सीताराम येचुरी, सदस्य, माकपा पोलित ब्यूरो
ऐसा लग रहा है कि सरकार फरवरी के पहले सप्ताह में ही यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर दस्तखत करने की तैयारियां कर रही है। अब यह तो किसी से छिपा हुआ नहीं है कि यूरोपीय संघ खुद ही इस समय गंभीर आर्थिक संकट में फंसा है और इस संकट के कारण उसकी मुद्रा यूरो के अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया है।
ऐसे में यह जाहिर-सी बात है कि यूरोपीय संघ के साथ इस मुक्त व्यापार समझौते का एक ही काम होगा कि मुनाफों की कमी की मारी यूरोपीय पूंजी के लिए भारतीय बाजार खोल दिए जाएं। इसका परिणाम यह होगा कि यूरोप की बहुत भारी सब्सिडी से पैदा होने वाले कृषि व दुग्ध उत्पादों से भारतीय बाजारों को पाट दिया जाएगा। यह हमारे किसानों और हमारी कृषि अर्थव्यवस्था के लिए सर्वनाश को आमंत्रित करना ही होगा, जबकि भारतीय कृषि पहले से ही गहरे संकट में है। आज जब खुद सरकारी एजेंसियां किसानों को घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य देने में भी हीला-हवाला कर रही हैं और इसके चलते किसानों को औने-पौने दाम पर अपनी फसल बेचने पर मजबूर होना पड़ रहा है, तब हमारी अर्थव्यवस्था के द्वार यूरोप के लिए खोलने से हमारे किसान भाइयों पर और अधिक मुसीबतें टूट पड़ेंगी। यह एक कटु हकीकत है कि देश में हताशा के कारण आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या पहले ही काफी ज्यादा है, ऐसे में उनकी हताशा बढ़ी, तो कई नई समस्याएं पैदा हो सकती हैं। आसियान देशों के साथ जो मुक्त व्यापार समझौता किया गया था, उसके नतीजे सबके सामने हैं। नकदी फसल उत्पादकों, खासतौर से केरल के कृषि उत्पादकों पर इस मुक्त व्यापार समझौते के विनाशकारी असर की कहानियां उजागर हो चुकी हैं। जाहिर है, यह सब विदेशी पूंजी के प्रवाह को आकर्षित करने के नाम पर हो रहा है। इन कोशिशों के लिए यूपीए सरकार अब एक बहाना यह बना रही है कि इससे बढ़ते राजकोषीय घाटे को संभालने में मदद मिलेगी। लेकिन अगर कॉरपोरेट कंपनियों और संपन्न लोगों को दी गई कर रियायतें वापस ले ली गई होतीं, तो राजकोषीय घाटा खुद-ब-खुद खत्म हो गया होता। याद रहे कि इस तरह की कर रियायतों ने धनिकों की और धनी होने में ही मदद की है और इसके बल पर ही देश में अरबपतियों की संख्या ताबड़तोड़ तेजी से बढ़ी है और अब उनकी कुल परिसंपत्तियां हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद के तिहाई हिस्से से ऊपर निकल चुकी हैं। इस तरह, यह तो साफ ही है कि यूपीए सरकार की नीतिगत दिशा विदेशी पूंजी तथा भारतीय बड़े कारोबारियों के मुनाफे बढ़ाकर अधिकतम करने के हिसाब से ही संचालित है और इसकी कीमत भारतीय जनता के विशाल हिस्सों को अपने जीवन स्तर में गिरावट से चुकानी पड़ रही है। यह अचरज की बात नहीं होगी कि बढ़ते राजकोषीय घाटे को नीचे लाने के नाम पर सरकार आने वाले बजट में सामाजिक क्षेत्र पर पहले ही बहुत मामूली खर्चों में और कटौती कर दे। गौरतलब है कि सरकारी खर्चों में कटौती के इसी तरह के प्रयासों के चलते सरकार के अनेक विभागों में, और सबसे बढ़कर रेलवे महकमे में लाखों की संख्या में पद खाली पड़े हुए हैं। इन दिनों खर्च में कटौती करने के लिए कथित रूप से भीमकाय नौकरशाही को काट-छांटकर दुबला करने की पुकार अक्सर सुनने को मिलती है। हाल के अध्ययनों ने यह साबित किया है कि भारत में प्रति व्यक्ति सरकारी कर्मचारी अनुपात, शायद दुनिया भर में सबसे कम है। अध्ययन दिखाते हैं कि जहां भारत में केंद्र व राज्य, दोनों स्तर की सरकारों को मिलाकर सरकारी सेवकों की संख्या एक लाख नागरिकों पर 1,600 से जरा-सी ऊपर बैठती है, जबकि अमेरिका में यही संख्या 7,681 यानी भारत के मुकाबले करीब पांच गुना ज्यादा है। अगर रेलवे के कर्मचारियों को अलग कर दें, तो हिन्दुस्तान में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की कुल संख्या एक लाख नागरिकों पर महज 125 ही रह जाती है, जबकि अमेरिका में संघीय सरकार के सेवकों की यही संख्या करीब 800 बैठेगी। साफ है, भारत में शासन के पास सामाजिक क्षेत्र की जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए , यहां तक कि आंतरिक सुरक्षा की जरूरतें पूरी करने के लिए भी पर्याप्त श्रम शक्ति नहीं है। मिसाल केतौर पर, भारत में आबादी के अनुपात में पुलिस वालों की संख्या संयुक्त राष्ट्रकी सिफारिश के मुकाबले बमुश्किल एक-तिहाई ही बैठेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा तथा खाद्य सुरक्षा जैसी बुनियादी जिम्मदारियों के सार्वभौमिक निर्वाह की कामयाबी बहुत हद तक इन्हें जमीनी स्तर पर जनता को उपलब्ध कराने वाले तंत्र की स्थिति पर निर्भर करती है। निस्संदेह, यह चिंता अपने आप में पूरी तरह से जायज है कि सभी विकास परियोजनाओं व सामाजिक सेवाओं के फंड की बड़े पैमाने पर जो चोरी होती है, उसे रोका जाना चाहिए (राजीव गांधी की विख्यात टिप्पणी याद आ रही है कि सरकार जो एक रुपया खर्च करती है, उसमें से सिर्फ पंद्रह पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं)। पर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जो न्यूनतम सेवाएं उपलब्ध हैं, उन्हे भी जनता तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त ताना-बाना मौजूद नहीं है। वास्तव में, स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा जैसे बुनियादी महत्व के क्षेत्रों में जनता की सामाजिक-आर्थिक जरूरतें पूरी करने के लिए, सार्वजनिक श्रम शक्ति में बहुत भारी बढ़ोतरी करने की जरूरत है। लेकिन सरकार तो राजकोषीय घाटे में कटौती के नाम पर सरकारी कर्मचारियों की पहले ही कम संख्या में और कटौतियां करने पर तुली हुई है। इस तरह, भारतीय जनता का विशाल बहुमत इस दोहरी कैंची के हमले की जद में है। एक तरफ तो उदारीकरण की आर्थिक नीतियां हैं, जो विदेशी व भारतीय बड़ी पूंजी के अनाप-शनाप मुनाफे ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने तथा दूसरे सिरे पर हमारी जनता के विशाल बहुमत को और दरिद्र बनाने में लगी हुई हैं। दूसरी ओर, जो मामूली-सी सेवाएं व सार्वजनिक सुविधाएं उपलब्ध भी हैं, उन्हें जनता तक पहुंचाने के लिए जरूरी न्यूनतम तंत्र मुहैया कराने की बजाय उसमें भी कटौतियां की जा रही हैं।
ऐसा लग रहा है कि सरकार फरवरी के पहले सप्ताह में ही यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर दस्तखत करने की तैयारियां कर रही है। अब यह तो किसी से छिपा हुआ नहीं है कि यूरोपीय संघ खुद ही इस समय गंभीर आर्थिक संकट में फंसा है और इस संकट के कारण उसकी मुद्रा यूरो के अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया है।
ऐसे में यह जाहिर-सी बात है कि यूरोपीय संघ के साथ इस मुक्त व्यापार समझौते का एक ही काम होगा कि मुनाफों की कमी की मारी यूरोपीय पूंजी के लिए भारतीय बाजार खोल दिए जाएं। इसका परिणाम यह होगा कि यूरोप की बहुत भारी सब्सिडी से पैदा होने वाले कृषि व दुग्ध उत्पादों से भारतीय बाजारों को पाट दिया जाएगा। यह हमारे किसानों और हमारी कृषि अर्थव्यवस्था के लिए सर्वनाश को आमंत्रित करना ही होगा, जबकि भारतीय कृषि पहले से ही गहरे संकट में है। आज जब खुद सरकारी एजेंसियां किसानों को घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य देने में भी हीला-हवाला कर रही हैं और इसके चलते किसानों को औने-पौने दाम पर अपनी फसल बेचने पर मजबूर होना पड़ रहा है, तब हमारी अर्थव्यवस्था के द्वार यूरोप के लिए खोलने से हमारे किसान भाइयों पर और अधिक मुसीबतें टूट पड़ेंगी। यह एक कटु हकीकत है कि देश में हताशा के कारण आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या पहले ही काफी ज्यादा है, ऐसे में उनकी हताशा बढ़ी, तो कई नई समस्याएं पैदा हो सकती हैं। आसियान देशों के साथ जो मुक्त व्यापार समझौता किया गया था, उसके नतीजे सबके सामने हैं। नकदी फसल उत्पादकों, खासतौर से केरल के कृषि उत्पादकों पर इस मुक्त व्यापार समझौते के विनाशकारी असर की कहानियां उजागर हो चुकी हैं। जाहिर है, यह सब विदेशी पूंजी के प्रवाह को आकर्षित करने के नाम पर हो रहा है। इन कोशिशों के लिए यूपीए सरकार अब एक बहाना यह बना रही है कि इससे बढ़ते राजकोषीय घाटे को संभालने में मदद मिलेगी। लेकिन अगर कॉरपोरेट कंपनियों और संपन्न लोगों को दी गई कर रियायतें वापस ले ली गई होतीं, तो राजकोषीय घाटा खुद-ब-खुद खत्म हो गया होता। याद रहे कि इस तरह की कर रियायतों ने धनिकों की और धनी होने में ही मदद की है और इसके बल पर ही देश में अरबपतियों की संख्या ताबड़तोड़ तेजी से बढ़ी है और अब उनकी कुल परिसंपत्तियां हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद के तिहाई हिस्से से ऊपर निकल चुकी हैं। इस तरह, यह तो साफ ही है कि यूपीए सरकार की नीतिगत दिशा विदेशी पूंजी तथा भारतीय बड़े कारोबारियों के मुनाफे बढ़ाकर अधिकतम करने के हिसाब से ही संचालित है और इसकी कीमत भारतीय जनता के विशाल हिस्सों को अपने जीवन स्तर में गिरावट से चुकानी पड़ रही है। यह अचरज की बात नहीं होगी कि बढ़ते राजकोषीय घाटे को नीचे लाने के नाम पर सरकार आने वाले बजट में सामाजिक क्षेत्र पर पहले ही बहुत मामूली खर्चों में और कटौती कर दे। गौरतलब है कि सरकारी खर्चों में कटौती के इसी तरह के प्रयासों के चलते सरकार के अनेक विभागों में, और सबसे बढ़कर रेलवे महकमे में लाखों की संख्या में पद खाली पड़े हुए हैं। इन दिनों खर्च में कटौती करने के लिए कथित रूप से भीमकाय नौकरशाही को काट-छांटकर दुबला करने की पुकार अक्सर सुनने को मिलती है। हाल के अध्ययनों ने यह साबित किया है कि भारत में प्रति व्यक्ति सरकारी कर्मचारी अनुपात, शायद दुनिया भर में सबसे कम है। अध्ययन दिखाते हैं कि जहां भारत में केंद्र व राज्य, दोनों स्तर की सरकारों को मिलाकर सरकारी सेवकों की संख्या एक लाख नागरिकों पर 1,600 से जरा-सी ऊपर बैठती है, जबकि अमेरिका में यही संख्या 7,681 यानी भारत के मुकाबले करीब पांच गुना ज्यादा है। अगर रेलवे के कर्मचारियों को अलग कर दें, तो हिन्दुस्तान में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की कुल संख्या एक लाख नागरिकों पर महज 125 ही रह जाती है, जबकि अमेरिका में संघीय सरकार के सेवकों की यही संख्या करीब 800 बैठेगी। साफ है, भारत में शासन के पास सामाजिक क्षेत्र की जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए , यहां तक कि आंतरिक सुरक्षा की जरूरतें पूरी करने के लिए भी पर्याप्त श्रम शक्ति नहीं है। मिसाल केतौर पर, भारत में आबादी के अनुपात में पुलिस वालों की संख्या संयुक्त राष्ट्रकी सिफारिश के मुकाबले बमुश्किल एक-तिहाई ही बैठेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा तथा खाद्य सुरक्षा जैसी बुनियादी जिम्मदारियों के सार्वभौमिक निर्वाह की कामयाबी बहुत हद तक इन्हें जमीनी स्तर पर जनता को उपलब्ध कराने वाले तंत्र की स्थिति पर निर्भर करती है। निस्संदेह, यह चिंता अपने आप में पूरी तरह से जायज है कि सभी विकास परियोजनाओं व सामाजिक सेवाओं के फंड की बड़े पैमाने पर जो चोरी होती है, उसे रोका जाना चाहिए (राजीव गांधी की विख्यात टिप्पणी याद आ रही है कि सरकार जो एक रुपया खर्च करती है, उसमें से सिर्फ पंद्रह पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं)। पर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जो न्यूनतम सेवाएं उपलब्ध हैं, उन्हे भी जनता तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त ताना-बाना मौजूद नहीं है। वास्तव में, स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा जैसे बुनियादी महत्व के क्षेत्रों में जनता की सामाजिक-आर्थिक जरूरतें पूरी करने के लिए, सार्वजनिक श्रम शक्ति में बहुत भारी बढ़ोतरी करने की जरूरत है। लेकिन सरकार तो राजकोषीय घाटे में कटौती के नाम पर सरकारी कर्मचारियों की पहले ही कम संख्या में और कटौतियां करने पर तुली हुई है। इस तरह, भारतीय जनता का विशाल बहुमत इस दोहरी कैंची के हमले की जद में है। एक तरफ तो उदारीकरण की आर्थिक नीतियां हैं, जो विदेशी व भारतीय बड़ी पूंजी के अनाप-शनाप मुनाफे ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने तथा दूसरे सिरे पर हमारी जनता के विशाल बहुमत को और दरिद्र बनाने में लगी हुई हैं। दूसरी ओर, जो मामूली-सी सेवाएं व सार्वजनिक सुविधाएं उपलब्ध भी हैं, उन्हें जनता तक पहुंचाने के लिए जरूरी न्यूनतम तंत्र मुहैया कराने की बजाय उसमें भी कटौतियां की जा रही हैं।
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