अब अन्ना जी ने राहुल गांधी को निशाना बनाया है - कांग्रेस में सबसे बूढ़े प्रणव दा, मनमोहन जी सहित तमाम छोटे-बड़े नेता -कार्यकर्ता राहुल को कम से कम प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं - यह मंशा (भले ही अपनी भलाई के लिए हो) प्रकट करना रोजमर्रा का काम हो गया है. कांग्रेस में सुपर पावर राहुल बने कि नहीं, लेकिन अन्ना ने तो मान ही लिया. अब देश में करोड़ों लोगों को उद्वेलित कर देने वाले श्री हजारे ने कल यह प्रमाणपत्र दे दिया तो कांग्रेसी मंसूबों की यह बड़ी कामयाबी ही मानी जानी चाहिये. कभी सिब्बल, अभी चिदंबरम, कभी प्रणव, कभी खुर्शीद को महत्वपूर्ण बनाने वाले अन्ना जी को या राजनीति की समझ ही नहीं है या ऐसे बयानों के लिए "सुपारी" लेते हैं -वही जानें.
"मैया मैं तो चंद खिलौना लैहों" के "बाल-हठ" में पड़े अन्ना को बस "अपना जन लोकपाल" ही चाहिए. पहली बार जब जंतर मंतर में अनशन किया तो भाजपा उन्हें ड्राफ्ट कमेटी में लेने पर नाराज थी -साथ में धमकी भी दी थी कि संसद में ही मामला आयेगा न - उस वक्त देख लेंगे. दुबारा रामलीला मैदान में भाजपा ने अन्ना आन्दोलन की कमान ही संभल ली, संघ ने तो आदेश ही दे दिया. राजनीतिज्ञों से भरपूर घृणा दिखाने के बाद उन्हीं के दफ्तरों में दर- दर घूमें, सबने स्वागत किया और सहमति-असहमति के बिन्दुओं पर चर्चा भी हुई. लेकिन नतीजा - आप अपनी सोच अपने पास रखें - हमें सिर्फ अपना लोकपाल चाहिए. सबका मालिक एक की तर्ज पर निहायत गैर जनवादी, तानाशाह एक सर्वोच्च अफसर. हिटलर की तरह जो पीएम से लेकर चपरासी तक, न्यायपालिका सहित पूरे देश को दण्डित कर सके. संविधान, लोकतंत्र, विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के खिलाफ.
सवाल यह भी है कि देश को कितना समझते हैं अन्ना- सरकार -सत्ताधारी दल, क्यू में लगे भाजपा नीत गठबंधन किसकी सेवा कर रहे हैं? नवउदारवादी आर्थिक नीतियां देश और जनता की दुश्मन हैं, अमेरिकी हितों के लिए बाजार खोले जा रहे हैं, मुक्त व्यापार के रास्ते सुलभ हो रहे हो रहे हैं, देश तेजी से गुलामी की ओर बढ़ रहा है. सरकार तो देश है ही नहीं वह पहले से सामराजी आकाओं की गुलाम है. विकास हो रहा है - देश की एक चौथाई पूंजी सिर्फ 100 लोगों के हाथ में चली गई. बेरोजगार नौजवानों को नौकरी नहीं मिल रही है. कमोडिटी बाजार मंहगाई बढ़ा रही है. खाद-बीज से सबसिडी हटाई जा रही है. किसान मर रहे हैं. अनाज गोदामों में सड़ रहा है - गरीब भूखे मर रहे हैं, मेहनतकश वर्ग पर जुल्म ढाए जा रहे हैं, श्रम कानूनों को ख़त्म करने की बात की जा रही है, पेट्रोल को बाजार के आग के हवाले कर ही दिया, अब डीजल, केरोसीन, रसोई गैस की बारी है. लेकिन अन्ना के पास जादू की छडी है -"जन-लोकपाल". कैसे काम चलेगा.
उन्माद-आक्रोश तो विनाशकारी व्यवस्था के खिलाफ होना चाहिए लेकिन सारा गुस्सा अन्ना अपने पाले में लेकर दिग्भ्रमित करने के लिए किसी भी हद में जाने के लिए तैयार बैठे है. मान लें - चलो बन आपका क़ानून- मिल जायेगी सबको शिक्षा, सबको काम. किसानों को राहत मिल जायेगी? भ्रष्टाचार तो व्यवस्था की दें है, सिस्टम को बदले बिना सब कुछ कैसे ठीक हो जाएगा? समझ में नहीं आता कि देश की समझ टीम अन्ना -अन्ना को है या किसी साजिश के तहत काम कर रहे हैं.
अब अन्ना ने पुरानी बात फिर दोहराई है कि पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को अब देख ही लेंगे- छोड़ेंगे नहीं, क्या करेंगे- कहेंगे कांग्रेस को वोट मत दो. फिर किसे वोट दें भाजपा को? बसपा ने तो अन्ना को खरी खरी सुना दी थी, सपा भी केंद्र में कांग्रेस के साथ है. संघ प्रमुख अन्ना को अपना साथी बताते हैं. क्या पर्याप्त नहीं हैं इशारे.
जो अन्ना के साथ नहीं वह भ्रष्ट है- प्रशांत भूषन, किरण बेदी, केजरीवाल किस दूध के धुले हैं- किराया चोरी, नौकरी का पैसा हजम करने की कोशिश, मायावती के खिलाफ वकील रहते हुए करोड़ों के प्लाट लाखों में लेने वाले चूंकि अन्ना के साथ हैं इसलिए भ्रष्ट नहीं है.
"मैया मैं तो चंद खिलौना लैहों" के "बाल-हठ" में पड़े अन्ना को बस "अपना जन लोकपाल" ही चाहिए. पहली बार जब जंतर मंतर में अनशन किया तो भाजपा उन्हें ड्राफ्ट कमेटी में लेने पर नाराज थी -साथ में धमकी भी दी थी कि संसद में ही मामला आयेगा न - उस वक्त देख लेंगे. दुबारा रामलीला मैदान में भाजपा ने अन्ना आन्दोलन की कमान ही संभल ली, संघ ने तो आदेश ही दे दिया. राजनीतिज्ञों से भरपूर घृणा दिखाने के बाद उन्हीं के दफ्तरों में दर- दर घूमें, सबने स्वागत किया और सहमति-असहमति के बिन्दुओं पर चर्चा भी हुई. लेकिन नतीजा - आप अपनी सोच अपने पास रखें - हमें सिर्फ अपना लोकपाल चाहिए. सबका मालिक एक की तर्ज पर निहायत गैर जनवादी, तानाशाह एक सर्वोच्च अफसर. हिटलर की तरह जो पीएम से लेकर चपरासी तक, न्यायपालिका सहित पूरे देश को दण्डित कर सके. संविधान, लोकतंत्र, विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के खिलाफ.
सवाल यह भी है कि देश को कितना समझते हैं अन्ना- सरकार -सत्ताधारी दल, क्यू में लगे भाजपा नीत गठबंधन किसकी सेवा कर रहे हैं? नवउदारवादी आर्थिक नीतियां देश और जनता की दुश्मन हैं, अमेरिकी हितों के लिए बाजार खोले जा रहे हैं, मुक्त व्यापार के रास्ते सुलभ हो रहे हो रहे हैं, देश तेजी से गुलामी की ओर बढ़ रहा है. सरकार तो देश है ही नहीं वह पहले से सामराजी आकाओं की गुलाम है. विकास हो रहा है - देश की एक चौथाई पूंजी सिर्फ 100 लोगों के हाथ में चली गई. बेरोजगार नौजवानों को नौकरी नहीं मिल रही है. कमोडिटी बाजार मंहगाई बढ़ा रही है. खाद-बीज से सबसिडी हटाई जा रही है. किसान मर रहे हैं. अनाज गोदामों में सड़ रहा है - गरीब भूखे मर रहे हैं, मेहनतकश वर्ग पर जुल्म ढाए जा रहे हैं, श्रम कानूनों को ख़त्म करने की बात की जा रही है, पेट्रोल को बाजार के आग के हवाले कर ही दिया, अब डीजल, केरोसीन, रसोई गैस की बारी है. लेकिन अन्ना के पास जादू की छडी है -"जन-लोकपाल". कैसे काम चलेगा.
उन्माद-आक्रोश तो विनाशकारी व्यवस्था के खिलाफ होना चाहिए लेकिन सारा गुस्सा अन्ना अपने पाले में लेकर दिग्भ्रमित करने के लिए किसी भी हद में जाने के लिए तैयार बैठे है. मान लें - चलो बन आपका क़ानून- मिल जायेगी सबको शिक्षा, सबको काम. किसानों को राहत मिल जायेगी? भ्रष्टाचार तो व्यवस्था की दें है, सिस्टम को बदले बिना सब कुछ कैसे ठीक हो जाएगा? समझ में नहीं आता कि देश की समझ टीम अन्ना -अन्ना को है या किसी साजिश के तहत काम कर रहे हैं.
अब अन्ना ने पुरानी बात फिर दोहराई है कि पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को अब देख ही लेंगे- छोड़ेंगे नहीं, क्या करेंगे- कहेंगे कांग्रेस को वोट मत दो. फिर किसे वोट दें भाजपा को? बसपा ने तो अन्ना को खरी खरी सुना दी थी, सपा भी केंद्र में कांग्रेस के साथ है. संघ प्रमुख अन्ना को अपना साथी बताते हैं. क्या पर्याप्त नहीं हैं इशारे.
जो अन्ना के साथ नहीं वह भ्रष्ट है- प्रशांत भूषन, किरण बेदी, केजरीवाल किस दूध के धुले हैं- किराया चोरी, नौकरी का पैसा हजम करने की कोशिश, मायावती के खिलाफ वकील रहते हुए करोड़ों के प्लाट लाखों में लेने वाले चूंकि अन्ना के साथ हैं इसलिए भ्रष्ट नहीं है.
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