वित्तीय सुधार और विकास का तर्क देकर सब्सिडी में कटौती कर रही सरकार के बजट को अपनी उग्र सहयोगी तृणमूल कांग्रेस से फिलहाल भले ही राहत मिल गई हो, विपक्ष और खासकर माकपा ने सरकार को गरीबों और आम आदमी के कठघरे में खड़ी करने की रणनीति बना ली है। बजट को गरीब विरोधी करार देते हुए उन्होंने एक पंक्ति तैयार कर ली है- सरकार की नजर में अमीरों को सब्सिडी फायदा और गरीबों के लिए सब्सिडी घाटा। सपा के साथ फिर से परवान चढ़ी दोस्ती और तीसरे मोर्चे की आहट के बीच माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य और राज्यसभा सांसद सीताराम येचुरी से दैनिक जागरण के विशेष संवाददाता आशुतोष झा ने कई मुद्दों पर बातचीत की। पेश हैं बातचीत के अंश- बतौर विपक्ष आपने रेल बजट और आम बजट, दोनों से विरोध जता दिया। फिर भी इन दोनों में से आप किसे बेहतर मानते हैं? [हंसते हुए] बेहतर बताना तो बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि दोनों में एक बात स्पष्ट है कि गरीब और मेहनतकश लोगों पर बोझ और बढ़ेगा। हां, आम बजट का असर च्यादा व्यापक होता है। लिहाजा वह च्यादा चिंता का विषय है। जिस तर्क के साथ गरीबों पर बोझ बढ़ाया गया है वह किसी मायने में सही नहीं है, लेकिन हमें आश्चर्य नहीं है कि सरकार ने वैकल्पिक रास्ते क्यों नहीं तलाशे। दरअसल यह नीति का सवाल है। पिछले तीन-चार साल से सरकार का कोई काम गरीबों के हित में नहीं है। लेकिन बजट में तो आयकर में लगभग साढ़े चार हजार करोड़ की राहत देने की बात कही गई है। लेकिन इसका फायदा गरीबों को तो नहीं मिलेगा। किसी भी अर्थशास्त्री से पूछिए कि इसका लाभ कौन उठाएंगे। इसका फायदा उसे होगा जिसके हाथ में साधन हैं। जिसके पास साधन नहीं हैं उसे कुछ भी नहीं मिलने वाला है। उल्टा सरकार दाम बढ़ाकर पैसे उगाहेगी और उसका सीधा असर आम लोगों को भुगतना होगा। यह गलत रास्ता है। अर्थशास्त्रियों का ही मानना है कि सब्सिडी का बोझ कम करना होगा। बजट में सरकार ने वही करने की कोशिश की है। रोकते हुए. देखिए, सरकार का अर्थशास्त्र हमें मंजूर नहीं है। उनके अर्थशास्त्र के अनुसार गरीबों को दी जा रही सब्सिडी घाटा है, इकोनामिक ग्रोथ के लिए बाधा है और अमीर को दी गई सब्सिडी देश के हित में है। ग्रोथ का यह फंडा हमें मजूर नहीं है। लेकिन आज की वित्तीय स्थिति में क्या कुछ कठोर सुधार की जरूरत नहीं है? सुधार चाहिए लेकिन किस रास्ते से, यह तो चुनना होगा। कोई नहीं चाहेगा कि गैर जवाबदेही से देश का वित्तीय घाटा बढ़े। सरकार की सोच गलत रास्ते पर है। बजट को ही देखिए-घाटा 5.9 फीसदी है, यानी 5 लाख 22 हजार करोड़ रुपये। वित्तमंत्री का ही वक्तव्य है कि पिछले बजट में 5 लाख 28 हजार करोड़ रुपये की छूट दी गई। गरीबों को नहीं, अमीरों को। फिर कहते हैं कि घाटा हो रहा है। उसे गरीब पूरा करेगा। और फिर सरकार हमसे आशा करे कि समर्थन देंगे। यह हमें मंजूर नहीं है। तो क्या घाटे की पूर्ति के लिए कारपोरेट वर्ल्ड पर च्यादा टैक्स बढ़ाना चाहिए? उसकी जरूरत नहीं। जो घोषणा हुई उसी के अनुसार सभी से टैक्स वसूल लिया जाए इतने में काम हो जाएगा। अमीरों को छूट देकर गरीबों पर बोझ डाले और कहे कि यह ग्रोथ के लिए जरूरी है तो हम सहमत नहीं हैं। वित्तमंत्री का कहना है कि राजनीतिक कारणों ने उनके कदम रोक लिए. अब इसका जवाब तो उन्हीं से पूछिए कि वह क्या करना चाहते थे जो नहीं कर सके, लेकिन जो बजट आज हमारे सामने है वह भी बोझ बढ़ाने वाला है। सुधार के जो रास्ते सरकार दिखाती रही है वह अमीरों के पक्ष में जाता है। जो रास्ते हम दिखाते हैं वह उन्हें मंजूर नहीं है। रिफार्म एजेंडे से जुड़े कई विधेयक संसद में लंबित हैं। क्या उसमें सरकार को आप मदद करेंगे। [इंतजार किए बिना] आप अगर पेंशन, इन्श्योरेंस आदि की बात कर रहे हैं तो कभी नहीं, क्योंकि यहां भी सरकार वही करना चाहती है जो बजट में करती रही है। आम आदमी के साथ धोखा होने वाला है। हम यह नहीं कर सकते हैं। विपक्ष में आप भले ही हों, लेकिन सरकार की सहयोगी ममता बनर्जी का विरोध च्यादा उग्र रहा है। आपको नहीं लगता है कि वह विपक्ष की भूमिका को खत्म कर चुकी हैं? वह अपने दोहरेपन से किसी को बेवकूफ नहीं बना सकती हैं। सरकार के हर फैसले में उनकी पार्टी हिस्सेदार होती है। कैबिनेट में वह गरीब विरोधी विधेयकों को हरी झंडी देती हैं और संसद में विरोध जताकर जनता को भरमाती हैं। उन्हें गलतफहमी हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी नैतिकता सवालों के घेरे में है। ममता के तेवरों को देखते हुए सरकार के स्थायित्व पर कितना खतरा देखते हैं? स्थायित्व तो आंकड़ों का खेल है और आज के दिन सपा और बसपा का सरकार को समर्थन बरकरार है। इन दोनों में से कोई एक समर्थन वापस ले तभी खतरा होगा। सपा के साथ वामदलों की दोस्ती फिर से परवान चढ़ने लगी है। तो क्या संसद में वैचारिक मुद्दों पर सपा वामदलों के साथ खड़ी नहीं होगी? वैचारिक मुद्दों पर हम साथ हैं, लेकिन कई बातें सिर्फ वैचारिक मुद्दों पर ही तय नहीं होती हैं। अखिलेश यादव अभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने हैं। उनकी अपनी भी कुछ सोच और जरूरतें हो सकती है। वह भी चाहेंगे कि उन्हें भी स्थायित्व मिले। पेंशन विधेयक, इंश्योरेंस विधेयक जैसे कई मुद्दे है जो इसी सत्र में आने हैं। विपक्षी ताकत बढ़ाने के लिए क्या सपा और बसपा से होगी? जरूर बात करेंगे। पहले भी हम बात कर चुके हैं। हम हर कोशिश करेंगे कि सरकार की गरीब और मेहनतकश विरोधी कोशिशों को नाकाम करें। और जो भी जनता के साथ जुड़ा है वह इस हकीकत को पहचानता है। ऐसी भी खबरें हैं कि कांग्रेस ने वामदल के साथ भी संबंध बनाने की कोशिश शुरू कर दी है। इसकी जरूरत तो तब होगी जब सपा और बसपा समर्थन वापस ले ले। फिलहाल ऐसी कोई बात नहीं हुई है। सपा के साथ फिर मजबूत हुई दोस्ती क्या तीसरे मोर्चे की आहट है? ध्रुवीकरण तेज हुआ है, इसमें तो कोई शक नहीं है। वामदल के साथ-साथ सभी क्षेत्रीय दलों में सक्रियता बढ़ी है। आने वाले दिनों में कुछ और चुनाव हैं। उन्हें होने दीजिए। फिर यह स्पष्ट होगा कि धु्रवीकरण कौन सा रूप लेता है।
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