अभय कुमार दुबे
पटियाला हाउस अदालत का फैसला अपने पक्ष में आने के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम ने बताया कि उन्होंने अपना इस्तीफा तैयार कर रखा था। इस साधारण से लगने वाले वक्तव्य का क्या मतलब है? अगर अदालत खिलाफ फैसला देती, तो क्या वह मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे देते? तब क्या वह वास्तव में खुद को दोषी मानते या सिर्फ मजबूरी में पद छोड़ते? इन दोनों प्रश्नवाचक चिह्नों का एक ही उत्तर है-चिदंबरम अपने दोषी या निर्दोष होने का विवेकसम्मत फैसला करने से जान-बूझकर दूर रहना चाहते हैं।
वह नहीं चाहते कि उन्हें सार्वजनिक पद पर रहते हुए किए गए अपने आचरण को किसी किस्म की नैतिक कसौटी पर कसने की जहमत उठानी पड़े। यानी उन्होंने अपनी राजनीति से नैतिकता को काटकर अलग कर दिया है। इस बात को अपराध-जगत की भाषा में दो तरह से कहा जाता है। पहली कहावत यह है कि जब तक पकड़ा नहीं जाता, चोर को अधिकार है कि वह खुद को साहूकार कहता रहे। दूसरी कहावत यह है कि जो पकड़े जाते हैं, वे चोर कहलाते हैं और बचकर निकल जाने वाले को स्मार्ट कहा जाता है।
चिदंबरम तो उस हांडी के एक चावल भर हैं, जिसे हम भारतीय राजनीति के नाम से जानते हैं। यूपीए सरकार ने अपनी हांडी में जिस तरह के चावल पकाए हैं, उसने राजनीति को चोरी और स्मार्टनेस के बीच कहीं फंसा दिया है। इन गठबंधन सरकारों की राजनीति किसी किस्म की प्रेरणा नहीं देती। वह सिर्फ एक ही संदेश देती है कि पहले उलटे-सीधे वायदे कर सत्ता हासिल कर लो, फिर तब तक सत्ता से चिपके रहो, जब तक धक्का मारकर कुरसी से उतार न दिए जाओ।
कांग्रेस के किसी भी नेता से निजी बातचीत कीजिए, तो थोड़ी-सी पूछताछ करने पर वह मान लेता है कि उसकी सरकार सांसत में फंसी हुई है। उसे यह मानने में भी हिचक नहीं होती कि 2 जी से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों तक घोटालों के पीछे उसकी सरकार के ही फैसले रहे हैं। मीडिया और विपक्ष ने ही नहीं, कैग से लेकर निचली और ऊंची अदालतों तक ने इस निर्णय-प्रक्रिया को जिस निरंतरता के साथ प्रश्नांकित किया है, वह आजाद भारत के इतिहास में बेमिसाल है।
पर सरकार बार-बार तकनीकी तर्कों के पीछे मुंह छिपाती है। कभी प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री दफ्तर के दोषी होने की दलील दी जाती है, तो कभी निर्णय प्रक्रिया में शामिल मंत्रियों में से किसी एक के सिर पर ठीकरा फोड़ा जाता है, ताकि बाकियों को बचाया जा सके।
इसमें कोई शक नहीं कि राजनीतिक नैतिकता सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के नैतिक मूल्यों और आचार संहिता से अलग तरह की चीज होती है। मसलन, निजी जीवन में दोस्तियां और दुश्मनियां काफी-कुछ स्थायी किस्म की होती हैं। लेकिन राजनीति में माना जाता है कि न कोई दोस्ती स्थायी है और न दुश्मनी।
निजी जीवन में माना जाता है कि कथनी-करनी में भेद नहीं होना चाहिए। लेकिन राजनीति में कथनी अर्थात विचारधारा अपनी जगह कायम रहती है और उसे ठंडे बस्ते में डालकर न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर विरोधी विचार वाली ताकतों के साथ मिलकर सराकारें बना ली जाती हैं। लेकिन क्या इसका मतलब यह हुआ कि निजी और राजनीतिक नैतिकता के बीच के इस अंतर का फायदा उठाते हुए सरकार के कारकुनों को कुछ भी करने की छूट लेते रहना चाहिए? राजनीतिक नैतिकता की भी एक संहिता होती है, जिसकी चमकदार मिसालें गुजरे जमाने की सरकारें और मंत्री पेश कर चुके हैं।
आंध्र प्रदेश के संस्थापक मुख्यमंत्री तंदवेलु प्रकाशम ने कांग्रेस नेता के रूप में जनता द्वारा भेंट की जाने वाली थैलियों को पार्टी के कोष में जमा कराने से इनकार कर दिया था। उनका तर्क था कि ये थैलियां आम लोगों ने सार्वजनिक जीवन में उनके योगदान के बदले दी हैं। पर गांधी जी ने उनकी यह दलील मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने पटेल के जरिये प्रकाशम को संदेश भिजवाया कि अगर उन्होंने वह रकम कांग्रेस के कोष में फौरन जमा नहीं की, तो वह उनके खिलाफ अनशन पर बैठ जाएंगे। गांधी जी की चेतावनी से प्रकाशम के हाथ-पांव फूल गए और उन्होंने बिना देर किए थैलियों की राशि कांग्रेस के खजाने में जमा कर दी।
इसी तरह पंडित नेहरू की सरकार ने पंजाब के ताकतवर मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों, कश्मीर के मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद, उड़ीसा के लोकप्रिय मुख्यमंत्री बीजू पटनायक और बिहार के मुख्यमंत्री से केवल इसलिए इस्तीफे रखवा लिए थे कि उनके खिलाफ आयोगों ने पद के दुरुपयोग की रपटें दे दी थीं।
उल्लेखनीय है कि ये सभी नेता नेहरू के खास आदमी थे। वर्ष 1962 में चीन के खिलाफ युद्ध में भारत की हार पर कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री का पद छोड़ना पड़ा था। भोला पासवान शास्त्री और लालबहादुर शास्त्री ने रेल दुर्घटनाओं की जिम्मेदारी लेते हुए अपना पद छोड़ दिया था। ये उदाहरण बताते हैं कि अगर मंत्री नैतिकता के आधार पर पद छोड़ने का फैसला नहीं लेता है, तो प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह उसे नैतिकता का आईना दिखाए।
भारतीय राजनीति में नैतिकता की इस समृद्ध परंपरा के विपरीत आज का नजारा बेहद निराश करने वाला है। एनडीए सरकार में भी इस तरह के कई उदाहरण देखने में आए थे। इसलिए आज जब भाजपा कांग्रेस पर अनैतिक होने का आरोप लगाती है, तो उसकी आवाज प्रभावी नहीं हो पाती। नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने को कुछ नेता रणछोड़-प्रवृत्ति का परिचायक मानते हैं। लेकिन उनका यह दृष्टिकोण सही नहीं है। जिस समय सार्वजनिक छवि पर दाग लग रहा हो, आरोपों की बौछार हो रही हो, पद पर रहना या न रहना अदालती फैसलों पर निर्भर हो गया हो, उस समय पार्टी और संबंधित नेताओं को अपने गिरेबान में झांककर यह अवश्य देखना चाहिए कि उनकी यह दुर्गति कैसे हुई।
तकनीकी तर्कों, कानूनी पेचीदगियों और वकीली दलीलों के पीछे छिपने के बजाय अगर वे स्वेच्छा से पद छोड़ने का फैसला करते हैं, तो उससे बेहतर नजीर बनती है। लेकिन यूपीए के दागी कारकुन इस हालत में पहुंच चुके हैं कि अगर वे इस्तीफा देने का फैसला करते हैं, तो भी उन्हें उनकी नैतिकता का श्रेय नहीं मिलेगा।
पटियाला हाउस अदालत का फैसला अपने पक्ष में आने के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम ने बताया कि उन्होंने अपना इस्तीफा तैयार कर रखा था। इस साधारण से लगने वाले वक्तव्य का क्या मतलब है? अगर अदालत खिलाफ फैसला देती, तो क्या वह मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे देते? तब क्या वह वास्तव में खुद को दोषी मानते या सिर्फ मजबूरी में पद छोड़ते? इन दोनों प्रश्नवाचक चिह्नों का एक ही उत्तर है-चिदंबरम अपने दोषी या निर्दोष होने का विवेकसम्मत फैसला करने से जान-बूझकर दूर रहना चाहते हैं।
वह नहीं चाहते कि उन्हें सार्वजनिक पद पर रहते हुए किए गए अपने आचरण को किसी किस्म की नैतिक कसौटी पर कसने की जहमत उठानी पड़े। यानी उन्होंने अपनी राजनीति से नैतिकता को काटकर अलग कर दिया है। इस बात को अपराध-जगत की भाषा में दो तरह से कहा जाता है। पहली कहावत यह है कि जब तक पकड़ा नहीं जाता, चोर को अधिकार है कि वह खुद को साहूकार कहता रहे। दूसरी कहावत यह है कि जो पकड़े जाते हैं, वे चोर कहलाते हैं और बचकर निकल जाने वाले को स्मार्ट कहा जाता है।
चिदंबरम तो उस हांडी के एक चावल भर हैं, जिसे हम भारतीय राजनीति के नाम से जानते हैं। यूपीए सरकार ने अपनी हांडी में जिस तरह के चावल पकाए हैं, उसने राजनीति को चोरी और स्मार्टनेस के बीच कहीं फंसा दिया है। इन गठबंधन सरकारों की राजनीति किसी किस्म की प्रेरणा नहीं देती। वह सिर्फ एक ही संदेश देती है कि पहले उलटे-सीधे वायदे कर सत्ता हासिल कर लो, फिर तब तक सत्ता से चिपके रहो, जब तक धक्का मारकर कुरसी से उतार न दिए जाओ।
कांग्रेस के किसी भी नेता से निजी बातचीत कीजिए, तो थोड़ी-सी पूछताछ करने पर वह मान लेता है कि उसकी सरकार सांसत में फंसी हुई है। उसे यह मानने में भी हिचक नहीं होती कि 2 जी से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों तक घोटालों के पीछे उसकी सरकार के ही फैसले रहे हैं। मीडिया और विपक्ष ने ही नहीं, कैग से लेकर निचली और ऊंची अदालतों तक ने इस निर्णय-प्रक्रिया को जिस निरंतरता के साथ प्रश्नांकित किया है, वह आजाद भारत के इतिहास में बेमिसाल है।
पर सरकार बार-बार तकनीकी तर्कों के पीछे मुंह छिपाती है। कभी प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री दफ्तर के दोषी होने की दलील दी जाती है, तो कभी निर्णय प्रक्रिया में शामिल मंत्रियों में से किसी एक के सिर पर ठीकरा फोड़ा जाता है, ताकि बाकियों को बचाया जा सके।
इसमें कोई शक नहीं कि राजनीतिक नैतिकता सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के नैतिक मूल्यों और आचार संहिता से अलग तरह की चीज होती है। मसलन, निजी जीवन में दोस्तियां और दुश्मनियां काफी-कुछ स्थायी किस्म की होती हैं। लेकिन राजनीति में माना जाता है कि न कोई दोस्ती स्थायी है और न दुश्मनी।
निजी जीवन में माना जाता है कि कथनी-करनी में भेद नहीं होना चाहिए। लेकिन राजनीति में कथनी अर्थात विचारधारा अपनी जगह कायम रहती है और उसे ठंडे बस्ते में डालकर न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर विरोधी विचार वाली ताकतों के साथ मिलकर सराकारें बना ली जाती हैं। लेकिन क्या इसका मतलब यह हुआ कि निजी और राजनीतिक नैतिकता के बीच के इस अंतर का फायदा उठाते हुए सरकार के कारकुनों को कुछ भी करने की छूट लेते रहना चाहिए? राजनीतिक नैतिकता की भी एक संहिता होती है, जिसकी चमकदार मिसालें गुजरे जमाने की सरकारें और मंत्री पेश कर चुके हैं।
आंध्र प्रदेश के संस्थापक मुख्यमंत्री तंदवेलु प्रकाशम ने कांग्रेस नेता के रूप में जनता द्वारा भेंट की जाने वाली थैलियों को पार्टी के कोष में जमा कराने से इनकार कर दिया था। उनका तर्क था कि ये थैलियां आम लोगों ने सार्वजनिक जीवन में उनके योगदान के बदले दी हैं। पर गांधी जी ने उनकी यह दलील मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने पटेल के जरिये प्रकाशम को संदेश भिजवाया कि अगर उन्होंने वह रकम कांग्रेस के कोष में फौरन जमा नहीं की, तो वह उनके खिलाफ अनशन पर बैठ जाएंगे। गांधी जी की चेतावनी से प्रकाशम के हाथ-पांव फूल गए और उन्होंने बिना देर किए थैलियों की राशि कांग्रेस के खजाने में जमा कर दी।
इसी तरह पंडित नेहरू की सरकार ने पंजाब के ताकतवर मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों, कश्मीर के मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद, उड़ीसा के लोकप्रिय मुख्यमंत्री बीजू पटनायक और बिहार के मुख्यमंत्री से केवल इसलिए इस्तीफे रखवा लिए थे कि उनके खिलाफ आयोगों ने पद के दुरुपयोग की रपटें दे दी थीं।
उल्लेखनीय है कि ये सभी नेता नेहरू के खास आदमी थे। वर्ष 1962 में चीन के खिलाफ युद्ध में भारत की हार पर कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री का पद छोड़ना पड़ा था। भोला पासवान शास्त्री और लालबहादुर शास्त्री ने रेल दुर्घटनाओं की जिम्मेदारी लेते हुए अपना पद छोड़ दिया था। ये उदाहरण बताते हैं कि अगर मंत्री नैतिकता के आधार पर पद छोड़ने का फैसला नहीं लेता है, तो प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह उसे नैतिकता का आईना दिखाए।
भारतीय राजनीति में नैतिकता की इस समृद्ध परंपरा के विपरीत आज का नजारा बेहद निराश करने वाला है। एनडीए सरकार में भी इस तरह के कई उदाहरण देखने में आए थे। इसलिए आज जब भाजपा कांग्रेस पर अनैतिक होने का आरोप लगाती है, तो उसकी आवाज प्रभावी नहीं हो पाती। नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने को कुछ नेता रणछोड़-प्रवृत्ति का परिचायक मानते हैं। लेकिन उनका यह दृष्टिकोण सही नहीं है। जिस समय सार्वजनिक छवि पर दाग लग रहा हो, आरोपों की बौछार हो रही हो, पद पर रहना या न रहना अदालती फैसलों पर निर्भर हो गया हो, उस समय पार्टी और संबंधित नेताओं को अपने गिरेबान में झांककर यह अवश्य देखना चाहिए कि उनकी यह दुर्गति कैसे हुई।
तकनीकी तर्कों, कानूनी पेचीदगियों और वकीली दलीलों के पीछे छिपने के बजाय अगर वे स्वेच्छा से पद छोड़ने का फैसला करते हैं, तो उससे बेहतर नजीर बनती है। लेकिन यूपीए के दागी कारकुन इस हालत में पहुंच चुके हैं कि अगर वे इस्तीफा देने का फैसला करते हैं, तो भी उन्हें उनकी नैतिकता का श्रेय नहीं मिलेगा।
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