-ओमप्रकाश कश्यप-
मनुष्यता के इतिहास में उनीसवीं शताब्दी का बड़ा महत्त्व है. यह वह कालखंड है जब मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के नारे के साथ सर्वहारा क्रांति का आवाह्न किया था. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के माध्यम से दिए गए इस नारे की सीमाएं अथवा कमजोरियां 23वें वर्ष में ‘पेरिस कम्यून’ के प्रयोग की असफलता के साथ सामने आ गईं. मार्क्स के विचारों पर आधारित वह पहली समाजवादी क्रांति थी. अपने विचारों की प्रारंभिक असफलता से निराश होने के बजाय मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष की सैद्धांतिकी में सुधार हेतु स्वयं को नए सिरे से इतिहास, दर्शन, समाजविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीतिक दर्शन आदि के अध्ययन को समर्पित कर दिया. वह फ्रांस छोड़कर इंग्लेंड चला आया जहां अपेक्षाकृत शांति थी. साथ में बौद्धिकरूप से खुला माहौल भी. करीब 15 वर्ष के गहन अध्ययन-मनन के फलस्वरूप ‘पूंजी’ का पहला खंड सामने आया. इस युग प्रवर्त्तक ग्रंथ में पूंजी के शोषणकारी चरित्र तथा उसकी बहुआयामी पैठ को पहली बार समग्रता के साथ इतिहास, दर्शन एवं अर्थनीति के संदर्भ में उजागर किया गया था. सर्वहारा क्रांति का समर्थक मार्क्स इस नतीजे पर पहुंचा था कि पूंजीवादी अधिनायकवाद का उत्तर श्रम-अधिनायकवाद से नहीं दिया जा सकता. श्रम-अधिनायकत्व की संभावनाओं को कम करने के लिए उसने वर्गहीन समाज की संकल्पना की थी. लिखा था कि समाजवादी क्रांति का लक्ष्य बुर्जुआ वर्ग को अपदस्थ कर उत्पादन के साधनों पर कब्जा कर लेने से पूरा नहीं हो जाता. वास्तविक चुनौती उस एकाधिकारवादी भावना को समाप्त करने की है, जो वर्ग-विभाजन की संभावना को जन्म देती तथा प्रकारांतर में उसे मजबूत एवं स्वीकार्य बनाती है. ‘थीसिस आन फायरबाख’ में उसने लिखा था—
‘विद्वानों ने इस सृष्टि की अनेक प्रकार से व्याख्या की है. वास्तविक चुनौती तो इसको बदलने की है.’ 1
दुनिया को बदलने की कामना के साथ मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत प्रस्तुत किया. इसकी प्रेरणा उसको हीगेल के दार्शनिक सिद्धांत ‘द्वंद्ववाद’ से मिली थी. हीगेल के ‘शुभ’ एवं ‘अशुभ’ के द्वंद्व को उसने सर्वहारा और पूंजीपति के द्वंद्व के रूप में देखा था. उल्लेखनीय है कि हीगेल से बहुत पहले शंकराचार्य ने जीवन की व्याख्या के लिए आत्मा और परमात्मा के द्वैत का विचार प्रस्तुत किया था. कार्य-कारण संबंधों की व्याख्या करते हुए उन्होंने सृष्टि की रचना में माया की अतार्किक-अवैज्ञानिक परिकल्पना की थी. उनसे पहले सांख्य दर्शन में भी सृष्टि-रचना को प्रकृति एवं पुरुष के संपर्क द्वारा समझाने की कोशिश की गई. सांख्याचार्य के अनुसार प्रकृति प्रमुख कार्यकारी शक्ति है. वही पुरुष को कार्य के उकसाती है.2
तुलनात्मकरूप से देखा जाए तो माया की अपेक्षा प्रकृति की परिकल्पना अधिक यथार्थवादी है. वेदांताचार्य के अनुसार माया कार्य-कारण की प्रेरक शक्ति है. वहीं द्वैत की जन्मदाता है. इसके मूल में अज्ञान है. जैसे ही आत्मा अपने मूल-स्वरूप अर्थात परमात्मा को पहचानने लगती है, उसका मायारूपी संसार से मोहभंग हो जाता है. आत्मा और परमात्मा के द्वैत के समापन की अवस्था को वेदांत में ‘मोक्ष’ कहा गया. उसके अनुसार मोक्ष चिरंतन ठहराव और परमशांति की ऐसी कल्पनातीत अवस्था है, जिसमें मानवात्मा के समस्त विक्षोभ शांत हो जाते हैं. मन से माया का आवरण हट जाता है और मनुष्य परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानने लगता है. वेदांत दर्शन में आत्मतत्व स्वयं क्रियात्मक नहीं हैं. माया के संपर्क में आने के उपरांत उत्पन्न विक्षोभ उसे क्रियाधर्मी बनने को उकसाता है. इसके विपरीत हीगेल का ‘द्वंद्ववाद’ विपरीत गुणसंपन्न शक्तियों की नैसर्गिक क्रियाशीलता तथा उनके बीच सतत द्वंद्व की परिणति है. द्वंद्वात्मकता की प्रतीति सृष्टि में अनेक स्तर पर भिन्न रूपों में, विभिन्न प्रकार से द्रष्टिगत होती है. द्वंद्व के कारणों को हीगेल ने आभासी माना है. हीगेल के अनुसार यह सृष्टि परमसत्ता का विस्तार है. उसमें आभासी विपरीतात्मकता मानवेंद्रियों की सीमा की देन है.
सृष्टि व्यापार को द्वंद्वात्मकता के सिद्धांत से समझाने वाले हीगेल ने द्वैत को ‘शुभ’ और ‘अशुभ’ के रूप में देखा था. उसका मानना था कि सृष्टि में प्रत्येक विचार का प्रतिविचार मौजूद है. सफेद के साथ स्याह, अच्छे के साथ बुरा, पुण्य के साथ पाप, उत्तर के विरुद्ध दक्षिण आदि परस्पर विपरीतार्थी एवं समानधर्मा सत्ताओं से दुनिया भरी पड़ी है. साधारण द्रष्टिबोध उन्हें अलग, एक-दूसरे से स्वतंत्र तथा परस्पर विरोधी मानता है. हीगेल के लिए इस विपरीतार्थ के अलग मायने थे. वह द्वैत की सत्ता को स्वीकारता है, लेकिन उसका कारण वस्तुगत न होकर मानवेंद्रियों की सीमा है. दूसरों से अलग वह ‘शुभ’ को ‘अशुभ’ का पूरक, उनके द्वैत को अस्थायी मानता था, जिसको मनुष्य अपने ज्ञान के माध्यम से चुनौती दे सकता था. परमसत्ता के बारे में स्पिनोजा से सहमत हीगेल का मानना था कि वह परमशुभ है. उसका विस्तार अनंत है. मानवेंद्रियों का सामथ्र्य नहीं कि उसकी विलक्षणता और विराटपन का साक्षात कर सकें. शंकर इसे माया के आवरण के रूप में देखते हैं. उसको देखते हुए हीगेल का विचार अधिक तार्किक प्रतीत होता है. हीगेल के अनुसार मनुष्य की विवशता है कि वह सत्य को केवल टुकड़ों में देख पाता है. मसलन आंखें त्रिविमीय संसार की केवल दो विमाओं को देख पाती हैं. जबकि दृश्यमान जगत की समस्त वस्तुएं त्रिविमीय संसार का हिस्सा हैं. प्रसंगवश बता दें कि चैथी विमा के रूप में ‘समय’ को मान्यता बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशक में उस समय मिली, जब आइंस्टाइन ने अपने आपेक्षिकता के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए समय को चौथा आयाम माना. दर्शन के क्षेत्र में चैथी विमा की परिकल्पना बहुत पहले लगभग ढाई हजार वर्ष पहले की जा चुकी थी. उसकी ओर स्पष्ट संकेत अठारहवीं शताब्दी के दार्शनिक डेविड ह्यूम ने किया. समय को पहली बार महत्त्व देते हुए ह्यूम ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति एक ही नदी में दो बार पांव नहीं रख सकता. जब तक हम नदी के प्रवाह में दूसरी बार पैर रखते हैं, उसका जल कहीं आगे बढ़ चुका होता है. उस समय दार्शनिकों ने डेविड ह्यूम को संदेहवादी कहकर उसकी खिल्ली उड़ाई गई थी. बाद में जब यही बात आइंस्टाइन ने वैज्ञानिक प्रमाण देते हुए कही, तब जाकर समय को चैथी विमा के रूप में मान्यता मिल सकी. आज अनिश्चितता अथवा संदेह के सिद्धांत को वैज्ञानिक मान्यता मिल चुकी है. ‘थ्योरी आ॓फ अनसर्टेनिटी’ आधुनिक परमाणु विज्ञान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अनुसंधान है, जिससे सृष्टि के रहस्यों को समझने में मदद मिल सकती है. विज्ञान की इस संशयवादी धारा ने दर्शन और विज्ञान के बीच की दूरी को पाटने का काम किया है.
ऐंद्रियक अनुभवों की सीमा की ओर संकेत करते हुए हीगेल का कहना था कि ‘सांत’ इंद्रियों द्वारा ‘अनंत’ को पूरी तरह समझा ही नहीं जा सकता. अपने बोध के लिए मनुष्य को जिन इंद्रियों पर भरोसा करना पड़ता है, वे पूरा सच कभी देख ही नहीं पातीं. मसलन आंखें दीवार पर लगी तस्वीर का एक समय में केवल एक ही पृष्ठ देख पाती हैं. तस्वीर के अगले-पिछले हिस्सों को, एक ही समय में देख पाना उनके लिए कदापि संभव नहीं है. यह कार्य मस्तिष्क को करना पड़ता है. इसलिए दीवार पर टंगी तस्वीर का हमारा आकलन सिर्फ वह नहीं होता जो हमारी आंखें तात्कालिक रूप से देख रही होती हैं. तस्वीर को पूरा देखने के लिए हमें अपनी स्थिति में बदलाव करना होता है. मगर स्थिति में परिवर्तन के साथ हम दूसरे समय में चले जाते हैं. पहला पक्ष तत्क्षण हमसे ओझल हो जाता है. पूरी छवि की परिकल्पना के लिए हमें अपने मस्तिष्क और अनुभव की मदद लेनी ही पड़ती है. आशय है कि किसी वस्तु अथवा विचार की अवधारणा के पीछे हमारे अनुभवों, स्मृतिबोध तथा मस्तिष्क का योगदान होता है.
यदि मनुष्य की इंद्रिया सांत हैं, उनकी सीमा है, तब तो वह अनंत को कदापि नहीं जान पाएगा. उस अवस्था में तो उसको अनंत सत्ता को जानने-समझने की कोशिश छोड़ ही देनी चाहिए. हीगेल के विचारों को पढ़ते हुए ऐसा निष्कर्ष सहसा दिमाग से टकराने लगता है. लेकिन अगर यहीं तक सीमित होता तो हीगेल का दर्शन द्वंद्ववाद से आगे बढ़ ही नहीं पाता. वह संशयवादी ही बना रहता. जबकि द्वंद्व उसके दर्शन का प्रस्थान बिंदू है, लक्ष्य नहीं. प्रारंभिक स्थापना से आगे बढ़कर वह कहता है कि ठीक है, मानवेंद्रियों की सीमाएं हैं. उसकी इंद्रियां उसको किसी वस्तु को समग्रता से एक ही पल में देखने का अवसर ही नहीं देतीं. इसके बावजूद उसके पास एक चीज है, जो उसके ऐंद्रियक अनुभवों की सीमा को पाटने में सहायक है. वह है उसका मस्तिष्क. मानव मस्तिष्क ही है जो एक ही क्षण में किसी तस्वीर को पूरा न देख पाने के बावजूद उसका यथार्थबोध कराने में सक्षम होता है. इसलिए जो मनुष्य अपने सांत ऐंद्रियक साधनों से अनंत को समझना चाहता है, उसे निरंतर अपना बौद्धिक परिष्कार करते रहना चाहिए. इसके लिए वह अनुभव के साथ निरंतर अध्ययन-मनन पर जोर देता है. कोई हताश न हो, इसलिए वह द्वंद्ववाद की आगे व्याख्या भी करता है. वह समझाता है कि ‘अच्छे’ और ‘बुरे’, ‘काले’ और ‘सफेद’, ‘गुण-अवगुण’ का भेद आभासी है.
असल में वह हमारी अज्ञानता और अधूरे ज्ञान की देन है. सही मायने में हमारी सीमाओं का प्रतीक. परोक्षरूप में वह भी द्वैत की महत्ता को स्वीकारता है. परंतु मानता है कि बोध के विकासक्रम में द्वैत-भाव तिरोहित होने लगता है. मनुष्य समझने लगता है कि ‘काला’ और ‘सफेद’ रंग एक-दूसरे के विपरीतधर्मा न होकर परस्पर भिन्न स्थितियां हैं. जो वस्तु काली दिखती है, वह अपने ऊपर पड़ी प्रकाश किरणों को पूरी तरह सोख लेती है. दूसरे शब्दों में उसका गुण है अपने ऊपर पड़ने वाली समस्त प्रकाश किरणों को अवशोषित कर लेना. जबकि सफेद रंग वाली वस्तु का गुण है, प्रकाश किरणों को ज्यों का त्यों परावर्तित कर देना. दोनों के अपने-अपने गुण हैं. उनमें विरोधाभास हो सकता है, परंतु विपरीत गुणसंपन्न होने के बावजूद दोनों में कहीं टकराव नहीं है. बल्कि वे एक-दूसरे के पूरक का कार्य करती हैं. साधारण मनुष्य इस अंतर को समझ नहीं पाता, इसलिए वह सफेद और काले को एक-दूसरे का विपरीतधर्मा मान लेता है. हीगेल के तर्कों के आगे हमारी आंखों के आगे पड़ी द्वैत की चदरिया लगातार झीनी पड़ती हुई अंत में गायब-सी हो जाती है. यही ‘सांत’ के ‘अनंत’ तक पहुंचने की यात्रा है.
‘अच्छे’ और ‘बुरे’, गुण-अवगुण’ के विपरीतार्थ को नकारता हुआ वह कहता है कि ‘अच्छा’, ‘बुरे’ का विलोम न होकर भिन्न स्थिति है. यह वह प्रत्यय है जो समाज के एक वर्ग द्वारा थोप दिया जाता है. समाज बदलने पर वह बदल भी सकता है. हीगेल की दृष्टि में ‘बुरा’ वह है जिसमें उन गुणों का, जिन्हें हम अच्छाई का प्रतीक मानते हैं, अभाव है. ये गुण या स्थापनाएं व्यक्ति की न होकर उस समाज की होती हैं, जिसमें वह जन्मा है. इसी प्रकार तस्वीर या कमरे में पड़ी मेज की वह व्याख्या करता है कि जो दिख रहा है, वह तस्वीर वास्तविक नहीं है. वह मात्र द्विविमीय छवि है. आंखें अपनी खूबी तथा मस्तिष्क की मदद से उसको त्रिविमीय छवि में बदल रही हैं. छवि की सीमा है कि वह केवल स्थिति एवं क्षण-विशेष में ही सत्य हो सकती है. मेज को पूरा समझने के लिए हमें उसके दूसरे पहलुओं को भी जोड़ना पड़ता है. इसलिए अलग-अलग समय में मस्तिष्क पर पड़ने वाले मेज के बिंबों को एक-दूसरे का विरोधी नहीं माना जा सकता, बल्कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं. जैन दर्शन इसे स्याद्वाद के सिद्धांत द्वारा अभिव्यक्त करता है. चार अंधों और हाथी के रूपक द्वारा वह समझाता है कि हाथी को पहचानने में जुटे चार अंधों के अनुभव परस्पर भिन्न होंगे. उनमें जो व्यक्ति हाथी की सूंड की ओर होगा वह उसकी उपमा बेल से देगा, कानांे को छूकर हाथी को पहचानने में जुटे अंधे की निगाह में हाथी का आकार सूप के समान होगा. इसी प्रकार पेट और पैर का स्पर्श करने वाले अंधों के निष्कर्ष भी एक-दूसरे से अलग होंगे. व्यक्तिगत निष्कर्ष में वे चारों सही हैं, परंतु उनमें से एक भी सत्य का पूर्णानुमान लगाने में असमर्थ है. सामान्य व्यक्ति के प्रकरण में भी उसकी ऐंद्रियिक सीमा सत्य की पूर्णानुभूति कराने में अक्षम होती है. तर्कों के माध्यम से हीगेल स्पष्ट करता है संसार में दिखने वाली सभी विरोधी स्थितियां एक-दूसरे की पूरक हैं. यहां हम हीगेल को स्पिनोजा के करीब पाते हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि स्पिनोजा ‘सर्वेश्वरवाद’ को सीधे-सीधे एक झटके में छू लेता है. हीगेल वहां तक पहुंचने के लिए अनेक तर्कों, स्थितियों का सहारा लेता है. स्पिनोजा पर अतिरेकी आस्था का दबाव है. हीगेल बौद्धिकता के मुक्ताकाश में सत्य को समझने की चेष्ठा करता है. कह सकते हैं कि स्पिनोजा जो लक्ष्य निर्धारित करता है, हीगेल उसको स्वीकार करता है, लेकिन पूरी तर्कबुद्धि के साथ. एक-एक के लिए समर्थन जुटाते हुए. वह एक ओर तो मनुष्य को उसकी सीमाओं का एहसास कराता है, दूसरी ओर उसे यह विश्वास भी दिलाता है कि निरंतर अभ्यास, अध्ययन-चिंतन से वह अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर सकता है.
मार्क्स हीगेल से द्वंद्ववाद की विचारधारा उधार लेता है. लेकिन उसका उपयोग केवल साधन तक सीमित रखता है. वह द्वंद्ववाद से प्रभावित है. पूंजीवादी समाज में जन्मे मार्क्स को सर्वहारा और बुर्जुआ ही अपने चारों ओर दिखाई पड़ते हैं. अपने परिवेश के प्रति वह इतना सम्मोहित है कि उससे इतर अतींद्रिय दुनिया की परिकल्पनाएं उसको जम ही नहीं पातीं. आरंभ में समाज में वांछित परिवर्तन के लिए वह दोनों वर्गों के संघर्ष की अनिवार्यता पर जोर देता है. शुभ और अशुभ के शाश्वत संघर्ष की भांति, ताकि परमशुभ की सर्वकल्याणक, सर्वत्र शुभदायक स्थिति को प्राप्त किया जा सके. वह साम्यवाद का सपना रचता है, जिसमें सुख पर किसी का भी एकाधिकार न हो. बल्कि अधिकतम व्यक्ति अधिकतम सुख का भोग कर सकें. यह सपना उसकी आंखों में 1845 में ही जन्म ले चुका था. साम्यवाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसने ‘दि जर्मन आइडियोला॓जी’ में लिखा है—
‘हमारे लिए साम्यवाद किसी प्रस्तावित राज्य के गठन का ऐसा मसला नहीं है जिससे अपने आदर्श लक्ष्य की प्राति हेतु वह नागरिकों से सहयोग एवं समन्वय बनाए रखने की अपेक्षा करे. इसके बजाय साम्यवाद को ऐसा जमीनी आंदोलन कहना उचित होगा जो वर्तमान राज्य को विखंडित कर देगा. नए राज्य की शर्त उसके होने में न होकर उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता में निहित होगी.’3
वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि समाज में असमानता का कारण केवल आर्थिक विषमता नहीं है. अकेले पूंजी के रहने या न रहने से वर्गीय विषमताओं को मिटा पाना असंभव होगा. उसके पीछे धर्म, राजनीति, समाज आदि कारक भी सम्मिलित हैं, जो वर्गभेदकारी स्थितियों को जन्म देने के साथ-साथ नागरिकों को विभेदकारी तंत्र से अनुकूलन की प्रेरणा देते हैं. इन्हीं की मदद से शिखरस्थ शक्तियां उत्पादन केंद्रों पर अधिकार जमाए रहती हैं. स्थायी परिवर्तन वर्गभेद को जन्म देने वाली स्थितियों के उन्मूलन बगैर संभव नहीं. आमूल परिवर्तन के लिए उस मानसिकता में भी संशोधन करना पड़ेगा जो विभेदकारी वातावरण से अनकूलन करना सिखाती है. स्थितियों को उनकी समग्रता में देखने का यह गुण मार्क्स ने अपने गुरु हीगेल से लिया था. अन्य शब्दों में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद वह दरवाजा है जिसको वह अपने जीवनकाल में ही पार कर चुका था. भौतिकवादी मार्क्स आत्मा, परमात्मा और माया जैसी अमूत्र्त धारणाओं के फेर में नहीं पड़ता. हीगेल की पुस्तक ‘फिलास्फी आ॓फ राइट’ की आलोचना करते हुए वह धर्म को जनसाधारण के लिए अफीम बताता है. ‘थीसिस आ॓न फायरबाख’, ‘क्रिटीक आन फिलास्फी आ॓फ राइट’ ऐसी ही पुस्तकें हैं, जिनमें उसके धर्म-संबंधी विचारों की आलोचना की झलक है. एक अन्य पुस्तक में उसने हीगेल के शिष्य और अपने मित्र बूनो बायर की आलोचना की थी. लेकिन पेरिस क्रांति की असफलता के बाद उसको अपने चिंतन के अधूरेपन की अनुभूति होती है. उसको लगता है कि ‘सर्वहारा’ और ‘पूंजीपति’ की विपरीतधर्मिता ‘काले’ और ‘सफेद’, ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ की द्वैत जितनी ही आभासी है. आमूल परिवर्तन के अभाव में ही सर्वहारा राज्य के सर्वहारा अधिनायकवादी राष्ट्र में बदलते देर नहीं लगती.
मार्क्स द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से अपने चिंतन की शुरुआत करता है, लेकिन वह उससे उतना ही काम लेता है, जितना कोई भौतिक विज्ञानी गणित के पूर्वस्थापित सूत्र से, मिस्त्री अपने औजार से. सर्वहारा वर्ग द्वारा सत्ता पर अधिकार कर लेने के बाद आंदोलन का दूसरा लेकिन अतिमहत्त्वपूर्ण चरण आरंभ हो जाता है, साम्यवाद के सिद्धांतों के अनुरूप राज्य को ढालने का. उसमें वह वर्गहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य को सामने रखता है. वह एक ऐसे समाज की परिकल्पना करता है, जिसमें लोग पारस्परिक कल्याण भावना के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े हों. उसकी व्याख्या में साम्यवाद केवल राजनीतिक व्यवस्था तक ही सीमित नहीं रह जाता. साम्यवादी दर्शन को उठान देता हुआ मार्क्स , उसे अपने गुरु हीगेल के ‘परमशुभ’ का पर्याय बना देता है. उसके अनुसार साम्यवाद ऐसी अवस्था है, जहां समाज के सभी प्रकार के द्वैतों का शमन हो जाता है. समस्त द्वंद्वों का समाधान हो जाता है. सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-मनोभौतिक समरसता का वातावरण बनने लगता है. असंतुलन एवं असमानता की भावना कमजोर पड़ जाती है. कह सकते हैं कि साम्यवाद के रूप में वह ऐसे दर्शन की परिकल्पना करता है जहां नियंत्रणकारी समूहों की आवश्यकता ही न हो. मनुष्य जीवन और समाज के उच्चादर्शों से स्वतः अनुशासित हों. धर्म, संस्कृति जैसे परंपरागत मूल्यों के बजाय लोग उत्पादन, समान उपभोग और सहजीवन के वैज्ञानिक नियमों से एक-दूसरे से आबद्ध हों. समाज अपनी आंतरिक नैतिकता, समानता के सिद्धांत एवं लोकतंत्र द्वारा मर्यादित रहे . ऐसे राज्य में सरकार की उपस्थिति महज इसलिए जरूरी हो, ताकि वह शेष विश्व को उसकी भावनाओं और संकल्पों से परचा सके. हीगेल के दर्शन में परमशुभ एक लक्ष्य है. चूंकि वर्गहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य भी अपने आप में काफी जटिल और लंबी प्रक्रिया है, इसलिए साम्यवाद को समर्पित संस्थाओं को इसके लिए सतत प्रयासरत रहना होता है.
यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उभरता है कि यदि साम्यवाद इतनी ही उत्कृष्ट व्यवस्था है तो यह विश्व में इतनी सिमटी हुई क्यों है? बीसवीं शताब्दी के मध्याह्न में विश्व के लगभग आधे देशों में प्रभाव रखने वाला साम्यवाद शताब्दी के अंत तक मात्र पांच देशों का खेवनहार बनकर रह गया, आखिर क्यों? सोवियत संघ जैसी व्यवस्था का पतन हुआ. अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए चीन पूंजीवाद के साथ समझौतावादी रुख अपनाए हुए है. आखिर क्या कारण है कि साम्यवाद जैसी आदर्शोन्मुखी प्रणाली अपनी प्रतिबद्ध सैद्धांतिकी के बावजूद बिखराव का शिकार होने से स्वयं को बचाने में असमर्थ रही? इसके बरक्स पूंजीवाद जिसकी अपनी कोई सैद्धांतिकी नहीं है, आज दुनिया के बड़े-बड़े देशों का भाग्यविधाता बना हुआ है. आखिर क्यों? मुझे लगता है कि साम्यवाद की अतिआदर्शोन्मुखी दार्शनिक प्रतिबद्धता ही उसकी असफलता का कारण है, बड़ा कारण. इसकी तह में जाने के लिए हमें एक बार फिर मार्क्स की शरण में लेनी होगी. कार्ल मार्क्स का कुल जीवनदर्शन दो हिस्सों में बंटा है. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद. जिसमें वह सर्वहारा और पूंजीपति के बीच संघर्ष को अनिवार्य मानता है. दूसरा वर्गहीन समाज की स्थापना का साम्यवादी लक्ष्य. जो उसका दूसरा और महत्त्वपूर्ण चरण है. इतना कि उसके अभाव में पहले चरण की सफलता के असफलता में बदलते देर नहीं लगती. यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो पहली अवधारणा में जबरदस्त राजनीतिक अपील है, जो व्यवस्था से उत्पीड़ित बहुसंख्यक वर्ग को सामूहिक कल्याण की भावना के अनुसार संगठित करने का सामर्थ्य रखती है. यह अपील बहुत कुछ परंपरागत सामंतवादी राजनीति से मिलती-जुलती है. जिसमें युद्ध एवं हिंसा के रास्ते सत्ता हथिया ली जाती थी. अंतर केवल इतना है कि सामंतवाद में प्रायः उग्र राष्ट्रवाद और बाद में तलवार की ताकत के दम पर ही उसको कायम रखा जाता था. अंतर सिर्फ इतना है कि राजशाही में युद्ध किसी एक व्यक्ति की साम्राज्यवादी लिप्साओं द्वारा आम प्रजा पर थोप दिए जाते थे, साम्यवाद में वे सर्वहारा वर्ग द्वारा, जो मार्क्स के अनुसार वास्तविक उत्पादक शक्ति है, परिवर्तन की कामना के साथ तय होते हैं. दोनों अवस्थाओं में हिंसा अपरिहार्य है. इसलिए हम देखते हैं कि जिन देशों में साम्यवादी क्रांति हुई वहां जनाक्रोश का लाभ उठाने के लिए ऐसे नेता उभरकर सामने आए जो सैन्य संचालन में निपुण थे. रूस, चीन, क्यूबा, वियतनाम, आदि इसके उदाहरण हैं. जर्मनी में हिटलर ने जब निरंकुश तानाशाही कायम की तो उसका नारा भी समाजवादी होने का था. भारत आदि देशों में जहां नेतृत्व की बागडोर गैर सैनिक नेताओं के हाथों में थी, वहां साम्यवाद केंद्रीय व्यवस्था का हिस्सा कभी न बन सका. जिन देशों में सैन्य कार्रवाही अथवा सैन्य नेताओं के प्रभाव से साम्यवाद आया, वहां जनता और सामरिक शक्तियां साथ-साथ थीं. लेकिन सैन्य नेतृत्व की अपनी कमजोरी होती है. साम्यवादी अनुशासन में स्वयं को ढालने के लिए बाहरी के साथ आंतरिक अनुशासन भी अपेक्षित था. सामरिक बल पर सत्तारूढ़ हुए सर्वहारा संगठन जनता पर बाहरी अनुशासन तो थोप सकते थे, आंतरिक अनुशासन के लिए उनमें न तो आवश्यक नैतिक बल था, न ही वैसा अभ्यास. इसलिए कि यह राजनीति से अधिक सामाजिक कृत्य था, जिसका उनको अभ्यास न था. तलवार की धार और बाहरी अनुशासन के बल पर साम्यवादी शक्तियां जब तक बनी रह सकती थीं, रहीं. बाद में उनको बढ़ते जनाक्रोश की मदद से अपदस्थ कर दिया गया.
पूंजीवाद साम्यवाद के मुकाबले बहुत लचीली व्यवस्था है. वह उपभोक्ता-अधिकार, मानवाधिकार, लैंगिक समानता, जातीय भेदभाव के उन्मूलन, मुक्त व्यापार, लोकतंत्र आदि लोकलुभावन नारों के बूते जनता का अपने प्रति अनुकूलन कर लेती है. साम्यवाद आधुनिकता का दावा करते हुए धर्म का विरोध करता था. लेकिन पूंजीवाद धर्म का उपयोग भी अपने पक्ष में माहौल बनाए रखने के लिए करता है. साम्यवाद के प्रचार में लगी शक्तियों की कमजोरी है कि जनता पर अपना प्रभाव बनाए रखने वे उन्हीं रास्तों का अनुसरण करती हैं, जिनपर चलकर धर्म मानवीय विवेक की उपेक्षा का वातावरण बनाता है. शायद इसी कारण अल्पचेतनशील समाजों वे आरोपित धर्म को अपनाने के बजाय परंपरागत धर्म की शरण में जाना उचित समझते हैं. ऐसा नहीं है कि साम्यवादी विचारक इस कमजोरी से अनभिज्ञ हों. अंतोनियो ग्राम्शी ने इसलिए सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से मुक्ति का नारा भी साथ-साथ दिया था. उसने सर्वहारा वर्ग से अपील की थी कि वे अपने बीच से बुद्धिजीवी पैदा करें. ताकि उसके अनुरूप राजनीतिक नेतृत्व तैयार हो सके. भारत जैसे देशों में साम्यवाद की असफलता का कारण यह रहा है कि यहां राजनीति में वे लोग आए जो संसद में घुसपैठ के लिए गलियारों की तलाश में थे. साम्यवाद के दार्शनिक पक्ष को समझे-समझाए बिना केवल व्यावहारिक पक्ष की राजनीति को बढ़ावा दिया गया. उन समस्याओं को केंद्र में रखकर आंदोलन चलाए गए, जिनका जनता के वास्तविक विकास से कोई सीधा संबंध न था. उन्होंने सामाज के न तो मूल ढांचे में छेड़छाड़ की जरूरत महसूस की, न आमूल परिवर्तन के लिए वांछित प्रयास किए. वैचारिक निष्ठा के अभाव तथा लोकप्रिय राजनीति से लगाव के कारण वे हताशा की लड़ाई लड़ते रहे हैं.
अंत में एक प्रश्न कि क्या साम्यवाद का कोई भविष्य है. तो मैं बेहिचक बिना कोई पल गंवाए कहूंगा कि है. राजनीतिक सामंतवाद की तरह पूंजीवादी सामंतवादी निरंकुशता नहीं चल सकती. इसलिए एक न एक दिन साम्यवाद को अपनाना ही होगा. शोषणकारी शक्तियों में साम्यवाद का आज भी कितना भय है, वह एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है. मार्क्स ने ‘बुर्जुआ’ शब्द का उपयोग अनेक स्थान पर किया है. इस शब्द से उसका आशय उन लोगों से था जिन्होंने तीव्र मशीनीकरण का लाभ उठाकर, पूंजीगत निवेश-विनिवेश के माध्यम से अकूत पूंजी जमा की है. उसका उपयोग अब वे श्रमिक शोषण को बनाए रखने के लिए नए-नए रूप में कर रहे हैं. लेकिन आधुनिक शब्दकोशों में इस शब्द का अर्थ देख लीजिए, वह ‘मध्यवर्ग’ अथवा ‘शिक्षित मध्यवर्ग’ ही मिलेगा, जिसका मार्क्स की अवधारणा से कोई संबंध नहीं है.
अब यह सर्वहारा वर्ग के ऊपर है कि कब पूंजीवादी प्रलोभनों से बाहर निकलकर आमूल परिवर्तन का आवाह्न करता है.
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