अरविंद कुमार सेन
जनसत्ता 22 दिसंबर, 2011: कहावत है कि अंधेरे में रहने वाले लोग जुगनुओं की रोशनी को आसमान के सितारे समझ बैठते हैं। बीस साल पहले बर्लिन दीवार ढहने के साथ ही साम्यवाद का मरसिया पढ़ने वालों ने दुनिया को सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए थे और पूरी दुनिया ने उन्हें सिर-आंखों पर बिठाया था। आज बीस बरस बाद पूंजीवादी सपने ताश के महल की तरह बिखर रहे हैं और तहरीर चौक से लेकर वॉल स्ट्रीट तक विकल्प की मांग सुनाई दे रही है। वैश्विक अर्थव्यवस्था को संतुलित रखने के लिए बनाए गए विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसे संस्थान असहाय नजर आ रहे हैं।
पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था साख के संकट से गुजर रही है। शेयर बाजारों से निवेशकों का भरोसा उठ गया है और कोई बाजार में लौटने को तैयार नहीं है। निवेश कंपनियों की सट््टेबाजी और शेयर बाजार की आग में सपने जला बैठे निवेशक बाजारों से अपना पैसा निकाल रहे हैं। शेयर बाजारों के सूचकांक बुरी तरह लुढ़क गए हैं और बाजारों के कर्ता-धर्ता कह रहे हैं कि निवेशकों का भरोसा बहाल किए बगैर हालात सुधरने वाले नहीं हैं। अर्थव्यवस्था में विश्वास बनाए रखने के लिए पूंजीपतियों के दबाव में सरकारें जनता को सब-कुछ सही होने का दिलासा दे रही हैं, मगर लोग नीति-निर्माताओं के दावों पर यकीन ही नहीं कर रहे हैं। जनता की आवाज सरकारों तक पहुंचाने का दावा करने वाले नागरिक समाज पर भी पूंजीपतियों से मिलीभगत के आरोप लग रहे हैं। काहिरा में तानाशाह को हटा कर सेना ने तख्त पर कब्जा कर लिया। नतीजन सरकार, कारोबारी और नागरिक समाज समेत व्यवस्था के किसी भी अंग पर जनता का भरोसा नहीं है।
पूंजीवाद की बुनियाद ही बाजारों की साख पर टिकी होती है और एक अर्थव्यवस्था के डूबने पर उससे जुड़ी सारी अर्थव्यवस्थाएं हांफने लगती हैं। पूरी दुनिया के शेयर बाजारों में कोहराम मचा हुआ है और सरकारों से कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्थाओं में जनता का भरोसा कायम किया जाए। लेकिन पूंजीपतियों के हाथों छले गए लोग विश्वास करने को तैयार नहीं हैं। ऐसा क्यों है? साख पर उठे इस सवाल का जवाब पूंजीवाद की बनावट में ही छिपा हुआ है। कम निवेश पर अधिक मुनाफा कमाने की चाह में नवउदारवादियों ने 1990 के दशक में लागत में कमी लाने का वैश्विक अभियान छेड़ा था। अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर सबसे पहले इस मुहिम की चपेट में आए। नई तकनीक के सहारे बडेÞ पैमाने पर छंटनी हुई और बाकी बचे कर्मचारियों के वेतन में कमी कर दी गई।
कम वेतन ने लोगों को कर्ज लेने को मजबूर किया और इसी जगह से दुनिया भर के शेयर बाजार कुलांचे भरने लगे। बेहद कम समय में थोड़ी रकम पर मोटा मुनाफा कमाने के फेर में निवेश कंपनियों की फौज खड़ी होने लगी और लोगों का पैसा शेयर बाजारों में झोंका जाना लगा। देखते ही देखते बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अंबार खड़ा हो गया और कई देश केसिनो इकॉनोमी (ज्यादा मुनाफे के लिए भौतिक निवेश के बजाय शेयर बाजार में निवेश करना) में तब्दील हो गए। एक तरफ अधिकतर कर्मचारियों का वेतन लगातार कम हो रहा था वहीं प्रबंधन से जुड़े कुछ लोगों को अनाप-शनाप तनख्वाह देने का चलन जोर पकड़ता गया। ऐसे में समाज में तेजी से विषमता बढ़ी और वक्त बदलने के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सीईओ ही सरकारें चलाने लगे। मुनाफे का बड़ा हिस्सा कंपनी के विकास में लगाने का मंत्र बदल दिया गया और मुनाफे की रकम शेयरधारकों में बांटी जाने लगी। कंपनियों का प्रबंधन जनता, सरकार या कर्मचारियों के प्रति जबावदेह होने के बजाय बस शेयरधारकों के प्रति उत्तरदायी रह गया।
चूंकि पूंजीवाद के नियम के तहत अर्थव्यवस्थाएं पूरी तरह खुली थीं, लिहाजा शेयरधारकों ने प्रबंधकों का वेतन कंपनी के मुनाफे से जोड़ दिया। कंपनियों का मुनाफा बढ़ने के लिए जरूरी था कि लोगों की खपत क्षमता में इजाफा हो। मगर आमदनी में लगातार हो रही कमी के चलते उपभोक्ता बाजार से दूरी बनाए हुए थे। मुनाफा लगातार बढ़ रहा था, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि यह पूंजी दुनिया की एक फीसद आबादी की तिजोरी में सिमटती जा रही थी। इसका मतलब है कि वह रकम बाजार में खपत नहीं बढ़ा सकती। ऐसे में उत्पादों का भंडार बढ़ता गया और कंपनियों को अपनी उत्पादन क्षमता में कटौती करनी पड़ी। मांग के अभाव में निवेश योजनाएं भी रोक दी गर्इं। दरअसल बाजार में मांग पैदा करके कम लागत के सहारे मुनाफा पीटने का तरीका एक दशक पहले ही विफल हो गया था, लेकिन कर्ज की घुट््टी पिलाकर बाजार में खुशहाली का माहौल बनाए रखा गया।
उत्पादों की खपत बढ़ाने के लिए सालाना बोनस के लालच में प्रबंधकों ने खुली छूट का पूरा फायदा उठाया और तमाम कायदे-कानूनों दरकिनार करके कर्ज बांटना शुरू कर दिया। कर्ज चुकाने की क्षमता जाने बगैर लोगों को रकम मुहैया कराई जाने लगी। बाजार में कर्ज बांटने की होड़ मची थी और लोग पैसा लेकर उत्पादों पर टूट पडेÞ। उपभोक्ता सामान और घरों की कीमतें आसमान छूने लगीं, मगर कर्ज की रकम जेब में डाले लोगों की मांग कम नहीं हो रही थी। कर्ज आधारित विकास का यह मॉडल चल निकला और शेयर बाजार हर दिन ऊंचाई के कीर्तिमान बनाने लगे।
जीडीपी के आंकड़ों में विकास हो रहा था, मगर लोगों के पास नौकरियां नहीं थीं। कर्ज बांट कर विकास करने का यह तरीका ऐसा बम था जो चरम पर पहुंच कर फटने का इंतजार कर रहा था। 2007 के आखिर में वह लम्हा आ गया जब निवेश का मक्का समझे जाने वाले लैहमेन ब्रदर्स, स्टेनले मोर्गन और एआईजी जैसी कंपनियों ने हाथ खड़े कर दिए। सारा वित्तीय तंत्र आपस में जुड़ा हुआ था, लिहाजा एक-एक करके सारी संस्थाएं इस भंवर की चपेट में आ गर्इं।
मुंबई की दलाल स्ट्रीट का सेंसेक्स वॉल स्ट्रीट के डाउ जोंस की राह पर चलता है और इसी तर्ज पर शेयर बाजारों की मार्फत यह आग पूरी दुनिया में फैल गई। बाजारों से भीड़ गायब हो गई और कंपनियों के गोदाम अनबिके उत्पादों से अट गए। अर्थव्यवस्था में भरोसा बनाए रखने और बाजार में मांग बढ़ाने के लिए कर्ज आधारित विकास की पुरानी गोली फिर से दागी गई। सरकारों ने सार्वजनिक खर्चों में कमी करके जनता के पैसों से बचाव-पैकेज बांटना शुरू कर दिया। एक बार फिर बाजारों में रौनक लौटी और विकास दर के दुरस्त आंकडेÞ पेश करते हुए सरकारों ने हालात संभालने का दावा किया। बचाव-पैकेजों के जरिए फिर से आ रही यह गति रोजगार-विहीन थी और इसी का नतीजा है कि दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं में चालू खाते का घाटा बढ़ता जा रहा है। यूनान, इटली और स्पेन जैसे कई यूरोपीय देशों में जीडीपी के मुकाबले चालू खाते का घाटा सौ फीसद का आंकड़ा पार कर चुका है। यह पूंजीपतियों की मुनाफे की हवस से पैदा हुए संकट का विफल इलाज था, जिसने दुनिया को दोहरी मंदी के भंवर में धकेल दिया है।
पूरी दुनिया में बांटे जा रहे बचाव-पैकेजों को सही ठहराने के लिए खपत बढ़ाने का तर्क पेश किया जा रहा है। पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इन पैकेजों के बल पर कंपनियां सस्ते उत्पाद मुहैया करवाएंगी और लोग बाजार में खरीदारी के लिए टूट पड़ेंगे। खपत बढ़ने से जीडीपी की रफ्तार बढ़ जाएगी और बेरोजगारी, गरीबी और आर्थिक विषमता जैसी समस्याएं दूर या कम हो जाएंगी। हालांकि खपत में बढ़ोतरी करके मुनाफा कमाने का यह पूंजीवाद गुर अब पुराना पड़ चुका है। खपत बढ़ने पर कंपनियां अपना उत्पादन बढ़ाएंगी, जबकि पर्यावरण विज्ञानियों का कहना है कि दुनिया को महफूज रखने के लिए विकसित देशों की विकास दर शून्य से एक फीसद के बीच रहनी चाहिए। दोहराने की जरूरत नहीं कि धरती लंबे समय तक उत्पादन, खपत और मुनाफे के इस मॉडल को नहीं झेल पाएगी।
असल में पूंजीवाद की नाव ऐसे संकट में फंस गई है जिससे बाहर निकलने के उपाय इसके निर्माताओं ने तैयार ही नहीं किए थे। नवउदारवादी नीतियों के विफल होने के बाद नियंत्रित पूंजीवाद का राग छेड़ा गया और अर्थव्यवस्था के हरेक क्षेत्र का नियमन करने के लिए स्वतंत्र नियामक बनाए गए। 2008 की मंदी ने नियामकों के सहारे पूंजीवाद की गाड़ी चलाने का भ्रम दूर कर दिया है क्योंकि साख निर्धारण करने वाली एजेंसियों समेत सारे नियामक खुद कीचड़ में धंसे हुए थे। भारत के दूरसंचार घोटाले में ट्राई, विमानन क्षेत्र के संकट में नागर विमानन निदेशालय और गैस घोटाले में हाइड्रोकार्बन निदेशालय सवालों के घेरे में हैं। पूंजीवाद की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें पूंजीपतियों के मुनाफे पर कोई रोक नहीं है। यही वजह है कि मिल्टन फ्रीडमैन का जनता को दिया गया ‘आजादी के लिए पूंजीवाद’ (कैपिटलिज्म फॉर फ्रीडम) नारा अब पूंजीपति की स्वतंत्रता (फ्रीडम आॅफ कैपिटलिस्ट) में बदल चुका है।
विलियम शेक्सपियर का कहना था कि इंसानों और सभ्यताओं के जीवन में चरम पर ज्वार आता है और पूंजीवाद की वह घड़ी आ चुकी है। पूंजीवादी जहाज की अमेरिकी पतवार की मरम्मत तीन सालों में भी नहीं हो पाई है और यूरोपीय मल्लाह जहाज से कूदते जा रहे हैं। आयरलैंड, यूनान, स्पेन और इटली जैसे देश एक के बाद एक दिवालिया होते जा रहे हैं, मगर यूरोपीय संघ के पास कोई इलाज नहीं है। मुनाफा, ब्रांड, निवेश, खपत और प्रचार जैसी हर चीज का वैश्वीकरण करने वाले पूंजीवाद का संकट रिस-रिस कर चीन और भारत जैसे देशों में भी पहुंच चुका है। विडंबना यह है कि इस निर्णायक मोड़ परजनता के पास पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। मार्क्सवादी अब तक पुराने विध्वंस के अवशेष ही उठा रहे हैं, वहीं बाकी लोग पूंजीवाद के रुग्ण शरीर की दवा-दारू में लगे हुए हैं। दुनिया आज उसी दोराहे पर खड़ी है जहां आज से बीस बरस पहले थी।
जनसत्ता 22 दिसंबर, 2011: कहावत है कि अंधेरे में रहने वाले लोग जुगनुओं की रोशनी को आसमान के सितारे समझ बैठते हैं। बीस साल पहले बर्लिन दीवार ढहने के साथ ही साम्यवाद का मरसिया पढ़ने वालों ने दुनिया को सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए थे और पूरी दुनिया ने उन्हें सिर-आंखों पर बिठाया था। आज बीस बरस बाद पूंजीवादी सपने ताश के महल की तरह बिखर रहे हैं और तहरीर चौक से लेकर वॉल स्ट्रीट तक विकल्प की मांग सुनाई दे रही है। वैश्विक अर्थव्यवस्था को संतुलित रखने के लिए बनाए गए विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसे संस्थान असहाय नजर आ रहे हैं।
पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था साख के संकट से गुजर रही है। शेयर बाजारों से निवेशकों का भरोसा उठ गया है और कोई बाजार में लौटने को तैयार नहीं है। निवेश कंपनियों की सट््टेबाजी और शेयर बाजार की आग में सपने जला बैठे निवेशक बाजारों से अपना पैसा निकाल रहे हैं। शेयर बाजारों के सूचकांक बुरी तरह लुढ़क गए हैं और बाजारों के कर्ता-धर्ता कह रहे हैं कि निवेशकों का भरोसा बहाल किए बगैर हालात सुधरने वाले नहीं हैं। अर्थव्यवस्था में विश्वास बनाए रखने के लिए पूंजीपतियों के दबाव में सरकारें जनता को सब-कुछ सही होने का दिलासा दे रही हैं, मगर लोग नीति-निर्माताओं के दावों पर यकीन ही नहीं कर रहे हैं। जनता की आवाज सरकारों तक पहुंचाने का दावा करने वाले नागरिक समाज पर भी पूंजीपतियों से मिलीभगत के आरोप लग रहे हैं। काहिरा में तानाशाह को हटा कर सेना ने तख्त पर कब्जा कर लिया। नतीजन सरकार, कारोबारी और नागरिक समाज समेत व्यवस्था के किसी भी अंग पर जनता का भरोसा नहीं है।
पूंजीवाद की बुनियाद ही बाजारों की साख पर टिकी होती है और एक अर्थव्यवस्था के डूबने पर उससे जुड़ी सारी अर्थव्यवस्थाएं हांफने लगती हैं। पूरी दुनिया के शेयर बाजारों में कोहराम मचा हुआ है और सरकारों से कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्थाओं में जनता का भरोसा कायम किया जाए। लेकिन पूंजीपतियों के हाथों छले गए लोग विश्वास करने को तैयार नहीं हैं। ऐसा क्यों है? साख पर उठे इस सवाल का जवाब पूंजीवाद की बनावट में ही छिपा हुआ है। कम निवेश पर अधिक मुनाफा कमाने की चाह में नवउदारवादियों ने 1990 के दशक में लागत में कमी लाने का वैश्विक अभियान छेड़ा था। अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर सबसे पहले इस मुहिम की चपेट में आए। नई तकनीक के सहारे बडेÞ पैमाने पर छंटनी हुई और बाकी बचे कर्मचारियों के वेतन में कमी कर दी गई।
कम वेतन ने लोगों को कर्ज लेने को मजबूर किया और इसी जगह से दुनिया भर के शेयर बाजार कुलांचे भरने लगे। बेहद कम समय में थोड़ी रकम पर मोटा मुनाफा कमाने के फेर में निवेश कंपनियों की फौज खड़ी होने लगी और लोगों का पैसा शेयर बाजारों में झोंका जाना लगा। देखते ही देखते बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अंबार खड़ा हो गया और कई देश केसिनो इकॉनोमी (ज्यादा मुनाफे के लिए भौतिक निवेश के बजाय शेयर बाजार में निवेश करना) में तब्दील हो गए। एक तरफ अधिकतर कर्मचारियों का वेतन लगातार कम हो रहा था वहीं प्रबंधन से जुड़े कुछ लोगों को अनाप-शनाप तनख्वाह देने का चलन जोर पकड़ता गया। ऐसे में समाज में तेजी से विषमता बढ़ी और वक्त बदलने के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सीईओ ही सरकारें चलाने लगे। मुनाफे का बड़ा हिस्सा कंपनी के विकास में लगाने का मंत्र बदल दिया गया और मुनाफे की रकम शेयरधारकों में बांटी जाने लगी। कंपनियों का प्रबंधन जनता, सरकार या कर्मचारियों के प्रति जबावदेह होने के बजाय बस शेयरधारकों के प्रति उत्तरदायी रह गया।
चूंकि पूंजीवाद के नियम के तहत अर्थव्यवस्थाएं पूरी तरह खुली थीं, लिहाजा शेयरधारकों ने प्रबंधकों का वेतन कंपनी के मुनाफे से जोड़ दिया। कंपनियों का मुनाफा बढ़ने के लिए जरूरी था कि लोगों की खपत क्षमता में इजाफा हो। मगर आमदनी में लगातार हो रही कमी के चलते उपभोक्ता बाजार से दूरी बनाए हुए थे। मुनाफा लगातार बढ़ रहा था, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि यह पूंजी दुनिया की एक फीसद आबादी की तिजोरी में सिमटती जा रही थी। इसका मतलब है कि वह रकम बाजार में खपत नहीं बढ़ा सकती। ऐसे में उत्पादों का भंडार बढ़ता गया और कंपनियों को अपनी उत्पादन क्षमता में कटौती करनी पड़ी। मांग के अभाव में निवेश योजनाएं भी रोक दी गर्इं। दरअसल बाजार में मांग पैदा करके कम लागत के सहारे मुनाफा पीटने का तरीका एक दशक पहले ही विफल हो गया था, लेकिन कर्ज की घुट््टी पिलाकर बाजार में खुशहाली का माहौल बनाए रखा गया।
उत्पादों की खपत बढ़ाने के लिए सालाना बोनस के लालच में प्रबंधकों ने खुली छूट का पूरा फायदा उठाया और तमाम कायदे-कानूनों दरकिनार करके कर्ज बांटना शुरू कर दिया। कर्ज चुकाने की क्षमता जाने बगैर लोगों को रकम मुहैया कराई जाने लगी। बाजार में कर्ज बांटने की होड़ मची थी और लोग पैसा लेकर उत्पादों पर टूट पडेÞ। उपभोक्ता सामान और घरों की कीमतें आसमान छूने लगीं, मगर कर्ज की रकम जेब में डाले लोगों की मांग कम नहीं हो रही थी। कर्ज आधारित विकास का यह मॉडल चल निकला और शेयर बाजार हर दिन ऊंचाई के कीर्तिमान बनाने लगे।
जीडीपी के आंकड़ों में विकास हो रहा था, मगर लोगों के पास नौकरियां नहीं थीं। कर्ज बांट कर विकास करने का यह तरीका ऐसा बम था जो चरम पर पहुंच कर फटने का इंतजार कर रहा था। 2007 के आखिर में वह लम्हा आ गया जब निवेश का मक्का समझे जाने वाले लैहमेन ब्रदर्स, स्टेनले मोर्गन और एआईजी जैसी कंपनियों ने हाथ खड़े कर दिए। सारा वित्तीय तंत्र आपस में जुड़ा हुआ था, लिहाजा एक-एक करके सारी संस्थाएं इस भंवर की चपेट में आ गर्इं।
मुंबई की दलाल स्ट्रीट का सेंसेक्स वॉल स्ट्रीट के डाउ जोंस की राह पर चलता है और इसी तर्ज पर शेयर बाजारों की मार्फत यह आग पूरी दुनिया में फैल गई। बाजारों से भीड़ गायब हो गई और कंपनियों के गोदाम अनबिके उत्पादों से अट गए। अर्थव्यवस्था में भरोसा बनाए रखने और बाजार में मांग बढ़ाने के लिए कर्ज आधारित विकास की पुरानी गोली फिर से दागी गई। सरकारों ने सार्वजनिक खर्चों में कमी करके जनता के पैसों से बचाव-पैकेज बांटना शुरू कर दिया। एक बार फिर बाजारों में रौनक लौटी और विकास दर के दुरस्त आंकडेÞ पेश करते हुए सरकारों ने हालात संभालने का दावा किया। बचाव-पैकेजों के जरिए फिर से आ रही यह गति रोजगार-विहीन थी और इसी का नतीजा है कि दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं में चालू खाते का घाटा बढ़ता जा रहा है। यूनान, इटली और स्पेन जैसे कई यूरोपीय देशों में जीडीपी के मुकाबले चालू खाते का घाटा सौ फीसद का आंकड़ा पार कर चुका है। यह पूंजीपतियों की मुनाफे की हवस से पैदा हुए संकट का विफल इलाज था, जिसने दुनिया को दोहरी मंदी के भंवर में धकेल दिया है।
पूरी दुनिया में बांटे जा रहे बचाव-पैकेजों को सही ठहराने के लिए खपत बढ़ाने का तर्क पेश किया जा रहा है। पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इन पैकेजों के बल पर कंपनियां सस्ते उत्पाद मुहैया करवाएंगी और लोग बाजार में खरीदारी के लिए टूट पड़ेंगे। खपत बढ़ने से जीडीपी की रफ्तार बढ़ जाएगी और बेरोजगारी, गरीबी और आर्थिक विषमता जैसी समस्याएं दूर या कम हो जाएंगी। हालांकि खपत में बढ़ोतरी करके मुनाफा कमाने का यह पूंजीवाद गुर अब पुराना पड़ चुका है। खपत बढ़ने पर कंपनियां अपना उत्पादन बढ़ाएंगी, जबकि पर्यावरण विज्ञानियों का कहना है कि दुनिया को महफूज रखने के लिए विकसित देशों की विकास दर शून्य से एक फीसद के बीच रहनी चाहिए। दोहराने की जरूरत नहीं कि धरती लंबे समय तक उत्पादन, खपत और मुनाफे के इस मॉडल को नहीं झेल पाएगी।
असल में पूंजीवाद की नाव ऐसे संकट में फंस गई है जिससे बाहर निकलने के उपाय इसके निर्माताओं ने तैयार ही नहीं किए थे। नवउदारवादी नीतियों के विफल होने के बाद नियंत्रित पूंजीवाद का राग छेड़ा गया और अर्थव्यवस्था के हरेक क्षेत्र का नियमन करने के लिए स्वतंत्र नियामक बनाए गए। 2008 की मंदी ने नियामकों के सहारे पूंजीवाद की गाड़ी चलाने का भ्रम दूर कर दिया है क्योंकि साख निर्धारण करने वाली एजेंसियों समेत सारे नियामक खुद कीचड़ में धंसे हुए थे। भारत के दूरसंचार घोटाले में ट्राई, विमानन क्षेत्र के संकट में नागर विमानन निदेशालय और गैस घोटाले में हाइड्रोकार्बन निदेशालय सवालों के घेरे में हैं। पूंजीवाद की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें पूंजीपतियों के मुनाफे पर कोई रोक नहीं है। यही वजह है कि मिल्टन फ्रीडमैन का जनता को दिया गया ‘आजादी के लिए पूंजीवाद’ (कैपिटलिज्म फॉर फ्रीडम) नारा अब पूंजीपति की स्वतंत्रता (फ्रीडम आॅफ कैपिटलिस्ट) में बदल चुका है।
विलियम शेक्सपियर का कहना था कि इंसानों और सभ्यताओं के जीवन में चरम पर ज्वार आता है और पूंजीवाद की वह घड़ी आ चुकी है। पूंजीवादी जहाज की अमेरिकी पतवार की मरम्मत तीन सालों में भी नहीं हो पाई है और यूरोपीय मल्लाह जहाज से कूदते जा रहे हैं। आयरलैंड, यूनान, स्पेन और इटली जैसे देश एक के बाद एक दिवालिया होते जा रहे हैं, मगर यूरोपीय संघ के पास कोई इलाज नहीं है। मुनाफा, ब्रांड, निवेश, खपत और प्रचार जैसी हर चीज का वैश्वीकरण करने वाले पूंजीवाद का संकट रिस-रिस कर चीन और भारत जैसे देशों में भी पहुंच चुका है। विडंबना यह है कि इस निर्णायक मोड़ परजनता के पास पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। मार्क्सवादी अब तक पुराने विध्वंस के अवशेष ही उठा रहे हैं, वहीं बाकी लोग पूंजीवाद के रुग्ण शरीर की दवा-दारू में लगे हुए हैं। दुनिया आज उसी दोराहे पर खड़ी है जहां आज से बीस बरस पहले थी।
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