मंगलवार, 1 मार्च 2016

क्यों रहे देश बंधक?

अभिव्यक्ति की आजादी है, आंदोलनों के जरिए बात रखने की इजाजत भी है लेकिन हिंसा और देश की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने सहित जनजीवन को ठप करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? हाल के घटनाक्रमों को देखें तो राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जर, गुजरात में पाटीदार और हरियाणा में जाट आंदोलन ने सार्वजनिक, निजी सम्पत्ति को क्षति पहुंचाने के साथ उन सबका जीना मुहाल कर दिया जो इन मामलों से सर्वथा असम्बद्ध थे. सुप्रीम कोर्ट ने पाटीदार आन्दोलन की सुनवाई करते समय विनाशलीला पर सख्ती दिखाई और साफ शब्दो में कहा कि सार्वजनिक सम्पत्ति को हुए नुकसान पर सभी के लिए दिशा-निर्देश तय होने चाहिए. उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी भी बेहद महत्वपूर्ण है कि आन्दोलनकारी देश को बंधक नहीं बना सकते और नुकसान के लिए राजनीतिक दलों को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. 
दुर्भाग्य है कि आजादी के इतने साल बाद भी देश को नुकसान पहुंचाने वालों की निशानदेही और जवाबदेही तय नहीं की जा सकी है. ज्यादातर आंदोलन राजनीतिक उद्देश्यों के लिए होते हैं, और गैर-राजनीतिक मंचों का भी उपयोग होता है. आन्दोलन की दशा-दिशा कितनी ही हिंसक और अराजक क्यों न कर दी जाए, राजनीतिक दल अपना दामन बचाने में कामयाब होते दिखते हैं. गुजरात में पटेल समुदाय द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर जो कुछ किया गया, उसकी पुनरावृत्ति हरियाणा में हुई. जाट आन्दोलन के खत्म होने की खबरों के साथ अरबों रूपये की सम्पत्ति के नुकसान का जख्म है तो देश के हर कोने के लोग इस आन्दोलन से प्रभावित हुए. सडक़ मार्ग ही नहीं, समूचा रेल तंत्र ठप हो गया था. आखिर कोई आन्दोलन क्यों इतना हिंसक और परपीडक़ हो जाता है? 
लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दल आखिर क्यों निष्प्रभावी हो जाते हैं या पिछले दरवाजे से देश को नुकसान पहुंचाने के लिए आमादा होते हैं. सरकार का तंत्र इतना विवश क्यों हो जाता है कि उपद्रवियों को रोक नहीं पाता या हिंसा-आगजनी की पूरी छूट देता है? इन प्रश्नों को संजीदगी से संबोधित नहीं किया गया तो देश में जनतांत्रिक मूल्य और नागरिक अधिकार भी सुरक्षित नहीं रहेंगे. आन्दोलनों की परम्परा देश में हमेशा से रही है और आजादी की जंग के दौरान महात्मा गांधी ने सत्याग्रह के जरिए अंग्रेजों की नाक दम कर दिया था. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन ने देश की चेतना ही बदल दी थी. हाल ही में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आन्दोलन ने देश के गांव-गांव तक अपनी व्याप्ति बनाई लेकिन हिंसा जैसी घटनाओं से दूर रही. उच्चतम न्यायालय की चिंताओं के साथ देश का हर लोकतंत्रवादी मानस शामिल है जो अपनी बात मजबूती से रखता है, लेकिन विध्वंसक प्रवृत्तियों से दूरी रखते हुए अपने देश की बेहतरी की भी चिंता करता है. केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को अपनी नाकामी छिपाने के लिए अनुचित रास्तों से तौबा करने की जरूरत है, वहीं अन्य दलों को भी हिंसक आन्दोलनों से दूरी बनाने और राजनीतिक स्तर पर समस्याओं के समाधान ढूंढने की आवश्यकता है. देश के लोकतंत्र में इतनी ताकत है कि विध्वंस के बगैर भी अपनी बातें रखी और मनवाई जा सकती हैं. 

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