मंगलवार, 1 मार्च 2016

सियाचीन पर युद्धोन्माद और शहादतें

दुनिया का सबसे ऊंचा और खर्चीला रणक्षेत्र सियाचीन भारत-पाकिस्तान के बीच गहरे अविश्वास और तनाव की जगह है. सवाल यह है कि दोनों देशों की सरकारें अपने परंपरागत दृष्टिकोण से हटकर अमन की एक नई उम्मीद जगाने के प्रति वास्तव में गंभीर होंगी? एक हफ्ते पहले हिमस्खलन से दस भारतीय सैनिकों के दब जाने से मौतों और लांस नायक हनुमनथप्पा को न बचाए जा सकने से फिर से एेसे सवालों पर विचार करना ही होगा. पहले भी पाकिस्तान के 126 सैनिक और 11 नागरिक यहीं 80 फीट गहरे बर्फ में दफन हो गए थे. सियाचीन में भारत-पाकिस्तान के कई हजार सैनिक जान गवां चुके हैं, जिनमें से अधिकतर की मौत कठोर मौसम से हुई. यहां तापमान शून्य से 50 डिग्री नीचे रहने के बावजूद सेनाओं के निगरानी केंद्र हैं. सिर्फ भारत अपनी सेनाओं को यहां बनाए रखने के लिए सालाना दो हजार करोड़ रूपए खर्च करता है. पाकिस्तान को यही खर्च प्रतिदिन पांच करोड़ रूपए पड़ता है. प्रेक्षकों की राय में बगैर रणनीतिक, खनिज, सामरिक महत्व के स्थान पर इतना भारी खर्च बुद्धिमानी के विरूद्ध है. 
2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राय जाहिर की थी कि इस बीहड़ युद्धक्षेत्र को शान्ति की घाटी में तब्दील करने का प्रयास करें. ठीक उसी वक्त पाकिस्तानी जनरल ने भी सियाचीन के असैन्यीकरण के पक्ष में अपनी राय दी थी. दुर्भाग्य से कुछ बातचीत के अलावा इस दिशा में ठोस पहलकदमी आज पर्यन्त प्रतीक्षित है. वर्षों से होती त्रासदियों से जनहानि, बहुमूल्य सैनिकों की निरर्थक कुर्बानी सहित असीमित खर्च के मुकाबले फिर सियाचीन मुद्दे पर बहस की जरूरत है. यह सन्दर्भ और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब दुनिया के सारे देश जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी को बचाने के लिए एकजुट हो रहे हैं, वहीं भारत-पाकिस्तान की फौजों की फायरिंग से सियाचीन के ग्लेशियर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. सारी समस्या की जड़ में गहरे तक पसरा अविश्वास हर दृष्टि से हानि पहुंचा रहा है. पाकिस्तानी सेना द्वारा सालटोरो रिज हथियाने की योजना, आपरेशन मेघदूत से परस्पर विद्वेष की खाई चौड़ी ही हुई है. 
असल सवाल यह है कि दोनों देशों के विवादास्पद मुद्दों को हल करने का काम सेनाओं का नहीं है, बल्कि जनता द्वारा चुनी गई निर्वाचित सरकारों का है जो परस्पर बातचीत और बेहतर रिश्ते बनाने से ही संभव होगा. जब दोनों देशों की जनता के पक्ष में बहुत से काम जब लंबित हों और आतंकवाद सहित आंतरिक सुरक्षा का प्रश्न मुंहबाए खड़ा हो, उस वक्त सत्ता प्रतिष्ठानों को समझदारी से काम लेने की जरूरत है. कमजोर होता, टूटता पाकिस्तान भी भारत के हित में इसलिए नहीं है क्योंकि वहां के विघटनकारी तत्व अंतत: भारत को ही नुकसान पहुंचाते हैं. आज अति-आधुनिक तकनीक के दौर में सियाचीन जैसी जगहों पर सैनिकों की तैनाती के विकल्प भी ढूंढने की जरूरत है ताकि बेशकीमती जानें सिर्फ वहां का निर्मम वातावरण न लेता रहे. भारत और पाकिस्तान के संबंधों को सामान्य और आगे की दिशा में ले जाने के लिए जरूरत है दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की. कम से कम सियाचीन के मामले में तो कुछ हो ही सकता है.

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