योगेंद्र यादव
वोटर कोई खिलौना नहीं है, इस देश का राजा है। उसे नकदी या उपहारों से खरीदा-बेचा नहीं जा सकता, झूठे वायदों से बहलाया नहीं जा सकता, डरा-धमकाकर बंधक नहीं बनाया जा सकता, आसानी से बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। यह एक सूत्र है, जो चार राज्यों के चार अलग-अलग मिजाज वाले जनादेशों को बांधता है।
सरसरी निगाह से देखें, तो चार राज्यों के नतीजों का एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है। पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोरचा भले ही हारा हो, लेकिन हार का चरित्र, उसके कारण और दूरगामी परिणाम में कोई संबंध नहीं है। तमिलनाडु की चुनावी राजनीति अपनी अलग ही लय में चलती रही है। सुदूर असम में क्या होता है, इसकी न तो बाकी देश को जानकारी रहती है, न ही देश की बड़ी घटनाओं से असम का कोई सीधा रिश्ता है। हर राज्य के चुनाव परिणाम को केंद्र की राजनीति से जोड़ना दूर की कौड़ी ही है। पर अलग-अलग राज्य की अपनी-अपनी पदचाप के पीछे कहीं एक लय और ताल गूंजती सुनाई देती है।
इसकी गूंज तमिलनाडु में सबसे बुलंद होकर उभरती है। सत्ताधारी द्रमुक के नेता मान बैठे थे कि गठबंधन की तिकड़म और खरीद-फरोख्त से चुनाव ‘मैनेज’ किया जा सकता है। करुणानिधि का कद, ठीक-ठाक कामकाज और मुफ्त टीवी के दम पर द्रमुक का आत्मविश्वास बुलंदी पर था। जीत सुनिश्चित करने के लिए जाति-विशेष की क्षेत्रीय पार्टियों से साठगांठ हो गई थी। अगर आप द्रमुक नेता के सामने भ्रष्टाचार की बात उठाते, तो वह कहता था कि गांव की जनता और गरीब को इन ऊंची बातों से कोई मतलब नहीं है।
उसी जनता ने द्रमुक को ठेंगा दिखाया। उसकी मजबूरी थी कि उसके पास विकल्प अन्नाद्रमुक ही था। जयललिता का दामन भी साफ नहीं है। लेकिन मतदाता ने रोटी को पलटकर सेंकना ही मुनासिब समझा। असम में काफी समय से सभी पार्टियां जातीय बंदरबांट और भय की राजनीति कर रही थीं। असम गण परिषद् ने अहोमिया समुदाय की असुरक्षा को आवाज दी, तो भाजपा राज्य में बंगाली हिंदू की तरफदारी करने उतरी। बदरुद्दीन अजमल ने बंगाली मुसलमान के अधिकार की ताल ठोंकी। हितेश्वर सैकिया के जमाने से ही कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों के तमाम किस्म के छोटे-बड़े भय की राजनीति करनी शुरू की थी। ऐसे में तरुण गोगोई ने एक नए किस्म की राजनीति का जोखिम उठाया।
जाति और स्वार्थ की राजनीति के बजाय उन्होंने पूरे प्रदेश में राजकाज की बेहतरी और शांति की राजनीति की। केंद्र की मदद से सरकारी योजनाओं में काफी खर्च हुआ और उसका फल आम व्यक्ति तक भी पहुंचा। उल्फा से बातचीत शुरू हुई और हिंसा का दौर खत्म होता नजर आया। बेशक इस दौरान बड़े घोटाले भी हुए और एक स्तर पर तरुण गोगोई ने परोक्ष रूप से असमिया भाषी समुदाय के जख्मों पर मलहम लगाने में खास दिलचस्पी ली। लेकिन कुल मिलाकर असम के वोटर ने इस सकारात्मक राजनीति पर मोहर लगाई।
केरल का परिणाम तकनीकी रूप से भले ही कांग्रेसी गठबंधन की विजय हो, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से इसे वाम मोरचे और खास तौर पर अच्युतानंदन की नैतिक विजय कहा जाएगा। दो साल पहले लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पिटने के बाद हर किसी ने वाम मोरचे की हार तय मान लिया था। केरल का कांग्रेस नेतृत्व इस मुगालते में था कि जो भी हो, जीत तो उसकी झोली में ही आएगी। इस पृष्ठभूमि में मुख्यमंत्री अच्युतानंदन ने भ्रष्टाचार के सवाल पर संवेदनहीन हो चुके यूडीएफ नेतृत्व का कच्चा चिट्ठा खोलकर कांग्रेस को हार के कगार पर ला खड़ा किया। अगर उनकी अपनी पार्टी उनके साथ शुरू से खड़ी होती, तो केरल का चुनावी इतिहास चक्र टूट सकता था।
बंगाल में गरीब की लाठी बनकर शुरुआत करने वाला वाम मोरचा उनका माई-बाप बन बैठा था। बेशक वाम मोरचे के राज ने बटाईदार को सुरक्षा और मजदूर को इज्जत दी, लेकिन धीरे-धीरे पार्टी सर्वज्ञानी, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हो गई। बंगाल के मतदाता ने राजसत्ता के इस अहंकार के खिलाफ बटन दबाया। इसलिए नहीं कि उसे ममता बनर्जी से किसी चमत्कार की उम्मीद है, इसलिए भी नहीं कि उसे बुद्धदेव भट्टाचार्य के राज से शिकायत है। सिर्फ इसलिए भी नहीं कि उसे सिंगूर, नंदीग्राम और निताई की घटनाओं पर गुस्सा है। बंगाल का मतदाता एक बार उस अधिकार का प्रयोग करना चाहता था, जो देश के बाकी राज्यों के नागरिक हर पांच साल में करते हैं।
अपने भाग्य से खिलवाड़ कर रहे शासनतंत्र को ध्वस्त कर वह खुद अपना भाग्य विधाता बनना चाहता है। ममता बनर्जी इस आस्था का एक निमित्त मात्र हैं। यह संभव है कि वोटर की यह आस मृगतृष्णा ही साबित हो। लेकिन माई-बाप के साये तले जीने के बजाय अपनी गलतियों से खुद सीखने की इसी जीत को ही शायद लोकतंत्र कहते हैं। जब वाम मोरचा बंगाल की सत्ता पर काबिज हुआ था, तब एक फिल्मी गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था, ये जो पब्लिक है, वह सब जानती है। चार राज्यों के मतदाताओं ने मानो इस भूले-बिसरे गीत के रिकॉर्ड को झाड़-पोंछकर इस देश के सत्ताधीशों को सुना दिया है।
(अमर उजाला से)
वोटर कोई खिलौना नहीं है, इस देश का राजा है। उसे नकदी या उपहारों से खरीदा-बेचा नहीं जा सकता, झूठे वायदों से बहलाया नहीं जा सकता, डरा-धमकाकर बंधक नहीं बनाया जा सकता, आसानी से बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। यह एक सूत्र है, जो चार राज्यों के चार अलग-अलग मिजाज वाले जनादेशों को बांधता है।
सरसरी निगाह से देखें, तो चार राज्यों के नतीजों का एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है। पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोरचा भले ही हारा हो, लेकिन हार का चरित्र, उसके कारण और दूरगामी परिणाम में कोई संबंध नहीं है। तमिलनाडु की चुनावी राजनीति अपनी अलग ही लय में चलती रही है। सुदूर असम में क्या होता है, इसकी न तो बाकी देश को जानकारी रहती है, न ही देश की बड़ी घटनाओं से असम का कोई सीधा रिश्ता है। हर राज्य के चुनाव परिणाम को केंद्र की राजनीति से जोड़ना दूर की कौड़ी ही है। पर अलग-अलग राज्य की अपनी-अपनी पदचाप के पीछे कहीं एक लय और ताल गूंजती सुनाई देती है।
इसकी गूंज तमिलनाडु में सबसे बुलंद होकर उभरती है। सत्ताधारी द्रमुक के नेता मान बैठे थे कि गठबंधन की तिकड़म और खरीद-फरोख्त से चुनाव ‘मैनेज’ किया जा सकता है। करुणानिधि का कद, ठीक-ठाक कामकाज और मुफ्त टीवी के दम पर द्रमुक का आत्मविश्वास बुलंदी पर था। जीत सुनिश्चित करने के लिए जाति-विशेष की क्षेत्रीय पार्टियों से साठगांठ हो गई थी। अगर आप द्रमुक नेता के सामने भ्रष्टाचार की बात उठाते, तो वह कहता था कि गांव की जनता और गरीब को इन ऊंची बातों से कोई मतलब नहीं है।
उसी जनता ने द्रमुक को ठेंगा दिखाया। उसकी मजबूरी थी कि उसके पास विकल्प अन्नाद्रमुक ही था। जयललिता का दामन भी साफ नहीं है। लेकिन मतदाता ने रोटी को पलटकर सेंकना ही मुनासिब समझा। असम में काफी समय से सभी पार्टियां जातीय बंदरबांट और भय की राजनीति कर रही थीं। असम गण परिषद् ने अहोमिया समुदाय की असुरक्षा को आवाज दी, तो भाजपा राज्य में बंगाली हिंदू की तरफदारी करने उतरी। बदरुद्दीन अजमल ने बंगाली मुसलमान के अधिकार की ताल ठोंकी। हितेश्वर सैकिया के जमाने से ही कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों के तमाम किस्म के छोटे-बड़े भय की राजनीति करनी शुरू की थी। ऐसे में तरुण गोगोई ने एक नए किस्म की राजनीति का जोखिम उठाया।
जाति और स्वार्थ की राजनीति के बजाय उन्होंने पूरे प्रदेश में राजकाज की बेहतरी और शांति की राजनीति की। केंद्र की मदद से सरकारी योजनाओं में काफी खर्च हुआ और उसका फल आम व्यक्ति तक भी पहुंचा। उल्फा से बातचीत शुरू हुई और हिंसा का दौर खत्म होता नजर आया। बेशक इस दौरान बड़े घोटाले भी हुए और एक स्तर पर तरुण गोगोई ने परोक्ष रूप से असमिया भाषी समुदाय के जख्मों पर मलहम लगाने में खास दिलचस्पी ली। लेकिन कुल मिलाकर असम के वोटर ने इस सकारात्मक राजनीति पर मोहर लगाई।
केरल का परिणाम तकनीकी रूप से भले ही कांग्रेसी गठबंधन की विजय हो, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से इसे वाम मोरचे और खास तौर पर अच्युतानंदन की नैतिक विजय कहा जाएगा। दो साल पहले लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पिटने के बाद हर किसी ने वाम मोरचे की हार तय मान लिया था। केरल का कांग्रेस नेतृत्व इस मुगालते में था कि जो भी हो, जीत तो उसकी झोली में ही आएगी। इस पृष्ठभूमि में मुख्यमंत्री अच्युतानंदन ने भ्रष्टाचार के सवाल पर संवेदनहीन हो चुके यूडीएफ नेतृत्व का कच्चा चिट्ठा खोलकर कांग्रेस को हार के कगार पर ला खड़ा किया। अगर उनकी अपनी पार्टी उनके साथ शुरू से खड़ी होती, तो केरल का चुनावी इतिहास चक्र टूट सकता था।
बंगाल में गरीब की लाठी बनकर शुरुआत करने वाला वाम मोरचा उनका माई-बाप बन बैठा था। बेशक वाम मोरचे के राज ने बटाईदार को सुरक्षा और मजदूर को इज्जत दी, लेकिन धीरे-धीरे पार्टी सर्वज्ञानी, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हो गई। बंगाल के मतदाता ने राजसत्ता के इस अहंकार के खिलाफ बटन दबाया। इसलिए नहीं कि उसे ममता बनर्जी से किसी चमत्कार की उम्मीद है, इसलिए भी नहीं कि उसे बुद्धदेव भट्टाचार्य के राज से शिकायत है। सिर्फ इसलिए भी नहीं कि उसे सिंगूर, नंदीग्राम और निताई की घटनाओं पर गुस्सा है। बंगाल का मतदाता एक बार उस अधिकार का प्रयोग करना चाहता था, जो देश के बाकी राज्यों के नागरिक हर पांच साल में करते हैं।
अपने भाग्य से खिलवाड़ कर रहे शासनतंत्र को ध्वस्त कर वह खुद अपना भाग्य विधाता बनना चाहता है। ममता बनर्जी इस आस्था का एक निमित्त मात्र हैं। यह संभव है कि वोटर की यह आस मृगतृष्णा ही साबित हो। लेकिन माई-बाप के साये तले जीने के बजाय अपनी गलतियों से खुद सीखने की इसी जीत को ही शायद लोकतंत्र कहते हैं। जब वाम मोरचा बंगाल की सत्ता पर काबिज हुआ था, तब एक फिल्मी गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था, ये जो पब्लिक है, वह सब जानती है। चार राज्यों के मतदाताओं ने मानो इस भूले-बिसरे गीत के रिकॉर्ड को झाड़-पोंछकर इस देश के सत्ताधीशों को सुना दिया है।
(अमर उजाला से)
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