सुभाष गाताडे॥
अभी तीन दिन पहले की घटना है , बुलंदशहर के एक स्कूल में टीचर ने प्रार्थना के समय एक बच्चे को कंचा खेलते देख लिया और फिर उसकी इतनी पिटाई की बच्चे की मौत हो गई। बच्चों के साथ आपका व्यवहार कब अपराध के दायरे में आ जाता है , इस पर पूरी दुनिया में बहस जारी है। एक वक्त था जब बच्चे को पीटना जरूरी समझा जाता था। ' स्पेयर द रॉड ऐंड स्पॉइल द चाइल्ड ' - डंडा हटा कि बच्चा बर्बाद। और आज आलम यह है कि 113 मुल्कों ने स्कूलों में किसी भी किस्म की शारीरिक सज़ा पर रोक लगा दी है। 29 देशों में ( जिनमें 21 यूरोप के हैं ) माता - पिता या अन्य नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा संतानों को थप्पड़ मारना गैरकानूनी है। पिछले दिनों यह मसला नए सिरे से सुर्खियों में आया , जब अमेरिका की 21 वर्षीय हिलेरी विलियम्स ने यू - ट्यूब पर एक विडियो अपलोड किया। न्यायाधीश रहे हिलेरी के पिता को इस विडियो में अपनी बेटी को बेल्ट से पीटते हुए दिखाया गया है , हालांकि यह घटना पांच साल पहले की है।
अमेरिका में थप्पड़
कुछ समय पहले अमेरिका के येल विश्वविद्यालय में बाल मनोविज्ञान के एक प्रफेसर ने ' स्लेट ' पत्रिका में लिखा था कि ' सजा के गैर - शारीरिक तरीकों के विकास के बावजूद अधिकतर अमेरिकी मां - बाप अपने बच्चों को शारीरिक ढंग से अनुशासित करते हैं। 63 प्रतिशत माता पिता 1-2 साल के बच्चे को शारीरिक सजा देते हैं तो किशोरों के मामले में यह अनुपात 85 फीसदी तक पहुंचता है। थप्पड़ का ' प्रसाद ' अमेरिकी स्कूलों में आज भी चलता है। दो साल पहले हयूमन राइटस वॉच और अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन ने अपनी एक साझा रिपोर्ट में बताया था कि लगभग दो लाख बच्चे अमेरिकी स्कूलों में थप्पड़ खाते हैं। अमेरिका के 21 राज्यों में आज भी शारीरिक सजा को कानूनी दर्जा हासिल है। संयुक्त राष्ट्र ने माता - पिताओं के हाथों मिलने वाली शारीरिक सजा को खत्म करने के लिए वर्ष 2009 की हद मुकर्रर की थी। सरसरी निगाह डालने से पता चलता है कि समय सीमा समाप्त होने के बावजूद ज्यादातर देशों ने इस मामले में निर्णायक कदम नहीं उठाए हैं।
उन्हें क्या चाहिए
पश्चिमी देशों में बच्चों को सजा देने के गलत नतीजों को लेकर काफी अध्ययन हुए हैं। बच्चों को मिलने वाली सजा के खात्मे को लेकर प्रतिबद्ध एक संस्था के संचालक डॉ . पीटर नेवेल अपना मकसद इन शब्दों में समझाते हैं - ' सभी लोगों को अपनी शारीरिक संपूर्णता की हिफाजत करने का अधिकार है , और बच्चे भी लोग ही होते हैं। ' बच्चों के साथ शारीरिक या अन्य किस्म की हिंसा का सैद्धांतिक विरोध क्यों जरूरी है ? ' टेन रीजन्स नाट टू हिट युअर किड्स ' में इयान हंट इस सवाल की तह में गए हैं। उनके मुताबिक , बच्चों को मारना एक तरह से खुद उन्हें यह प्रशिक्षण देता है कि वे खुद भी बड़े होकर ऐसा करें। शारीरिक सजा और वयस्क होने पर आक्त्रामक या हिंसक व्यवहार में सीधा संबंध देखा जा सकता है। कई मामलों में बच्चे के ' गलत आचरण ' के पीछे उसकी बुनियादी जरूरतों की उपेक्षा का तत्व शामिल रहता है। खाना - पीना , नींद आदि के अलावा उसकी सबसे बड़ी आवश्यकता होती है - माता - पिता का ध्यान खींचना। बच्चे को सजा देकर हम उसे किसी भी समस्या के प्रभावी और मानवीय हल से दूर ढकेलते हैं।
सजा पाया हुआ बच्चा गुस्से की और बदलाव की फंतासी में उलझा रहता है और इसकी वजह से किसी समस्या के समाधान के अधिक प्रभावी तरीके को ढूंढने से वंचित रह जाता है। सजा माता - पिता और संतान के रिश्ते को प्रभावित करती है , क्योंकि यह मानवीय स्वभाव नहीं है कि आप उसके प्रति प्रेम महसूस करें , जिसने आप को दर्द दिया हो। सजा से अच्छे व्यवहार का सतही रूप सामने आता है , जो डर पर टिका होता है। बच्चा अगर गुस्से और निराशा को अभिव्यक्ति नहीं दे सका तो वह भावना उसके अंदर संचित हो जाती है। कुछ लोग भले यह दावा करें कि सजा से शुरुआती वर्षों में बच्चे का आचरण ' अच्छा ' होता है , लेकिन उसकी हमें बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। शारीरिक सजा से यह खतरनाक और गलत संदेश प्रवाहित होता है कि ' ताकतवर हमेशा सही होता है ' । यह सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि डर पर टिके बच्चे के सतही ' अच्छे ' आचरण के बरक्स उसके सही व्यवहार के लिए क्या किया जाना चाहिए ? उन तक सौम्य भाषा में प्यार और सम्मान के साथ सूचनाएं पहुंचाना ही उनमें मजबूत आंतरिक मूल्यों के विकास का एकमात्र तरीका हो सकता है।
बाई - बाई बेंत
पिछले साल भारत के महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय की तरफ से एक बिल का मसविदा पेश किया गया था , जिसमें न सिर्फ शिक्षण संस्थानों में बल्कि माता - पिता , रिश्तेदारों , पड़ोसियों के हाथों मिलने वाली शारीरिक सजा को भी दंडनीय अपराध घोषित करने की बात थी। यह बिल अगर कानून बन गया तो यूरोप की तरह भारत के बच्चे भी अपने माता - पिता या रिश्तेदारों को ' क्रूरता ' दिखाने के लिए अदालत में खींच सकते हैं। मुमकिन है कि जब यह विधेयक कानून बनने की ओर बढ़े तब ' पारंपरिक मूल्यों ' की रक्षा के नाम पर इसका विरोध हो। जब पतियों द्वारा ' अपनी गुमराह पत्नी को प्रेम से पीटने ' पर रोक लगाने की बात हुई तो यह शोर सुनाई दिया कि पारिवारिक जीवन का अब अंत होगा। जब फोरमैन द्वारा अपने मातहत मजदूरों को पीटने पर अंकुश लगा तब इन्हीं आवाजों ने उद्योग के संभावित विनाश की बात की। आज नहीं तो कल हर समाज को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि बच्चे को पीटना उसके साथ दुर्व्यवहार है। जैसा कि महान शिक्षाविद जान होल्ट कहते हैं - ' जब हम बच्चे को डराते हैं तो उसके सीखने की प्रक्रिया को अधबीच में ही खत्म कर देते हैं। '
अभी तीन दिन पहले की घटना है , बुलंदशहर के एक स्कूल में टीचर ने प्रार्थना के समय एक बच्चे को कंचा खेलते देख लिया और फिर उसकी इतनी पिटाई की बच्चे की मौत हो गई। बच्चों के साथ आपका व्यवहार कब अपराध के दायरे में आ जाता है , इस पर पूरी दुनिया में बहस जारी है। एक वक्त था जब बच्चे को पीटना जरूरी समझा जाता था। ' स्पेयर द रॉड ऐंड स्पॉइल द चाइल्ड ' - डंडा हटा कि बच्चा बर्बाद। और आज आलम यह है कि 113 मुल्कों ने स्कूलों में किसी भी किस्म की शारीरिक सज़ा पर रोक लगा दी है। 29 देशों में ( जिनमें 21 यूरोप के हैं ) माता - पिता या अन्य नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा संतानों को थप्पड़ मारना गैरकानूनी है। पिछले दिनों यह मसला नए सिरे से सुर्खियों में आया , जब अमेरिका की 21 वर्षीय हिलेरी विलियम्स ने यू - ट्यूब पर एक विडियो अपलोड किया। न्यायाधीश रहे हिलेरी के पिता को इस विडियो में अपनी बेटी को बेल्ट से पीटते हुए दिखाया गया है , हालांकि यह घटना पांच साल पहले की है।
अमेरिका में थप्पड़
कुछ समय पहले अमेरिका के येल विश्वविद्यालय में बाल मनोविज्ञान के एक प्रफेसर ने ' स्लेट ' पत्रिका में लिखा था कि ' सजा के गैर - शारीरिक तरीकों के विकास के बावजूद अधिकतर अमेरिकी मां - बाप अपने बच्चों को शारीरिक ढंग से अनुशासित करते हैं। 63 प्रतिशत माता पिता 1-2 साल के बच्चे को शारीरिक सजा देते हैं तो किशोरों के मामले में यह अनुपात 85 फीसदी तक पहुंचता है। थप्पड़ का ' प्रसाद ' अमेरिकी स्कूलों में आज भी चलता है। दो साल पहले हयूमन राइटस वॉच और अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन ने अपनी एक साझा रिपोर्ट में बताया था कि लगभग दो लाख बच्चे अमेरिकी स्कूलों में थप्पड़ खाते हैं। अमेरिका के 21 राज्यों में आज भी शारीरिक सजा को कानूनी दर्जा हासिल है। संयुक्त राष्ट्र ने माता - पिताओं के हाथों मिलने वाली शारीरिक सजा को खत्म करने के लिए वर्ष 2009 की हद मुकर्रर की थी। सरसरी निगाह डालने से पता चलता है कि समय सीमा समाप्त होने के बावजूद ज्यादातर देशों ने इस मामले में निर्णायक कदम नहीं उठाए हैं।
उन्हें क्या चाहिए
पश्चिमी देशों में बच्चों को सजा देने के गलत नतीजों को लेकर काफी अध्ययन हुए हैं। बच्चों को मिलने वाली सजा के खात्मे को लेकर प्रतिबद्ध एक संस्था के संचालक डॉ . पीटर नेवेल अपना मकसद इन शब्दों में समझाते हैं - ' सभी लोगों को अपनी शारीरिक संपूर्णता की हिफाजत करने का अधिकार है , और बच्चे भी लोग ही होते हैं। ' बच्चों के साथ शारीरिक या अन्य किस्म की हिंसा का सैद्धांतिक विरोध क्यों जरूरी है ? ' टेन रीजन्स नाट टू हिट युअर किड्स ' में इयान हंट इस सवाल की तह में गए हैं। उनके मुताबिक , बच्चों को मारना एक तरह से खुद उन्हें यह प्रशिक्षण देता है कि वे खुद भी बड़े होकर ऐसा करें। शारीरिक सजा और वयस्क होने पर आक्त्रामक या हिंसक व्यवहार में सीधा संबंध देखा जा सकता है। कई मामलों में बच्चे के ' गलत आचरण ' के पीछे उसकी बुनियादी जरूरतों की उपेक्षा का तत्व शामिल रहता है। खाना - पीना , नींद आदि के अलावा उसकी सबसे बड़ी आवश्यकता होती है - माता - पिता का ध्यान खींचना। बच्चे को सजा देकर हम उसे किसी भी समस्या के प्रभावी और मानवीय हल से दूर ढकेलते हैं।
सजा पाया हुआ बच्चा गुस्से की और बदलाव की फंतासी में उलझा रहता है और इसकी वजह से किसी समस्या के समाधान के अधिक प्रभावी तरीके को ढूंढने से वंचित रह जाता है। सजा माता - पिता और संतान के रिश्ते को प्रभावित करती है , क्योंकि यह मानवीय स्वभाव नहीं है कि आप उसके प्रति प्रेम महसूस करें , जिसने आप को दर्द दिया हो। सजा से अच्छे व्यवहार का सतही रूप सामने आता है , जो डर पर टिका होता है। बच्चा अगर गुस्से और निराशा को अभिव्यक्ति नहीं दे सका तो वह भावना उसके अंदर संचित हो जाती है। कुछ लोग भले यह दावा करें कि सजा से शुरुआती वर्षों में बच्चे का आचरण ' अच्छा ' होता है , लेकिन उसकी हमें बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। शारीरिक सजा से यह खतरनाक और गलत संदेश प्रवाहित होता है कि ' ताकतवर हमेशा सही होता है ' । यह सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि डर पर टिके बच्चे के सतही ' अच्छे ' आचरण के बरक्स उसके सही व्यवहार के लिए क्या किया जाना चाहिए ? उन तक सौम्य भाषा में प्यार और सम्मान के साथ सूचनाएं पहुंचाना ही उनमें मजबूत आंतरिक मूल्यों के विकास का एकमात्र तरीका हो सकता है।
बाई - बाई बेंत
पिछले साल भारत के महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय की तरफ से एक बिल का मसविदा पेश किया गया था , जिसमें न सिर्फ शिक्षण संस्थानों में बल्कि माता - पिता , रिश्तेदारों , पड़ोसियों के हाथों मिलने वाली शारीरिक सजा को भी दंडनीय अपराध घोषित करने की बात थी। यह बिल अगर कानून बन गया तो यूरोप की तरह भारत के बच्चे भी अपने माता - पिता या रिश्तेदारों को ' क्रूरता ' दिखाने के लिए अदालत में खींच सकते हैं। मुमकिन है कि जब यह विधेयक कानून बनने की ओर बढ़े तब ' पारंपरिक मूल्यों ' की रक्षा के नाम पर इसका विरोध हो। जब पतियों द्वारा ' अपनी गुमराह पत्नी को प्रेम से पीटने ' पर रोक लगाने की बात हुई तो यह शोर सुनाई दिया कि पारिवारिक जीवन का अब अंत होगा। जब फोरमैन द्वारा अपने मातहत मजदूरों को पीटने पर अंकुश लगा तब इन्हीं आवाजों ने उद्योग के संभावित विनाश की बात की। आज नहीं तो कल हर समाज को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि बच्चे को पीटना उसके साथ दुर्व्यवहार है। जैसा कि महान शिक्षाविद जान होल्ट कहते हैं - ' जब हम बच्चे को डराते हैं तो उसके सीखने की प्रक्रिया को अधबीच में ही खत्म कर देते हैं। '
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें