्न का सम्मान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही क्यों नहीं मिलना चाहिए, जिनके विकास की चकाचौंध के लिए सचिन एक ब्रांड भर हैं। फिर प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह का नाम अगर भारत रत्न के लिए आयेगा तो यह नेहरू जीऔर इंदिरा गांधी के ही सिलसिले को आगे बढ़ाएगा।

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