मस्तराम कपूर
(जनसत्ता) गरीबी हटाने या समाज कल्याण के नाम पर जनता को खैरात बांटने की योजनाएं भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत रही हैं। इन योजनाओं में इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा और बाद की कांग्रेसी सरकारों द्वारा चलाई गई अनेक योजनाएं भी शामिल हैं और उनके अनुकरण में क्षेत्रीय पार्टियों की सरकारों द्वारा चलाई गई सस्ते अनाज, मुफ्त टीवी, साड़ियां आदि बांटने और स्कूलों में बच्चों को पौष्टिक भोजन देने की योजनाएं भी शामिल हैं। इसी क्रम में अब तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक सरकार ने दुधारू पशुओं के वितरण की योजना भी चलाई है, जिसकी सरकारी पैसे की लूट के कारण इन दिनों खूब धूम है।
चारा कांड भी एक ऐसी ही योजना थी, जिसका लक्ष्य तो था गरीब जनता की मदद करना, लेकिन जो कुल मिला कर जनता के नाम पर सरकारी पैसे की लूट का प्रतिनिधि उदाहरण बन गई। इन सारी योजनाओं में प्रधानमंत्री सड़क निर्माण योजना ही ऐसी थी जिससे ग्रामीण क्षेत्रों की मूल सुविधाओं के निर्माण का कुछ काम हुआ और जनता को कुछ फायदा मिला, हालांकि भ्रष्टाचार से वह योजना भी मुक्त नहीं रही। इंदिरा आवास योजना और समेकित बाल विकास योजनाएं भी कुछ उपलब्धियों के बावजूद भारी भ्रष्टाचार का स्रोत रही हैं।
मनरेगा के अंतर्गत भूमिहीन बेरोजगार परिवार के एक व्यक्ति को साल में सौ दिन की मजदूरी सौ रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मिलती है। अब इसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ दिया गया है और इसकी वजह से इसमें मामूली बढ़ोतरी हो गई है। यह गौरतलब है कि कई राज्यों में मनरेगा की मजदूरी, घोषित न्यूनतम मजदूरी से कम है, और इसकी वजह से केंद्र सरकार को सर्वोच्च न्यायालय की फटकार भी सुननी पड़ी है। पहले कर्नाटक हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम पैसा मनरेगा के तहत नहीं दिया जा सकता। इस फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी और कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया। अगर मनरेगा की मजदूरी बिना कमीशन कटे पूरी की पूरी भी मिल जाए तो भी वह पांच व्यक्तियों के परिवार में प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में साढ़े पांच रुपए रोज पड़ती है। इतने में एक कप चाय भी आज नहीं मिलेगी। हालांकि इस योजना पर पिछले पांच सालों में कई लाख करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं जिनमें से शायद आधे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़े हैं। इसी क्रम में खाद्य सुरक्षा योजना बनी है, जिससे संबंधित विधेयक संसद में पेश हो चुका है और स्थायी समिति के पास हैे।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के अनुसार सत्तर प्रतिशत ग्रामीण जनता और पचपन प्रतिशत शहरी जनता को दो रुपए किलो गेहूं और तीन रुपए किलो चावल प्रति व्यक्ति के हिसाब से मिलेगा। लगभग पैंसठ प्रतिशत आबादी मामूली खर्च पर (जो लगभग मुफ्त ही होगा) भरपेट खाना खा सकेगी। इस योजना के कारण, सरसरे अनुमान के अनुसार, एक लाख करोड़ रुपए का बोझ सरकारी खजाने पर प्रति वर्ष पडेÞगा। इसके लिए छह करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी।
सरकार की ओर से की जाने वाली खरीद ज्यादा से ज्यादा पांच करोड़ टन होती है। लगभग डेढ़ करोड़ टन अनाज हर साल विदेशों से खरीदना पड़ेगा। इससे हमारा विदेशी मुद्रा का भंडार इतना क्षीण होगा कि हम 1990 की स्थिति में पहुंच जाएंगे। यही सोच कर वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की नींद उड़ गई है।
लेकिन फिलहाल हम इसके इस पहलू को छोड़ते हैं और इसके दूसरे पहलू पर विचार करें। हमारे देश की गरीब जनता, जो कुल आबादी का अस्सी प्रतिशत है, दो जून की रोटी के लिए ही संघर्ष करती रही है। उसका सारा श्रम, परिवार की औरतों और बच्चों के श्रम सहित, दो वक्त के भरपेट खाने के लिए ही रहा है। जब खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत मामूली खर्च पर भरपेट खाने की व्यवस्था हो जाएगी तो वह कोई भी काम क्यों करेगा? वह खेतों में अपने हाड़ क्यों तुड़वाएगा? वह उन सब कामों को क्यों करेगा जिनसे उसे अपने परिवार के लिए दो वक्त के भरपेट खाने की व्यवस्था करनी पड़ती थी। वह अपनी जमीन को बंजर पड़ा रहने देकर घर बैठे आराम की जिंदगी क्यों नहीं बिताएगा या ताश, जुआ आदि में अपना फालतू समय क्यों नहीं लगाएगा?
वह अपराधों के रास्ते सस्ती कमाई करने की ओर उन्मुख क्यों नहीं होगा या अपना फालतू समय राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में लगा कर क्रांतिकारी कहलाने का दावा क्यों नहीं करेगा? वह उद्योगपतियों को अपनी जमीन बेच कर शहरी मध्यवर्ग की जीवनशैली क्यों नहीं अपनाएगा और इस प्रक्रिया में निठल्ला जीवन जीने और जल्दी से जल्दी धनाढ्य बनने और रईस-राजाओं की तरह वैभव में जीने के लिए अपराध या राजनीति के धंधे में क्यों नहीं लगेगा?
यह संभावना शेखचिल्ली की उड़ान नहीं है। जिन गांवों में सस्ते अनाज की योजना लागू है वहां देखने में आया है कि श्रम-योग्य व्यक्तियों का अधिकांश समय ताश आदि खेलने या आपराधिक गतिविधियों में बीतता है। वहां खेतीयोग्य भूमि उजाड़ होती जा रही है। गांवों में रहने वाली सत्तर-अस्सी प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर रही है जिसमें किसान भी हैं और भूमिहीन मजदूर और कारीगर जातियां भी। खेती उजड़ गई तो यह सारी आबादी बेरोजगार हो जाएगी।
चूंकि श्रम या रोजगार पेट ही नहीं भरता, बल्कि स्वतंत्रता का सुख और स्वाभिमान भी देता है, इन बेरोजगार व्यक्तियों की हैसियत कुल मिला कर सरकार की भीख पर पलने वाले भिखारियों की हो जाएगी। अगर इस योजना के साथ-साथ ग्रामीण आबादी के लिए बडेÞ पैमाने पर रोजगार सृजित नहीं हुए तो इस पूरे समाज का निठल्ले समाज में बदल जाना निश्चित है। वह एक समय के चीनी समाज की तरह अफीम पर जीने वाला समाज बन जाएगा। यह प्रक्रिया भारत में चलने भी लगी है। खेती की दृष्टि से सबसे समृद्ध माने जाने वाले प्रदेश पंजाब में ऐसे ही हालात बनने लगे हैं। यहां का युवा वर्ग नशीले पदार्थों के चंगुल में फंसता जा रहा है। अगर इस स्थिति पर काबू नहीं पाया गया तो पुलिस और सेना के लिए स्वस्थ युवाओं की कमी की समस्या खड़ी हो जाएगी। यह कमी सेना में महसूस भी की जाने लगी है।
कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। हम लोगों के हाथ का काम छीनते जा रहे हैं। एक तरफ उद्योगों के लिए खेती को उजाड़ा जा रहा है, दूसरी तरफ उन्नत प्रौद्योगिकी शहरी आबादी के रोजगार छीनती जा रही है। इधर खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश से लगभग पांच करोड़ खुदरा कर्मियों के रोजगार छिनने वाले हैं। खाली हाथ और खाली दिमाग की यह फौज क्या गुल खिलाएगी, यह अनुमान का विषय है।
एक समय था जब विकास का पैमाना रोजगार को माना जाता था। पूर्ण रोजगार का सिद्धांत पिछली सदी में इंग्लैंड के अर्थशास्त्री कीन्ज ने रखा था। इसे अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने अपने न्यू डील कार्यक्रम में भी अपनाया था। भूमंडलीकरण के दौर में इस सिद्धांत को उलट दिया गया और प्रौद्योगिकी के सतत विकास से मानव-श्रम में लगातार कटौती कर रोजगारों को खत्म किया जाता रहा। महात्मा गांधी की आर्थिक कल्पना में मानव-श्रम को पवित्रता प्रदान की गई थी।
उन्होंने चरखे को आजादी का साधन बनाया, जिसकी उस समय के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी रवींद्रनाथ ठाकुर ने आलोचना की थी। लेकिन चरखा न केवल कलात्मक श्रम था, बल्कि अल्प मात्रा में ही सही, रोजगार भी था। वह आम जनता को आत्म-निर्भरता और आत्म-गौरव का सुख भी देता था और एक महान लक्ष्य की लंबी लड़ाई के लिए आम आदमी को तैयार भी करता था। गांधी ने सिद्ध किया कि मानव-श्रम ही सृजन है। अर्थशास्त्र में इसी सिद्धांत का विस्तार कीन्ज ने किया। पर नवउदारवाद ने रोजगारों में उत्तरोत्तर कटौती वाले आर्थिक विकास का रास्ता अपनाया। जाहिर है, यह रास्ता झूठ, छल, जुआ, सट्टा, कीमतों की हेराफेरी, ब्याज पर ब्याज, छद्म उत्पादन (वस्तुओं और माल के उत्पादन के बजाय सुविधाओं का उत्पादन) का ही हो सकता है। इस उत्पादन का लक्ष्य वही वर्ग हैं जो आहार, निद्रा, भय की मूलभूत जरूरतों से मुक्त हो चुके हैं और अब सुविधाओं के पीछे पागल हैं।
यह वर्ग कुल आबादी के पंद्रह-बीस प्रतिशत से अधिक नहीं होता। शेष अस्सी प्रतिशत, जिसके हाथ से रोजगार छिनता जाता है, सरकार की सहायता पर निर्भर रहता है। यह सहायता इतनी ही होती है कि आदमी जिंदा भर रहे। मनरेगा और खाद्य सुरक्षा की योजनाएं इसी तरह की सहायता पहुंचाने वाली योजनाएं हैं। यह सहायता उसी तरह की होती है जैसे पुराने जमाने के सेठ-सेठानियां मंदिरों के बाहर लगी भिखारियों की भीड़ को पहुंचाते थे और पुण्य अर्जित करते थे। आज की सरकारें भी नकद पैसा, भोजन आदि का दान कर अपने लिए सत्ता-सुख अर्जित करती हैं।
गरीबी की समस्या मनरेगा, खाद्य सुरक्षा या नकद धनराशि देकर हल नहीं हो सकती। ये योजनाएं राजनेताओं के लिए वोटबैंक और भ्रष्ट लोगों के लिए अवैध कमाई का स्रोत तो हो सकती हैं, लेकिन रोजगार से मिलने वाला स्वाभिमान और सम्मानपूर्ण जीवन नहीं दे सकतीं। प्रत्येक श्रम-योग्य व्यक्ति के लिए उचित रोजगार की व्यवस्था ही आर्थिक नीतियों का लक्ष्य होना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में मूल सुविधाओं के निर्माण का काम आज भी इतना पड़ा है कि अगर कल्पनाशील सरकार हो तो करोड़ों लोगों को रोजगार पर लगाया जा सकता है।
वास्तव में तीसरी दुनिया में मूल सुविधाओं के निर्माण के काम से सारी दुनिया की बेरोजगारी दूर हो सकती है। इस तरह का सुझाव कभी डॉ लोहिया ने रखा था। उन्होंने कहा था कि विश्व को एक परिवार मान कर अविकसित देशों के विकास के लिए विकसित देश छोटी मशीन और औजार बनाएं, बजाय अपना फालतू माल वहां डंप करने के, तो विकसित देशों में भी लाखों रोजगार सृजित हो सकते हैं और अविकसित देशों में भी। आउटसोर्सिंग या इनसोर्सिंग से बेरोजगारी दूर होने वाली नहीं हैं। यह पूंजी के स्थानांतरण की तरह ही उपलब्ध रोजगारों का स्थानांतरण मात्र है।
(जनसत्ता) गरीबी हटाने या समाज कल्याण के नाम पर जनता को खैरात बांटने की योजनाएं भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत रही हैं। इन योजनाओं में इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा और बाद की कांग्रेसी सरकारों द्वारा चलाई गई अनेक योजनाएं भी शामिल हैं और उनके अनुकरण में क्षेत्रीय पार्टियों की सरकारों द्वारा चलाई गई सस्ते अनाज, मुफ्त टीवी, साड़ियां आदि बांटने और स्कूलों में बच्चों को पौष्टिक भोजन देने की योजनाएं भी शामिल हैं। इसी क्रम में अब तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक सरकार ने दुधारू पशुओं के वितरण की योजना भी चलाई है, जिसकी सरकारी पैसे की लूट के कारण इन दिनों खूब धूम है।
चारा कांड भी एक ऐसी ही योजना थी, जिसका लक्ष्य तो था गरीब जनता की मदद करना, लेकिन जो कुल मिला कर जनता के नाम पर सरकारी पैसे की लूट का प्रतिनिधि उदाहरण बन गई। इन सारी योजनाओं में प्रधानमंत्री सड़क निर्माण योजना ही ऐसी थी जिससे ग्रामीण क्षेत्रों की मूल सुविधाओं के निर्माण का कुछ काम हुआ और जनता को कुछ फायदा मिला, हालांकि भ्रष्टाचार से वह योजना भी मुक्त नहीं रही। इंदिरा आवास योजना और समेकित बाल विकास योजनाएं भी कुछ उपलब्धियों के बावजूद भारी भ्रष्टाचार का स्रोत रही हैं।
मनरेगा के अंतर्गत भूमिहीन बेरोजगार परिवार के एक व्यक्ति को साल में सौ दिन की मजदूरी सौ रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मिलती है। अब इसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ दिया गया है और इसकी वजह से इसमें मामूली बढ़ोतरी हो गई है। यह गौरतलब है कि कई राज्यों में मनरेगा की मजदूरी, घोषित न्यूनतम मजदूरी से कम है, और इसकी वजह से केंद्र सरकार को सर्वोच्च न्यायालय की फटकार भी सुननी पड़ी है। पहले कर्नाटक हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम पैसा मनरेगा के तहत नहीं दिया जा सकता। इस फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी और कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया। अगर मनरेगा की मजदूरी बिना कमीशन कटे पूरी की पूरी भी मिल जाए तो भी वह पांच व्यक्तियों के परिवार में प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में साढ़े पांच रुपए रोज पड़ती है। इतने में एक कप चाय भी आज नहीं मिलेगी। हालांकि इस योजना पर पिछले पांच सालों में कई लाख करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं जिनमें से शायद आधे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़े हैं। इसी क्रम में खाद्य सुरक्षा योजना बनी है, जिससे संबंधित विधेयक संसद में पेश हो चुका है और स्थायी समिति के पास हैे।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के अनुसार सत्तर प्रतिशत ग्रामीण जनता और पचपन प्रतिशत शहरी जनता को दो रुपए किलो गेहूं और तीन रुपए किलो चावल प्रति व्यक्ति के हिसाब से मिलेगा। लगभग पैंसठ प्रतिशत आबादी मामूली खर्च पर (जो लगभग मुफ्त ही होगा) भरपेट खाना खा सकेगी। इस योजना के कारण, सरसरे अनुमान के अनुसार, एक लाख करोड़ रुपए का बोझ सरकारी खजाने पर प्रति वर्ष पडेÞगा। इसके लिए छह करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी।
सरकार की ओर से की जाने वाली खरीद ज्यादा से ज्यादा पांच करोड़ टन होती है। लगभग डेढ़ करोड़ टन अनाज हर साल विदेशों से खरीदना पड़ेगा। इससे हमारा विदेशी मुद्रा का भंडार इतना क्षीण होगा कि हम 1990 की स्थिति में पहुंच जाएंगे। यही सोच कर वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की नींद उड़ गई है।
लेकिन फिलहाल हम इसके इस पहलू को छोड़ते हैं और इसके दूसरे पहलू पर विचार करें। हमारे देश की गरीब जनता, जो कुल आबादी का अस्सी प्रतिशत है, दो जून की रोटी के लिए ही संघर्ष करती रही है। उसका सारा श्रम, परिवार की औरतों और बच्चों के श्रम सहित, दो वक्त के भरपेट खाने के लिए ही रहा है। जब खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत मामूली खर्च पर भरपेट खाने की व्यवस्था हो जाएगी तो वह कोई भी काम क्यों करेगा? वह खेतों में अपने हाड़ क्यों तुड़वाएगा? वह उन सब कामों को क्यों करेगा जिनसे उसे अपने परिवार के लिए दो वक्त के भरपेट खाने की व्यवस्था करनी पड़ती थी। वह अपनी जमीन को बंजर पड़ा रहने देकर घर बैठे आराम की जिंदगी क्यों नहीं बिताएगा या ताश, जुआ आदि में अपना फालतू समय क्यों नहीं लगाएगा?
वह अपराधों के रास्ते सस्ती कमाई करने की ओर उन्मुख क्यों नहीं होगा या अपना फालतू समय राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में लगा कर क्रांतिकारी कहलाने का दावा क्यों नहीं करेगा? वह उद्योगपतियों को अपनी जमीन बेच कर शहरी मध्यवर्ग की जीवनशैली क्यों नहीं अपनाएगा और इस प्रक्रिया में निठल्ला जीवन जीने और जल्दी से जल्दी धनाढ्य बनने और रईस-राजाओं की तरह वैभव में जीने के लिए अपराध या राजनीति के धंधे में क्यों नहीं लगेगा?
यह संभावना शेखचिल्ली की उड़ान नहीं है। जिन गांवों में सस्ते अनाज की योजना लागू है वहां देखने में आया है कि श्रम-योग्य व्यक्तियों का अधिकांश समय ताश आदि खेलने या आपराधिक गतिविधियों में बीतता है। वहां खेतीयोग्य भूमि उजाड़ होती जा रही है। गांवों में रहने वाली सत्तर-अस्सी प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर रही है जिसमें किसान भी हैं और भूमिहीन मजदूर और कारीगर जातियां भी। खेती उजड़ गई तो यह सारी आबादी बेरोजगार हो जाएगी।
चूंकि श्रम या रोजगार पेट ही नहीं भरता, बल्कि स्वतंत्रता का सुख और स्वाभिमान भी देता है, इन बेरोजगार व्यक्तियों की हैसियत कुल मिला कर सरकार की भीख पर पलने वाले भिखारियों की हो जाएगी। अगर इस योजना के साथ-साथ ग्रामीण आबादी के लिए बडेÞ पैमाने पर रोजगार सृजित नहीं हुए तो इस पूरे समाज का निठल्ले समाज में बदल जाना निश्चित है। वह एक समय के चीनी समाज की तरह अफीम पर जीने वाला समाज बन जाएगा। यह प्रक्रिया भारत में चलने भी लगी है। खेती की दृष्टि से सबसे समृद्ध माने जाने वाले प्रदेश पंजाब में ऐसे ही हालात बनने लगे हैं। यहां का युवा वर्ग नशीले पदार्थों के चंगुल में फंसता जा रहा है। अगर इस स्थिति पर काबू नहीं पाया गया तो पुलिस और सेना के लिए स्वस्थ युवाओं की कमी की समस्या खड़ी हो जाएगी। यह कमी सेना में महसूस भी की जाने लगी है।
कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। हम लोगों के हाथ का काम छीनते जा रहे हैं। एक तरफ उद्योगों के लिए खेती को उजाड़ा जा रहा है, दूसरी तरफ उन्नत प्रौद्योगिकी शहरी आबादी के रोजगार छीनती जा रही है। इधर खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश से लगभग पांच करोड़ खुदरा कर्मियों के रोजगार छिनने वाले हैं। खाली हाथ और खाली दिमाग की यह फौज क्या गुल खिलाएगी, यह अनुमान का विषय है।
एक समय था जब विकास का पैमाना रोजगार को माना जाता था। पूर्ण रोजगार का सिद्धांत पिछली सदी में इंग्लैंड के अर्थशास्त्री कीन्ज ने रखा था। इसे अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने अपने न्यू डील कार्यक्रम में भी अपनाया था। भूमंडलीकरण के दौर में इस सिद्धांत को उलट दिया गया और प्रौद्योगिकी के सतत विकास से मानव-श्रम में लगातार कटौती कर रोजगारों को खत्म किया जाता रहा। महात्मा गांधी की आर्थिक कल्पना में मानव-श्रम को पवित्रता प्रदान की गई थी।
उन्होंने चरखे को आजादी का साधन बनाया, जिसकी उस समय के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी रवींद्रनाथ ठाकुर ने आलोचना की थी। लेकिन चरखा न केवल कलात्मक श्रम था, बल्कि अल्प मात्रा में ही सही, रोजगार भी था। वह आम जनता को आत्म-निर्भरता और आत्म-गौरव का सुख भी देता था और एक महान लक्ष्य की लंबी लड़ाई के लिए आम आदमी को तैयार भी करता था। गांधी ने सिद्ध किया कि मानव-श्रम ही सृजन है। अर्थशास्त्र में इसी सिद्धांत का विस्तार कीन्ज ने किया। पर नवउदारवाद ने रोजगारों में उत्तरोत्तर कटौती वाले आर्थिक विकास का रास्ता अपनाया। जाहिर है, यह रास्ता झूठ, छल, जुआ, सट्टा, कीमतों की हेराफेरी, ब्याज पर ब्याज, छद्म उत्पादन (वस्तुओं और माल के उत्पादन के बजाय सुविधाओं का उत्पादन) का ही हो सकता है। इस उत्पादन का लक्ष्य वही वर्ग हैं जो आहार, निद्रा, भय की मूलभूत जरूरतों से मुक्त हो चुके हैं और अब सुविधाओं के पीछे पागल हैं।
यह वर्ग कुल आबादी के पंद्रह-बीस प्रतिशत से अधिक नहीं होता। शेष अस्सी प्रतिशत, जिसके हाथ से रोजगार छिनता जाता है, सरकार की सहायता पर निर्भर रहता है। यह सहायता इतनी ही होती है कि आदमी जिंदा भर रहे। मनरेगा और खाद्य सुरक्षा की योजनाएं इसी तरह की सहायता पहुंचाने वाली योजनाएं हैं। यह सहायता उसी तरह की होती है जैसे पुराने जमाने के सेठ-सेठानियां मंदिरों के बाहर लगी भिखारियों की भीड़ को पहुंचाते थे और पुण्य अर्जित करते थे। आज की सरकारें भी नकद पैसा, भोजन आदि का दान कर अपने लिए सत्ता-सुख अर्जित करती हैं।
गरीबी की समस्या मनरेगा, खाद्य सुरक्षा या नकद धनराशि देकर हल नहीं हो सकती। ये योजनाएं राजनेताओं के लिए वोटबैंक और भ्रष्ट लोगों के लिए अवैध कमाई का स्रोत तो हो सकती हैं, लेकिन रोजगार से मिलने वाला स्वाभिमान और सम्मानपूर्ण जीवन नहीं दे सकतीं। प्रत्येक श्रम-योग्य व्यक्ति के लिए उचित रोजगार की व्यवस्था ही आर्थिक नीतियों का लक्ष्य होना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में मूल सुविधाओं के निर्माण का काम आज भी इतना पड़ा है कि अगर कल्पनाशील सरकार हो तो करोड़ों लोगों को रोजगार पर लगाया जा सकता है।
वास्तव में तीसरी दुनिया में मूल सुविधाओं के निर्माण के काम से सारी दुनिया की बेरोजगारी दूर हो सकती है। इस तरह का सुझाव कभी डॉ लोहिया ने रखा था। उन्होंने कहा था कि विश्व को एक परिवार मान कर अविकसित देशों के विकास के लिए विकसित देश छोटी मशीन और औजार बनाएं, बजाय अपना फालतू माल वहां डंप करने के, तो विकसित देशों में भी लाखों रोजगार सृजित हो सकते हैं और अविकसित देशों में भी। आउटसोर्सिंग या इनसोर्सिंग से बेरोजगारी दूर होने वाली नहीं हैं। यह पूंजी के स्थानांतरण की तरह ही उपलब्ध रोजगारों का स्थानांतरण मात्र है।
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