मेरे दिमाग में जो दो प्रश्न हैं। अगर आपके पास इनके जवाब हों, तो जरूर बताएं। पहला, कितने लोग भारतीय संविधान पर विश्वास नहीं रखते हैं, यानी वे लोग जिनका भरोसा संसदीय प्रणाली से उठ गया है? और दूसरा, अगर सचमुच उनका भरोसा संसदीय लोकतंत्र से पूरी तरह से उठ गया है, तो उनके पास इसका क्या विकल्प है? मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आप खुद को निरुत्तर पाएंगे। चंद लोग, जो तथाकथित सिविल सोसायटी हैं, टीम हैं, अपनी अलग राय बना रहे हैं, उन्हें भी अपनी बकबक में इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलेंगे। यही वह सही वक्त है, जब हम भीड़तंत्र और लोकतंत्र के अंतर को समझों और सिविल सोसायटी व जन प्रतिनिधि के अर्थ को स्पष्ट करें। यह भी विनती है कि मीडिया अपने कर्तव्यों को रेखांकित करे और अपनी लोकप्रियता की हद को जाने।
इसमें कोई दोराय नहीं कि भारत में संसद ही सवरेपरि है। यह भारतीय समाज का आईना है। यह जनता का सदन है। यह कानून-सम्मत है। देश का विकास, जरूरी मसलों पर बहस और तंत्र की बहाली, सब कुछ लोकसभा और राज्यसभा के दायरे में ही संभव है। लेकिन गुजरे साल में इस संस्था को काफी आहत किया गया है। भले ही ये चंद लोगों की करतूत थी, पर मीडिया की वजह से उन्हें बेवजह लोकप्रियता हासिल हुई। ऐसा कहा गया, जैसे हमारे जन प्रतिनिधि संसद में जाने व बैठने के लायक ही नहीं हैं। मानो संसद के अंदर बहस की जगह कुरसियां ही चलती हैं। ऐसा एक बार नहीं कहा गया। कुछ मुट्ठी भर लोगों ने तो लगातार संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाई। हालांकि उन शब्दों को मैं यहां नहीं दोहराना चाहूंगा, पर ऐसा जरूर लग रहा था कि सांसद अपनी जिम्मेदारी निभाने के अलावा तमाम जन विरोधी कामों में लिप्त रहते हैं, जबकि हकीकत यह है कि देश में कानून बनाने की जिम्मेदारी सांसदों की ही है। पिछले कुछ वर्षों की तमाम रिपोर्टों का अध्ययन करें, तो पता चलता है कि संसदीय कार्यवाही पहले से ज्यादा चली है, बेदाग जन प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ रही है और लोकसभा व राज्यसभा में कई अहम और बड़े मसलों को बैठकर सुलझाया गया है। यह सही है कि संसद में कुछ दागी सदस्य चुनकर आ जाते हैं। मैं दस बार सांसद रह चुका हूं, मुङो इस बात का अहसास है कि संसद में पहुंचे अधिकतर जन प्रतिनिधि सजग व पढ़े-लिखे होते हैं। किसी भी विधेयक को पारित करने से पहले काफी सोच-विचार किया जाता है। हम यह कैसे भूल जाते हैं कि जब लोकपाल के मसले पर संसद का सत्र बढ़ाया गया था, तो आखिरी दिन लगभग दो सौ संशोधन पटल पर रखे गए। क्या यह बिना पढ़े-लिखे मुमकिन है? पांच लोग मिलकर जब भ्रष्टाचार दूर करने के तरीके बताते हैं, तो उन सुझावों को मीडिया सही मानता है, जबकि सैकड़ों सांसदों के सुझावों को भ्रामक बताया जाता है। क्या यह उचित है? पिछले मंगलवार को जब सांसदों ने तथाकथित सिविल सोसायटी के आपत्तिजनक बयान पर लोकसभा में निंदा प्रस्ताव पेश किया, तो इसी से साफ हो गया कि हमारा संसदीय लोकतंत्र मजबूत है। अरसे बाद पहली बार हमारे जन प्रतिनिधि बिखरे हुए नहीं दिखे, बल्कि उन्होंने हमारी संसदीय मर्यादा को पूरी निष्ठा के साथ निभाया। ठीक है कि किसी भी संस्था में कुछ गड़बड़ियां आ सकती हैं, लेकिन एक संप्रभु संस्था को कमजोर करने की कोशिश सही नहीं है। हमारा तंत्र सीरिया व लीबिया की तरह नहीं, जहां सदियों से जनता के अरमान कुचले जाते रहे हों। न ही यहां पाकिस्तान जैसी व्यवस्था है, जहां कोई भी गुबार उठकर सीधे जम्हूरियत को डिगा देता है। हम किसी व्यक्ति विशेष पर लगे आरोपों को सहन कर लेते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि संसदीय व्यवस्था को ही निशाना बनाया जाए। बार-बार मैं सिविल सोसायटी के साथ तथाकथित शब्द को जोड़ रहा हूं। दरअसल, इसे समझने की जरूरत है। इसके सदस्य खुद को जनता के नुमाइंदे बताते रहे हैं। अगर वे जनता के नुमाइंदे हैं, तो सांसद, विधायक और तमाम चुने हुए लोग क्या हैं? माइक हाथ में आते ही वे खुद को ‘पीपुल ऑफ इंडिया’ बताने लगते हैं। उनके शब्द ऐसे होते हैं, मानो वे ‘फाइट फॉर करप्शन’ के चैंपियन हैं। क्या जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में भीड़ जुटा लेने का मतलब यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ वही लड़ रहे हैं? हम यह कैसे भूल जाते हैं कि इसी संसद के अंदर मेरी अध्यक्षता में ‘कैश फॉर क्वेश्चन’ मामले में 11 सदस्यों को निष्कासित कर दिया गया था। इसी माहौल से भ्रष्टाचार के आरोप में कई लोग जेल पहुंचे। 2-जी घोटाले और काला धन जैसे मसले पर इसी संसद में ठोस कार्रवाई का आह्वान किया गया था। हां, कुछ सांसदों से एक चूक हुई कि वे संसद के अंदर बहस करने की बजाय सड़क पर बहस करने के लिए जंतर-मंतर पहुंच गए। इससे टीम अन्ना को लगा कि वही लोग सवरेपरि हैं। इसके बाद से तो इन लोगों ने सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति तैयार कर ली। वे कहते हैं कि हमारा कोई राजनीतिक हित नहीं है, फिर क्यों सरकार के खिलाफ सियासी माहौल बनाने के लिए वे हिसार से लेकर रायबरेली-अमेठी तक भागदौड़ करते हैं? और अगर वे सचमुच में जनता के नुमाइंदे बनना चाहते हैं, तो उन्हें मुख्यधारा में शामिल होकर चुनाव लड़ने से क्यों परहेज है? इस देश का हर व्यक्ति भ्रष्टाचार से छुटकारा पाना चाहता है। लेकिन भ्रष्ट कौन है और कौन नहीं, यह तय करने का अधिकार टीम अन्ना को नहीं है। इसके लिए सांविधानिक संस्थाएं पहले से ही हैं। अगर तंत्र में परिवर्तन निहायत जरूरी है, तो यह तय करने का हक संसद को है। अगर आपके पास कुछ सुझाव हैं, तो संसद की स्टैंडिंग कमेटी के पास जाएं, न कि रामलीला मैदान में। भीड़ के बल पर सरकार पर दबाव बनाना और जन समर्थन की दुहाई देकर प्रधानमंत्री को घेरना, यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। मीडिया को भी यह समझना होगा कि सांसदों को अपराधी से लेकर लुटेरा तक कह देना, यह सस्ती लोकप्रियता पाने का तरीका है। आखिर जब अंगुली सांसदों पर उठती है, तो साफ है कि उन्हें चुनने वाली जनता पर अंगुली उठाई गई है। जब हम सड़क पर बेवजह का ड्रामा करते हैं, तो वह भीड़तंत्र है, लोकतंत्र नहीं।
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