।। प्रफ़ुल्ल बिदवई ।।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2008 में आवंटित 2जी स्पेक्ट्रम के 122 लाइसेंस को रद किया जाना यूपीए सरकार के मुंह पर तमाचे की तरह है. ये लाइसेंस इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षो में शुरू हुई उस अवैध प्रक्रिया की देन थे, जिन्हें अदालत ने सार्वजनिक हितों और संवैधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध माना है.
यूपीए का दावा कि टू जी मामले में सर्वोच्च अदालत ने तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम को निर्दोष करार दिया है, गलत है. अदालत ने अपने फ़ैसले में निजी जिम्मेदारियों की बात ही नहीं की है. उसने तो लाइसेंस की पहले आओ-पहले पाओ नीति और अंतिम समय में नियमों में अचानक किये गये बदलाव के प्रभावों की छानबीन की है.
साथ ही चिदंबरम के मामले में फ़ैसला स्पेशल कोर्ट के जिम्मे छोड़ दिया. ए राजा द्वारा पीएम और तत्कालीन वित्त मंत्री की सलाह की अनदेखी करना कैबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी और नीतियों में खामियों की ओर इशारा करता है. लेकिन यूपीए के इस संकट पर भाजपा को खुश नहीं होना चाहिए. फ़ैसले का सीधा मतलब है कि स्पेक्ट्रम सरीखे दुर्लभ संसाधन का लाइसेंस देने की पहले आओ-पहले पाओ की नीति गलत थी. इससे पहले भाजपा के मंत्रियों ने भी लाइसेंस आवंटन की प्रक्रिया में हेराफ़ेरी की थी.
यह फ़ैसला पांच कारणों से महत्वपूर्ण है. पहला, इसमें कहा गया है कि राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधन सरकार के पास अमानत के तौर पर होते हैं और सरकार का दायित्व है कि वह इन्हें निजी कंपनियों को आवंटित करते वक्त न्यायपूर्ण एवं पारदर्शी प्रक्रिया अपनाए. ऐसे प्राकृतिक संसाधनों में वायु तरंगें ही नहीं, भूमि, कोयला, इस्पात, खनिज, तेल, गैस, जंगल, पानी और हवा आदि भी शामिल हैं.
जनता के विश्वास का सिद्धांत कहता है कि पहले आओ-पहले पाओ नीति या अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर आवंटित किये गये लाइसेंसों की छानबीन की जा सकती है. इस तरह अदालत का फ़ैसला सार्वजनिक संसाधनों का सही मूल्य तय करने के लिए नीलामी की जरूरत को रेखांकित करता है.
हालांकि नीलामी का तरीका सिर्फ़ विकसित बाजारों के मामलों में ही कामयाब हो सकता है, भूमि या पानी में नहीं. सार्वजनिक जमीन को अस्पतालों, स्कूलों या कम कीमत के मकान जैसे कामों के लिए आवंटित करते वक्त नीलामी सही नहीं है.
दूसरा, अदालत ने अपने फ़ैसले में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शिकायत करने के नागरिकों के अधिकार को मान्यता देकर जनहित याचिका को वह ऊंचा दर्जा दे दिया है, जो इसे काफ़ी पहले हासिल था. इससे शिकायतों के समाधान का एक वैकल्पिक मंच मिल सकता है.
यह फ़ैसला सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले के विपरीत है, जो उसने करीब एक दशक पहले एनरॉन मामले में सेंटर ऑफ़ ट्रेड यूनियंस की याचिका को खारिज करते हुए दिया था.
तीसरा, फ़ैसला इस बात पर चर्चा नहीं करता कि इस आवंटन से सरकारी राजस्व को हुए भारी नुकसान से यूपीए सरकार का लगातार इनकार करना कितना सही है. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में इस आवंटन से 56 हजार से 1.76 लाख करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया गया है.
साथ ही, अदालत का फ़ैसला पहले आओ-पहले पाओ की नीति पर ही 2008 से पहले आवंटित लाइसेंस को रद नहीं करता है.
चौथा, हालांकि फ़ैसला इस तर्क को खारिज करता है कि व्यावसायिक मामलों की न्यायिक समीक्षा केवल सार्वजनिक हित को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए, पर फ़ैसले में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि संबंधित न्यायाधीश की धारणा से परे सार्वजनिक हित का निर्धारण कैसे होना चाहिए. हां, यह तथ्य निर्विवाद है कि सर्वोच्च अदालत के संबंधित न्यायाधीशों ने टू जी मामले को लेकर देश में आये राजनीतिक उबाल से खुद को बचाये रखा.
पांचवां और अंतिम, फ़ैसले में टू जी घोटाले के लिए दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राइ) को भी फ़टकार लगायी गयी है, लेकिन विडंबना यह है कि नये सिरे से नीलामी की प्रक्रिया तय करने की जिम्मेदारी उसे ही सौंपी गयी है.
एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह फ़ैसला नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के नुकसान को रेखांकित करता है. इन नीतियों की संरचना प्राकृतिक संसाधनों को आम आदमी की पहुंच से दूर करने और उस पर मनमाने तरीके से कब्जा करने के लिए ही की गयी है. जब तक ऐसी नीतियां जारी रहेंगी, भूमि, खनिज और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर पूंजी का कब्जा बढ़ता जायेगा. बाजार आधारित व्यवस्था में केवल नीतियों को पारदर्शी बनाकर ही इसे रोका नहीं जा सकता है.
इसी नीति पर चलकर यूरोप के देश आज निराशा के भंवर में डूब रहे हैं. यह सही वक्त है जब भारत नव उदारवादी नीतियों पर चलना बंद कर दे. हालांकि यह आसान नहीं है. खासकर तब, जबकि मनमोहन सिंह आंख मूंदकर नवउदारवादी सुधारों का दूसरा दौर शुरू करने पर तुले हैं. क्या उत्तर प्रदेश का जनादेश कांग्रेस को नवउदारवादी नीतियों पर पुनर्विचार का मौका देगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2008 में आवंटित 2जी स्पेक्ट्रम के 122 लाइसेंस को रद किया जाना यूपीए सरकार के मुंह पर तमाचे की तरह है. ये लाइसेंस इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षो में शुरू हुई उस अवैध प्रक्रिया की देन थे, जिन्हें अदालत ने सार्वजनिक हितों और संवैधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध माना है.
यूपीए का दावा कि टू जी मामले में सर्वोच्च अदालत ने तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम को निर्दोष करार दिया है, गलत है. अदालत ने अपने फ़ैसले में निजी जिम्मेदारियों की बात ही नहीं की है. उसने तो लाइसेंस की पहले आओ-पहले पाओ नीति और अंतिम समय में नियमों में अचानक किये गये बदलाव के प्रभावों की छानबीन की है.
साथ ही चिदंबरम के मामले में फ़ैसला स्पेशल कोर्ट के जिम्मे छोड़ दिया. ए राजा द्वारा पीएम और तत्कालीन वित्त मंत्री की सलाह की अनदेखी करना कैबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी और नीतियों में खामियों की ओर इशारा करता है. लेकिन यूपीए के इस संकट पर भाजपा को खुश नहीं होना चाहिए. फ़ैसले का सीधा मतलब है कि स्पेक्ट्रम सरीखे दुर्लभ संसाधन का लाइसेंस देने की पहले आओ-पहले पाओ की नीति गलत थी. इससे पहले भाजपा के मंत्रियों ने भी लाइसेंस आवंटन की प्रक्रिया में हेराफ़ेरी की थी.
यह फ़ैसला पांच कारणों से महत्वपूर्ण है. पहला, इसमें कहा गया है कि राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधन सरकार के पास अमानत के तौर पर होते हैं और सरकार का दायित्व है कि वह इन्हें निजी कंपनियों को आवंटित करते वक्त न्यायपूर्ण एवं पारदर्शी प्रक्रिया अपनाए. ऐसे प्राकृतिक संसाधनों में वायु तरंगें ही नहीं, भूमि, कोयला, इस्पात, खनिज, तेल, गैस, जंगल, पानी और हवा आदि भी शामिल हैं.
जनता के विश्वास का सिद्धांत कहता है कि पहले आओ-पहले पाओ नीति या अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर आवंटित किये गये लाइसेंसों की छानबीन की जा सकती है. इस तरह अदालत का फ़ैसला सार्वजनिक संसाधनों का सही मूल्य तय करने के लिए नीलामी की जरूरत को रेखांकित करता है.
हालांकि नीलामी का तरीका सिर्फ़ विकसित बाजारों के मामलों में ही कामयाब हो सकता है, भूमि या पानी में नहीं. सार्वजनिक जमीन को अस्पतालों, स्कूलों या कम कीमत के मकान जैसे कामों के लिए आवंटित करते वक्त नीलामी सही नहीं है.
दूसरा, अदालत ने अपने फ़ैसले में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शिकायत करने के नागरिकों के अधिकार को मान्यता देकर जनहित याचिका को वह ऊंचा दर्जा दे दिया है, जो इसे काफ़ी पहले हासिल था. इससे शिकायतों के समाधान का एक वैकल्पिक मंच मिल सकता है.
यह फ़ैसला सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले के विपरीत है, जो उसने करीब एक दशक पहले एनरॉन मामले में सेंटर ऑफ़ ट्रेड यूनियंस की याचिका को खारिज करते हुए दिया था.
तीसरा, फ़ैसला इस बात पर चर्चा नहीं करता कि इस आवंटन से सरकारी राजस्व को हुए भारी नुकसान से यूपीए सरकार का लगातार इनकार करना कितना सही है. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में इस आवंटन से 56 हजार से 1.76 लाख करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया गया है.
साथ ही, अदालत का फ़ैसला पहले आओ-पहले पाओ की नीति पर ही 2008 से पहले आवंटित लाइसेंस को रद नहीं करता है.
चौथा, हालांकि फ़ैसला इस तर्क को खारिज करता है कि व्यावसायिक मामलों की न्यायिक समीक्षा केवल सार्वजनिक हित को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए, पर फ़ैसले में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि संबंधित न्यायाधीश की धारणा से परे सार्वजनिक हित का निर्धारण कैसे होना चाहिए. हां, यह तथ्य निर्विवाद है कि सर्वोच्च अदालत के संबंधित न्यायाधीशों ने टू जी मामले को लेकर देश में आये राजनीतिक उबाल से खुद को बचाये रखा.
पांचवां और अंतिम, फ़ैसले में टू जी घोटाले के लिए दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राइ) को भी फ़टकार लगायी गयी है, लेकिन विडंबना यह है कि नये सिरे से नीलामी की प्रक्रिया तय करने की जिम्मेदारी उसे ही सौंपी गयी है.
एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह फ़ैसला नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के नुकसान को रेखांकित करता है. इन नीतियों की संरचना प्राकृतिक संसाधनों को आम आदमी की पहुंच से दूर करने और उस पर मनमाने तरीके से कब्जा करने के लिए ही की गयी है. जब तक ऐसी नीतियां जारी रहेंगी, भूमि, खनिज और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर पूंजी का कब्जा बढ़ता जायेगा. बाजार आधारित व्यवस्था में केवल नीतियों को पारदर्शी बनाकर ही इसे रोका नहीं जा सकता है.
इसी नीति पर चलकर यूरोप के देश आज निराशा के भंवर में डूब रहे हैं. यह सही वक्त है जब भारत नव उदारवादी नीतियों पर चलना बंद कर दे. हालांकि यह आसान नहीं है. खासकर तब, जबकि मनमोहन सिंह आंख मूंदकर नवउदारवादी सुधारों का दूसरा दौर शुरू करने पर तुले हैं. क्या उत्तर प्रदेश का जनादेश कांग्रेस को नवउदारवादी नीतियों पर पुनर्विचार का मौका देगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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