पश्चिम बंगाल के चुनाव मे माकपा के जो थोड़े उम्मीदवार जीते है उनके जीत का अंतर बहुत कम है. टीएमसी-कांग्रेस के उम्मीदवारो का अंतर आमतौर पर बहुत ज़्यादा है. वाम मोर्चा का जनाधार भयानक तरीके से गिरा है. 34 सालो के दौरान बहुत काम किया वाम मोर्चे ने, लेकिन जनता से इतनी दूरी अचानक कैसे बढ़ गई? प्रारंभिक नतीजा तो यही निकलता है कि अन्य राज्यो की सरकारो की तरह वाम मोर्चे की सरकार ने सरकार ने शासन करना सीख लिया था. लोगो को अभिन्न तरह से जोड़े रखने की कला ज्योति बसु के साथ ही शायद ख़त्म हो गई.
पिछले विधान सभा चुनाव मे बुद्धदेव बाबू ने औद्योगीकरण व रोज़गार को मुद्दा बनाया और लोगो ने हाथो हाथ लिया, भारी बहुमत भी मिला था. इस बार पुरानी बातो का ढोल पीटने के अलावा असफलताओ की लंबी फेहरिस्त थी. ममता बेनरजी ने रेल मंत्रालय को चौपट कर दिया है, कुछ भी कहती है. कोई स्पष्ट कार्यक्रम नही था उसके पास. 34 सालो मे बार बार असफल होती रही. अबकी बार उसने वाम को धूल चटा दिया. तीन दशक से भी लंबे अरसे मे जनता वाम से नही उबी. अब क्या हो गया? फिर वही बात कि वाम जनता की है, शासक वर्ग की दमनकारी शक्ति नही बन सकती. चूक मामूली नही, गंभीर हुई है.
संसदीय राजनीति ही करनी है तो कोई बात नही. अगले चुनाव मे जीत जाएँगे. लेकिन जनता की लामबंदी करनी है, भ्रष्ट व्यवस्था का समाजवादी विकल्प देना है तो ये नही चलेगा. पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार और पार्टी की ओर से लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार कहा जा रहा था कि सुधार कर रहे है, ग़लतियां करते है तो उसे ठीक करना सिर्फ़ हमे ही आता है. आज भी माकपा के शीर्ष नेता यही कह रहे है, लेकिन कथनी और करनी के अंतर को पाटना आसान काम नही दीखता. देश के दूसरे हिस्से मे ख़ासतौर पर हिन्दी भाषी इलाक़ो मे लेफ्ट न के बराबर है. अब गढ़ भी गये. केरल मे तो नियती तय है, पूरी गणितबाजी है. एक बार एलडीफ तो दूसरी बार यूडीफ. भारी भरकम जमावड़े के बगैर कोई भी जंगे चुनाव मे नही उतर सकता. फिर वाम आंदोलन कहां है?
पिछले विधान सभा चुनाव मे बुद्धदेव बाबू ने औद्योगीकरण व रोज़गार को मुद्दा बनाया और लोगो ने हाथो हाथ लिया, भारी बहुमत भी मिला था. इस बार पुरानी बातो का ढोल पीटने के अलावा असफलताओ की लंबी फेहरिस्त थी. ममता बेनरजी ने रेल मंत्रालय को चौपट कर दिया है, कुछ भी कहती है. कोई स्पष्ट कार्यक्रम नही था उसके पास. 34 सालो मे बार बार असफल होती रही. अबकी बार उसने वाम को धूल चटा दिया. तीन दशक से भी लंबे अरसे मे जनता वाम से नही उबी. अब क्या हो गया? फिर वही बात कि वाम जनता की है, शासक वर्ग की दमनकारी शक्ति नही बन सकती. चूक मामूली नही, गंभीर हुई है.
संसदीय राजनीति ही करनी है तो कोई बात नही. अगले चुनाव मे जीत जाएँगे. लेकिन जनता की लामबंदी करनी है, भ्रष्ट व्यवस्था का समाजवादी विकल्प देना है तो ये नही चलेगा. पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार और पार्टी की ओर से लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार कहा जा रहा था कि सुधार कर रहे है, ग़लतियां करते है तो उसे ठीक करना सिर्फ़ हमे ही आता है. आज भी माकपा के शीर्ष नेता यही कह रहे है, लेकिन कथनी और करनी के अंतर को पाटना आसान काम नही दीखता. देश के दूसरे हिस्से मे ख़ासतौर पर हिन्दी भाषी इलाक़ो मे लेफ्ट न के बराबर है. अब गढ़ भी गये. केरल मे तो नियती तय है, पूरी गणितबाजी है. एक बार एलडीफ तो दूसरी बार यूडीफ. भारी भरकम जमावड़े के बगैर कोई भी जंगे चुनाव मे नही उतर सकता. फिर वाम आंदोलन कहां है?
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