पी. साईनाथ
यह आलेख कानूनी जामे के भीतर जारी सरकारी धन की लूट के एक भयावह किस्से का खुलासा करता है। जिस दौर में भ्रष्टाचार और काले धन की चर्चा जोरों पर है इस लूट पर मीडिया और राजनैतिक वर्ग की चुप्पी इस नवसाम्राज्यवादी समय में सत्ता वर्ग और पूंजीपतियों की नाभिनालबद्धता की ओर साफ इशारा करती है ।
भारत सरकार ने कारपोरेट जगत के आयकर का 2005-2006 से 2010-2011 के बीच के बजटों में 3,74,937 करोड़ रुपया माफ कर दिया। यह रक़म 2 जी घोटाले के दुगने से भी ज्यादा है। यह राशि हर साल लगातार बढ़ती गयी है, जिसके आंकड़े उपलब्ध हैं। 2005-2006 में 34,618 करोड़ रुपये का आयकर माफ कर दिया गया था, हालिया बजट में यह आंकड़ा है : 88,263 करोड़, यानि कि 155 फीसदी की बढ़त! इसका मतलब यह हुआ कि देश औसतन रोज कारपोरेट जगत का 240 करोड़ रुपये का आयकर माफ कर रहा है। विडंबना यह कि वाशिंगटन स्थित ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी (वैश्विक वित्तीय ईमानदारी) की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग इतनी ही राशि औसतन रोज काले धन के रूप में देश से बाहर भी जा रही है।
88,263 करोड़ रुपये की यह धनराशि भी केवल कारपोरेट आयकर में दी गयी माफी को इंगित करती है। इस आंकड़े में जनता के एक बड़े हिस्से को ऊंची छूट की सीमाओं के कारण हो रहे नुकसान की राशि शामिल नहीं है। इसमें वरिष्ठ नागरिकों या महिलाओं (जैसा कि पिछले बजटों में प्रावधान था) के लिए कर की ऊंची छूट सीमा के चलते होने वाले नुकसान भी शामिल नहीं हैं। यह केवल कारपोरेट जगत के बड़े खिलाडिय़ों को दी जा रही आयकर राहत है।
प्रणव मुखर्जी ने पिछले बजट में जहां कारपोरेट जगत के लिए यह विशाल धनराशि माफ कर दी वहीं कृषि के बजट से हजारों करोड़ रुपये काट लिए। जैसा कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सांइसेज के आर रामकुमार बताते हैं, इस क्षेत्र में कुल वास्तविक खर्च 5,568 करोड़ रुपये कम कर दिया गया। कृषि क्षेत्र के भीतर सबसे ज्यादा कमी कृषि क्षेत्र (फार्म हस्बेंडरी) में की गयी जिसके बजट में 4,477 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गयी, जिसका मतलब अन्य चीजों के अलावा विस्तार सेवाओं की लगभग मृत्यु है। दरअसल आर्थिक सेवाओं के भीतर सबसे ज्यादा कटौती कृषि और इससे जुड़ी सेवाओं में की गयी है।
कपिल सिब्बल भी सरकार की आय में होने वाले इस नुकसान को केवल कल्पित नहीं कह पाते। इसकी वजह बिल्कुल साफ है कि हर बजट में ये आंकड़े ‘आय में नुकसान का विवरण’ नामक तालिका में अलग से बिल्कुल स्पष्ट रूप में सूचीबद्ध किये जाते हैं। अगर हम इस कारपोरेट कर्जा माफी, सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्कों में दी गयी राहत (इसका सबसे ज़्यादा लाभ भी समाज के धनी तबके और कारपोरेट जगत को ही मिलता है) से होने वाली आय में नुकसान को जोड़ दिया जाय तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते हैं। उदाहरण के लिए यदि यह देखा जाय कि सीमा शुल्क पर सबसे ज़्यादा छूट किन चीजों पर दी जा रही है तो वे हैं ‘सोना और हीरा’। अब ये आम आदमी या आम औरत की चीजें तो नहीं हैं। लेकिन हालिया बजट में इन चीजों पर दी गयी छूट के कारण सरकारी आय को हुआ नुकसान सबसे ज़्यादा है। यह राशि है 48,798 करोड़ रुपये! यह राशि सार्वजनीन लोक वितरण प्रणाली के लिए आवश्यक धनराशि की आधी है। इसके पहले के तीन सालों में सोने, हीरे और दूसरे आभूषणों पर सीमा शुल्क में दी गयी छूट से सरकारी खज़ाने को हुआ कुल नुकसान था – 95, 675 करोड़!
जाहिर तौर पर भारत में निजी पूंजीपतियों के फायदे के लिए सरकारी खजाने की हर लूट गरीबों की भलाई के लिए ही होती है। आपको तर्क दिया जायेगा कि सोने और हीरे में यह बंपर छूट भूमंडलीय आर्थिक संकट के दौर में गरीब कामगारों की नौकरी बचाने के लिए दी गयी थी। क्या सरोकार! लेकिन बस इतना कि इसने कहीं भी एक भी नौकरी नहीं बचाई। गुजरात में इस उद्योग में लगे तमाम कामगार इसके डूबने पर बेरोजगार होकर सूरत से अपने घर गंजम लौट आये। बचे हुओं में से कुछ ने निराशा में अपनी जान दे दी। वैसे भी उद्योग जगत पर यह अनुग्रह 2008 के संकट के पहले से ही जारी है। महाराष्ट्र के उद्योगों ने केंद्र के इस ‘कारपोरेट समाजवाद’ से ख़ूब कमाई की है। इसके बावज़ूद 2008 के संकट के पहले के तीन वर्षों में उस राज्य में कामगारों ने प्रतिदिन औसतन 1,800 के करीब नौकरियां गवाईं हैं।
आइये बज़ट की ओर लौटें – इसमें एक और मद है ‘मशीनरी’ जिसमें सीमा शुल्क की भारी छूट दी गयी है। निश्चित रूप से इसमें बड़े कारपोरेट अस्पतालों द्वारा आयात किये जाने वाले अति आधुनिक चिकित्सा उपकरण भी शामिल हैं जिन पर लगभग कोई ड्यूटी नहीं लगती। अरबों के इस उद्योग में अन्य छूटों के अलावा यह लाभ हासिल करने के पीछे दावा तीस प्रतिशत शैय्याओं को गरीब लोगों के लिए मुफ्त उपलब्ध कराने का है – सब जानते हैं कि वास्तव में ऐसा होता कभी नहीं। इस तरह की छूट के चलते सरकारी खजाने को लगने वाले चूने की कुल राशि है -1,74,418 करोड़! और इसमें निर्यात ऋण के रूप में दिये जाने वाली राहतें शामिल नहीं हैं।
उत्पाद शुल्क में छूट दिये जाने के पीछे यह दावा किया जाता है कि इस तरह गंवाई हुई राशि के चलते उपभोक्ताओं को उत्पाद कम कीमत में उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन इस बात का कोई सबूत उपलब्ध नहीं कराया जाता कि ऐसा वास्तव में होता भी है। न तो बजट में, न ही कहीं और। ( यह तर्क आजकल तमिलनाडु में सुनाई दे रहे इस दावे की ही तरह है कि 2 जी घोटाले में कोई लूट नहीं हुई, जो पैसा गबन हुआ उससे उपभोक्ताओं को सस्ती काल दरें उपलब्ध कराई गयीं।) लेकिन जो स्पष्ट है वह यह कि उत्पाद शुल्कों की माफी का सीधा फायदा उद्योग और व्यापार जगत को मिला है। उपभोक्ताओं तक इसका लाभ स्थानांतरित करने का कोई भी दावा बस एक हवाई अनुमान जैसा ही है, जिसे कभी सिद्ध नहीं किया गया। उत्पाद शुल्कों की माफी के कारण बजट में सरकार को हुए नुकसान की राशि है – 1,98,291 करोड़ (पिछले साल यह राशि थी 1,69,121 करोड़ रुपये)। साफ तौर पर 2 जी घोटाले के नुकसानों के उच्चतम अनुमानों से भी अधिक।
यह भी रोचक है कि इन तीनों तरह के अनुग्रहों से एक ही वर्ग विभिन्न तरीकों से लाभान्वित होता है। लेकिन आयकर, उत्पाद कर तथा सीमा शुल्क की माफी के चलते कुल मिलाकर कितनी धनराशि का नुकसान सरकार को हुआ है? हमने स्पष्ट रूप से कहा है कि 2005-06 से शुरु करें तो उस समय यह धनराशि थी – 2,29,108 करोड़ रुपये। इस बजट में यह राशि दुगने से अधिक होकर 4,60,972 करोड़ रुपये हो गयी है। अब अगर 2005-06 से पिछले छह सालों की इन सारी धनराशियों को जोड़ लें तो कुल रकम होती है – 21,25,023 करोड़ रुपये, यानी लगभग आधा ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर। यह केवल 2 जी घोटाले में गबन की गयी रकम का 12 गुना ही नहीं है। यह ग्लोबल फाइनेंसियल इंटेग्रिटी द्वारा 1948 से अब तक देश से बाहर गये और अवैध तरीके से विदेशी बैंकों में रखे 21 लाख करोड़ रुपये के कुल काले धन से भी कहीं अधिक है। और यह लूट केवल पिछले छह वर्षों में ही हुई है। वर्तमान बजट में इन तीन मदों में दिये हुए बजट आंकड़े 2005-2006 के आंकड़ों की तुलना में 101 फीसदी ज़्यादा हैं। (देखें तालिका)
काले धन के प्रवाह के विपरीत इस लूट को वैधानिकता का आवरण पहनाया गया है। उस प्रवाह के विपरीत यह कुछ निजी लोगों का अपराध नहीं है। यह एक सरकारी नीति है। यह केंद्रीय बजट में है और यह अमीरों तथा कारपोरेट जगत को दिया गया धन तथा संसाधनों का सबसे बड़ा तोहफा है जिस पर मीडिया कुछ नहीं कहता। विडंबना यह कि बजट खुद यह स्वीकार करता है कि यह प्रवृत्ति कितनी प्रतिगामी है। पिछले साल के बजट में कहा गया था कि – ”सरकारी खजाने को होने वाले आय का नुकसान हर साल बढ़ता चला जा रहा है। कुल कर संग्रहण के प्रतिशत के रूप में माफ की गयी धनराशि का अनुपात काफी ऊंचा है और जहां तक 2008-09 के कारपोरेट आयकर का सवाल है, वह लगातार बढ़ती हुई इस प्रवृति को ही दर्शा रहा है। परोक्ष करों के मामले में सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क में कमी के कारण 2009-2010 के वित्तीय वर्ष के दौरान एक वृद्धिमान प्रवृति दिखाई देती है। अत: इस प्रवृति को पलटने के लिए कर के आधार में बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है’’।
एक साल और पीछे जायें। 2008-2009 का बजट भी बिल्कुल यही चीज कहता है, बस उसकी अंतिम पंक्तियां अलग हैं जहां वह कहता है कि ”अत: इस प्रवृति को पलटना जरूरी है जिससे की उच्च कर लोच (अनु.: कर के आधार में विस्तार से कर की मात्रा में वृद्धि की दर) बनी रहे।’’ वर्तमान बजट में यह पैरा गायब है।
यह वही सरकार है जिसके पास सार्वजनीन लोक वितरण प्रणाली, या फिर वर्तमान प्रणाली के सीमित विस्तार के लिए भी पैसा नहीं है, जो दुनिया की सबसे बड़ी भूखी आबादी के लिए पहले से ही बेहद निम्न स्तर की सब्सिडियों में उस दौर में कटौती करती है जब उसका अपना आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि 2005-09 के पांच सालों के दौर में प्रति व्यक्ति प्रति दिन की अनाज की उपलब्धता दरअसल आधी सदी पहले 1955-59 के दौर की उपलब्धता से भी कम रही!
कारपोरेट आयकर, उत्पाद शुल्क और सीमाकर में माफी के चलते हुआ सरकारी खजाने को नुकसान
(सभी राशियां करोड़ रुपयों में)
2005-06 2006-07 2007-08 2008-09 2009-10 2010-11 2005-06 से 2010-11 प्रतिवर्ष वृद्धि दर
के बीच कुल नुकसान 2005-06 से
2010-11 के बीच
कारपोरेट आयकर 34,618 50,075 62,199 66,901 72,881 88,263 37,4937 155.0
उत्पाद शुल्क 66,760 99,690 87,468 12,8293 16,9121 19,8291 74,9623 197.0
सीमा शुल्क 12,77,30 12,3682 15,3593 22,5752 19,5288 17,4418 10,00463 36.6
कुल 22,9108 27,3447 30,3262 42,0946 43,7290 46,0972 21,25023 101.2
स्रोत: केंद्रीय बजटों के सरकारी खजाने को हुए नुकसान के आंकड़ों की तालिकाएं।
अनु.: अशोक कुमार पाण्डेय साभार: द हिंदू
www.samayantar.com
यह आलेख कानूनी जामे के भीतर जारी सरकारी धन की लूट के एक भयावह किस्से का खुलासा करता है। जिस दौर में भ्रष्टाचार और काले धन की चर्चा जोरों पर है इस लूट पर मीडिया और राजनैतिक वर्ग की चुप्पी इस नवसाम्राज्यवादी समय में सत्ता वर्ग और पूंजीपतियों की नाभिनालबद्धता की ओर साफ इशारा करती है ।
भारत सरकार ने कारपोरेट जगत के आयकर का 2005-2006 से 2010-2011 के बीच के बजटों में 3,74,937 करोड़ रुपया माफ कर दिया। यह रक़म 2 जी घोटाले के दुगने से भी ज्यादा है। यह राशि हर साल लगातार बढ़ती गयी है, जिसके आंकड़े उपलब्ध हैं। 2005-2006 में 34,618 करोड़ रुपये का आयकर माफ कर दिया गया था, हालिया बजट में यह आंकड़ा है : 88,263 करोड़, यानि कि 155 फीसदी की बढ़त! इसका मतलब यह हुआ कि देश औसतन रोज कारपोरेट जगत का 240 करोड़ रुपये का आयकर माफ कर रहा है। विडंबना यह कि वाशिंगटन स्थित ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी (वैश्विक वित्तीय ईमानदारी) की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग इतनी ही राशि औसतन रोज काले धन के रूप में देश से बाहर भी जा रही है।
88,263 करोड़ रुपये की यह धनराशि भी केवल कारपोरेट आयकर में दी गयी माफी को इंगित करती है। इस आंकड़े में जनता के एक बड़े हिस्से को ऊंची छूट की सीमाओं के कारण हो रहे नुकसान की राशि शामिल नहीं है। इसमें वरिष्ठ नागरिकों या महिलाओं (जैसा कि पिछले बजटों में प्रावधान था) के लिए कर की ऊंची छूट सीमा के चलते होने वाले नुकसान भी शामिल नहीं हैं। यह केवल कारपोरेट जगत के बड़े खिलाडिय़ों को दी जा रही आयकर राहत है।
प्रणव मुखर्जी ने पिछले बजट में जहां कारपोरेट जगत के लिए यह विशाल धनराशि माफ कर दी वहीं कृषि के बजट से हजारों करोड़ रुपये काट लिए। जैसा कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सांइसेज के आर रामकुमार बताते हैं, इस क्षेत्र में कुल वास्तविक खर्च 5,568 करोड़ रुपये कम कर दिया गया। कृषि क्षेत्र के भीतर सबसे ज्यादा कमी कृषि क्षेत्र (फार्म हस्बेंडरी) में की गयी जिसके बजट में 4,477 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गयी, जिसका मतलब अन्य चीजों के अलावा विस्तार सेवाओं की लगभग मृत्यु है। दरअसल आर्थिक सेवाओं के भीतर सबसे ज्यादा कटौती कृषि और इससे जुड़ी सेवाओं में की गयी है।
कपिल सिब्बल भी सरकार की आय में होने वाले इस नुकसान को केवल कल्पित नहीं कह पाते। इसकी वजह बिल्कुल साफ है कि हर बजट में ये आंकड़े ‘आय में नुकसान का विवरण’ नामक तालिका में अलग से बिल्कुल स्पष्ट रूप में सूचीबद्ध किये जाते हैं। अगर हम इस कारपोरेट कर्जा माफी, सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्कों में दी गयी राहत (इसका सबसे ज़्यादा लाभ भी समाज के धनी तबके और कारपोरेट जगत को ही मिलता है) से होने वाली आय में नुकसान को जोड़ दिया जाय तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते हैं। उदाहरण के लिए यदि यह देखा जाय कि सीमा शुल्क पर सबसे ज़्यादा छूट किन चीजों पर दी जा रही है तो वे हैं ‘सोना और हीरा’। अब ये आम आदमी या आम औरत की चीजें तो नहीं हैं। लेकिन हालिया बजट में इन चीजों पर दी गयी छूट के कारण सरकारी आय को हुआ नुकसान सबसे ज़्यादा है। यह राशि है 48,798 करोड़ रुपये! यह राशि सार्वजनीन लोक वितरण प्रणाली के लिए आवश्यक धनराशि की आधी है। इसके पहले के तीन सालों में सोने, हीरे और दूसरे आभूषणों पर सीमा शुल्क में दी गयी छूट से सरकारी खज़ाने को हुआ कुल नुकसान था – 95, 675 करोड़!
जाहिर तौर पर भारत में निजी पूंजीपतियों के फायदे के लिए सरकारी खजाने की हर लूट गरीबों की भलाई के लिए ही होती है। आपको तर्क दिया जायेगा कि सोने और हीरे में यह बंपर छूट भूमंडलीय आर्थिक संकट के दौर में गरीब कामगारों की नौकरी बचाने के लिए दी गयी थी। क्या सरोकार! लेकिन बस इतना कि इसने कहीं भी एक भी नौकरी नहीं बचाई। गुजरात में इस उद्योग में लगे तमाम कामगार इसके डूबने पर बेरोजगार होकर सूरत से अपने घर गंजम लौट आये। बचे हुओं में से कुछ ने निराशा में अपनी जान दे दी। वैसे भी उद्योग जगत पर यह अनुग्रह 2008 के संकट के पहले से ही जारी है। महाराष्ट्र के उद्योगों ने केंद्र के इस ‘कारपोरेट समाजवाद’ से ख़ूब कमाई की है। इसके बावज़ूद 2008 के संकट के पहले के तीन वर्षों में उस राज्य में कामगारों ने प्रतिदिन औसतन 1,800 के करीब नौकरियां गवाईं हैं।
आइये बज़ट की ओर लौटें – इसमें एक और मद है ‘मशीनरी’ जिसमें सीमा शुल्क की भारी छूट दी गयी है। निश्चित रूप से इसमें बड़े कारपोरेट अस्पतालों द्वारा आयात किये जाने वाले अति आधुनिक चिकित्सा उपकरण भी शामिल हैं जिन पर लगभग कोई ड्यूटी नहीं लगती। अरबों के इस उद्योग में अन्य छूटों के अलावा यह लाभ हासिल करने के पीछे दावा तीस प्रतिशत शैय्याओं को गरीब लोगों के लिए मुफ्त उपलब्ध कराने का है – सब जानते हैं कि वास्तव में ऐसा होता कभी नहीं। इस तरह की छूट के चलते सरकारी खजाने को लगने वाले चूने की कुल राशि है -1,74,418 करोड़! और इसमें निर्यात ऋण के रूप में दिये जाने वाली राहतें शामिल नहीं हैं।
उत्पाद शुल्क में छूट दिये जाने के पीछे यह दावा किया जाता है कि इस तरह गंवाई हुई राशि के चलते उपभोक्ताओं को उत्पाद कम कीमत में उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन इस बात का कोई सबूत उपलब्ध नहीं कराया जाता कि ऐसा वास्तव में होता भी है। न तो बजट में, न ही कहीं और। ( यह तर्क आजकल तमिलनाडु में सुनाई दे रहे इस दावे की ही तरह है कि 2 जी घोटाले में कोई लूट नहीं हुई, जो पैसा गबन हुआ उससे उपभोक्ताओं को सस्ती काल दरें उपलब्ध कराई गयीं।) लेकिन जो स्पष्ट है वह यह कि उत्पाद शुल्कों की माफी का सीधा फायदा उद्योग और व्यापार जगत को मिला है। उपभोक्ताओं तक इसका लाभ स्थानांतरित करने का कोई भी दावा बस एक हवाई अनुमान जैसा ही है, जिसे कभी सिद्ध नहीं किया गया। उत्पाद शुल्कों की माफी के कारण बजट में सरकार को हुए नुकसान की राशि है – 1,98,291 करोड़ (पिछले साल यह राशि थी 1,69,121 करोड़ रुपये)। साफ तौर पर 2 जी घोटाले के नुकसानों के उच्चतम अनुमानों से भी अधिक।
यह भी रोचक है कि इन तीनों तरह के अनुग्रहों से एक ही वर्ग विभिन्न तरीकों से लाभान्वित होता है। लेकिन आयकर, उत्पाद कर तथा सीमा शुल्क की माफी के चलते कुल मिलाकर कितनी धनराशि का नुकसान सरकार को हुआ है? हमने स्पष्ट रूप से कहा है कि 2005-06 से शुरु करें तो उस समय यह धनराशि थी – 2,29,108 करोड़ रुपये। इस बजट में यह राशि दुगने से अधिक होकर 4,60,972 करोड़ रुपये हो गयी है। अब अगर 2005-06 से पिछले छह सालों की इन सारी धनराशियों को जोड़ लें तो कुल रकम होती है – 21,25,023 करोड़ रुपये, यानी लगभग आधा ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर। यह केवल 2 जी घोटाले में गबन की गयी रकम का 12 गुना ही नहीं है। यह ग्लोबल फाइनेंसियल इंटेग्रिटी द्वारा 1948 से अब तक देश से बाहर गये और अवैध तरीके से विदेशी बैंकों में रखे 21 लाख करोड़ रुपये के कुल काले धन से भी कहीं अधिक है। और यह लूट केवल पिछले छह वर्षों में ही हुई है। वर्तमान बजट में इन तीन मदों में दिये हुए बजट आंकड़े 2005-2006 के आंकड़ों की तुलना में 101 फीसदी ज़्यादा हैं। (देखें तालिका)
काले धन के प्रवाह के विपरीत इस लूट को वैधानिकता का आवरण पहनाया गया है। उस प्रवाह के विपरीत यह कुछ निजी लोगों का अपराध नहीं है। यह एक सरकारी नीति है। यह केंद्रीय बजट में है और यह अमीरों तथा कारपोरेट जगत को दिया गया धन तथा संसाधनों का सबसे बड़ा तोहफा है जिस पर मीडिया कुछ नहीं कहता। विडंबना यह कि बजट खुद यह स्वीकार करता है कि यह प्रवृत्ति कितनी प्रतिगामी है। पिछले साल के बजट में कहा गया था कि – ”सरकारी खजाने को होने वाले आय का नुकसान हर साल बढ़ता चला जा रहा है। कुल कर संग्रहण के प्रतिशत के रूप में माफ की गयी धनराशि का अनुपात काफी ऊंचा है और जहां तक 2008-09 के कारपोरेट आयकर का सवाल है, वह लगातार बढ़ती हुई इस प्रवृति को ही दर्शा रहा है। परोक्ष करों के मामले में सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क में कमी के कारण 2009-2010 के वित्तीय वर्ष के दौरान एक वृद्धिमान प्रवृति दिखाई देती है। अत: इस प्रवृति को पलटने के लिए कर के आधार में बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है’’।
एक साल और पीछे जायें। 2008-2009 का बजट भी बिल्कुल यही चीज कहता है, बस उसकी अंतिम पंक्तियां अलग हैं जहां वह कहता है कि ”अत: इस प्रवृति को पलटना जरूरी है जिससे की उच्च कर लोच (अनु.: कर के आधार में विस्तार से कर की मात्रा में वृद्धि की दर) बनी रहे।’’ वर्तमान बजट में यह पैरा गायब है।
यह वही सरकार है जिसके पास सार्वजनीन लोक वितरण प्रणाली, या फिर वर्तमान प्रणाली के सीमित विस्तार के लिए भी पैसा नहीं है, जो दुनिया की सबसे बड़ी भूखी आबादी के लिए पहले से ही बेहद निम्न स्तर की सब्सिडियों में उस दौर में कटौती करती है जब उसका अपना आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि 2005-09 के पांच सालों के दौर में प्रति व्यक्ति प्रति दिन की अनाज की उपलब्धता दरअसल आधी सदी पहले 1955-59 के दौर की उपलब्धता से भी कम रही!
कारपोरेट आयकर, उत्पाद शुल्क और सीमाकर में माफी के चलते हुआ सरकारी खजाने को नुकसान
(सभी राशियां करोड़ रुपयों में)
2005-06 2006-07 2007-08 2008-09 2009-10 2010-11 2005-06 से 2010-11 प्रतिवर्ष वृद्धि दर
के बीच कुल नुकसान 2005-06 से
2010-11 के बीच
कारपोरेट आयकर 34,618 50,075 62,199 66,901 72,881 88,263 37,4937 155.0
उत्पाद शुल्क 66,760 99,690 87,468 12,8293 16,9121 19,8291 74,9623 197.0
सीमा शुल्क 12,77,30 12,3682 15,3593 22,5752 19,5288 17,4418 10,00463 36.6
कुल 22,9108 27,3447 30,3262 42,0946 43,7290 46,0972 21,25023 101.2
स्रोत: केंद्रीय बजटों के सरकारी खजाने को हुए नुकसान के आंकड़ों की तालिकाएं।
अनु.: अशोक कुमार पाण्डेय साभार: द हिंदू
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