सुधीश पचौरी, हिंदीं साहित्यकार
हिंदी साहित्य की सबसे बड़ी मंडी है दिल्ली। किसिम-किसिम के साहित्यफरोश रहते हैं यहां। हर सीजन के, हर मौके के मिलते हैं। यहां लोकार्पण एक्सपर्ट, पैरवी एक्सपर्ट, रिव्यू एक्सपर्ट, इसे उठा-उसे गिरा एक्सपर्ट, टंगड़ीमार एक्सपर्ट मिलते हैं। आप फोन पर ऑर्डर कीजिए, फ्री होम डिलीवरी। घर तक!
आपको ‘फ्रीडम फाइटर’ चाहिए, तो वह मिल जाएगा। आपको ‘जेपी फाइटर’ चाहिए, तो वह मिल जाएगा। आपको ‘अन्ना फाइटर’ चाहिए, तो वह भी हाजिर है। आपको सुविचारक मिल जाएगा। कुविचारक मिल जाएगा। आपको निंदक मिल जाएगा, छिद्रान्वेषी मिल जाएगा। प्रलेस वाला चाहिए, तो वह मिलता है। जलेस वाला चाहिए, तो वह भी हाजिर है। जसम वाला चाहिए, तो वह भी हाजिर है। आपको भारालेस वाला चाहिए, तो उसमें भी कोई दिक्कत नहीं। दलेसं भी मिल जाएगा। दलित लेखक तो इन दिनों इफरात में मिलेंगे। आपको दलितों में ‘अतिदलित’ चाहिए, तो अतिदलित भी मिलेंगे। आपको ‘अंतर्दलित’ चाहिए, तो वह मिलेगा-दलितोत्तम भी मिलेगा। ‘ललित-दलितजी’ चाहिए, तो मिलेंगे। ‘दलित-ललितजी’ चाहिए, तो मिलेंगे। ‘दलित-दलित’ चाहिए, तो मिलेगा। ‘ललित-ललित’ चाहिए, तो वह मिलेगा। ‘दलित’, ‘दलिततर’, ‘दलिततम’ मिलेंगे। क्रीमी लेयर वाले मिलेंगे। क्रीमी बनने के इंतजार में मिलेंगे। खुरचन वाले भी मिलेंगे! ओबीसी लेखक चाहिए, तो ओबीसी मिलेंगे। उनकी बहार बहाली के दिन हैं। पिछड़ों में ‘कुछ पिछड़ा’, ‘कुछ अधिक पिछड़ा’, ‘कुछ अधिकतम पिछड़ा’ मिलेगा। ‘पिछड़ोत्तम’ पिछड़ा मिलेगा। आपको ब्राह्माण लेखक चाहिए, तो सरयूपारी से कान्यकुब्ज तक खूब मिलेंगे। आज तक साहित्य पर शुक्ल, मिश्र, शर्मा, वाजपेइयों आदि इत्यादियों का ही कब्जा रहा है। यह लेखक खुद बामन है। अपनी जाति का सच जानता है। अंदर की बात इससे ज्यादा नहीं कहूंगा। बोलूंगा, तो जाति बाहर कर दिया जाऊंगा। जाति में रहूं, इसलिए जरूरी है कि चुप रहूं। हिंदी साहित्य का वैश्य युग भी रहा है। आज कॉरपोरेट युग आ गया है। गुप्तजी के बाद साहित्य में यह प्रवृत्ति ‘गुप्त’ रहने लगी है। तो भी यत्र-तत्र दर्शन दे देते हैं। इनका संकोच श्लाघ्य है। साहित्य में क्षत्रिय भी पर्याप्त मिलते हैं। तरह-तरह के क्षत्रिय। मित्र क्षत्रिय, शत्रु क्षत्रिय। कुछ का कहना है कि हिंदी साहित्य का जितना नाश एक क्षत्रिय ने किया है, उतना बाकी मिलकर भी नहीं कर सकते। हर रंग का, हर वर्ण का, हर धर्म का, हर इलाके का मिलेगा। बिहार का चाहिए, तो इन दिनों प्रचुर मात्र में है। साहित्य में तो पूरी बिहारी कॉलोनी बस गई है। कभी पहाड़वालों का वर्चस्व हुआ करता था। अब बिहार वाले छा गए हैं। यूपी वाला तो पहले से ही खूब रहा है। मध्य प्रदेश वाले से लेकर राजस्थान वाला तक मिलेगा। पंजाब वाला भी मिलता है। अब तो गैर हिंदी भाषी वाले भी थोक में मिल जाते हैं। आपको गृहस्थ प्रेमी, गृहस्थ-भंजक, राष्ट्रवादी, अंतरराष्ट्रवादी, लोकलवादी, ग्लोबलवादी, मानववादी, दानववादी सब तरह के मिल जाएंगे। दिल्ली में हर तरह के साहित्यकार मिलते हैं- आप बस फोन कीजिए। अध्यक्ष चाहिए? मुख्य अतिथि चाहिए? विशेषज्ञ चाहिए? बस दिल्ली फोन कीजिए। यह ऐसी विचित्र मंडी है, जिसमें बिकने वाला आइटम खुद को बाजार विरोधी कहते हुए बिकने को तैयार रहता है। आप उसके अनाड़ीपन का बुरा न मानें। बिकते हुए विरोध करते दिखना उसकी स्टाइल भर है...।
हिंदी साहित्य की सबसे बड़ी मंडी है दिल्ली। किसिम-किसिम के साहित्यफरोश रहते हैं यहां। हर सीजन के, हर मौके के मिलते हैं। यहां लोकार्पण एक्सपर्ट, पैरवी एक्सपर्ट, रिव्यू एक्सपर्ट, इसे उठा-उसे गिरा एक्सपर्ट, टंगड़ीमार एक्सपर्ट मिलते हैं। आप फोन पर ऑर्डर कीजिए, फ्री होम डिलीवरी। घर तक!
आपको ‘फ्रीडम फाइटर’ चाहिए, तो वह मिल जाएगा। आपको ‘जेपी फाइटर’ चाहिए, तो वह मिल जाएगा। आपको ‘अन्ना फाइटर’ चाहिए, तो वह भी हाजिर है। आपको सुविचारक मिल जाएगा। कुविचारक मिल जाएगा। आपको निंदक मिल जाएगा, छिद्रान्वेषी मिल जाएगा। प्रलेस वाला चाहिए, तो वह मिलता है। जलेस वाला चाहिए, तो वह भी हाजिर है। जसम वाला चाहिए, तो वह भी हाजिर है। आपको भारालेस वाला चाहिए, तो उसमें भी कोई दिक्कत नहीं। दलेसं भी मिल जाएगा। दलित लेखक तो इन दिनों इफरात में मिलेंगे। आपको दलितों में ‘अतिदलित’ चाहिए, तो अतिदलित भी मिलेंगे। आपको ‘अंतर्दलित’ चाहिए, तो वह मिलेगा-दलितोत्तम भी मिलेगा। ‘ललित-दलितजी’ चाहिए, तो मिलेंगे। ‘दलित-ललितजी’ चाहिए, तो मिलेंगे। ‘दलित-दलित’ चाहिए, तो मिलेगा। ‘ललित-ललित’ चाहिए, तो वह मिलेगा। ‘दलित’, ‘दलिततर’, ‘दलिततम’ मिलेंगे। क्रीमी लेयर वाले मिलेंगे। क्रीमी बनने के इंतजार में मिलेंगे। खुरचन वाले भी मिलेंगे! ओबीसी लेखक चाहिए, तो ओबीसी मिलेंगे। उनकी बहार बहाली के दिन हैं। पिछड़ों में ‘कुछ पिछड़ा’, ‘कुछ अधिक पिछड़ा’, ‘कुछ अधिकतम पिछड़ा’ मिलेगा। ‘पिछड़ोत्तम’ पिछड़ा मिलेगा। आपको ब्राह्माण लेखक चाहिए, तो सरयूपारी से कान्यकुब्ज तक खूब मिलेंगे। आज तक साहित्य पर शुक्ल, मिश्र, शर्मा, वाजपेइयों आदि इत्यादियों का ही कब्जा रहा है। यह लेखक खुद बामन है। अपनी जाति का सच जानता है। अंदर की बात इससे ज्यादा नहीं कहूंगा। बोलूंगा, तो जाति बाहर कर दिया जाऊंगा। जाति में रहूं, इसलिए जरूरी है कि चुप रहूं। हिंदी साहित्य का वैश्य युग भी रहा है। आज कॉरपोरेट युग आ गया है। गुप्तजी के बाद साहित्य में यह प्रवृत्ति ‘गुप्त’ रहने लगी है। तो भी यत्र-तत्र दर्शन दे देते हैं। इनका संकोच श्लाघ्य है। साहित्य में क्षत्रिय भी पर्याप्त मिलते हैं। तरह-तरह के क्षत्रिय। मित्र क्षत्रिय, शत्रु क्षत्रिय। कुछ का कहना है कि हिंदी साहित्य का जितना नाश एक क्षत्रिय ने किया है, उतना बाकी मिलकर भी नहीं कर सकते। हर रंग का, हर वर्ण का, हर धर्म का, हर इलाके का मिलेगा। बिहार का चाहिए, तो इन दिनों प्रचुर मात्र में है। साहित्य में तो पूरी बिहारी कॉलोनी बस गई है। कभी पहाड़वालों का वर्चस्व हुआ करता था। अब बिहार वाले छा गए हैं। यूपी वाला तो पहले से ही खूब रहा है। मध्य प्रदेश वाले से लेकर राजस्थान वाला तक मिलेगा। पंजाब वाला भी मिलता है। अब तो गैर हिंदी भाषी वाले भी थोक में मिल जाते हैं। आपको गृहस्थ प्रेमी, गृहस्थ-भंजक, राष्ट्रवादी, अंतरराष्ट्रवादी, लोकलवादी, ग्लोबलवादी, मानववादी, दानववादी सब तरह के मिल जाएंगे। दिल्ली में हर तरह के साहित्यकार मिलते हैं- आप बस फोन कीजिए। अध्यक्ष चाहिए? मुख्य अतिथि चाहिए? विशेषज्ञ चाहिए? बस दिल्ली फोन कीजिए। यह ऐसी विचित्र मंडी है, जिसमें बिकने वाला आइटम खुद को बाजार विरोधी कहते हुए बिकने को तैयार रहता है। आप उसके अनाड़ीपन का बुरा न मानें। बिकते हुए विरोध करते दिखना उसकी स्टाइल भर है...।
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