सुभाष गाताडे, सामाजिक कार्यकर्ता
आज शिक्षा, रोजगार या व्यवसाय के लिए काफी तादाद में महिलाएं घर से बाहर निकलती हैं। हर जगह वे अपनी छाप भी छोड़ रही हैं। लेकिन इसी दौरान देश का कुलजमा माहौल उनके लिए लगातार असुरक्षित होता जा रहा है, जबकि होना इसका उल्टा चाहिए था।
नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार, पिछले 40 साल में महिलाओं के खिलाफ अत्याचारों की संख्या में 800 फीसदी इजाफा हुआ है, पर इस दौरान अपराध साबित होने की दर लगभग एक तिहाई घटी है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2010 में बलात्कार की 22,171 घटनाओं की रिपोर्टे दर्ज हुईं, जिनमें दोष सिद्ध होने की दर महज 26.6 फीसदी ही थी। छेड़छाड़ की 40,163 मामले दर्ज हुए, जिसमें दोषसिद्धि 29.7 फीसदी थी। यानी कई महीनों और यहां तक कि कई साल चलने वाली कार्रवाई अंत में ज्यादातर औरतों को इंसाफ नहीं देती। कुछ समय पहले दिल्ली की एक मानसिक तौर पर अस्थिर लड़की से बलात्कार का मामला सामने आने पर अदालत ने पाया कि वह गवाही देने या अपराधियों को पहचानने की स्थिति में नहीं है। इस पर अदालत ने आदेश दिया कि बलात्कार के ऐसे सभी मामलों में डीएनए जांच को अनिवार्य बनाया जाए। वैसे बलात्कार पीड़ितों से डीएनए सैंपल एकत्रित करने की बात पांच साल पहले जारी क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में शामिल की गई थी, मगर हकीकत यही है कि अधिकतर अस्पताल या फॉरेन्सिक लैब इस पर अमल नहीं करते हैं, अब भी लोग खून का ग्रुप जांचने की पुरानी पद्धति पर निर्भर रहते हैं, जबकि यह भरोसेमंद तरीका नहीं माना जाता। वैसे डीएनए रिपोर्ट तैयार करने में हमारे फॉरेन्सिक लैब अक्सर लंबा समय लगाते हैं। इतना ही नहीं, अब भी अत्याचार पीड़ितों के ‘फिंगर टेस्ट’ का पुरातन सिलसिला यथावत जारी है, जबकि समय-समय पर विभिन्न अदालतों ने इसके खिलाफ अपनी राय दी है। योजना आयोग के एक कार्यदल ने भी यौन अत्याचार के पीड़ितों को मानसिक यंत्रणा से बचाने के लिए ‘टू फिंगर टेस्ट’ को समाप्त करने की सिफारिश की थी। यौन अत्याचार के बाल पीड़ितों के लिए बनी कमेटी ने तो यह सुझाव भी दिया है कि पीड़ितों को बार-बार बयान देने के लिए मजबूर न किया जाए, क्योंकि इससे उनकी मानसिक यंत्रणा ही बढ़ती है। कार्यदल ने यह भी कहा था कि इसे संभव बनाने के लिए क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में बदलाव किए जाने चाहिए। ऐसे बदलाव किए भी गए, लेकिन उन पर अमल नहीं हुआ। इसी का नतीजा है कि हम महिलाओं पर अत्याचार करने वालों को अदालत तक भले ही खींच ले जाएं, पर उन्हें दोषी साबित नहीं कर पाते। ऐसे अत्याचार को रोकने का एक ही तरीका है कि समाज में सख्त सजा का संदेश जाए। समाज में महिलाओं की भूमिका बढ़ाने के लिए भी यह जरूरी है।
आज शिक्षा, रोजगार या व्यवसाय के लिए काफी तादाद में महिलाएं घर से बाहर निकलती हैं। हर जगह वे अपनी छाप भी छोड़ रही हैं। लेकिन इसी दौरान देश का कुलजमा माहौल उनके लिए लगातार असुरक्षित होता जा रहा है, जबकि होना इसका उल्टा चाहिए था।
नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार, पिछले 40 साल में महिलाओं के खिलाफ अत्याचारों की संख्या में 800 फीसदी इजाफा हुआ है, पर इस दौरान अपराध साबित होने की दर लगभग एक तिहाई घटी है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2010 में बलात्कार की 22,171 घटनाओं की रिपोर्टे दर्ज हुईं, जिनमें दोष सिद्ध होने की दर महज 26.6 फीसदी ही थी। छेड़छाड़ की 40,163 मामले दर्ज हुए, जिसमें दोषसिद्धि 29.7 फीसदी थी। यानी कई महीनों और यहां तक कि कई साल चलने वाली कार्रवाई अंत में ज्यादातर औरतों को इंसाफ नहीं देती। कुछ समय पहले दिल्ली की एक मानसिक तौर पर अस्थिर लड़की से बलात्कार का मामला सामने आने पर अदालत ने पाया कि वह गवाही देने या अपराधियों को पहचानने की स्थिति में नहीं है। इस पर अदालत ने आदेश दिया कि बलात्कार के ऐसे सभी मामलों में डीएनए जांच को अनिवार्य बनाया जाए। वैसे बलात्कार पीड़ितों से डीएनए सैंपल एकत्रित करने की बात पांच साल पहले जारी क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में शामिल की गई थी, मगर हकीकत यही है कि अधिकतर अस्पताल या फॉरेन्सिक लैब इस पर अमल नहीं करते हैं, अब भी लोग खून का ग्रुप जांचने की पुरानी पद्धति पर निर्भर रहते हैं, जबकि यह भरोसेमंद तरीका नहीं माना जाता। वैसे डीएनए रिपोर्ट तैयार करने में हमारे फॉरेन्सिक लैब अक्सर लंबा समय लगाते हैं। इतना ही नहीं, अब भी अत्याचार पीड़ितों के ‘फिंगर टेस्ट’ का पुरातन सिलसिला यथावत जारी है, जबकि समय-समय पर विभिन्न अदालतों ने इसके खिलाफ अपनी राय दी है। योजना आयोग के एक कार्यदल ने भी यौन अत्याचार के पीड़ितों को मानसिक यंत्रणा से बचाने के लिए ‘टू फिंगर टेस्ट’ को समाप्त करने की सिफारिश की थी। यौन अत्याचार के बाल पीड़ितों के लिए बनी कमेटी ने तो यह सुझाव भी दिया है कि पीड़ितों को बार-बार बयान देने के लिए मजबूर न किया जाए, क्योंकि इससे उनकी मानसिक यंत्रणा ही बढ़ती है। कार्यदल ने यह भी कहा था कि इसे संभव बनाने के लिए क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में बदलाव किए जाने चाहिए। ऐसे बदलाव किए भी गए, लेकिन उन पर अमल नहीं हुआ। इसी का नतीजा है कि हम महिलाओं पर अत्याचार करने वालों को अदालत तक भले ही खींच ले जाएं, पर उन्हें दोषी साबित नहीं कर पाते। ऐसे अत्याचार को रोकने का एक ही तरीका है कि समाज में सख्त सजा का संदेश जाए। समाज में महिलाओं की भूमिका बढ़ाने के लिए भी यह जरूरी है।
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