रविवार, 13 मार्च 2016

जीवन रक्षक दवाएं सर्व-सुलभ बने

ठंड, धूप, हवा, भूख, बीमारियां, भेदभाव नहीं करती. इनके लिए अमीर-गरीब मायने नहीं रखता. जिस सामाजिक ढांचे में हम रहते हैं, वहां विषमता की खाई इतनी गहरी है कि बीमारियों से मरने वालों की तुलना में उपचार न करा सकने वालों की मौत कई हजार गुनी अधिक है. निश्चित रूप से रोगग्रस्त होने के लिए कारण होते हैं, लेकिन वे सारे कारण हमारी व्यवस्था के अंदर ही देखे जा सकते हैं. गंभीर बीमारियों के लिए तो कारणों की तलाश अभी भी चिकित्सा विज्ञान के विद्वतजन अभी भी कर रहे हैं. देश में अब विश्वस्तरीय चिकित्सा सुविधाएं और दवाएं हर प्रमुख श्हरों में उपलब्ध हैं, लेकिन उसका लाभ सिर्फ सम्पन्न भारत के लोगों को मिल रहा है. कई दशकों से सरकारों ने जन-औषधि सुलभ कराने की योजनाएं बनाई है, जिसका क्रियान्वयन नीति और नीयत के अभाव में सहीं ढंग से नहीं हो सका. 
चीन के बाद भारत विश्व का सबसे बड़ा बाजार है और अन्य उपभोक्ता सामग्रियों की तरह दवाईयों का कारोबार भी अरबों रूपए का है. दवा व्यवसाय में न्यूनतम मुनाफा सौ फीसदी से शुरू होकर अनंत की सीमा को छूता है. मूल-औषधि यानि जेनेरिक दवाइयों के मामले में भारत आज तक जरूरी आधारभूत संरचना और प्रयोगशालाओं का विकास-विस्तार नहीं हो सका है, फलस्वरूप विदेशी कंपनियों पर हमेशा से निर्भरता रही है. दवा कम्पनियां इस बात का लाभ लेते हुए अतिशय मुनाफा बटोरती हैं. ब्रांडेड दवाओं और जेनेरिक दवाओं के बीच मूल्य का अंतर हमेशा से सौ प्रतिशत से ज्यादा ही रहा है, फिर भी आक्रामक मार्केटिंग ने मरीजों ने सबसे महंगी दवाइयां लेने के लिए विवश किया. 
जन-स्वास्थ्य आंदोलन जैसी मुहिम, जो पुणे से बिलासपुर के गनियारी जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में फैली हैं, सस्ती चिकित्सा का मार्ग दशकों पहले से दिखा दिया है. अ.भा. आयुर्विज्ञान संस्थान में हिंदुस्तान लेटेक्स लिमिटेड ने कैंसर की दवाओं को 95 फीसदी तक सस्ती दर पर उपलब्ध कराकर फिर नई राह दिखाई है. केंद्र सरकार को एम्स के डायरेक्टर ने प्रस्ताव भेजकर रायपुर तक 60 से 90 फीसदी सस्ती दवाओं का आउटलेट खोलने की योजना बनाई है, इसकी जितनी भी सराहना की जाए कम है. यद्यपि जेनेरिक दवाओं का प्रचलन बहुत पुराना है लेकिन इसके बारे में दुष्प्रचार भी बहुत किया जाता है. यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जेनेरिक के नाम पर अमानक दवाओं ने भी अपना वर्चस्व बनाया है, जिसके कारण पेंडारी नसबंदी कांड में महिलाओं की मौतों समेत मोतियाबिंद आपरेशन के बाद आंखों की रोशनी जाने जैसे आंख-फोड़वा कांड भी हो चुके हैं. आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि मानक दवाओं को अमृत फार्मेंसी की तर्ज पर सर्व-सुलभ बनाया जाए ताकि कैंसर, हृदय रोग, किडनी रोग, फेफेड़े, गॉल ब्लेडर सहित अन्य बीमारियों के उपचार की लागत 8 से 10 लाख रूपए के स्थान पर डेढ़ लाख तक की जा सके. साथ ही साथ अमानक दवाओं के कारोबार को खत्म करने के लिए सभी कड़े कदम उठाए जाएं ताकि उपचार के नाम पर मुनाफाखोरों की हत्यारी मुहिम पर रोक लगाई जा सके. 

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