सोमनाथ चटर्जी, पूर्व लोकसभा स्पीकर
सरकार को उम्मीद तो थी कि संसद की स्थायी समिति में विचार-विमर्श के बाद तैयार लोकपाल विधेयक से सब संतुष्ट होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। किसी ने इसे अन्ना आंदोलन से जाहिर हुई जन-आकांक्षाओं की अनदेखी कहा, तो किसी ने यह पूछा कि इसके दायरे में समूची नौकरशाही क्यों नहीं? एक बार फिर लोकपाल पर बहस तेज हो गई है। अन्ना के एकदिवसीय अनशन पर फटाफट तथाकथित महाबहस का आयोजन हो गया। लेफ्ट-राइट सब जंतर-मंतर पर इकट्ठे हो गए। रही-सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी। महाबहस का महालाइव कवरेज हुआ। अब अन्ना के इस तीसरे चक्र के आंदोलन की उपलब्धियों और सियासी नफे-नुकसान पर बहस छिड़ गई है। सवाल उठने लगे हैं कि अन्ना किस पर निशाना साध रहे हैं और किस पर नहीं। इस महाबहस में कौन-कौन-सी पार्टी के किस-किस सदस्य ने हिस्सा लिया। कौन अन्ना के साथ था और कौन नहीं?
यह सवाल पीछे रह गया कि क्या इस बहस के लिए जंतर-मंतर ठीक जगह थी? अगर हां, तो जंतर-मंतर पर ढेरों प्रासंगिक व सही मुद्दों को लेकर आंदोलन होते रहते हैं। उनकी सुध क्यों नहीं ली जाती? अगर यह जगह ठीक नहीं थी, तो फिर कौन-सी ठीक होती? जाहिर है, उचित जगह तो संसद ही है। कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है। सांसद अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र से जीतकर आते हैं। जनता उन्हें अपनी आवाज मानती है। वह जनता के हितों के रखवाले होते हैं। कानून बनाने का हक बस उनका ही है। हां, सुझाव देने का हक सबको है। कोई भी संगठन अपनी राय रख सकता है। नेता चाहें, तो पार्टी के अंदर भी विचार-विमर्श कर सकते हैं। लेकिन संसद के अंदर हंगामा हो, किसी भी विधेयक पर बहस न हो, बेवजह मुद्दे को उछालकर संसदीय कार्यवाही का स्थगन हो और बाहर सड़क पर सांसद बहस करें, तो इसे क्या कहेंगे? सांसदों को अगर लोकपाल पर बहस करनी है, तो वे इस मुद्दे और अपने सुझावों को संसद में उठाएं, न कि जंतर-मंतर पर किसी तथाकथित महाबहस में। यह दुखद है कि सदन की कार्यवाही में सांसदों की दिलचस्पी घटती जा रही है। रविवार को जंतर-मंतर पर सांसद गण जो कह रहे थे, उन्हीं बातों को वे संसद में पुरजोर तरीके से उठा सकते थे। उनकी बातें रिकॉर्ड में भी रहतीं और 50-100 साल बाद भी लोग कहते कि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ठोस कानून की मांग को लेकर विपक्ष ने सरकार को घेरा था। जो कुछ जंतर-मंतर पर हुआ, संसदीय लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।
अन्ना हजारे और उनके समर्थकों ने भी जो तरीका अपनाया, वह लोकतांत्रिक नहीं है। यह ठीक है कि दुनिया भर में आंदोलनों के जरिये ही सोई हुई सरकारों की नींद तोड़ी जाती है। यह भी सच है कि भारत जैसे विशाल देश में भ्रष्टाचार एक महत्वपूर्ण मसला है। हर ओर से यह समूची व्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहा है। परंतु यह तो जरूरी नहीं कि टीम अन्ना की मांगों से सब सहमत हों। अभिव्यक्ति की आजादी सबको है, पर कोई अपनी अभिव्यक्ति को दूसरों पर थोपे, यह तो गलत है। उनकी मांगों को मानने या न मानने का हक संसद को है। यह हक जनता ने ही सांसदों को दिया। अन्ना कहते हैं कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री भी आएं। अगर अन्ना के रास्ते पर सरकार चली और कल को किसी प्रधानमंत्री पर कोई मनगढ़ंत आरोप लगे, फिर क्या होगा? सबसे पहले विपक्ष यह कहेगा कि आरोपी प्रधानमंत्री अपना पद छोड़ें। इसे लेकर काफी हो-हल्ला होगा। संसद में भी और सड़क पर भी। अगर प्रधानमंत्री अपने पद से इस्तीफा देंगे, तो सरकार गिर जाएगी। इसके बाद संसद की सबसे बड़ी पार्टी सरकार बनाने का दावा करेगी। इसे लेकर जोड़-तोड़ शुरू होगी। बेवजह वक्त और पैसे जाया होंगे। यह सब कुछ हमें एक अस्थिर देश की ओर ले जाएगा। जाहिर है, उस वक्त भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था अपने चरम पर होगी। फिर कैसे हम दावे के साथ कह पाएंगे कि हमारा लोकतंत्र दुनिया भर में सबसे सुदृढ़ है। हम और हमारे पड़ोसी देश में क्या फर्क रह जाएगा? आखिर यही मजबूत लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली ही तो है, जिसकी वजह से हमारा वजूद कायम है। जन आंदोलन के क्या मायने हैं, यह मौजूदा पीढ़ी को समझना होगा। इस आंदोलन की परिणति होती है, राजनीतिक पार्टियों द्वारा जनता की मांगों को मानना। लेकिन यहां पर तो सिर्फ भाषण ही भाषण हैं। कैसे लोकपाल 120 करोड़ जनता को भ्रष्टाचार से दूर रखेगा? बस भाषण से! और इस तरह की नारेबाजी से! बार-बार टीवी पर अन्ना की टीम कहती है कि यह आंदोलन 120 करोड़ जनता का है। तो, उनकी मांगों का विरोध कर रही अरुणा रॉय की टीम 120 करोड़ में नहीं आती है? कुछ लोग जो टीम अन्ना का साथ छोड़ गए, क्या वे इस देश के नागरिक नहीं हैं? यहां तक कि क्या सांसदों को भी टीम अन्ना इस देश का नागरिक नहीं मानती? दरअसल, 120 करोड़ जनता यह चाहती है कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो। सांसद व जनता, सबकी यही राय है। उसके लिए सरकार एक ठोस लोकपाल बिल लाए। यही जन आंदोलन है। इस आंदोलन के साथ सब हैं। इसीलिए सरकार झुकी। लेकिन टीम अन्ना यह कहती है कि उसका जन-लोकपाल विधेयक ही कानून बने। यह तो एक तरह से तानाशाही प्रवृत्ति है। कल को दिल्ली के किसी मैदान में पांच लाख की भीड़ जुटे और मांग हो कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाया जाए, तो क्या इसे स्वीकार कर लिया जाएगा? कदापि नहीं। हमारे यहां इसे जन आंदोलन की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। इसी तरह अन्ना ने भ्रष्टाचार का जो मुद्दा उठाया है, वह जन आंदोलन तो है, लेकिन वह जिन मांगों पर अड़े हैं, वह जन आंदोलन का हिस्सा नहीं है। यह बस मीडिया हाइप है। टीआरपी का खेल है। बार-बार हम पश्चिम-पश्चिम करते हैं। लेकिन पश्चिम में तो मीडिया की भूमिका काफी सकारात्मक है। अपने यहां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस आंदोलन को ऐसे पेश किया, मानो देश में लोकतंत्र नहीं, भीड़तंत्र हो। संसद की स्थायी समिति में हर राजनीतिक पार्टी के लोग होते हैं। किसी भी विधेयक पर काफी संशोधन इसी पड़ाव पर किए जाते हैं। संसदीय प्रणाली में इस बात का भी प्रावधान है कि अलग-अलग राय को भी कानून बनने से पहले सुना व शामिल किया जाए। पर कोई संगठन अड़ जाए कि कानून तो उनकी मांगों के मुताबिक ही हो, तो यह लोकतंत्र में मान्य नहीं है।
प्रस्तुति: प्रवीण प्रभाकर
(हिंदुस्तान से साभार)
सरकार को उम्मीद तो थी कि संसद की स्थायी समिति में विचार-विमर्श के बाद तैयार लोकपाल विधेयक से सब संतुष्ट होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। किसी ने इसे अन्ना आंदोलन से जाहिर हुई जन-आकांक्षाओं की अनदेखी कहा, तो किसी ने यह पूछा कि इसके दायरे में समूची नौकरशाही क्यों नहीं? एक बार फिर लोकपाल पर बहस तेज हो गई है। अन्ना के एकदिवसीय अनशन पर फटाफट तथाकथित महाबहस का आयोजन हो गया। लेफ्ट-राइट सब जंतर-मंतर पर इकट्ठे हो गए। रही-सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी। महाबहस का महालाइव कवरेज हुआ। अब अन्ना के इस तीसरे चक्र के आंदोलन की उपलब्धियों और सियासी नफे-नुकसान पर बहस छिड़ गई है। सवाल उठने लगे हैं कि अन्ना किस पर निशाना साध रहे हैं और किस पर नहीं। इस महाबहस में कौन-कौन-सी पार्टी के किस-किस सदस्य ने हिस्सा लिया। कौन अन्ना के साथ था और कौन नहीं?
यह सवाल पीछे रह गया कि क्या इस बहस के लिए जंतर-मंतर ठीक जगह थी? अगर हां, तो जंतर-मंतर पर ढेरों प्रासंगिक व सही मुद्दों को लेकर आंदोलन होते रहते हैं। उनकी सुध क्यों नहीं ली जाती? अगर यह जगह ठीक नहीं थी, तो फिर कौन-सी ठीक होती? जाहिर है, उचित जगह तो संसद ही है। कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है। सांसद अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र से जीतकर आते हैं। जनता उन्हें अपनी आवाज मानती है। वह जनता के हितों के रखवाले होते हैं। कानून बनाने का हक बस उनका ही है। हां, सुझाव देने का हक सबको है। कोई भी संगठन अपनी राय रख सकता है। नेता चाहें, तो पार्टी के अंदर भी विचार-विमर्श कर सकते हैं। लेकिन संसद के अंदर हंगामा हो, किसी भी विधेयक पर बहस न हो, बेवजह मुद्दे को उछालकर संसदीय कार्यवाही का स्थगन हो और बाहर सड़क पर सांसद बहस करें, तो इसे क्या कहेंगे? सांसदों को अगर लोकपाल पर बहस करनी है, तो वे इस मुद्दे और अपने सुझावों को संसद में उठाएं, न कि जंतर-मंतर पर किसी तथाकथित महाबहस में। यह दुखद है कि सदन की कार्यवाही में सांसदों की दिलचस्पी घटती जा रही है। रविवार को जंतर-मंतर पर सांसद गण जो कह रहे थे, उन्हीं बातों को वे संसद में पुरजोर तरीके से उठा सकते थे। उनकी बातें रिकॉर्ड में भी रहतीं और 50-100 साल बाद भी लोग कहते कि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ठोस कानून की मांग को लेकर विपक्ष ने सरकार को घेरा था। जो कुछ जंतर-मंतर पर हुआ, संसदीय लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।
अन्ना हजारे और उनके समर्थकों ने भी जो तरीका अपनाया, वह लोकतांत्रिक नहीं है। यह ठीक है कि दुनिया भर में आंदोलनों के जरिये ही सोई हुई सरकारों की नींद तोड़ी जाती है। यह भी सच है कि भारत जैसे विशाल देश में भ्रष्टाचार एक महत्वपूर्ण मसला है। हर ओर से यह समूची व्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहा है। परंतु यह तो जरूरी नहीं कि टीम अन्ना की मांगों से सब सहमत हों। अभिव्यक्ति की आजादी सबको है, पर कोई अपनी अभिव्यक्ति को दूसरों पर थोपे, यह तो गलत है। उनकी मांगों को मानने या न मानने का हक संसद को है। यह हक जनता ने ही सांसदों को दिया। अन्ना कहते हैं कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री भी आएं। अगर अन्ना के रास्ते पर सरकार चली और कल को किसी प्रधानमंत्री पर कोई मनगढ़ंत आरोप लगे, फिर क्या होगा? सबसे पहले विपक्ष यह कहेगा कि आरोपी प्रधानमंत्री अपना पद छोड़ें। इसे लेकर काफी हो-हल्ला होगा। संसद में भी और सड़क पर भी। अगर प्रधानमंत्री अपने पद से इस्तीफा देंगे, तो सरकार गिर जाएगी। इसके बाद संसद की सबसे बड़ी पार्टी सरकार बनाने का दावा करेगी। इसे लेकर जोड़-तोड़ शुरू होगी। बेवजह वक्त और पैसे जाया होंगे। यह सब कुछ हमें एक अस्थिर देश की ओर ले जाएगा। जाहिर है, उस वक्त भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था अपने चरम पर होगी। फिर कैसे हम दावे के साथ कह पाएंगे कि हमारा लोकतंत्र दुनिया भर में सबसे सुदृढ़ है। हम और हमारे पड़ोसी देश में क्या फर्क रह जाएगा? आखिर यही मजबूत लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली ही तो है, जिसकी वजह से हमारा वजूद कायम है। जन आंदोलन के क्या मायने हैं, यह मौजूदा पीढ़ी को समझना होगा। इस आंदोलन की परिणति होती है, राजनीतिक पार्टियों द्वारा जनता की मांगों को मानना। लेकिन यहां पर तो सिर्फ भाषण ही भाषण हैं। कैसे लोकपाल 120 करोड़ जनता को भ्रष्टाचार से दूर रखेगा? बस भाषण से! और इस तरह की नारेबाजी से! बार-बार टीवी पर अन्ना की टीम कहती है कि यह आंदोलन 120 करोड़ जनता का है। तो, उनकी मांगों का विरोध कर रही अरुणा रॉय की टीम 120 करोड़ में नहीं आती है? कुछ लोग जो टीम अन्ना का साथ छोड़ गए, क्या वे इस देश के नागरिक नहीं हैं? यहां तक कि क्या सांसदों को भी टीम अन्ना इस देश का नागरिक नहीं मानती? दरअसल, 120 करोड़ जनता यह चाहती है कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो। सांसद व जनता, सबकी यही राय है। उसके लिए सरकार एक ठोस लोकपाल बिल लाए। यही जन आंदोलन है। इस आंदोलन के साथ सब हैं। इसीलिए सरकार झुकी। लेकिन टीम अन्ना यह कहती है कि उसका जन-लोकपाल विधेयक ही कानून बने। यह तो एक तरह से तानाशाही प्रवृत्ति है। कल को दिल्ली के किसी मैदान में पांच लाख की भीड़ जुटे और मांग हो कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाया जाए, तो क्या इसे स्वीकार कर लिया जाएगा? कदापि नहीं। हमारे यहां इसे जन आंदोलन की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। इसी तरह अन्ना ने भ्रष्टाचार का जो मुद्दा उठाया है, वह जन आंदोलन तो है, लेकिन वह जिन मांगों पर अड़े हैं, वह जन आंदोलन का हिस्सा नहीं है। यह बस मीडिया हाइप है। टीआरपी का खेल है। बार-बार हम पश्चिम-पश्चिम करते हैं। लेकिन पश्चिम में तो मीडिया की भूमिका काफी सकारात्मक है। अपने यहां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस आंदोलन को ऐसे पेश किया, मानो देश में लोकतंत्र नहीं, भीड़तंत्र हो। संसद की स्थायी समिति में हर राजनीतिक पार्टी के लोग होते हैं। किसी भी विधेयक पर काफी संशोधन इसी पड़ाव पर किए जाते हैं। संसदीय प्रणाली में इस बात का भी प्रावधान है कि अलग-अलग राय को भी कानून बनने से पहले सुना व शामिल किया जाए। पर कोई संगठन अड़ जाए कि कानून तो उनकी मांगों के मुताबिक ही हो, तो यह लोकतंत्र में मान्य नहीं है।
प्रस्तुति: प्रवीण प्रभाकर
(हिंदुस्तान से साभार)
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