उनकी 76 वीं फ़िल्म स्क्रिप्ट ‘पोन्नार शंकर’ फ़ुस्स साबित हुई. कुछ सप्ताह पहले रिलीज हुई यह छद्म-ऐतिहासिक फ़िल्म धड़ाम हो गयी. इसकी तुलना में उनकी पहली 25 फ़िल्म स्क्रिप्टों की बात करें, तो वे द्रविड़ियन विचारधारा को बेहतरीन तरीके से पेश करती थीं. इसमें 1952 में आयी फ़िल्म ‘पराशक्ति’ भी शामिल है. यह एक प्रकार से पिछले 50 वर्षो में तमिलनाडु के सामाजिक अनुक्रम को पलट देने के लिए चले आंदोलन के लिए घोषणापत्र जैसा रहा है.
उन्होंने तमिल सिनेमा में संवाद बतौर राजा स्थापित कर दिया.उनकी सबसे छोटी बेटी (कवयित्री) जो कि राज्यसभा की सांसद हैं, उन्हें दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में हाजरी देने को बाध्य होना पड़ा और शायद यह मामला उनके जेल जाने के बाद ही खत्म हो (अब ऐसा हो भी चुका है-सं). उन्हें पार्टी द्वारा संस्कृति सम्राज्ञी के रूप में पेश किया गया, जो सांस्कृतिक राजनीति पर प्रीमियम लगाता है. यह भी संभव था कि उन्हें केंद्र में संस्कृति मंत्री बनाया जाता.कलैगनार टीवी चैनल, जो उनके नाम पर है, बंद होने का खतरा ङोल रहा है. उनकी 79 साल की बड़ी पत्नी, जिनकी चैनल में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है, वे भी इस जाल में फ़ंसती दिख रही हैं.
यह चैनल विज्ञापन के रूप में एक लाइन लिखा करता है, वो है ‘नॉन स्टॉप कोंडाट्टम’ यानी अबाध उत्सव! उनके बड़े बेटे, जो कि केंद्रीय मंत्री हैं, अभी हाल ही में हत्या के जुर्म से बरी किये गये हैं, पर संदेह अब भी बरकरार है और ऐसा लगता है कि दक्षिण तमिलनाडु में उनकी राजनीतिक पकड़ कम हुई है.उनका छोटा बेटा, जिसे तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनने के लिए लंबे समय से और बड़े जतन से राजनीति में खड़ा किया गया, शायद कभी गद्दी हासिल न कर सके. उनके भांजे का छोटा बेटा भी केंद्रीय मंत्री हैं.
उनके भांजे के एक बड़े बेटे ने करोड़ों डॉलर की लागत से एक बहुत बड़ा मीडिया हाउस खड़ा किया है, जिसका तमिलनाडु के फ़िल्म उद्योग पर जबरदस्त नियंत्रण है. लेकिन सन ग्रुप प्रोपेगंडा के इस मास्टर को शायद ही कोई जगह देता है, जो गोबेल्स की उस अवधारणा को आत्मसात कर चुका है, जिसके मुताबिक प्रोपेगेंडा का सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता.उनकी पार्टी एक बार फ़िर से तमिलनाडु में जे जयललिता और एआईडीएमके के खिलाफ़ मैदान में उतरी. इस बार अप्रत्याशित रूप से जहर उगलते हुए, किसी तरह डूबती नाव को बचाने के लिए समर्थकों की टोली बनाते हुए. इन सबका परिणाम यह हुआ कि आंतरिक कलह बढ़ता गया.
वह स्वयं भी 12वीं बार विधानसभा पहुंचने की दौड़ में रह सकते थे, पर मुख्यमंत्री मुथुवेल करुणानिधि का काउंटडाउन शुरू हो चुका है. कुछ ही सप्ताह में 87 वें वर्ष में प्रवेश करने वाले इस आदमी को शायद ही कभी भय हुआ हो और आप देखें कि कैसे धीरे-धीरे उनके द्वारा खड़े किये शक्ति, धन और आकर्षण खत्म हो रहे हैं. सीएन अन्नादुरई करुणानिधि के मेंटर थे. उन्होंने 1969 में अपने मरने से थोड़ा पहले करुणानिधि से कहा था कि थांबी, तुम्हें यह जानना चाहिए कि तुम्हारे सिर पर कांटों भरा ताज है.
विविधता से भरे इस ऐक्टविस्ट के लिए उम्र कोई बंधन नहीं रही. वह पिछले 44 साल से तमिलनाडु में द्रविड़ियन राजनीति का शिल्पी रहा है. उनके दीर्घकालीन राजनीतिक वर्चस्व को देश के उन मीडिया पंडितों ने कभी वैसी तवज्जो नहीं दी, जैसा कि वे बंगाल के वामदलों के शासन के बारे में कहते आये हैं. सात दशकों में संजोया उनका राजनीतिक कैरियर अब ढलान पर है. इस दौरान उन्होंने अपनी पार्टी का भाग्य निर्माण किया, जो चुनाव चिह्न उगते हुए सूरज के ही समान है. विधायिका के 57 सालों के इतिहास में वे 19 साल तक मुख्यमंत्री रहे. अब उनका सूरज अस्त हो रहा है. लेकिन राजनीतिक उठापटक और भ्रष्टाचार के आरोपों ने कभी भी इस मंङो हुए खिलाड़ी को विचलित नहीं किया. तमिलनाडु में उनके कार्यकाल में कोई ऐसा समय नहीं रहा है जब उन पर भ्रष्टाचार के आरोप न लगे हों. उनके कभी मित्र रहे और बाद में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बने एमजी रामचंद्रन ने भ्रष्टाचार के 18 मापकों के आधार पर डीएमके से खुद को अलग किया था. यहां तक कि सरकारिया कमीशन ने भी उन पर दोष मढ़े थे. इंदिरा गांधी ने उनके मंत्रालय को बरखास्त कर दिया था. जयललिता ने वहां वार किया, जहां करुणानिधि को चोट पहुंच सकती थी. लेकिन मुथुवेल करुणानिधि ने सिसीफ़स की तरह हर मुश्किल को पीछे धकेल दिया.यह भी सत्य है कि उनके खिलाफ़ भाई-भतीजावाद की राजनीति करने का भी आरोप है.
वस्तुत उन्होंने लंबे समय तक वंशवाद का कार्ड खेला है. शुरूआत में यह लगा था कि उनके भतीजे मुरासोली मारन ही उनके लेफ्टिनेंट हो सकते हैं. इसमें वह सफ़ल भी रहे थे. इसके बाद उन्होंने असफ़लतापूर्वक अपने बड़े बेटे एमके मुथु को एमजीआर के खिलाफ़ फ़िल्मस्टार के रूप में प्रोमोट किया. उन्होंने तो यहां तक दावां किया था कि उनकी पार्टी एक ऐसे प्रतिष्ठान की तरह है, जिसमें कैडर पान की पत्ती लाते हैं, सुपारी लाने का काम वरिष्ठ नेताओं का है और वे स्वयं इस पर चूने की तरह होते थे. कुल मिलाकर जो मिश्रण तैयार होता था, उसका रंग गहरा लाल होता है. जो लोग मुथुवेल करुणानिधि के आसपास होते थे और उनके प्रति समर्पित माने जाते थे, उन पर उन्हें हमेशा संदेह बना रहा. इसी व्यक्तिगत समर्पण को कायम रखने के लिए उन्होंने अपने ही परिवार से लोगों को चुना. एक सच्चे लोकतंत्र में व्यक्तिगत राजनीतिक दीर्घजीविता एक अभिशाप की तरह है. यह वास्तविक भ्रष्टाचार है, जो लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व को राजसी अधिकार में बदल देता है, जिससे पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है और जो वंशवाद को भी विधिसम्मत ठहरा देता है.
मुथुवेल करुणानिधि की सत्ता पर पकड़ लंबे समय से रही है. एकाध दशक पहले वे पीछे हट सकते थे, अपने उद्देश्यों, उपलब्धियों और फ़ैसलों की समीक्षा करने के लिए.उनके पास पार्टी में भीष्म की तरह भूमिका निभाने का भी अवसर था. वह एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाये रह सकते थे, जिससे कि पान का रंग लाल हो जाता है. सभी पक्षों से देखें, तो उन्होंने तमिल समाज का राजनीतिकरण कर दिया. इससे निर्वाचन मंडल भ्रष्ट हो गया, नौकरशाही का कोई महत्व नहीं रहा, न्यायपालिका हाइजैक कर ली गई, मीडिया का मुंह बंद किया गया, तमिल भाषा के विकास को रोका गया.
यह एक ऐसा कार्यकाल है, जिसे ऐरक हॉब्सबाम के शब्दों में इस तरह रखा जा सकता है- एक ऐसा समूह जिसमेंएक महत्वहीन बुद्धिजीवी और जनता का मजबूत भावनात्मक सहयोग साथ-साथ है.मुथुवेल करुणानिधि और दूसरे राजनीतिज्ञों द्वारा पहले के उन कार्यक्रमों से मुंह मोड़ा गया जो जनता के हित में थे. उनकी जगह गूढ़ राजनीति की आड ली गई. ऐसी राजनीति जिसमें लोगों के आंदोलन करने के लिए कोई जगह नहीं थी. प्रशासनिक सख्ती का आलम यह रहा कि यह राज्य एक कुरुप पुलिस राज्य में बदल गया, जहां कानून न होना ही कानून बन गया.मुथेवेल करुणानिधि की उपलब्धियों के बारे में केवल यही कहा जा सकता है कि उन्होंने वास्तविक द्रविड़ियन आदर्श को पलट कर रख दिया. प्रारंभ में आंदोलन एक अलगाववादी के रूप में उत्तर के खिलाफ़ हुआ. बाद में पार्टी ने भी उत्तरी भाषा के लिए कोई जगह नहीं रखी. अलगाववाद छोड़ संसदीय राजनीति में उतरने में उन्हें करीब एक दशक लगा (1957) और फ़िर सत्ता में आने के लिए एक दशक. इस बीच केंद्र और राज्य के बीच में मतभेद की स्थिति बनी रही.तमिलनाडु हर तरह से हाशिये पर रहा. आज यह लगभग केंद्र की राजनीति को संचालित करता है. इस बीच, जो भी पार्टी केंद्रीय सत्ता में रही है, उससे इसने लिए हर तरह की सुविधाएं प्राप्त की है, जिसे हम पैकेज डील के रूप में जानते हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो इसने यह दिखाया है कि कैसे सत्ता की ब्लैक मार्केटिंग होती है और इससे कैसे लाभ उठाया जा सकता है. यह एक प्रकार से भारतीय बुजुर्आ लोकतंत्र के लिए सबक है. खैर फ़िर भी मुथवेल करुणानिधि को निराश होने की जरूरत नहीं है.लेखक चेन्नई में रहनेवाले संस्कृति आलोचक हैं.
- सदानंद मेनन
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उन्होंने तमिल सिनेमा में संवाद बतौर राजा स्थापित कर दिया.उनकी सबसे छोटी बेटी (कवयित्री) जो कि राज्यसभा की सांसद हैं, उन्हें दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में हाजरी देने को बाध्य होना पड़ा और शायद यह मामला उनके जेल जाने के बाद ही खत्म हो (अब ऐसा हो भी चुका है-सं). उन्हें पार्टी द्वारा संस्कृति सम्राज्ञी के रूप में पेश किया गया, जो सांस्कृतिक राजनीति पर प्रीमियम लगाता है. यह भी संभव था कि उन्हें केंद्र में संस्कृति मंत्री बनाया जाता.कलैगनार टीवी चैनल, जो उनके नाम पर है, बंद होने का खतरा ङोल रहा है. उनकी 79 साल की बड़ी पत्नी, जिनकी चैनल में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है, वे भी इस जाल में फ़ंसती दिख रही हैं.
यह चैनल विज्ञापन के रूप में एक लाइन लिखा करता है, वो है ‘नॉन स्टॉप कोंडाट्टम’ यानी अबाध उत्सव! उनके बड़े बेटे, जो कि केंद्रीय मंत्री हैं, अभी हाल ही में हत्या के जुर्म से बरी किये गये हैं, पर संदेह अब भी बरकरार है और ऐसा लगता है कि दक्षिण तमिलनाडु में उनकी राजनीतिक पकड़ कम हुई है.उनका छोटा बेटा, जिसे तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनने के लिए लंबे समय से और बड़े जतन से राजनीति में खड़ा किया गया, शायद कभी गद्दी हासिल न कर सके. उनके भांजे का छोटा बेटा भी केंद्रीय मंत्री हैं.
उनके भांजे के एक बड़े बेटे ने करोड़ों डॉलर की लागत से एक बहुत बड़ा मीडिया हाउस खड़ा किया है, जिसका तमिलनाडु के फ़िल्म उद्योग पर जबरदस्त नियंत्रण है. लेकिन सन ग्रुप प्रोपेगंडा के इस मास्टर को शायद ही कोई जगह देता है, जो गोबेल्स की उस अवधारणा को आत्मसात कर चुका है, जिसके मुताबिक प्रोपेगेंडा का सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता.उनकी पार्टी एक बार फ़िर से तमिलनाडु में जे जयललिता और एआईडीएमके के खिलाफ़ मैदान में उतरी. इस बार अप्रत्याशित रूप से जहर उगलते हुए, किसी तरह डूबती नाव को बचाने के लिए समर्थकों की टोली बनाते हुए. इन सबका परिणाम यह हुआ कि आंतरिक कलह बढ़ता गया.
वह स्वयं भी 12वीं बार विधानसभा पहुंचने की दौड़ में रह सकते थे, पर मुख्यमंत्री मुथुवेल करुणानिधि का काउंटडाउन शुरू हो चुका है. कुछ ही सप्ताह में 87 वें वर्ष में प्रवेश करने वाले इस आदमी को शायद ही कभी भय हुआ हो और आप देखें कि कैसे धीरे-धीरे उनके द्वारा खड़े किये शक्ति, धन और आकर्षण खत्म हो रहे हैं. सीएन अन्नादुरई करुणानिधि के मेंटर थे. उन्होंने 1969 में अपने मरने से थोड़ा पहले करुणानिधि से कहा था कि थांबी, तुम्हें यह जानना चाहिए कि तुम्हारे सिर पर कांटों भरा ताज है.
विविधता से भरे इस ऐक्टविस्ट के लिए उम्र कोई बंधन नहीं रही. वह पिछले 44 साल से तमिलनाडु में द्रविड़ियन राजनीति का शिल्पी रहा है. उनके दीर्घकालीन राजनीतिक वर्चस्व को देश के उन मीडिया पंडितों ने कभी वैसी तवज्जो नहीं दी, जैसा कि वे बंगाल के वामदलों के शासन के बारे में कहते आये हैं. सात दशकों में संजोया उनका राजनीतिक कैरियर अब ढलान पर है. इस दौरान उन्होंने अपनी पार्टी का भाग्य निर्माण किया, जो चुनाव चिह्न उगते हुए सूरज के ही समान है. विधायिका के 57 सालों के इतिहास में वे 19 साल तक मुख्यमंत्री रहे. अब उनका सूरज अस्त हो रहा है. लेकिन राजनीतिक उठापटक और भ्रष्टाचार के आरोपों ने कभी भी इस मंङो हुए खिलाड़ी को विचलित नहीं किया. तमिलनाडु में उनके कार्यकाल में कोई ऐसा समय नहीं रहा है जब उन पर भ्रष्टाचार के आरोप न लगे हों. उनके कभी मित्र रहे और बाद में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बने एमजी रामचंद्रन ने भ्रष्टाचार के 18 मापकों के आधार पर डीएमके से खुद को अलग किया था. यहां तक कि सरकारिया कमीशन ने भी उन पर दोष मढ़े थे. इंदिरा गांधी ने उनके मंत्रालय को बरखास्त कर दिया था. जयललिता ने वहां वार किया, जहां करुणानिधि को चोट पहुंच सकती थी. लेकिन मुथुवेल करुणानिधि ने सिसीफ़स की तरह हर मुश्किल को पीछे धकेल दिया.यह भी सत्य है कि उनके खिलाफ़ भाई-भतीजावाद की राजनीति करने का भी आरोप है.
वस्तुत उन्होंने लंबे समय तक वंशवाद का कार्ड खेला है. शुरूआत में यह लगा था कि उनके भतीजे मुरासोली मारन ही उनके लेफ्टिनेंट हो सकते हैं. इसमें वह सफ़ल भी रहे थे. इसके बाद उन्होंने असफ़लतापूर्वक अपने बड़े बेटे एमके मुथु को एमजीआर के खिलाफ़ फ़िल्मस्टार के रूप में प्रोमोट किया. उन्होंने तो यहां तक दावां किया था कि उनकी पार्टी एक ऐसे प्रतिष्ठान की तरह है, जिसमें कैडर पान की पत्ती लाते हैं, सुपारी लाने का काम वरिष्ठ नेताओं का है और वे स्वयं इस पर चूने की तरह होते थे. कुल मिलाकर जो मिश्रण तैयार होता था, उसका रंग गहरा लाल होता है. जो लोग मुथुवेल करुणानिधि के आसपास होते थे और उनके प्रति समर्पित माने जाते थे, उन पर उन्हें हमेशा संदेह बना रहा. इसी व्यक्तिगत समर्पण को कायम रखने के लिए उन्होंने अपने ही परिवार से लोगों को चुना. एक सच्चे लोकतंत्र में व्यक्तिगत राजनीतिक दीर्घजीविता एक अभिशाप की तरह है. यह वास्तविक भ्रष्टाचार है, जो लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व को राजसी अधिकार में बदल देता है, जिससे पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है और जो वंशवाद को भी विधिसम्मत ठहरा देता है.
मुथुवेल करुणानिधि की सत्ता पर पकड़ लंबे समय से रही है. एकाध दशक पहले वे पीछे हट सकते थे, अपने उद्देश्यों, उपलब्धियों और फ़ैसलों की समीक्षा करने के लिए.उनके पास पार्टी में भीष्म की तरह भूमिका निभाने का भी अवसर था. वह एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाये रह सकते थे, जिससे कि पान का रंग लाल हो जाता है. सभी पक्षों से देखें, तो उन्होंने तमिल समाज का राजनीतिकरण कर दिया. इससे निर्वाचन मंडल भ्रष्ट हो गया, नौकरशाही का कोई महत्व नहीं रहा, न्यायपालिका हाइजैक कर ली गई, मीडिया का मुंह बंद किया गया, तमिल भाषा के विकास को रोका गया.
यह एक ऐसा कार्यकाल है, जिसे ऐरक हॉब्सबाम के शब्दों में इस तरह रखा जा सकता है- एक ऐसा समूह जिसमेंएक महत्वहीन बुद्धिजीवी और जनता का मजबूत भावनात्मक सहयोग साथ-साथ है.मुथुवेल करुणानिधि और दूसरे राजनीतिज्ञों द्वारा पहले के उन कार्यक्रमों से मुंह मोड़ा गया जो जनता के हित में थे. उनकी जगह गूढ़ राजनीति की आड ली गई. ऐसी राजनीति जिसमें लोगों के आंदोलन करने के लिए कोई जगह नहीं थी. प्रशासनिक सख्ती का आलम यह रहा कि यह राज्य एक कुरुप पुलिस राज्य में बदल गया, जहां कानून न होना ही कानून बन गया.मुथेवेल करुणानिधि की उपलब्धियों के बारे में केवल यही कहा जा सकता है कि उन्होंने वास्तविक द्रविड़ियन आदर्श को पलट कर रख दिया. प्रारंभ में आंदोलन एक अलगाववादी के रूप में उत्तर के खिलाफ़ हुआ. बाद में पार्टी ने भी उत्तरी भाषा के लिए कोई जगह नहीं रखी. अलगाववाद छोड़ संसदीय राजनीति में उतरने में उन्हें करीब एक दशक लगा (1957) और फ़िर सत्ता में आने के लिए एक दशक. इस बीच केंद्र और राज्य के बीच में मतभेद की स्थिति बनी रही.तमिलनाडु हर तरह से हाशिये पर रहा. आज यह लगभग केंद्र की राजनीति को संचालित करता है. इस बीच, जो भी पार्टी केंद्रीय सत्ता में रही है, उससे इसने लिए हर तरह की सुविधाएं प्राप्त की है, जिसे हम पैकेज डील के रूप में जानते हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो इसने यह दिखाया है कि कैसे सत्ता की ब्लैक मार्केटिंग होती है और इससे कैसे लाभ उठाया जा सकता है. यह एक प्रकार से भारतीय बुजुर्आ लोकतंत्र के लिए सबक है. खैर फ़िर भी मुथवेल करुणानिधि को निराश होने की जरूरत नहीं है.लेखक चेन्नई में रहनेवाले संस्कृति आलोचक हैं.
- सदानंद मेनन
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