अरुण कुमार त्रिपाठी
जनसत्ता 30 मार्च, 2012: उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनावों के बाद छोटे-से बडेÞ होते क्षेत्रीय दलों के नए राष्ट्रीय गठबंधन की चर्चा शुरू हो गई है। इसमें क्षेत्रीयता से राष्ट्रीयता की तरफ बढ़ते क्षेत्रीय दलों की आवाजें तो हैं ही, अंतरराष्ट्रीयता से क्षेत्रीयता तक सिमट चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के भी स्वर हैं। हालांकि अभी तक उस दिशा में कोई ठोस राजनीतिक पहल नहीं हुई है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस के नाटकीय केंद्र-विरोध, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह की प्रधानमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा और माकपा महासचिव प्रकाश करात की गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा को एकजुट करने की इच्छा से उसकी आहटें सुनाई पड़ने लगी हैं।
लेकिन अभी तक यह साफ नहीं है कि इन आहटों के पीछे करों के बंटवारे और कुछ प्रशासनिक इकाइयों के गठन पर केंद्रवाद और संघवाद की एक खींचतान ही है या यह मामला कहीं ज्यादा गहरा और संभावनाशील है? आखिर वह कौन-सी वजह है, जिसके कारण तमाम राज्य सरकारें, जिनमें प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के साथ शामिल पार्टियों के अलावा यूपीए के भी घटक हैं, बार-बार केंद्र से टकराया करती हैं? क्या यह सब इसलिए हो रहा है कि केंद्र अब राजनीतिक तौर पर ज्यादा कमजोर हो गया है और उसे धमकाना आसान है? या केंद्र ऐसी किसी अधिनायकवादी नीति पर चल रहा है, जिसे रोकना राज्यों के लिए जरूरी हो गया है? या यह सब एक तरह की पैंतरेबाजी है, जिसमें 2014 के चुनाव तक राष्ट्रीय दलों को और कमजोर कर देना है?
इसी के साथ यह भी सवाल उठता है कि आज जब अपने सहयोगी दलों से यूपीए जैसा सत्ता में बैठा गठबंधन ही नहीं, राजग जैसा विपक्ष में बैठा गठबंधन भी परेशान है, तो इस बात की क्या गारंटी है कि किसी तीसरे या चौथे मोर्चे में शामिल होने की रणनीति बना रही पार्टियां वहां आपस में सहज रह पाएंगी। क्षेत्रीय और छोटे दलों ने अगर कांग्रेस की तानाशाही को काबू में किया है तो भाजपा की सांप्रदायिकता को भी लगाम लगाई है। यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार तभी बन पाई थी जब भाजपा ने अयोध्या, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद-370 को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया था।
गठबंधन राजनीति की बड़ी उपलब्धि सवर्ण राजनीति को चुनौती देते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करवाना और आरक्षण के बारे में देश में आमराय तैयार करना भी रहा है। गठबंधन की राजनीति ने ही पिछड़ों और दलितों की शासकीय भागीदारी बढ़ाई है और उनके भीतर दिल्ली की सत्ता पर बैठने की महत्त्वाकांक्षा भी जगाई है। लेकिन कभी राजनीतिक, कभी सामाजिक तो कभी धार्मिक और अस्मिता संबंधी मसलों पर आगे बढ़ी गठबंधन की राजनीति अब उदारीकरण के प्रभावों पर उलझ गई है। केंद्र सरकार जिस तेजी से आर्थिक सुधार करना चाहती है उसे क्षेत्रीय दलों की राजनीति रोकती है।
यही वजह है कि जब-जब क्षेत्रीय दल इस मसले पर केंद्र का विरोध करते हैं तब-तब उन्हें सस्ती लोकप्रियता के आकांक्षी, राष्ट्रीय हितों को न समझने वाले और बुरी राजनीति से अच्छी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाले जैसे विशेषणों से नवाजा जाता है।
हाल में तृणमूल कांग्रेस ने जिस तरह रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया उसके पीछे निजी खुन्नस और किराया बढ़ाए जाने से ज्यादा उदारीकरण की नीतियों के आगे रेलवे का समर्पण था। त्रिवेदी ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और सैम पित्रोदा के प्रभाव में आकर रेल बजट तैयार किया था, जिसमें उसे आत्मनिर्भर और आधुनिक बनाने के बहाने उसके व्यवसायीकरण और निजीकरण का पूरा एजेंडा था।
क्या उसका विरोध करने वाली तृणमूल कांग्रेस महज दिल्ली से पश्चिम बंगाल के पैकेज के लिए लड़ती हुई कही जाएगी? उससे पहले भी क्षेत्रीय दल खुदरा क्षेत्र में निवेश के सवाल पर सरकार का कड़ा विरोध कर चुके हैं और वे भूमि अधिग्रहण अधिनियम, बीमा क्षेत्र के विनिवेश और श्रम कानूनों में सुधार पर भी आम सहमति नहीं बनने दे रहे हैं।
जाहिर है, नए गठबंधन की राजनीति का एजेंडा पिछले बीस सालों की उदारीकरण की नीतियों के दुष्प्रभावों पर केंद्रित हो रहा है। इसमें क्षेत्रीय दलों की तरफ से उदारीकरण की रफ्तार को धीमा करने का आग्रह भी है तो कहीं-कहीं रोकने का भी। लेकिन उसी के साथ इसमें ऐसी पार्टियां भी हैं, जो उसे तेज करने की अपेक्षा रखती हैं। यह खेल सभी पार्टियां खेल रही हैं। कांग्रेस कभी ओड़िशा के नियमगिरि की पहाड़ियों में वेदांता की गतिविधियों पर रोक लगा कर बीजू जनता दल को परेशान करती है तो कभी खुदरा निवेश पर क्षेत्रीय दलों का विरोध झेलती है। उधर बीजू जनता दल कभी तृणमूल के साथ गठजोड़ बनाता है तो कभी पॉस्को को छूट दिलाने के लिए केंद्र पर दबाव बनाता है। यही हाल कुडनकुलम नाभिकीय संयंत्र पर अन्नाद्रमुक की नेता और मुख्यमंत्री जयललिता की राजनीति का भी है।
भले राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के सवाल पर गंभीर पहल न कर रहे हों, लेकिन उदारीकरण का सवाल भी भ्रष्टाचार से जुड़ता है। इसलिए आने वाले समय में वे महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या जैसे तमाम सवालों के साथ इस मसले को जोड़ कर फायदा उठाना चाहेंगे। सवाल है कि आगे क्या और कैसे होगा?
भारत में केंद्रीय राजनीतिक गठबंधन की राजनीति के जन्म और विकास को गौर से देखें तो जब-जब ऐसा हुआ है तो उसके पीछे कुछ बड़ी राजनीतिक और सामाजिक वजहें रही हैं। कम से कम इक्कीसवीं सदी में गठबंधन की राजनीति के स्थिर होने से पहले ऐसा ही रहा है। दो बार यह गठबंधन भ्रष्टाचार और कांग्रेस के अधिनायकवाद के खिलाफ खड़ा हुआ है और एक बार सामाजिक न्याय यानी आरक्षण और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, तो एक बार गैर-कांग्रेसी और भाजपाई राष्ट्रवाद के नाम पर। इक्कीसवीं सदी यानी 2004 में जब कांग्रेस ने सरकार बनाने के लिए यूपीए का गठन किया तो उसका भी मूल उद्देश्य सांप्रदायिकता को सत्ता से बाहर रखना था।
1977 में जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से बनी जनता पार्टी एक प्रकार से भ्रष्टाचार-विरोधी गैर-कांग्रेसी गठबंधन ही था। उसने भ्रष्टाचारियों को भयभीत तो किया, पर उनको न सजा दिलवा पाया न ही राजनीति से बाहर रख पाया। बाद में उसका गैर-कांग्रेसी स्वरूप भी इतना कमजोर हो गया कि लगा कि अब फिर कांग्रेस की ही तूती बोलती रहेगी। लेकिन उसने इमरजेंसी तक लगा देने वाली कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व को बड़ा झटका दिया और भारतीय लोकतंत्र में तानाशाही की एक सीमा रेखा तो खींच ही दी।
दोबारा जब वीपी सिंह के नेतृत्व में भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान छिड़ा तो फिर वह राजनीति कांग्रेस-विरोध और उसे सत्ता से हटाने में कामयाब रही। संयुक्त मोर्चा के तौर पर उभरे इस गठबंधन के पीछे अस्सी के दशक का वह टकराव था, जब केंद्र सरकार राज्य सरकारों को बार-बार बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लगा रही थी और एनटी रामराव जैसे क्षेत्रीय चमत्कारिक नेता को अपना बहुमत साबित करने के लिए राष्ट्रपति के सामने विधायकों की गिनती कराते हुए प्रदर्शन तक करना पड़ा था। हालांकि यह काम जनता पार्टी ने बडेÞ पैमाने पर नौ कांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त कर किया था, लेकिन तब कांग्रेस-विरोधी लहर के चलते वह मुद्दा नहीं बन सकता था।
अस्सी के दशक में संविधान के अनुच्छेद-356 के मनमाने इस्तेमाल के बाद तमाम गैर-कांग्रेसी दलों ने केंद्र और राज्यों के शासन को नए सिरे से परिभाषित करने की मांग की। यह सब गोलबंदी उस समय हो रही थी जब पंजाब को अलग करने का आतंकवादी संघर्ष अपने चरम पर था। क्षेत्रीय स्वायत्तता की राजनीति करने वाले दलों ने इसकी व्याख्या राज्यों की स्वायत्तता में बढ़ते हस्तक्षेप के तौर पर की और उसका समाधान राज्यों को ज्यादा अधिकार दिए जाने में देखा।
बाकायदा यह राजनीतिक नजरिया बना कि पंजाब की समस्या आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को न मानने से पैदा हुई है और वह संविधान के भीतर स्वीकार किया जा सकता है। अस्सी के दशक में दिल्ली के अधिनायकवाद और क्षेत्रीय अलगाववाद के टकराव के बीच जो गठबंधन की राजनीति थी, वह इंदिरा गांधी की हत्या से कमजोर पड़ गई, क्योंकि जनता ने मान लिया कि देश क्षेत्रीय दलों के हाथ में छोड़ना खतरे से खाली नहीं है। उसे कांग्रेस ही संभाल सकती है।
सन 1984 के चुनाव ने राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रीय राजनीति को बुरी तरह दरकिनार तो कर दिया, लेकिन उनका मुद्दा खत्म नहीं हुआ। आखिरकार चार सौ से भी ज्यादा सीटें जीतने वाले राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद असम, पंजाब, मिजोरम जैसे राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों के साथ समझौते तो किए ही, बाद में फारूक अब्दुल्ला और शरद पवार जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों से राजनीतिक समझौते भी किए, जिनके आधार पर कुछ राज्यों में कांग्रेस की गठबंधन सरकारें भी बनीं। राजीव गांधी के इसी समझौतावादी रवैए से चिढ़े एक राजनीतिशास्त्री ने कहा कि वे तो मोहल्ले के बच्चों से भी समझौता करने को तैयार रहते हैं। लेकिन राजीव गांधी गठबंधन की राजनीति के नेता नहीं थे। अगर वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा, गुजराल जैसे नेताओं ने उस राजनीति के विफल प्रयोग किए तो अटल बिहारी वाजपेयी और उनके बाद मनमोहन सिंह ने उसके सफल प्रयोग।
अब मनमोहन सिंह की राजनीति अगर लड़खड़ा रही है तो उसकी वजह उनकी आर्थिक नीतियां ही हैं, जिनसे निकले इंडिया शाइनिंग के नारे के खिलाफ हवा पर सवार होकर उनकी कांग्रेस पार्टी 2004 में सत्ता में आई थी और दोबारा 2009 में उन नीतियों का मानवीय चेहरा पेश करते हुए। उनकी नीतियों का फायदा हर राज्य और हर क्षेत्रीय दल उठाना चाहता है, लेकिन उसका झंडा लेकर कोई नहीं चलना चाहता, कोई नहीं चाहता कि नुकसान का ठीकरा उसके सिर फूटे। यहां तक कि उनकी पार्टी के युवराज राहुल गांधी और सोनिया गांधी भी नहीं।
तीसरे मोर्चे या उस तरह के किसी नए गठबंधन का आधार अगर कुछ बनेगा तो इस बार वह उदारीकरण की नीतियों के दुष्प्रभावों पर ही होगा। इसके लिए क्षेत्रीय दलों को उसी तरह से एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाना होगा जिस तरह वे अभी एनसीटीसी, लोकपाल और सांप्रदायिक हिंसा संबंधी विधेयक के सवाल पर बनाए हुए हैं। बल्कि वह उससे ज्यादा स्पष्ट होना चाहिए। गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई दलों के भीतर इस मसले की सबसे बेहतर राजनीतिक व्याख्या वामपंथी ही कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने मंदी के दौर में कोई खास वैचारिक और राजनीतिक चमक का परिचय नहीं दिया है। वे 2009 और 2011 की हार से पस्त हैं। दूसरी तरफ उनके पास इन नीतियों के खिलाफ लड़ने वाला कोई चमत्कारिक नेतृत्व भी नहीं है। वैसा नेतृत्व मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और नवीन पटनायक का भी नहीं है।
तो क्या उदारीकरण के विरोध के आधार पर खड़े होने वाले इस तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करने का सबसे ज्यादा हक ममता बनर्जी का बनता है? शायद हां, शायद ना। यही नए गठबंधन के धर्म की दुविधा और विरोधाभास है। पर सवाल यह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों को ठिकाने लगाने वाली गठबंधन की राजनीति क्या उदारीकरण को भी ठिकाने लगा पाएगी या उससे समझौता करके रह जाएगी?
इसी के साथ यह भी सवाल उठता है कि आज जब अपने सहयोगी दलों से यूपीए जैसा सत्ता में बैठा गठबंधन ही नहीं, राजग जैसा विपक्ष में बैठा गठबंधन भी परेशान है, तो इस बात की क्या गारंटी है कि किसी तीसरे या चौथे मोर्चे में शामिल होने की रणनीति बना रही पार्टियां वहां आपस में सहज रह पाएंगी। क्षेत्रीय और छोटे दलों ने अगर कांग्रेस की तानाशाही को काबू में किया है तो भाजपा की सांप्रदायिकता को भी लगाम लगाई है। यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार तभी बन पाई थी जब भाजपा ने अयोध्या, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद-370 को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया था।
गठबंधन राजनीति की बड़ी उपलब्धि सवर्ण राजनीति को चुनौती देते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करवाना और आरक्षण के बारे में देश में आमराय तैयार करना भी रहा है। गठबंधन की राजनीति ने ही पिछड़ों और दलितों की शासकीय भागीदारी बढ़ाई है और उनके भीतर दिल्ली की सत्ता पर बैठने की महत्त्वाकांक्षा भी जगाई है। लेकिन कभी राजनीतिक, कभी सामाजिक तो कभी धार्मिक और अस्मिता संबंधी मसलों पर आगे बढ़ी गठबंधन की राजनीति अब उदारीकरण के प्रभावों पर उलझ गई है। केंद्र सरकार जिस तेजी से आर्थिक सुधार करना चाहती है उसे क्षेत्रीय दलों की राजनीति रोकती है।
यही वजह है कि जब-जब क्षेत्रीय दल इस मसले पर केंद्र का विरोध करते हैं तब-तब उन्हें सस्ती लोकप्रियता के आकांक्षी, राष्ट्रीय हितों को न समझने वाले और बुरी राजनीति से अच्छी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाले जैसे विशेषणों से नवाजा जाता है।
हाल में तृणमूल कांग्रेस ने जिस तरह रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया उसके पीछे निजी खुन्नस और किराया बढ़ाए जाने से ज्यादा उदारीकरण की नीतियों के आगे रेलवे का समर्पण था। त्रिवेदी ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और सैम पित्रोदा के प्रभाव में आकर रेल बजट तैयार किया था, जिसमें उसे आत्मनिर्भर और आधुनिक बनाने के बहाने उसके व्यवसायीकरण और निजीकरण का पूरा एजेंडा था।
क्या उसका विरोध करने वाली तृणमूल कांग्रेस महज दिल्ली से पश्चिम बंगाल के पैकेज के लिए लड़ती हुई कही जाएगी? उससे पहले भी क्षेत्रीय दल खुदरा क्षेत्र में निवेश के सवाल पर सरकार का कड़ा विरोध कर चुके हैं और वे भूमि अधिग्रहण अधिनियम, बीमा क्षेत्र के विनिवेश और श्रम कानूनों में सुधार पर भी आम सहमति नहीं बनने दे रहे हैं।
जाहिर है, नए गठबंधन की राजनीति का एजेंडा पिछले बीस सालों की उदारीकरण की नीतियों के दुष्प्रभावों पर केंद्रित हो रहा है। इसमें क्षेत्रीय दलों की तरफ से उदारीकरण की रफ्तार को धीमा करने का आग्रह भी है तो कहीं-कहीं रोकने का भी। लेकिन उसी के साथ इसमें ऐसी पार्टियां भी हैं, जो उसे तेज करने की अपेक्षा रखती हैं। यह खेल सभी पार्टियां खेल रही हैं। कांग्रेस कभी ओड़िशा के नियमगिरि की पहाड़ियों में वेदांता की गतिविधियों पर रोक लगा कर बीजू जनता दल को परेशान करती है तो कभी खुदरा निवेश पर क्षेत्रीय दलों का विरोध झेलती है। उधर बीजू जनता दल कभी तृणमूल के साथ गठजोड़ बनाता है तो कभी पॉस्को को छूट दिलाने के लिए केंद्र पर दबाव बनाता है। यही हाल कुडनकुलम नाभिकीय संयंत्र पर अन्नाद्रमुक की नेता और मुख्यमंत्री जयललिता की राजनीति का भी है।
भले राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के सवाल पर गंभीर पहल न कर रहे हों, लेकिन उदारीकरण का सवाल भी भ्रष्टाचार से जुड़ता है। इसलिए आने वाले समय में वे महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या जैसे तमाम सवालों के साथ इस मसले को जोड़ कर फायदा उठाना चाहेंगे। सवाल है कि आगे क्या और कैसे होगा?
भारत में केंद्रीय राजनीतिक गठबंधन की राजनीति के जन्म और विकास को गौर से देखें तो जब-जब ऐसा हुआ है तो उसके पीछे कुछ बड़ी राजनीतिक और सामाजिक वजहें रही हैं। कम से कम इक्कीसवीं सदी में गठबंधन की राजनीति के स्थिर होने से पहले ऐसा ही रहा है। दो बार यह गठबंधन भ्रष्टाचार और कांग्रेस के अधिनायकवाद के खिलाफ खड़ा हुआ है और एक बार सामाजिक न्याय यानी आरक्षण और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, तो एक बार गैर-कांग्रेसी और भाजपाई राष्ट्रवाद के नाम पर। इक्कीसवीं सदी यानी 2004 में जब कांग्रेस ने सरकार बनाने के लिए यूपीए का गठन किया तो उसका भी मूल उद्देश्य सांप्रदायिकता को सत्ता से बाहर रखना था।
1977 में जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से बनी जनता पार्टी एक प्रकार से भ्रष्टाचार-विरोधी गैर-कांग्रेसी गठबंधन ही था। उसने भ्रष्टाचारियों को भयभीत तो किया, पर उनको न सजा दिलवा पाया न ही राजनीति से बाहर रख पाया। बाद में उसका गैर-कांग्रेसी स्वरूप भी इतना कमजोर हो गया कि लगा कि अब फिर कांग्रेस की ही तूती बोलती रहेगी। लेकिन उसने इमरजेंसी तक लगा देने वाली कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व को बड़ा झटका दिया और भारतीय लोकतंत्र में तानाशाही की एक सीमा रेखा तो खींच ही दी।
दोबारा जब वीपी सिंह के नेतृत्व में भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान छिड़ा तो फिर वह राजनीति कांग्रेस-विरोध और उसे सत्ता से हटाने में कामयाब रही। संयुक्त मोर्चा के तौर पर उभरे इस गठबंधन के पीछे अस्सी के दशक का वह टकराव था, जब केंद्र सरकार राज्य सरकारों को बार-बार बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लगा रही थी और एनटी रामराव जैसे क्षेत्रीय चमत्कारिक नेता को अपना बहुमत साबित करने के लिए राष्ट्रपति के सामने विधायकों की गिनती कराते हुए प्रदर्शन तक करना पड़ा था। हालांकि यह काम जनता पार्टी ने बडेÞ पैमाने पर नौ कांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त कर किया था, लेकिन तब कांग्रेस-विरोधी लहर के चलते वह मुद्दा नहीं बन सकता था।
अस्सी के दशक में संविधान के अनुच्छेद-356 के मनमाने इस्तेमाल के बाद तमाम गैर-कांग्रेसी दलों ने केंद्र और राज्यों के शासन को नए सिरे से परिभाषित करने की मांग की। यह सब गोलबंदी उस समय हो रही थी जब पंजाब को अलग करने का आतंकवादी संघर्ष अपने चरम पर था। क्षेत्रीय स्वायत्तता की राजनीति करने वाले दलों ने इसकी व्याख्या राज्यों की स्वायत्तता में बढ़ते हस्तक्षेप के तौर पर की और उसका समाधान राज्यों को ज्यादा अधिकार दिए जाने में देखा।
बाकायदा यह राजनीतिक नजरिया बना कि पंजाब की समस्या आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को न मानने से पैदा हुई है और वह संविधान के भीतर स्वीकार किया जा सकता है। अस्सी के दशक में दिल्ली के अधिनायकवाद और क्षेत्रीय अलगाववाद के टकराव के बीच जो गठबंधन की राजनीति थी, वह इंदिरा गांधी की हत्या से कमजोर पड़ गई, क्योंकि जनता ने मान लिया कि देश क्षेत्रीय दलों के हाथ में छोड़ना खतरे से खाली नहीं है। उसे कांग्रेस ही संभाल सकती है।
सन 1984 के चुनाव ने राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रीय राजनीति को बुरी तरह दरकिनार तो कर दिया, लेकिन उनका मुद्दा खत्म नहीं हुआ। आखिरकार चार सौ से भी ज्यादा सीटें जीतने वाले राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद असम, पंजाब, मिजोरम जैसे राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों के साथ समझौते तो किए ही, बाद में फारूक अब्दुल्ला और शरद पवार जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों से राजनीतिक समझौते भी किए, जिनके आधार पर कुछ राज्यों में कांग्रेस की गठबंधन सरकारें भी बनीं। राजीव गांधी के इसी समझौतावादी रवैए से चिढ़े एक राजनीतिशास्त्री ने कहा कि वे तो मोहल्ले के बच्चों से भी समझौता करने को तैयार रहते हैं। लेकिन राजीव गांधी गठबंधन की राजनीति के नेता नहीं थे। अगर वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा, गुजराल जैसे नेताओं ने उस राजनीति के विफल प्रयोग किए तो अटल बिहारी वाजपेयी और उनके बाद मनमोहन सिंह ने उसके सफल प्रयोग।
अब मनमोहन सिंह की राजनीति अगर लड़खड़ा रही है तो उसकी वजह उनकी आर्थिक नीतियां ही हैं, जिनसे निकले इंडिया शाइनिंग के नारे के खिलाफ हवा पर सवार होकर उनकी कांग्रेस पार्टी 2004 में सत्ता में आई थी और दोबारा 2009 में उन नीतियों का मानवीय चेहरा पेश करते हुए। उनकी नीतियों का फायदा हर राज्य और हर क्षेत्रीय दल उठाना चाहता है, लेकिन उसका झंडा लेकर कोई नहीं चलना चाहता, कोई नहीं चाहता कि नुकसान का ठीकरा उसके सिर फूटे। यहां तक कि उनकी पार्टी के युवराज राहुल गांधी और सोनिया गांधी भी नहीं।
तीसरे मोर्चे या उस तरह के किसी नए गठबंधन का आधार अगर कुछ बनेगा तो इस बार वह उदारीकरण की नीतियों के दुष्प्रभावों पर ही होगा। इसके लिए क्षेत्रीय दलों को उसी तरह से एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाना होगा जिस तरह वे अभी एनसीटीसी, लोकपाल और सांप्रदायिक हिंसा संबंधी विधेयक के सवाल पर बनाए हुए हैं। बल्कि वह उससे ज्यादा स्पष्ट होना चाहिए। गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई दलों के भीतर इस मसले की सबसे बेहतर राजनीतिक व्याख्या वामपंथी ही कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने मंदी के दौर में कोई खास वैचारिक और राजनीतिक चमक का परिचय नहीं दिया है। वे 2009 और 2011 की हार से पस्त हैं। दूसरी तरफ उनके पास इन नीतियों के खिलाफ लड़ने वाला कोई चमत्कारिक नेतृत्व भी नहीं है। वैसा नेतृत्व मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और नवीन पटनायक का भी नहीं है।
तो क्या उदारीकरण के विरोध के आधार पर खड़े होने वाले इस तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करने का सबसे ज्यादा हक ममता बनर्जी का बनता है? शायद हां, शायद ना। यही नए गठबंधन के धर्म की दुविधा और विरोधाभास है। पर सवाल यह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों को ठिकाने लगाने वाली गठबंधन की राजनीति क्या उदारीकरण को भी ठिकाने लगा पाएगी या उससे समझौता करके रह जाएगी?
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