मंगलवार, 1 मार्च 2016

स्मृति-माया विवाद : कड़वाहट का अतिरेक

संसद में राजनीतिक दलों के बीच कटुता बढ़ती जा रही है, नेता एक दूसरे को हैसियत बता है. कभी यहीं परस्पर विरोधी दल मुस्कुराकर एक-दूसरे का सम्मान करते हुए तर्कों के आधार पर बहस और खंडन-मंडन करते थे. संसद में कड़वाहट का अतिरेक समाज के निचले हिस्से तक नफरत फैला रहा है. दलीलों में नौटंकी का अभी तक स्थान नहीं था. बजट सत्र शुरू होते ही शोध छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी और देशद्रोह के अपराध में गिरफ्तार जेएनयू छात्र कन्हैया कुमार पर संसद में हंगामा होना तय था, चर्चा की अनुमति समझदारी भरा निर्णय था. इसकी सार्थकता तब होती जब चर्चा संकीर्ण दायरे से बाहर निकल पाती. बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने छात्र रोहित की मौत की जांच समिति में दलित सदस्य होने के मामले को जर्बदस्त तरीके से तूल दिया तो मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने अपने एजेंडे से न हटने की ठान ली. दोनों के बीच अप्रिय टकराव ने सबका ध्यान खींचा, लेकिन चर्चा की व्यापक दृष्टि पर कुठाराघात ही हुआ. पहचान की राजनीति करने वाली मायावती राजनीतिके मैदान पर अपेक्षाकृत व्यापक हुई हैं, लेकिन विमर्श की दृष्टि से तंग गलियों में विचरण कर रही हैं. 
केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ एनडीए सरकार के साथ यह दुर्भाग्य जुड़ा है कि प्रमुख घटक दल भारतीय जनता पार्टी मौजूदा संविधान से इतर विषयों को स्थापित करने की कोशिश कर रही है. संसद के पहले दिन का कामकाज जांच कमेटी में दलित सदस्य होने या न होने पर खर्च हो गया और केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के अतिरंजित और तूफानी भाषण का दिन बन गया. आखिर परिणाम क्या निकला? इसका उत्तर तो संसद में निश्चित रूप से मिलेगा, भले ही उसका स्वरूप चाहे जैसा भी हो, लेकिन रोहित वेमुला प्रकरण पर जिम्मेदार मंत्री के बयान के प्रतिकूल तथ्य सामने आने लगे और मायावती वादे के मुताबिक सिर मांगने लगी तो विपक्ष संसद को गुमराह करने की बात पर विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रही है.
 मंत्री को शाबाशी देने में प्रधानमंत्री ने भी देर नहीं लगाई और स्मृति ईरानी के भाषण को सत्यमेव जयते करार दिया. यह सब अगर हड़बड़ी में की जा रही हो या सब कुछ जानबूझकर रणनीति के तहत, दोनों ही स्थितियां संसद और संविधान के लिए बेहद चिंता का विषय है. स्मृति ईरानी ने जेएनयू के मुद्दे को जिस तरह संसद में संबोधित किया, वह आस्था का एकपक्षीय आग्रह सकते में डालने वाला था. भारत में अंगीकृत संविधान देश की बहुलतावादी संस्कृति का संरक्षक है और निजी आस्थाओं को मानने की स्वतंत्रता देता है. दुर्गापूजक या महिषासुर वंदक होना संसद में चर्चा का विषय हो ही नहीं सकता. परंपराओं और अतिविचारों के साथ समाज सहजता से जीता है. यहां अज्ञानी होने की दलील नहीं चल सकती, लेकिन संविधानेत्तर विषयों को स्थापित करने का दुराग्रह करने का मामला साफ है. संविधान और संसद की व्यवस्था और सर्वोच्चता को कायम रखने के लिए बेहद जरूरी है कि अपने एजेंडे लेकर न आएं और संवैधानिक दायरे में बहस व चर्चाएं हों. 

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