अगर राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पाकिस्तान में 24 सैनिकों के मारे जाने पर तुरंत खेद जाहिर किया होता तो पाकिस्तान का भय कम हो गया होता। भारत में कई लोगों को इसे लेकर आश्चर्य है कि इस्लामाबाद ने 'खेद' को स्वीकार क्यों नहीं किया? खेद को पूरी तरह माफी नहीं कह सकते, लेकिन यह उसके करीब है। इसका अर्थ होता है कि किसी गलत काम के लिए अफसोस की भावना। शायद पाकिस्तान ने खेद स्वीकार भी कर लिया होता अगर पाकिस्तान के विरोध के बावजूद अमेरिका और नाटो की सेना ने उल्लंघन की घटनाएं बार-बार दोहराई नहीं होतीं। 11 सितंबर की आतंकी घटना के बाद से ही पाकिस्तान के साथ एक ऐसे देश के रूप में व्यवहार किया जा रहा है जो अमेरिका के आदेश का गुलाम हो। तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कोलिन पावेल ने उस समय के पाकिस्तानी विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार को टेलीफोन किया था कि वह अपनी सरकार को यह बता दें कि अगर इस्लामाबाद उनके साथ नहीं आता तो अफगानिस्तान के बदले वे पाकिस्तान की जमीन पर बम बरसाना शुरू कर देंगे। उस समय पाकिस्तान 'ना' कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। वह इस समय भी दबाव का प्रतिरोध कैसे कर सकता है, बावजूद इसके कि सैनिकों को कमान के आदेश का इंतजार किए बगैर जवाबी कार्रवाई की इजाजत दे दी गई है? यह बात कड़वी लग सकती है कि संयुक्त कार्रवाई में हिस्सा लेने के बाद पाकिस्तानी सैनिक दरअसल अमेरिकी सैनिकों के दुर्व्यवहार के आदी हो गए हैं।
सच है कि सैनिकों के मारे जाने के बाद पाकिस्तान ने कड़ा रुख अपना लिया है और यहां तक कि ड्रोन के अड्डे को भी खाली करा लिया गया है, लेकिन यह पाकिस्तान के गुस्साए जनमत के आगे समर्पण है। मैं इस बारे में पक्का नहीं हूं कि पाकिस्तान सेना के प्रमुख अशफाक परवेज कयानी कब तक अड़े रहेंगे। इतने सालों में पाकिस्तान की सेना को अमेरिकी संग और आर्थिक सहायता की ऐसी आदत हो गयी है कि एकदम से पलट जाना संभव नहीं दिखाई देता। इस बारे में तर्क गढ़ने का काम शुरू हो गया है। एक सीमित सहयोग की संभावना जमीन पर दिखाई दे रही है। नाटो के कमांडर ने कहा कि इस दुखद घटना ने उनके आपरेशन और पाकिस्तान के साथ सहयोग को भंग नहीं किया है। अमेरिकी नाराजगी इस्लामाबाद के अनुकूल नहीं है, क्योंकि चीन खाली जगह को नहीं भर सकता, न ही भारत कोई मदद कर सकता। दोनों देशों के बीच संबंध ऐसे मुकाम पर नहीं है कि नई दिल्ली सहायता करेगी।
सैनिकों के मारे जाने पर खेद व्यक्त करने के बावजूद वाशिंगटन के व्यवहार में मैं कोई बदलाव नहीं देख रहा हूं। वह तालिबान के खिलाफ युद्ध कर रहा है और तालिबान का मुख्यालय पाकिस्तान में है। अमेरिकी और नाटो की सेना उसे दंडित करना जारी रखेगी, अगर इस्लामाबाद का सहयोग संभव हुआ तो ठीक अन्यथा जरूरत पड़ी तो इसके बगैर भी। दोनों पक्ष समझते हैं कि वे एक ऐसी स्थिति का सामना कर रहे है जिसे अकेले हल नहीं किया जा सकता। अमेरिका और पाकिस्तान कगार पर जा सकते हैं, लेकिन कूद नहीं सकते। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने कह भी दिया कि पाकिस्तान अमेरिका के साथ संबंधों को फिर से बनाना चाहता है और जवाब में अमेरिका ने इसका स्वागत भी किया है। दुनिया के सामने अमेरिका और नाटो के 130000 सैनिकों की 2014 में अफगानिस्तान से वापसी की समस्या है। अफगानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय सहयोग देने के लिए आयोजित बान सम्मेलन को ज्यादा स्पष्ट होना चाहिए था। पाकिस्तान की उपस्थिति निहायत जरूरी थी। किसी भी समझौते का कोई फायदा नहीं अगर इस्लामाबाद का उस पर हस्ताक्षर नहीं होता। पाकिस्तान को इस पर ऐतराज नहीं कि तालिबान अफगानिस्तान पर फिर से कब्जा कर लें, क्योंकि जब उन्होंने अस्थायी तौर पर ऐसा किया था तो इस्लामाबाद ने झट से मान्यता दे दी थी। ऐसे में भारत और पाकिस्तान के बीच सामान्य रिश्तों की जरूरत ज्यादा महसूस होती है। दिक्कत यह है कि पाकिस्तान भारत को अफगानिस्तान में देखना नहीं चाहता और इसकी उपस्थिति को अपने हितों के खिलाफ समझता है। दूसरी ओर नई दिल्ली ने काबुल के साथ सामरिक सहयोग का समझौता किया है। यह अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान को अकेला और बेबस नहीं छोड़ सकता। दिल्ली और इस्लामाबाद एक जगह आ सकते हैं अगर पाकिस्तान अफगानिस्तान की संप्रभुता और स्वतंत्रता को बिना किसी सामरिक उद्देश्य के स्वीकार कर ले। इसलिए 2014 के बाद भी अमेरिकी दखलंदाजी से इंकार नही किया जा सकता है। पहले से ही दबाव में पाकिस्तान की सेना के सामने इसके सिवाय कोई चारा नहीं है कि वह कम से कम उस तालिबान को जो आतंकवादी हैं, के सफाए के लिए भारत के साथ सहमति का रास्ता निकाले।
पाकिस्तान की सेना मेमोगेट के नाम से जाने जाने वाले विवाद को हल करने के लिए भारी परेशानी से गुजर रही है। समस्या और भी बड़ी है। वाशिंगटन जरदारी सरकार में फिर से अपना विश्वास कैसे कायम करे, क्योंकि अमेरिका की नजरों में वह पूरी तरह पाकिस्तान की सेना के अधीन हैं। मुझे कोई शक नहीं है कि हक्कानी की जगह लेने वाली शेरी रहमान में वह क्षमता और प्रतिबद्धता है कि वह परस्पर विश्वास का संबध फिर से स्थापित कर सकें और उसे यकीन दिला सकें कि निर्वाचित सरकार को सेना हटा नहीं सकती। जरदारी सरकार का नाम इतिहास में दर्ज हो सकता है अगर वह उपमहाद्वीप में घृणा दूर करने और गरीबों की हालत सुधारने के काम में मदद करें।
[लेखक: प्रख्यात स्तंभकार है]
(दैनिक जागरण से साभार)
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