शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

एटमी अप्रसार के बहाने

पुष्परंजन
(जनसत्ता 8 जनवरी, 2012) सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियां ‘ठुकरा दो, या प्यार करो’ का प्रयोग भारत ने अब कूटनीति में भी करना प्रारंभ कर दिया है। यूरोपीय संघ ने सोचा नहीं था कि ईरान के खिलाफ प्रतिबंध में भारत उसका साथ देने से मना कर देगा। अमेरिका और यूरोपीय संघ को संदेह है कि ईरान नाभिकीय हथियार विकसित कर चुका है। पश्चिम के दुश्मन पर प्रतिबंध के लिए संदेह ही काफी है। ईरान के सैन्य नाभिकीय कार्यक्रमों के लिए पैसे आना बंद हो, यह सोच कर अमेरिका ने ईरान के सेंट्रल बैंक समेत कोई सवा सौ फर्मों और वित्तीय संस्थाओं को काली सूची में डाल दिया है। इसकी देखादेखी सत्ताईस सदस्यों वाले यूरोपीय संघ ने भी एक प्रस्ताव द्वारा यह तय कर लिया कि ईरान के सेंट्रल बैंक पर प्रतिबंध के साथ-साथ हम उससे तेल लेना बंद कर देंगे।
ईरान इस प्रतिबंध का जवाब, प्रतिबंध से देते हुए कह चुका है कि होरमुज की खाड़ी से यूरोप-अमेरिका और उनके साथ खड़े देशों के लिए तेल की एक बूंद नहीं जाने देंगे। चौवन किलोमीटर वाली होरमुज की खाड़ी से ईरान, इराक, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान जैसे देश जुडेÞ हैं। ईरान-ओमान और संयुक्त अरब अमीरात के दस किलोमीटर संकरे मुहाने ‘तंगि-ए होरमुज’ से प्रतिदिन एक करोड़ साठ लाख बैरल तेल की निकासी जहाजों द्वारा होती है। तेल रोकने-निकालने को लेकर यहां कभी भी कुछ हो सकता है।
तेल पर रोक तो पंगे लेने का एक बहाना है। असल मुद््दा परमाणु अप्रसार है। विएना स्थित आईएईए (अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी) के अधिकारी ईरान जाकर क्या करते हैं, यह भी देख लेना चाहिए। उसके लिए हमें इक्कीस-बाईस फरवरी तक इंतजार करना होगा। तेहरान में इक्कीस फरवरी को अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अधिकरण का एक दल जाएगा। इस दल को ईरान के नाभिकीय प्रतिष्ठानों को किस हद तक देखने की अनुमति मिलती है, बहुत कुछ उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करेगी। आईएईए के अतीत को देखने से यही लगता है कि खाड़ी में यह अंतरराष्ट्रीय संस्था आग में घी जैसा काम करती रही है। तीसरा खाड़ी युद्ध, जिसे इराक में लड़ा गया, उसमें आईएईए की लचर भूमिका को दुनिया अभी भूली नहीं है।
आईएईए के मुख्य निरीक्षक हर्मन नेकर्ट ने अब तक ईरान के किसी भी नाभिकीय प्रतिष्ठान का निरीक्षण नहीं किया है। क्या ईरान पर प्रतिबंध पश्चिम की धौंसपट््टी नहीं है? जब वाशिंगटन के कैपिटल हिल से लेकर ब्रसेल्स तक ही सारी बातें तय कर लेनी हैं, तो फिर अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अधिकरण जैसी संस्था बनाने का औचित्य क्या है? अमेरिका और उसकी राह पर चलने वाला यूरोपीय संघ प्रतिबंध पहले लगाता है, जांच के लिए आईएईए का निरीक्षक बाद में भेजता है। इस अंधी व्यवस्था को कोई चुनौती क्यों नहीं देता? एक सचाई तो हमें स्वीकार करनी होगी कि होरमुज की खाड़ी में जिस तरह की गतिविधियां चल रही हैं, कभी भी खबर आ सकती है कि यहां से ‘चौथा खाड़ी युद्ध’ आरंभ हो चुका है। वहां बस माचिस की एक तीली दिखानी बाकी है।
इस पूरे बवाल की जड़ इजराइल अभी नेपथ्य में है। इजराइल के उप प्रधानमंत्री मोशे यालोन ने एक बार फिर अमेरिका को डराया है कि ईरान दस हजार किलोमीटर तक मार करने वाले परमाणु प्रक्षेपास्त्र विकसित कर चुका है। यानी अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा जान लें कि उनका देश भी सुरक्षित नहीं है। इजराइली प्रतिरक्षा मंत्री एहुद बराक पहली फरवरी को ईरान पर प्रतिबंध के लिए जर्मनी का आभार प्रकट करने बर्लिन पहुंच गए। इजराइल के पास दो सौ से अधिक परमाणु हथियार हैं। इस पर न तो अमेरिका को आपत्ति है, न ही यूरोपीय संघ को। इजराइल ने नाभिकीय अप्रसार की किसी संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया है। लेकिन ईरान का परमाणु कार्यक्रम उसे सबसे अधिक नागवार गुजरता है। इनके तर्क अजीब से हैं कि एक मुसलिम देश के पास परमाणु बम नहीं होना चाहिए। तो क्या परमाणु बम रखने का एकाधिकार सिर्फ गैर-मुसलिम देशों को है? हमारी नहीं, तो आने वाली पीढ़ी को इसका जवाब देना होगा।
ईरान हर रोज कोई पचीस लाख बैरल तेल का निर्यात करता है, जो पूरी दुनिया की तेल आपूर्ति का तीन प्रतिशत है। इस पचीस लाख बैरल में से पांच लाख बैरल कच्चा तेल यूरोप को जाता है, बाकी तेल चीन, जापान, भारत और दक्षिण कोरिया आयात कर लिया करते हैं। चीन पूरे यूरोप से कहीं अधिक, प्रतिदिन पांच लाख सत्तावन हजार बैरल कच्चे तेल का आयात ईरान से करता है। फिर मामला तेल आयात तक सीमित नहीं है, बल्कि ईरान के तेल-गैस दोहन और प्रसंस्करण परियोजनाओं में चीन का जबर्दस्त निवेश है।
पिछले दो दशक में चीन-ईरान के बीच व्यापार में एक सौ पचास प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। चीन-ईरान के बीच बीस करोड़ डॉलर से शुरू हुआ व्यापार आज की तारीख में तीस अरब डॉलर को छूने लगा है, जिसमें से 4.6 अरब डॉलर कीमत वाली वस्तुएं गैर-पेट्रोलियम पदार्थ हैं। मतलब यह कि साढ़े पचीस अरब डॉलर का तेल-गैस व्यापार चीन और ईरान के बीच है। अब चीन, जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के कहने से ईरान से तेल मंगाना छोड़ दे, यह कैसे संभव है? स्पष्ट है कि चीन ‘यू टर्न’ नहीं ले सकता। जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल पिछले दिनों चीन के दौरे पर गर्इं। उन्होंने यह भी आशा व्यक्त की है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा   परिषद संभवत: ईरान के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव पास कर दे। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों यानी रूस और चीन के बिना यह संभव है। कम से कम चीन के बिना तो बिल्कुल नहीं।
भारत में चुनाव के कारण अभी इस पर व्यापक चर्चा रुकी हुई है। फिर भी तय मानिए कि चुनाव परिणाम के अगले चरण में ही तेल को लेकर अपने देश में हाहाकार मचने वाला है। दो हफ्तों में ही कच्चे तेल की कीमत नब्बे डॉलर प्रति बैरल से उछल कर एक सौ बारह डॉलर पर पहुंच चुकी है। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष बता चुका है कि ईरान पर प्रतिबंध प्रकरण से कच्चे तेल की कीमत एक सौ पचास डॉलर पार कर जाएगी।
भारत और चीन पर पिछले दो महीनों से इसका जबर्दस्त दबाव था कि वे भी अमेरिका और उसके मित्रों की इस जंग में शामिल हो जाएं। भारत प्रतिदिन ईरान से चार लाख बैरल कच्चा तेल मंगाता है। साल में ईरान को 12. 68 अरब डॉलर का भुगतान भेजा जाती है, जिसमें से बीस प्रतिशत रुपए में, और बाकी तुर्की का बैंक ‘तुर्कीए हाल्क बंकासी’ के जरिए यूरो में। यह डर बना हुआ था कि यूरोपीय संघ शायद तुर्की पर दबाव बनाए, इससे ईरान को भारत द्वारा भुगतान में बाधा खड़ी हो सकती है। हालांकि तुर्की यूरोपीय संघ का सदस्य देश नहीं है, लेकिन नाटो का सदस्य होने के कारण तुर्की वही करता है, जो अमेरिका और उसके मित्र चाहते हैं। यह सब देखते हुए, भारत और ईरान ने नया रास्ता यही निकाला है कि कोलकाता के यूको बैंक के माध्यम से ईरान के दो निजी बैंकों ‘बैंक पर्शियन’ और ‘कराफारिन बैंक’ को पैंतालीस प्रतिशत भुगतान रुपए में किए जाएं। बाकी के पचपन प्रतिशत का कैसे भुगतान करना है, भारत सरकार यह ‘कार्ड’ नहीं खोल रही है। अगर ‘बैंक पर्शियन’ और ‘कराफारिन बैंक’ को भी ‘काली सूची’ में डाल दिया गया, तब क्या होगा?
पिछले साल ही चीन और ईरान ने तय कर लिया था कि डॉलर या बैंकों के माध्यम से भुगतान में बाधा आती है, तो चीनी माल के बदले तेल लेने वाली, वस्तु ‘विनिमय प्रणाली’ ( बार्टर सिस्टम ) को लागू कर देंगे। वैसे भी चीन-ईरान के बीच यह प्रणाली लागू है। भारत को चाहिए कि भुगतान करने के चीनी तरीके से वह ईरान और दूसरे तेल निर्यातक देशों से कच्चा तेल मंगाए।
इस महीने की दस तारीख को नई दिल्ली में बारहवां भारत-यूरोपीय संघ शिखर सम्मेलन होना है। इस शिखर सम्मेलन में आने वाले यूरोपीय नेताओं को इसका मलाल तो रहेगा कि भारत ने ईरान पर उसकी बात मानने से मना किया है। इसे देखते हुए, संभव है कि भारत-यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) ‘ईरान प्रतिबंध प्रकरण’ के कारण आगे बढ़ जाए। हालांकि यूरोपीय संघ कार और शराब व्यापार में जिस तरह की छूट भारत से चाहता था, उस पर बातचीत बहुत हद तक आपसी सहमति के मुकाम पर पहुंचने लगी है। यह बातचीत 2007 से चल रही थी।
सबके बावजूद, एक बात की शाबाशी देनी होगी कि इस बार ईरान पर प्रतिबंध प्रकरण से भारत-चीन ने पश्चिम का यह भ्रम तोड़ा है कि वे दुनिया के आका हैं। पाकिस्तान ने भी अमेरिकी धौंस मानने से इनकार किया है कि वह ईरान से तेल-गैस पाइपलाइन (आईपीआई या पीस पाइपलाइन) परियोजना रद्द कर दे। पाकिस्तान ने यह भी पलट कर कह दिया कि ईरान से तेल-गैस पाइपलाइन परियोजना प्रतिबंध की श्रेणी में नहीं आती।
अट्ठाईस हजार पांच सौ अमेरिकी सैनिकों की निगरानी में रह रहे दक्षिण कोरिया के बारे में यह आम धारणा बनी हुई थी कि यह बिना रीढ़ वाला देश है। ऐसा देश भी ईरान पर प्रतिबंध लगाने के मामले में अमेरिका के सामने बहाने बना रहा है। दक्षिण कोरिया ने बड़े भोलेपन से पूछा है कि अमेरिका ही बताए कि हम कितना तेल मंगाएं? अमेरिका का दूसरा मित्र जापान भी ईरान के चक्कर से खुद को दूर रखना चाहता है। जापान और दक्षिण कोरिया, दोनों देशों के नेताओं ने तो कह दिया है कि अमेरिका, ईरान पर प्रतिबंध वाले मामले में हमें बख्श दे। इससे पहले जापान के प्रधानमंत्री योशिहीको नोदा बोल चुके हैं कि ईरान से तेल मंगाने पर रोक से हमारी अर्थव्यवस्था की चूलें हिल जाएंगी।
अगर ऐसा है, तो अमेरिका और यूरोप की नीतियों के कारण एशिया के देश अपनी फजीहत क्यों करा रहे हैं? क्यों नहीं एशिया के सारे देश यूरोपीय संघ की तरह ‘एशियाई संघ’ बनाने की बात कर रहे हैं? कब तक एशिया के देश अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए अमेरिका-यूरोप के तय मानदंडों पर चलते रहेंगे? जबकि तेल निर्यातक संगठन ‘ओपेक’ के बारह सदस्यों में से सात एशिया से हैं, और बाकी पांच भी यूरोप-अमेरिका से बाहर के देश हैं। खैर, भारत ने राह दिखाई है कि ऐसे विकट समय में कूटनीति को किस दिशा में ले जाना है। क्या एशिया के अन्य देश इससे सबक लेंगे?

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